मैं अछूती
माहवारी के तीन दिन
बहते रक्त से उपजी छटपटाहट
चटपटा खाने की लालसा,
बढ़ी हुई भूख,
चिड़चिड़ापन बढ़ाते हार्मोन्स,
मरूढ़ते पेट, छिली हुई जाँघों और दर्द से फटते सर के अलावा
जो देते हैं, वह है
परोसी हुई थाली
और ढेर सारा समय।
जिसमें वह सोच सकती है
कि क्या लिखे?
क्या देखे?
क्या पढ़े?
बजाय सोचने के
कि क्या पकाए?
माहवारी के “इन दिनों” में
होता है वक़्त कुछ “ना” करने के लिए भी
कि जी भरकर सुस्ता सके
कर सके बेवक़्त ठिठौली अपने बच्चों के साथ,
बतिया ले अपने मित्रों से
बिना घड़ी देखे,
घिस ले गर्दन, कोहनी, एड़ियाँ,
चमका ले त्वचा उबटन से महीने भर के लिए,
रोज़ जिसके आड़े आता है
भागमभाग में किया मग्गा भर स्नान।
काट ले अख़बार से कुछ तस्वीरें, बासी ख़बरें, पकवानों की विधि, या सुडोकू ही,
सब, जो दब गए थे रद्दी तारीख़ों के ढेर में।
ना चिंता हो सुबह वक़्त पर उठने की,
ना मजबूरी हो रात जल्दी सोने की।
करे कुछ मन का,
या बस लेटी ही रहे घूमते पँखे को ताकती।
“अछूत” बनाकर माहवारी के ये दिन
उसे “उसका अपना” वक़्त दे जाते हैं
जो वह “छूत” होते हुए पाने की जद्दोजहद में जीवन गुज़ार देती है।
जब कोई पूछे तुमसे
जब कोई पूछे तुमसे
कि कैसे हो
तो बता देना उस सिक्के के बारे में
जो पड़ा है तलहटी में
किसी पवित्र नदी की
किसी दुआ के भार में
करता हुआ अनदेखा
अपनी जंग लगती देह को
और
भुला दिए गए अपने प्रति नेह को
जब कोई पूछे तुमसे
कि कैसे हो
तो सुना देना उस कौवे की कहानी
जिसे कहा जाता है मनहूस
उड़ा दिया जाता है छतों से
माना जाता है प्रतीक
बुराई का
और
जो भुलाता चला आ रहा है अनंत से
अपने साथ होता छल,
गिरा दिए जाते हैं जिसके अंडे
उसी के घर से
एक ऐसे समजात द्वारा
जिसके गीत माने जाते हैं कोई मीठी नज़्म
मगर जिनमें दबे हैं कहीं
उस कौवे के
ताज़े-हरे ज़ख़्म
अगर कोई पूछे तुमसे
कि कैसे हो
तो दिखा देना उस आदमी को
किसी लोकल ट्रेन, किसी चौराहे, या किसी बाज़ार में
बेचते हुए दुआएँ
और
छुपाते हुए अपना असल
नपुंसकता की खोल में
जिसे लील गई लाचारी,
भूख, या माँ-बाप की बीमारी
और जो पी गया घूंट में मिलाकर
अपने पौरुष को
किसी कड़वे घोल में
जब कोई पूछे तुमसे
कि कैसे हो
तो मुस्कुरा देना
क्योंकि पूछने वाले इंसान नहीं
खोलियाँ हैं
एक बड़े शहर की झुग्गी बस्तियों में
अप्रवासी घास सी उगी
खरपतवार हैं
जिन्हें अपने हालातों पर
अपनी बेबसी पर
अपनी ग़रीबी
और लाचारी पर
हँसना और रोना एक सा लगता है,
और जिन्हें अपने सवाल “कैसे हो” पर
मिला आपका जवाब
उस हँसने और रोने के बीच का लगता है।
क्या देखा है तुमने कभी
क्या देखा है तुमने कभी?
एक जोड़ा
उड़ता हुआ हवा में
भिगोते हुए पंख
करते हुए अठखेलियाँ
बहता हुआ लहर के साथ,
जो उठती है बिन मौसम,
युहीं कभी,
क्योंकि करता है मन उसका मचलने का
और बहा ले जाने का
संग अपने उन जोड़ों को
जो निकले हैं
बहने और मचलने
क्या देखा है तुमने कभी?
एक रूठा हुआ प्रेमी
बैठा है किसी डाल पर
इंतज़ार में प्रेमिका के
जो ला रही हो
उसका पसंदीदा दाना, चोंच में दबाए
लड़ते हुए उस तूफ़ान से
जो निकला है मिटाने को घरौंदे
बिन अनुमान
युहीं कभी
क्योंकि करता है मन उसका तड़पने का
और उखाड़ देने का
उन सारे पेड़ों को
जिनकी टहनियों पर बैठे हैं
रूठे हुए प्रेमी
क्या देखा है तुमने कभी?
एक भटका हुआ बादल
जो बिछड़ गया है, अपनी माँ से
किसी मोड़ पर आसमान में,
जो चला था समंदर से
लेकर उसका गुस्सा
फट पड़ने कहीं,
बिन सावन
युहीं कभी
क्योंकि करता है मन उसका बरसने का
और डुबो देने का
धरती का हर एक कोना
जो छीन रहा है,
समंदर से उसकी जगह
नहीं देखे तो आओ
दिखाती हूँ तुम्हें
उस जोड़े को, उस प्रेमी को, और उस बादल को भी
तुम बन जाना वो प्रेमी, रूठा हुआ
बैठ जाना उस डाल पर
मैं लाऊंगी दाना तुम्हारे लिए
लड़ते हुए तूफान से
फिर डूब जाएंगे हम-तुम
उस बादल की बरसात में
धरती के किसी कोने पर
सिमटकर, लिपटकर एक दूजे में
घेरे बिना समंदर की कोई जगह
और बचा लेंगे ख़ुद को
देखने से
इस धरती की सबसे काली सुबह।
सूख गईं वो नदियाँ क्यों?
