रैदास की कठौत
रख चुके हो क़दम
सहस्त्राब्दि के दहलीज़ पर
टेकुरी और धागा लेकर
उलझे रहे
मकड़जाल के धागे में
और बुनते रहे
अपनी सांँसों की मलीन चादर
इस आशा के साथ
कि आएगी गंगा
इस कठौत में
नहीं बन सकते रैदास
पर बन सकते हो हिटलर
और तुम्हारे टेकुरी की चिनगारी
जला सकती है
उनकी जड़
जिसने रौंदा कितने बेबस और
मजलूमों को।
नदियाँ
नदियाँ पवित्र धागा हैं
पृथ्वी पर
जो बँधी हैं
सभ्यताओं की कलाई पर
रक्षासूत्र की तरह
इनका सूख जाना
किसी सभ्यता का मर जाना है।
फूल बेचती लड़की
फूल बेचती लड़की
पता नहीं कब फूल की तरह
खिल गई
फूल ख़रीदने वाले
अब उसे दोहरी नज़र से देखते हैं
और पूछते हैं
बहुत देर तक
हर फूल की विशेषता
महसूसते हैं
उसके भीतर तक
सभी फूलों की ख़ूबसूरती
सभी फूलों की महक
सभी फूलों की कोमलता
सिर से पाँव तक
उसके एक. एक अंग की
एक-एक फूल से करते हैं मिलान
अब तो कुछ लोग
उससे कभी-कभी
पूरे फूल की क़ीमत पूछ लेते हैं
देह की भाषा में
जबकि उसके उदास चेहरे में
किसी फूल के मुरझाने की कल्पना कर
निकालते हैं कई-कई अर्थ
और उसे फूलों की रानी
बनाने की करते हैं घोषणाएँ
काश! वो श्रम को श्रम ही रहने देते।
दस्ताने
यहाँ बर्फ़ीले रेगिस्तान में
किसी का गिरा है दस्ताना
हो सकता है इस दस्ताने में
कटा हाथ हो किसी का
सरहद पर अपने देश की खातिर
किसी जवान ने दी हो कुर्बानी
या यह भी हो सकता है
यह दस्ताना न हो
हाथ ही फूलकर दीखता हो
दस्ताने-सा
जो भी हो यह लिख रहा है
अपनी धरती माँ को
अन्तिम सलाम या
पत्नी को खत
घर जल्दी आने के बारे में
या बहन से
राखी बंधवाने का आश्वासन
या माँ-बाप को
कि
इस बार
करवानी है ठीक माँ की
मोतियाबिंद वाली आँखें
और पिता की पुरानी खाँसी का
इलाज
जो भी हो
सरकारी दस्तावेज़ों में गुम ऐसे
न जाने कितने दस्ताने
बर्फ़ीले रेगिस्तान में पड़े
खोज रहे हैं
आशा की नई धूप।
पहली नहीं थी वह
उसे नहीं मालूम था
सपनों और हक़ीक़त की दुनिया में फ़र्क
जब उसे फूलों की सेज से
उतारा गया था बेरहमी से
घसीटते हुए
वह समझती
उस यातना का नया रूप
कि मुँह खुल चुका था छाते-सा
और उसकी साँसें टँग चुकी थी
खूँटी पर
यातना के तहत
जिसके सारे दस्तावेज़
जल चुके थे
और वह राख में
खोज रही थी
अपनी बची हुई हड्डियाँ
उस हवेली में बेख़बर
यातना की शिकार
पहली नहीं थी वह।
पहाड़
हम ऐसे ही थोड़े बने हैं पहाड़
हमने न जाने कितने हिमयुग देखे
कितने ज्वालामुखी
और कितने झेले भूकम्प
न जाने कितने-कितने
युगों चरणों से
गुज़रे हैं हमारे पुरखे
हमारे कई पुरखे
अरावली की तरह
पड़े हैं मरणासन्न तो
उनकी सन्तानें
हिमालय की तरह खड़ी हैं
हाथ में विश्व की सबसे ऊँची
चोटी का झण्डा उठाए।
बारिश के बाद
नहाए हुए बच्चों की तरह
लगने वाले पहाड़
