इक ऐसा वक्त भी सहरा में आने वाला है
इक ऐसा वक्त भी सहरा में आने वाला है
कि रास्ता यहाँ दरिया बनाने वाला है
वो तीरगी है कि छटती नहीं किसी सूरत
चराग़ अब के लहू से जलाने वाला है
तुम्हारे हाथ से तरशा हुआ वजूद हूँ मैं
तुम्ही बताओ ये रिश्ता भुलाने वाला है
अभी ख़याल तिरे लम्स तक नहीं पहुँचा
अभी कुछ और ये मंज़र बनाने वाला है
बुझे बुझे से ख़द-ओ-ख़ाल पर न जा ‘शहबाज़’
यही उ़फुक़ है जो सूरज उगाने वाला है।
ऐसे रखती है हमें तेरी मोहब्बत ज़िंदा
ऐसे रखती है हमें तेरी मोहब्बत ज़िंदा
जिस तरह जिस्म को साँसों की हरारत ज़िंदा
शौक़ की राह में इस ऐसा भी पल आता है
जिस में हो जाती है सदियों की रियाज़त ज़िंदा
रोज़ इक ख़ौफ़ की आवाज पे हम उठते हैं
रोज़ होती है दिल आ जाँ में क़यामत ज़िंदा
अब भी अंजान ज़मीनों की कशिश खींचती है
अब भी शायद हे लहूं में कहीं हिजरत ज़िंदा
ताअज-ए-जब्र बहुत आम हुई जाती थी
एक इंकार ने की रस्म-ए-बग़ावत ज़िंदा
हम तो मर कर भी ना बातिल को सलामी देंगे
कैसे मुमकिन है कि कर लें तिरी वैअत ज़िंदा
हम में बुक़रात तो कोई नहीं फिर भी ‘शहबाज़’
ज़हर पी लेते हैं रखते हैं रिवायत ज़िंदा
कब गवारा है मुझे और कहीं पर चमके
कब गवारा है मुझे और कहीं पर चमके
मेरा सूरज है जो फिर मेरी ज़मीं पर चमके
कितने गुलशन कि सजे थे मिरे इक़रार के नाम
कितने ख़ंजर कि मिरी एक नहीं चमके
जिस ने दिन भर की तमाज़त को समेटा चुप-चाप
शब को तारे भी उसी दश्त-नशीं पर चमके
ये तिरी बज़्म ये इक सिलसिला-ए-निकहत-ओ-नूर
जितने तारीक मुक़द्दर थे यहीं पर चमके
यूँ भी हो वस्ल का सूरज कभी उभरे और फिर
शाम-ए-हिज्राँ तिरे इक एक मकीं पर चमके
आँख की ज़िद है कि पलकों पे सितारे टूटें
दिल की ख़्वाहिश कि हर एक ज़ख़्म यहीं पर चमके
किसी ने देख लिया था जो साथ चलते हुए
किसी ने देख लिया था जो साथ चलते हुए
पहुँच गई है कहाँ जाने बात चलते हुए
सफ़र सफ़र है कभी राएगाँ नहीं होता
सर-ए-सहर चली आई है रात चलते हुए
सुना है तुम भी इसी दश्त-ए-ग़म से गुजरे हो
सो हम ने की है बड़ी एहतियात चलते हुए
हम अपनी उखड़ी हुई साँसों को बहाल करें
कहीं रखे तो सही काएनात चलते हुए
हवा रुकी तो अज़ब हुस्न था मगर ‘शहबाज़’
गिरा गई है कई सूखे पात चलते हुए
ख़ाक-ज़ादा हूँ ता-ब फ़लक जाता है
ख़ाक-ज़ादा हूँ ता-ब फ़लक जाता है
मेरा इदराक बहुत दूर तलक जाता है
तेरी निस्बत को छुपाता तो बहुत हूँ लेकिन
तेरा चेहरा मिरी आँखों से झलक जाता है
इक हकीक़त से उभर आता है हर शय का वजूद
एक जुगनू से अंधेरा भी चमक जाता है
