बून्दें
गहरे सागर को
छोड़,
भाग आई हैं
कुछ बून्दें यहाँ…
जो
सरोकार रखतीं है
अपने एक-एक क्षण से
क्षणभंगुरता से नहीं…
सुनो मधुमालती !
सुनो मधुमालती !
मैं
चाहती हूँ कि
सहजता बनी रहे,
जो दे पाए सिर्फ़
मुझे साहस
बदलने का
बिल्कुल वैसे
जैसे तुम
रात में महकी हुई
गुलाबी,
सुबह हो जाती हो
फिर सफ़ेद…
स्मृतियों से ओझल
मैंने
पारिजात को
खिलते देखा है
इतना सुन्दर
इतना सुन्दर
इतना सुन्दर खिलते देखा है !
कि
अब
ओझल हो चुका है
स्मृतियों से ही…।
ऊहापोह
रेत ने सोचा,
कि समय
उससे पहले
फिसल जाएगा ।
और समय था
कि रेत के फिसलने का
इन्तज़ार कर रहा था ।
और
इसी ऊहापोह में
ये शाम भी
बीत गई ।
श्रम और सौन्दर्य के नए बिम्ब
मुझे
तलाश थी
श्रम के बिम्बों के
तभी
तुम आ गईं,
धूप से
हल्की साँवली पड़ी
अपनी कलाई से
तुमने उतारी घड़ी।
बिम्बों की तलाश
न जाने कहाँ
विस्मृत हो गई !
नज़र अटकी रह गई
उस गोरेपन पर
जो जमा हुआ था
तुम्हारी कलाई के
उस भाग पर
जिस पर से
रोज़
तुम
यूँ ही
उतारा करती हो घड़ी,
और आगे भी
उतारा करोगी यूँ ही ।
सुनो !
उतारा करोगी न !
रोज़ ?
टेढ़ी मेढ़ी चाल
मुझे
सीधा चलने से
परहेज़ नहीं है
मगर
ऐसे टेढ़े मेढ़े
चलने से
टेढ़ा मेढ़ा चलने लगता है
चान्द भी ।
युगों युगों से
सीधी चली आ रही
सड़क में भी
आ जाता है
हल्का-सा टेढ़ापन
और इसी टेढ़ेपन में
ज़िन्दा रह जाते हैं
कुछ मुहावरे
बिखराव के ।
तात्कालिकता
तात्कालिकता
मुझे
जीना सिखाती है
साथ ही
सिखाती है मुझे
कि
कालजयी होना
कितना खतरनाक है… ।