खून पसीना एक कर
बहाए हैं निर्मल पवित्र नदियाँ
जिनकी कल-कल ध्वनि
की सुर ताल से
झंकृत है भू-लोक, स्वर्ग
एक साथ।
अब सोचता हूँ
अपने पुरखों के अतीत
व अपने वर्तमान की
किसी छोटी चूक को कि
कहाँ बिला गए हैं
सितारों की तरह दिखने वाले
पहाड़ी गाँव
जिनकी ढहती इमारतों व
खण्डहरों में बाज़ार
अपना नुकीला पंजा धँसाए
इतरा रहा है शहर में
और इधर पहाड़ी गाँवों के
ख़ून की लकीर
कोमल घास में
फैल रही है लगातार।
पृथ्वी के पन्नों पर मधुर गीत
आज पहली बार
अम्लान सूर्य
हँसता हुआ
पूरब की देहरी लाँघ रहा है
लडकियाँ हिरनियों की माफिक
कुलाँचें भर बतिया रहीं
हवाओं के साथ
पतझड़ में गिरते पत्ते
रच रहे हैं
पृथ्वी के पन्नों पर मधुर गीत
हवा के बालों में
गजरे की तरह गुँथी
उड़ती चिड़ियाँ
पंख फैलाकर नाप रहीं आकाश
समुद्र की अठखेलियों पर
पेड़ पौधे पंचायत करने जुटे हैं
गीत गाती नदी तट पर
स्कूल से लौटे बच्चे
पेड़ों पर भूजा चबाते
खेल रहे हैं ओलापाती
युवतियाँ बीनी हुई
ईंधन की लकड़ियाँ
बाँध रहीं तन्मय होकर
चरकर लौटती गायें
पोखरे का पानी
पी जाना चाहतीं
एक साँस में जी भरकर
चौपाल में ढोल-मजीरे की
एक ही थाप पर
नाच उठने वाली दिशाएँ
बाँध रही घुँघरू
थिरक थिरक
अब जबकी सोचता हूँ
कि सपने का मनोहारी दृश्य कब होगा सच।
बेदख़ल किसान
वो अलग बात है
बहुत दिन हो गए उसे किसानी छोड़े
फिर भी याद आती है
लहलहाते खेतों में
गेहूँ की लटकती बालियाँ
चने के खेत में
गड़ा रावण का बिजूखा
ऊख तोड़कर भागते
शरारती बच्चों का हूजुम
मटर के पौधों में
तितलियों की तरह, चिपके फूल
याद आती है
अब भी शाम को खलिहान में
इकट्ठे गाँव के
युवा, प्रौढ़ व बुजुर्ग लोगों से
सजी चौपाल
ठहाकों के साथ
तम्बू से तने आसमान में
आल्हा की गूँजती हुई तानें
हवा के गिरेबान में पसरती हुई
चैता-कजरी की धुनें
खेतों की कटाई में टिडि्डयों-सी
उमड़ी हुई
छोटे बच्चों की जमात
जो लपक लेते थे
गिरती हुई गेहूँ की बालियाँ
चुभकर भी इनकी खूँटिया
नहीं देती थी
आभास चुभने का
लेकिन ये बच्चे
अब जवान हो गए हैं
दिल्ली व मुम्बई के आसमान तले
नहीं बीनने जाते गेहूँ की बालियाँ
अब यहीं के होकर रह गए हैं
या बस गए हैं
इन महानगरों के किनारे
कूड़े कबाड़ों के बागवान में
इनकी बीवियाँ सेंक देतीं हैं रोटियाँ
जलती हुई आग पर
और पीसकर चटनी ही परोस देती हैं
अशुद्ध जल में
घोलकर पसीना
सन्नाटे में ठण्डी बयार के चलते ही
सहम जाते हैं लोग
कि गाँव के किसी जमींदार का
आगमन तो नहीं हो रहा है
जिसने नहीं जाना
किसी की बेटी को बेटी
बहन को बहन और माँ को माँ
हमने तो हाथ जोड़कर कह दिया था
कि — साहब ! गाँव हमारा नहीं है
खेत हमारा नहीं है
खलिहान हमारा नहीं है
ये हँसता हुआ आसमान हमारा नहीं है