यूँ तो मुमकिन नहीं दुश्मन मिरे सर पर पहुँचे
पहरे-दारों में कोई आँख झपक जाता है
मैं फ़क़त ख़ाक पे रखता हूँ जबीं को ‘शहबाज’
आसमाँ ख़ुद ही मिरी सम्त सरक जाता है
ज़िंदगी शब के जज़ीरों से उधर ढूँडते हैं
ज़िंदगी शब के जज़ीरों से उधर ढूँडते हैं
आँख में अश्क जो चमकें तो सहर ढूँडते हैं
ख़ाक की तह से उधर कोई कहाँ मिलता है
हम को मालूम है यह बात मगर ढूँडते हैं
कार-ए-दुनिया से उलझती है जो साँसे अपनी
ज़ख़्म गिनते है कभी मिस्रा-ए-तर ढूँडते हैं
बे-हुनर होना भी है मौत की सूरत ऐ दोस्त
ज़िंदा रहने के लिए कोई हुनर ढूँडते हैं
दस्तकें कब से हथेली में छूपी है ‘शहबाज़’
शहर-ए-असरार की दीवार में दर ढूँडते हैं
भटक रहे हैं ग़म-ए-आगही के मारे हुए
भटक रहे हैं ग़म-ए-आगही के मारे हुए
हम अपनी ज़ात को पाताल में उतारे हुए
सदा-ए-सूर-ए-सराफ़ील की रसन-बस्ता
पलट के जाएँगे इक रोज़ हम पुकारे हुए
शिकस्त-ए-ज़ात शिकस्त-ए-हयात भी होगी
कि जी ना पाएँगे हम हौंसलों को हारे हुए
ऐ मेरे आईन-रू अब कहीं दिखाई दे
इक उम्र बीत गई ख़ाल-ओ-ख़द सँवारे हुए
मता-ए-जाँ हैं मिरी उम्र भर का हासिल
वो चंद लम्हे तिरे कुबे में गुजारे हुए
जमीं पे ज़र्रा-ए-बे-नाम थे मगर ‘शहबाज’
बुलंदियां पे पहुँच कर हमीं सितारे हुए
मुश्किल तो न था ऐसा भी अफ़्लाक से रिश्ता
मुश्किल तो न था ऐसा भी अफ़्लाक से रिश्ता
तोड़ा ही नहीं हम ने मगर ख़ाक से रिश्ता
हर सुब्ह की क़िस्मत कहाँ रुख़्सार की लाली
हर शब का कहाँ दीदा-ए-नमनाक से रिश्ता
बख़्शी है तुझे जिस ने ख़द-ओ-ख़ाल की दौलत
है मेरे बदन का भी इसी चाक से रिश्ता
छोड़ा है किसे फ़िक्र के दरिया ने सलामत
रास आया किसे मौजा-ए-इदराक से रिश्ता
‘शहबाज़’ मैं धरती से हूँ मंसूब कुछ ऐसे
जैसे कि किसी जिस्म का पोशाक से रिश्ता
ये कार-ए-बे-समराँ मुझ से होने वाला नहीं
ये कार-ए-बे-समराँ मुझ से होने वाला नहीं
मैं ज़िंदगी को बहुत देर ढोने वाला नहीं
मैं सतह-ए-आब पे इक तैरता हुआ लाशा
मुझे कोई भी समुंदर डुबोने वाला नहीं
बड़े जतन से मिला है यह अपना आप मुझे
मैं अब किसी के लिए ख़ुद को खोने वाला नहीं
फ़सील-ए-शहर तिरा आख़िरी मुहाफ़िज हूँ
ये शहर जागे न जागे में सोने वाला नहीं
वो एक तू कि मिरे ग़म में इक जहाँ रोए
वो एक मैं कि मिरा कोई रोने वाला नहीं
किसी को फूल न दे पाऊँ मैं अगर ‘शहबाज’
किसी की रूह में काँटे चुभोने वाला नहीं
ये ज़र्द फूल ये काग़ज़ पे हर्फ गीले से
ये ज़र्द फूल ये काग़ज़ पे हर्फ गीले से
तुम्हारी याद भी आई हज़ार हीले से
