सर्दी लगे गाँठने चड्ढी
पढ़-लिखकर हो गई सयानी,
लिखने लगी मगन हो चिट्ठी !
मौसम-टीचर ने वर्षा की,
ऋतुशाला से कर दी छुट्टी !
मीठी किरणों की मुस्कानें,
लेकर सर्दी मचल रही है।
घर-घर मेहमानी जाड़े की,
ठण्ड हिरन-सी उछल रही है ।
गर्मी से जाड़े की चखचख,
झगड़ा बढ़ा, हो गई छुट्टी !
गरम पकौड़े रौब गाँठते,
हँसने लगे चाय के प्याले ।
कम्बल, पैण्ट, रजाई, मफ़लर,
शान दिखाए शाल-दुशाले ।
शोख चपल, अल्हड़ इठला कर,
सर्दी लगी गाँठने चड्ढी !
मौसम के फूल
दिन गरमी के लगते जैसे हों मौसम के फूल
मधु पराग-सी बिखरी मानो उड़ती-उड़ती धूल
कान मरोड़े, फिर यूँ बोले पछुवा हवा बुलाकर —
गरमी को तुम सहना सीखो अपना मन बहलाकर
खिल जाओगे किरण सरीखे सहो सूर्य का शूल
जब तप लेती धरा समूची और सिन्धु भी गहरा
बादल बन उड़ेंलें तो जल भी उड़ा गगन में ठहरा
बरसाता जल जब धरती पर मुस्काता हर कूल
तपन गर वरदान मान लो गरमी लगे मिठाई
मनभावन यह चुहलबाज़ियाँ सूरज करे ढिठाई
सुख-दुख में समान रहता है खिलता कमल बबूल
उड़ गई ठण्ड कबूतर-सी
जाड़ा उड़ता गौरैया-सा, उड़ गई ठण्ड कबूतर-सी
दिन का बढ़ने लगा क्षेत्रफल, सिकुड़ी रात छछून्दर-सी
सूरज की महफ़िल की रौनक, बढ़ने लगी कचहरी में
किरण उछल नृत्य करती है, तपती भरी दुपहरी में
मीठी लगने लगती छाया जैसे पूँछ हो बन्दर की
आसमान से सूरज उतरा, मूँछें थानेदारों-सी
आँखें करे अंगारों जैसी, पोशाक बंजारों-सी
लू लपटों की लगी दुकानें लटकें फूल पलाशों के
मेहमानों-सी आऊ गरमी, दिन हैं खेल-तमाशों के
हवा झकोर हिला-डुलाय, लहर उठे समन्दर-सी
एक नहीं सौ कला दिखाती, मनभावन अति सुन्दर-सी