नींद और सपनों से जूझते
सोच रहा था
वह बेदखल किसान
महानगरों से चीलर की तरह
चिपकी हुई झोपड़ी में
कि क्यों पड़े हो हमारे पीछे
शब्दभेदी बाण की तरह
क्या अभी भी नहीं बुझ पाई है प्यास
सुलगती आग की तरह।
बन्धुआ मुक्त हुआ कोई
किसान के जहन से
अब दफ़न हो चुकी है
अतीत की क़ब्र में
दो बैलों की जोड़ी
वह भोर ही उठता है
नाँद में सानी-पानी की जगह
अपने ट्रैक्टर में नाप कर डालता है
तेल
धो-पोंछ कर दिखाता है अगरबत्ती
ठोक-ठठाकर देखता है टायरों में
अपने बैलों के खुर
हैण्डिल में सींग
व उसके हेडलाइट में
आँख गडा़कर झाँकता
बहुत देर तक
जो धीरे-धीरे पूरे बैल की आकृति मे
बदल रहा है
समय —
खेत जोतते ट्रैक्टर के पीछे-पीछे
दौड़ रहा है
कठोर से कठोर परतें टूट रही हैं
सोंधी महक उठी है मिट्टी में
जैसे कहीं
एक बन्धुआ मुक्त
हुआ हो कोई।
तुम्हारी याद
खनकाती हुई चूड़ियाँ
जब चूड़िहारिन घूमती है
दर-ब-दर
और लगाती है पुकार
आने लगती है
ज्वार की तरह तुम्हारी याद
बनिहारिनें गाती हैं
धान के खेतों में इठलाती हुई
सोहनी गीत
और धानी चुनरी ओढ़कर धरती
लहराने लगती लहँगा लगातार
मानो आसमान से मिलने का
कर रही हो करार
आने लगती है तुम्हारी याद
किलकारियाँ भरते बच्चों के
कोमल होठों की तरह
नवीन पत्तियाँ
बिहँसने लगती हैं अमराइयों में
और बौरों की भीनी-भीनी
महक से
मदमाती कोयलें बरसाने
लगती हैं
मनमोहक गीतों की फुहार
आने लगती है तुम्हारी याद
अलियों का गुंजन
विहगों का कलरव
तितलियों का इतराना
बिछुड़े हुए कबूतरों का
मिलते ही चोंच लड़ाना
भरने लगती हैं
मुझमें नव संचार
आने लगती है तुम्हारी याद
सलिला के कल कल
निनाद पर
जब लेते चुम्बन तट बार-बार
और उन्मत्त पवन छू लेता है
उसकी छाती का अग्र भाग
आने लगती है तुम्हारी याद
पहाड़ियाँ लेटी हुई
करती हैं प्रतीक्षा
मखमली घास पर होकर अर्द्धनग्न
और लिपट जाने को आतुर हैं
व्याकुल बादलों की बाजुओं में
बेरोक-टोक
और टूट कर विखर जाना
चाहती हैं
तार-तार
आने लगती है तुम्हारी याद
वेदना की लहरें उठने लगती हैं
हृदय सागर में सुनामी की तरह
जब मैं सुनता हूँ
हवा में गूँजती हुई तुम्हारी अन्तिम हँसी
और देखता हूँ
साँस की देहरी पर
बैठा हुआ तुम्हारा बेरोजगार बाप
निहारता है
यदा-कदा
उस जंग खाए पंखे को कि
तुम लटक रही हो निराधार
आने लगती है तुम्हारी याद
लेकिन मैं कभी नहीं लौटूँगा
घायल भाटे की तरह
तुम्हारी यादों की हवेली से
होकर छिन्न-भिन्न ।
बेर का पेड़
मेरा बचपन
खरगोश के बाल की तरह
नहीं रहा मुलायम
न ही कछुवे की पीठ की तरह
कठोर ही
हाँ, मेरा बचपन
ज़रूर गुज़रा है
मुर्दहिया, भीटा और
मोती बाबा की बारी में
बीनते हुए महुआ, आम
और जामुन
दादी बताती थीं
इन बागीचों में
ठाढ़ दोपहरिया में