बदन का लम्स हवा को बना गया ख़ुश्बू
नज़र के सेहर से मंज़र हूए नशीले से
ये जिंदगी भी फ़कत रेत का समंदर है
कभी निगाह जो डालो फ़ना के टीले से
ये शायरी मुझे ‘शहबाज’ यूँ भी प्यारी है
कि मेरा ख़ुद से तअल्लुक़ है इस वसीले से
वफ़ा का शौक़ ये किसी इंतिहा में ले आया
वफ़ा का शौक़ ये किसी इंतिहा में ले आया
कुछ और दाग़ मैं अपनी क़बा में ले आया
मिरे मिज़ाज मिरे हौसले की बात न कर
मैं ख़ुद चराग़ जला कर हवा में ले आया
धनक लिबास घटा ज़ुल्फ धूप धूप बदन
तुम्हारा मिलना मुझे किस फ़ज़ा में ले आया
वो एक अश्क जिसे राएगाँ समझते थे
कुबूलियत का शरफ़ वो दुआ में ले आया
फ़लक को छोड़ के हम दर-ब-दर न थे ‘शहबाज’
ज़मीं से टूटना हम को ख़ला में ले आया
वो एक ख़्वाब कि आँखो में जगमगा रहा है
वो एक ख़्वाब कि आँखो में जगमगा रहा है
चराग़ बन के मुझे रौशनी दिखा रहा है
वो सिर्फ हक़ जो मिरे लब से आश्कार हुआ
सुकूत-ए-दैर में इक उम्र गूँजता रहा है
मिरे सुख़न में जो इक लौ सी थरथराती है
चराग़-ए-शब से मिरा भी मुकामिला रहा है
मिरे मिए ये ख़द-आ-ख़ाल की हक़ीक़त क्या
वो ख़ाक हूँ कि जिसे चाक फिर बूला रहा है
मैं सोचता हूँ कोई दश्त क्या समेटेगा
वो वहशतें हैं मुझे ख़ुद भी ख़ौफ आ रहा है
सुख़न के आईना-ख़ाने को ख़ैर हो ‘शहबाज’
ज़माना संग-ब-कफ़ है इधर को आ रहा है
सदा-ए-मुज्द़ा-ए-ला-तक़नतू के धारे पर
सदा-ए-मुज्द़ा-ए-ला-तक़नतू के धारे पर
चराग़ जलते रहे आस के मीनारे पर
अजीब इस्म था लब पर कि पाँव उठते ही
मैं ख़ुद को देखता था अर्श के किनारे पर
अजीब उम्र थी सदियों से रहन रक्खी हुई
अजीब साँस थी चलती थी बस इशारे पर
वो एक आँख किसी ख़्वाब की तमन्ना में
वो एक ख़्वाब कि रक्खा हुआ शरारे पर
इसी ज़मीन की जानिब पलट के आना था
उतर भी जाते अगर हम किसी सितारे पर
मता-ए-हर्फ कहीं बे-असर नहीं ‘शहबाज’
ये काएनात भी है कुन के इस्तिआरे पर
सफ़र का एक नया सिलसिला बनाना है
सफ़र का एक नया सिलसिला बनाना है
अब आसमान तलक रास्ता बनाना है
तलाशते है अभी हम-सफ़र भी खोए हुए
कि मंज़िलो से उधर रास्ता बनाना है
समेटना है अभी हर्फ़ हर्फ़ हुस्न तिरा
ग़ज़ल को अपनी तिरा आईना बनाना है
मुझे ये ज़िद है कभी चाँद को असीर करूँ
सो अब के झील में एक दाएरा बनाना है
सुकूत-ए-शाम-ए-अलम तू ही कुछ बता कि तुझे
कहाँ पे ख़्वाब कहाँ रत-जगा बनाना है
उसी को आँख में तस्वीर करते रहते है
अब उस से हट के हैं और क्या बनाना है
दर-ए-हवस पे कहाँ तक झुकाएँ सर ‘शहबाज’
ज़रूरतों को कहाँ तक ख़ुदा बनाना है