कुछ शफ़क़ डूबते सूरज की बचा ली जाए
कुछ शफ़क़ डूबते सूरज की बचा ली जाए
रंग-ए-इम्काँ से कोई शक्ल बना ली जाए
हर्फ़ मोहमल सा कोई हाथ पे उस के रख दो
क़हत कैसा है कि हर साँस सवाली जाए
शहर-ए-मलबूस में क्यूँ इतना बरहना रहिए
कोई छत या कोई दीवार-ए-ख़याली जाए
साथ हो लेता है हर शाम वही सन्नाटा
घर को जाने की नई राह निकाली जाए
फेंक आँखों को किसी झील की गहराई में
बुत कोई सोच के आवार ख़याली जाए
तिश्ना-ए-जख़्म न रहने दे बदन को ‘अहमद’
ऐसी तल्वार सर-ए-शहर उछाली जाए
लम्हा लम्हा रोज़ ओ शब को देर होती जाएगी
लम्हा लम्हा रोज़ ओ शब को देर होती जाएगी
ये सफ़र ऐसा है सब को देर होती जाएगी
सब्ज़ लम्हों को उगाने का हुनर भी सीखना
वर्ना इस रंग-ए-तलब को देर होती जाएगी
इस हवा में आदमी पत्थर का होता जाएगा
और रोने के सबब को देर होती जाएगी
देखना तेरा हवाला कुछ से कुछ हो जाएगा
देखना शेर ओ अदब का देर होती जाएगी
रफ़्ता रफ़्ता जिस्म की परतें उतरती जाएँगी
काग़ज़ी नाम ओ नसब को देर होती जाएगी
आम हो जाएगा काग़ज़ के गुलाबों का चलन
और ख़ुशबू के सबब को देर होती जाएगी
सारा मंज़र ही बदल जाएगा ‘अहमद’ देखना
मौसम-ए-रूख़्सार-ओ-लब को देर होती जाएगी
मैं फ़तह-ए-ज़ात मंज़र तक न पहुँचा
मैं फ़तह-ए-ज़ात मंज़र तक न पहुँचा
मिरा तेशा मिरे सर तक न पहुँचा
उसे मेमार लिक्खा बस्तियों ने
कि जो पहले ही पत्थर तक न पहुँचा
तिजारत दिल की धड़कन गिन रही है
तअल्लुक़ लुत्फ़-ए-मंज़र तक न पहुँचा
शगुफ़्ता गाल तीखे ख़त का मौसम
दोबारा नख़्ल-ए-पैकर तक न पहुँचा
बहुत छोटा सफ़र था ज़िंदगी का
मैं अपने धर के अंदर तक न पहुँचा
ये कैसा प्यास का मौसम है ‘अहमद’
समुंदर दीदा-ए-तर तक न पहुँचा
ज़माना हो गया है ख़्वाब देखे
ज़माना हो गया है ख़्वाब देखे
लहू में दर्द का शब-ताब देखे
मनाज़िर को बहुत मुद्दत हुई है
निगाहों में नया इक बाब देखे
सितारा शाम को जब आँख खोले
अचानक चाँद को पायाब देखे
वो चिंगारी सी दे क़ुर्बत की मुझ को
तो फिर सूरज की आब-ओ-ताब देखे
कई रातें हुईं खिड़की में घर की
तअल्लुक़ का नया महताब देखे
मैं लफ़्ज़ों की नई फ़सलें उगाऊँ
वो सन्नाटों के ताज़ा ख़्वाद देखे
मेरी आँखों में सावन रंग भर दे
मुझे ऐ काश वो सैराब देखे
न वो आवारगी का शौक़ ‘अहमद’
न कोई दश्त को बेताब देखे