अँधेरे में तजस्सुस का तक़ाज़ा छोड़ जाना है
अँधेरे में तजस्सुस का तक़ाज़ा छोड़ जाना है
किसी दिन ख़ामुशी में ख़ुद का तन्हा छोड़ जाना है
समंदर है मगर वो चाहता है डूबना मुझ में
मुझे भी उस की ख़ातिर ये किनारा छोड़ जाना है
बहुत ख़ुश हूँ मैं साहिल पर चमकती सीपियाँ चुन कर
मगर मुझ को तो इक दिन ये ख़ज़ाना छोड़ जाना है
तुलू-ए-सुब्ह की आहट से लश्कर जाग जाएगा
चला जाए अभी वो जिस को ख़ेमा छोड़ जाना है
न जाने कब कोई आ कर मेरी तकमील कर जाए
इसी उम्मीद पे ख़ुद को अधूरा छोड़ जाना है
कहाँ तक ख़ाक का पैकर लिए फिरता रहूँगा मैं
उसे बारिश के मौसम में निहत्ता छोड़ जाना हैं
हम तह-ए-दरिया तिलिस्मी बस्तियाँ गिनते रहे
हम तह-ए-दरिया तिलिस्मी बस्तियाँ गिनते रहे
अरू साहिल पर मछेरे मछलियाँ गिनते रहे
ना-तवाँ शानों पे ऐसी ख़ामुशी का बोझ था
अपने उस के दरमियाँ भी सीढ़ियाँ गिनते रहे
बज़्म-ए-जाँ चुपके चुपके ख़्वाब सब रूख़्सत हुए
हम भला करते भी क्या बस गिनतियाँ गिनते रहे
बाँस के जंगल से हो के जब कभी गुज़री हवा
इक सदा-ए-गुम-शुदा की धज्जियाँ गिनते रहे
किस हवा ने डस लिया है रंग ओ रोग़न उड़ गए
सहन-ए-दिल से इस मकाँ की खिड़कियाँ गिनते रहे
पहलू-ए-शब कल इसी चेहरे से रौशन था मगर
जाने कितने मौसमों की तल्ख़ियाँ गिनते रहे
इंकिशाफ़-ए-ज़ात के आगे धुआँ है और बस
इंकिशाफ़-ए-ज़ात के आगे धुआँ है और बस
एक तू है एक मैं हूँ आसमाँ है और बस
आईना-ख़ानों में रक़्िसंदा रूमूज़-ए-आगही
ओस में भीगा हुआ मेरा गुमाँ है और बस
कैनवस पर है ये किस का पैकर-ए-हर्फ़-ओ-सदा
इक नुमूद-ए-आरज़ू जो बे-निशाँ है और बस
हैरतों की सब से पहले सफ़ में ख़ुद मैं भी तो हूँ
जाने क्यूँ हर एक मंज़र बे-ज़ुबाँ है और बस
अजनबी लम्स-ए-बदन की रेंगती हैं चूँटियाँ
कुछ नहीं है साअत-ए-मौज-ए-रवाँ है और बस
इस सफ़र में नीम-जाँ मैं भी नहीं तू भी नहीं
इस सफ़र में नीम-जाँ मैं भी नहीं तू भी नहीं
अरू ज़ेर-ए-साएबाँ मैं भी नहीं तू भी नहीं
ज़हर में डूबी हुई परछाइयों का रक़्स है
ख़ुद से वाबस्ता यहाँ मैं भी नहीं तू भी नहीं
ना-तमामी के शरर में रोज़ ओ शब जलते रहे
सच तो ये है बे-ज़बाँ मैं भी नहीं तू भी नहीं
जर्फ़ लफ़्ज़ों के धुंदलके शाम की आँखों में हैं
गरचे ज़ेब-ए-दास्ताँ मैं भी नहीं तू भी नहीं
ना-तवाँ जिस्मों पे क्यूँ है गर्दिशों का मोर-नाच
शब-गज़ीदा आसमाँ मैं भी नहीं तू भी नहीं
बे-असर हो जाए जिस से दिल का ज़ख़्म-ए-आतिशें
महरम-ए-वहम-ओ-गुमाँ मैं भी नहीं तू भी नहीं
शब की गहरी ख़ामुशी भी गोश-बर-आवाज़ है
आहटों का कारवाँ मैं भी नहीं तू भी नहीं
एहतियातों की गुज़र-गाहें तो पीछे रह गई।
अब सदा-ए-मेहर-बाँ मैं भी नहीं तू भी नहीं
यहाँ तो हर घड़ी कोह-ए-निदा की ज़िद में रहते हैं
यहाँ तो हर घड़ी कोह-ए-निदा की ज़िद में रहते हैं
तजावुज़ के भी मौसम में हम अपनी हद में रहते हैं
बहुम मुहतात हो कर साँस लेना मोतबर हो तुम
हमारा क्या है हम तो ख़ुद ही अपनी रद में रहते हैं
सराब ओ आब की ये कशमकश भी ख़त्म ही समझो
चलो मौज-ए-सदा बर कर किसी गुम्बद में रहते हैं
सरों के बोझ को शानों पे रखना मोजज़ा भी है
हर इक पल वरना हम भी हल्क़ा-ए-सरमद में रहते हैं
तेरे बदन की धूप से महरूम कब हुआ
तेरे बदन की धूप से महरूम कब हुआ
लेकिन ये इस्तिआरा भी मंजूम कब हुआ
वाक़िफ़ कहाँ थे रात की सरगोशियों से हम
बिस्तर की सिलवटों से भी मालूम कब हुआ
शाख़-बदन से सारे परिंदे तो उड़ गए
सज्दा तेरे ख़याल का मक़्सूम कब हुआ
सुनसान जंगलों में है मौजूदगी की लौ
लेकिन वो एक रास्ता मादूम कब हुआ
निस्बत मुझे कहाँ रही असर-ए-ज़वाल से
मेरा वजूद सल्तनत-ए-रूम से कब हुआ
रफ़्ता रफ़्ता ख़त्म क़िस्सा हो गया होना ही था
रफ़्ता रफ़्ता ख़त्म क़िस्सा हो गया होना ही था
वो भी आख़िर मेरे जैसा हो गया होना ही था
दश्त-ए-इम्काँ में ये मेरा मश्ग़ला भी ख़ूब है
रौज़न-ए-दीवार चेहरा हो गया होना ही था
डूबता सूरज तुम्हारी याद वापस कर गया
शाम आई ज़ख़्म ताज़ा हो गया होना ही था
अहद-ए-ज़ब्त-ए-ग़म पे क़ाइम था दम-ए-रूख़्सत मगर
वो सुकूत-ए-जाँ भी दरिया हो गया होना ही था
अब तू ही ये फ़ासला तय कर सके तो कर भी ले
मैं तो ख़ुद अपना ही जीना हो गया होना ही था
मैं ने भी परछाइयों के शहर की फिर राह ली
और वो भी अपने घर का हो गया होना ही था