घूमते हैं भूत-प्रेत
भेष बदल-बदल
और पकड़ने पर
छोड़ते नहीं महिनों
कथा किंवदंतियों से गुज़रते
आखिर पहुँच ही जाते हम
खेत-खलिहान लाँघते बाग़ीचे
दादी की बातों को करते अनसुना
आज स्मृतियों के कैनवास पर
अचानक उभर आया है
एक बेर का पेड़
जिसके नीचे गुज़रा है
मेरे बचपन का कुछ अंश
स्कूल की छुट्टी के बाद
पेड़ के नीचे
टकटकी लगाए नेपते रहते
किसी बेर के गिरने की या
चलाते अन्धाधुन्ध ढेला, लबदा
कहीं का ढेला
कहीं का बेर
फिर लूटने का उपक्रम
यहाँ बेर मारने वाला नहीं
बल्कि लूटने वाला होता विजयी
कई बार तो होश ही नहीं रहता
कि सिर पर
कितने बेर गिरे
या किधर से आ लगे
ढेला या लबदा
आज कविता में ही
बता रहा हूँ कि मुझे एक बार
लगा था ढेला सिर पर टन्न-सा
और उग आया था गुमड़
या बन गया था ढेला-सा दूसरा
बेर के खट्टे-मीठे फल के आगे
सब फीका रहा भाई
यह बात आज तक
माँ-बाप को नहीं बताई
हाँ, वे इस कविता को
पढ़ने के बाद ही
जान पाएँगे कि बचपन में
लगा था बेर के चक्कर में
मुझे एक ढेला
खट्टा, चटपटा और
पता नहीं कैसा-कैसा
और अब यह कि
हमारे बच्चों को तो
ढेला लगने पर भी
नहीं मिलता बेर
जबसे फैला है बाज़ार
बहेलिए वाला कबूतरी जाल
ज़मीन से आसमान तक एकछत्र।
ढाई अक्षर
तुम्हारी हँसी के ग्लोब पर
लिपटी नशीली हवा से
जान जाता हूँ
कि तुम हो
तो
समझ जाता हूँ
कि मैं भी
अभी जीवित हूँ
ढाई अक्षर के खोल में।
लोगों की नज़र में
लोगों की नज़र में
तुमने मुझे पेड़ कहा
पेड़ बना
टहनी कहा
टहनी बना
पत्तियाँ कहा
पत्तियाँ बना
फूल कहा
फूल बना
तुमने कहा
काँटा बनने के लिए
काँटा भी बना
जबसे लोगों की नज़र में
बना हूँ काँटा
नहीं बन पा रहा हूँ अब
लोगों की नज़र में
फूल पत्ती टहनी और पेड़।
नथुनिया फुआ
ठेठ भोजपुरी की बुनावट में
सम्वाद करता
घड़रोज की तरह कूदता
पूरी पृथ्वी को मँच बना
गोंडऊ नाच का नायक —
“नथुनिया फुआ”
कब लरझू भाई से
नथुनिया फुआ बना
हमें भी मालूम नहीं भाई
हाँ, वह अपने अकाट्य तर्कों के
चाकू से चीड़-फाड़कर
कब उतरा हमारे मन में
हुडके के थाप और
भभकती ढिबरी की लय-ताल पर
कि पूछो मत रे भाई
उसने नहीं छोड़ा अपने गीतों में
किसी सेठ-साहूकार
राजा-परजा का काला अध्याय
जो डूबे रहे माँस के बाज़ार में आकण्ठ
और ओढ़े रहे आडम्बर का
झक्क सफ़ेद लिबास
माना कि उसने नहीं दी प्रस्तुति
थियेटर में कभी
न रहा कभी पुरस्कारों की
फेहरिस्त में शामिल
चाहता तो जुगाड़ लगाकर
बिता सकता था
बाल बच्चों सहित
राजप्रसादों में अपनी ज़िन्दगी के
आख़िरी दिन
पर ठहरा वह निपट गँवार
गँवार नहीं तो और क्या कहूँ उसको
लेकिन वाह रे नथुनिया फुआ
जब तक रहे तुम जीवित
कभी झुके नहीं हुक्मरानों के आगे
और भरते रहे साँस
गोंडऊ नाच के फेफडों में अनवरत
जबकि…..
आज तुम्हारे देखे नाच के कई दर्शक
ऊँचे ओहदे पर पहुँचने के बाद झुका लेते हैं सिर
और हो
घुमरी परैया
एक खेल जिसके नाम से
फैलती थी सनसनी शरीर में
और खेलने से होता
गुदगुदी-सा चक्कर
जी हाँ
यही न खेल था घुमरी परैया[1]
कहाँ गए वे खेलाने वाले घुमरी परैया
और वे खेलने वाले बच्चे
जो अघाते नहीं थे घण्टों दोनों
यूँ ही दो दिलों को जोड़ने की
नई तरक़ीब तो नहीं थी घुमरी परैया
या कोई स्वप्न
जिसमें उतरते थे घुमरी परैया के खिलाड़ी
और शुरू होता था घुमरी परैया का खेल
जिसमें बाँहें पकड़कर
खेलाते थे बड़े बुजुर्ग
और बच्चे कि ऐसे
चहचहाते चिड़ियों के माफ़िक
फरफराते उनके कपड़े
पंखों से बेजोड़
कभी-कभी चीख़ते थे ज़ोर-ज़ोर उई… माँ…
कैसे घूम रही है धरती
कुम्हार के चाक-सी और संभवतः शुरू हुई होगी यहीं से पृथ्वी घूमने की कहानी
लेकिन
अब कहाँ ओझल हो गया घुमरी परैया
जैसे ओझल हो गया है
रेडियो से झुमरी तलैया
और अब ये कि
हमारे खेलों को नहीं चाहिए विज्ञापन
न होर्डिगों की चकाचौंध
अब नहीं खेलाता कोई किसी को
घुमरी परैया
न आता है किसी को चक्कर ।
- ऊपर जायें↑ पूर्वी उत्तर प्रदेश का एक लोकप्रिय खेल, जो अब लुप्त हो चला है
नचनिये
मँच पर घुँघरूओं की छम–छम से
आगाज कराते
पर्दे के पीछे खड़े नचनिये
कौतूहल का विषय होते
परदा हटने तक
संचालक पुकारता एक–एक नाम
खड़ी हैं मंच पर बाएँ से क्रमशः
सुनैना, जूली, बिजली, रानी
साँस रोक देने वाली धड़कनें
जैसे इकठ्ठा हो गई हैं मँच पर
परदा हटते ही सीटियों
तालियों की गड़गड़ाहट
आसमान छेद देने वाली लाठियाँ
लहराने लगती थीं हवा में
ठुमकते किसी लोक धुन पर कि
फरफरा उठते उनके लहंगे
लजा उठती दिशाएँ
सिसकियां भरता पूरा बुर्जुआ
एक बार तो
हद ही हो गई रे भाई!
एक ने केवल
इतना ही गाया था कि
‘बहे पुरवइया रे सखियाँ
देहिया टूटे पोरे पोर।‘
कि तन गई थीं लाठियाँ
आसमान में बन्दूक की तरह
लहरा उठीं थी भुजाएँ तीर के माफ़िक
मँच पर चढ़ आए थे ठाकुरों ब्राह्मनों
के कुछ लौण्डे
भाई रे! अगर पुलिस न होती तो
बिछ जानी थी एकाध लाश
हम तो बूझ ही नहीं पाए कि
इन लौण्डों की नस–नस में
बहता है रक्त
कि गरम पिघला लोहा
अब लोक धुनों पर
ठुमकने वाले नचनिये
कहाँ बिलाने से लगे हैं
जिन्होंने अपनी आवाज़ से
नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया लोकगीत
और जीवित रखा लोक कवियों को
इन्हें किसी लुप्त होते
प्राणियों की तरह
नहीं दर्ज किया गया
‘रेड डाटा बुक‘ में
जबकि -–
हमारे इतिहास का
यह एक कड़वा सच
कि एक परम्परा
तोड़ रही है दम
घायल हिरन की माफ़िक
और हम
बजा रहे तालियाँ बेसुध
जैसे मना रहे हों
कोई युद्ध जीतने का
विजयोत्सव।
कठघोड़वा नाच
रंग-बिरंगे कपड़ों में ढका
कठघोड़वा
घूमता था गोल-गोल
गोलाई में फैल जाती थी भीड़
ठुमकता था टप-टप
डर जाते थे बच्चे
घुमाता था मूड़ी
मैदान साफ़ होने लगता उधर
बैण्ड-बाजे की तेज़ आवाज़ पर
कूदता था उतना ही ऊपर
और धीमे, पर
ठुमकता टप-टप जब थक जाता
घूमने लगता फिर गोल-गोल
बच्चे जान गए थे
काठ के भीतर नाचते आदमी को
देख लिए थे उसके घुँघरू बँधे पैर
किसी-किसी ने तो
घोड़े की पूँछ ही पकड़ कर
खींच दी थी
वह बचा था
लड़खड़ाते-लड़खड़ाते गिरने से
वह चाहता था
कठघोड़वा से निकलकर सुस्ताना
कि वह जानवर नहीं है
लोग मानने को तैयार नहीं थे
कि वह घोड़ा नहीं है
बैण्ड-बाजे की अन्तिम थाप पर
थककर गिरा था
कठघोड़वा उसी लय में
धरती पर
लोग पीटते रहे तालियाँ बेसुध होकर
उसके कन्धे पर
कठघोड़वा के कटे निशान
आज भी हरे हैं
जबकि कठघोड़वा नाच और वह
गुमनामी के दौर से
गुज़र रहे हैं इन दिनों।
वजूद
कितना ही
कितना ही खारिज करो
साहित्य विशेषज्ञों
लेकिन
याद करेंगे लोग मुझे
अरावली पहाड़-सा
घिसा हुआ।
बहुत कुछ…
सुना है
हवा को दमें की बीमारी लग गई है
चारपाई पर पड़ी
कराह रही है
औद्योगिक अस्पताल में
कुछ दिन पहले
कई तारे एड्स से मारे गए
अपना सूर्य भी
उसकी परिधि से बाहर नहीं है
अपने चाँद को कैंसर हो गया है
उसकी मौत के
गिने चुने दिन ही बचे है
आकाश को
कभी-कभी पागलपन का
दौरा पड़ने लगा है
पहाड़ों को लकवा मार गया है
खड़े होने के प्रयास में
वह ढह-ढिमला रहे हैं
यदा कदा
नदि़याँ रक्तताल्पता की
गम्भीर बीमारी से जूझ रहे हैं
इन नदियों के बच्चे
सूखाग्रस्त इलाकों में
दम तोड़ रहे हैं
पेड़ की टाँगो पर
आदमी की नाचती कुल्हाड़ियाँ
बयान कर रही हैं
बहुत कुछ।
कितना सकून देता है
आसमान चिहुँका हुआ है
फूल कलियाँ डरी हुई हैं
गर्भ में पल रहा बच्चा सहमा हुआ है
जहाँ विश्व का मानचित्र
ख़ून की लकिरों से खींचा जा रहा है
और उसके ऊपर
ण्डरा रहे हैं बारूदों के बादल
ऐसे समय में
तुमसे दो पल बतियाना
कितना सकून देता है।