नदियाँ, जो सूख गईं सदा के लिए
वे इसलिए नहीं
कि गर्मी लील गई उन्हें
बल्कि इसलिए
कि हो गया उनका मोह भंग
बहाव से
कि क्या करेंगी बहकर
उस गंदगी के साथ जो रास्ते में बैठी है
धाक जमाए
पैर फैलाए
जो लील जाती है उनकी निर्मलता
उनका पाक शुद्ध चरित्र
और उनकी कोमलता भी
जो बना देती है उनको दूषित
कसैला और कड़वा
वो नहीं जीना चाहती जीवन
मैली होकर
बस इसलिए
डूब गई हैं विरक्ति में
और सूख गई हैं उस मोह में
जो है उन्हें, अपने सच्चे अस्तित्व से,
क्या कोई फ़र्क है?
इन नदियों और उन स्त्रियों में
जो अपने अस्तित्व के मोह में
चुन लेती हैं विरक्ति
या आत्म-मुक्ति॥
सोने का पिंजरा
एक मैदान है
कुछ गज का
इतना कि कदम भर नाप सकें उसे
एक कमरा है
कुछ फिट का
इतना कि नज़रें भांप सकें उसे
नज़रें जिनमें होते थे प्रतिबिंबित कभी
भीड़ में चमकते सर
दौड़ते-भागते पैर
चीखता-चिल्लाता शोर
सपनों से भरी आँखें
उम्मीदों को ढोते कंधे
प्रेम में जकड़ी हथेलियाँ
ख्वाहिशों में उलझे आलिंगन
दूरियाँ मिटाते चुंबन
रंगों से भरपूर सुबहें
उजालों से तरबतर शामें
और कुछ हसरतों को हक़ीक़त में बदलते दिन
मगर
अब इन आँखों में झलकती हैं
दो जोड़ी बेरंग दीवारें
सपनों को कैद किए अलमारियाँ
उम्मीदों को डुबोती बाल्टियाँ
आवाज़ को छुपाते परदे
चीखों को दबाते बर्तन
आँसुओं को झुठलाती छोंकन,
बेतरतीब भागती “इच्छाएँ”
उसी मैदान में
जिसे नापा जा सकता है
कदम भर
जिसमें जीती हैं
महीनों सड़-सड़ कर
उँगली में बांध किसी रबड़ से
जिन्हें फेंका जाता है दूर
आज़ाद हो कहकर
मगर लौट आना ही जिसकी नियति है
उसी उँगली पर
वापस
उसी मैदान और उसी कमरे में
जिन्हें नापा जा सकता है
जो कैद हैं सीमाओं में
और जिन्हें बनाया गया है
ऐसे आज़ाद परिदों के लिए
जो खरीदे जाते रहे हैं
सदियों से
उनके लिए जो बिताने आते हैं रातें
इन कमरों और मैदानों में,
और जिनकी
नस्लों को पैदा करने और पोसने के लिए
काट दिए जाते हैं
इन परिदों के पर।
कौन हैं ये स्त्रियाँ
स्त्रियाँ,
जो पढ़ना चाहती हैं राजनीति
और अर्थशास्त्र भी
मगर सिमट जाती हैं
सुशील मसालों से पेट,
सुंदर आलेपों से तन,
और सभ्य आचरण से घरों को भरने की किताबों में,
स्त्रियाँ,
जो बनना चाहती हैं सोलो-ट्रैवलर
या महज़ टूरिस्ट भी
मगर सिमट जाती हैं
सासरे से मायके तक की रेल में
और छुट्टियों में, जो मिलती हैं
बतौर रिश्तेदारों या फैमिली वेकेशन्स के नाम पर,
स्त्रियाँ,
जो बोलना चाहती हैं
हर मज़हबी-ग़ैर मज़हबी लड़ाई,
और दंगे-फसादों पर भी
उठाना चाहती हैं सवाल संस्कारों और धर्म ग्रंथों पर,
मगर सिमट जाती हैं
छठ, करवाचौथ और वट वृक्षों से लिपटी लाल डोरियों में,
स्त्रियाँ,
जो लेना चाहती हैं अवकाश
सिर्फ सोचने, समझने और लिखने के लिए
जीना चाहती हैं उस एकांत को
जिसे महज़ पढ़ती हैं काल्पनिक किताबों में,
मगर सिमट जाती हैं,
माहवारी की छुआ-छूत
पूजाघर और रसोई की देहरी
कमरे में पति से अलग बिस्तर
और बर्तनों पर लपेटी जा रही राख तक,
स्त्रियाँ,
जो मिटाना चाहती हैं
अपने माथे पर लिखी मूर्खता,
किताबों में उनके नाम दर्ज चुटकुलों,
और इस चलन को भी जो कहता है,
“यह तुम्हारे मतलब की बात नहीं”
मगर सिमट जाती हैं
मिटाने में
कपड़ों पर लगे दाग,
चेहरों पर लगे दाग,
और चुनरी में लगे दागों को,
स्त्रियाँ,
जो होना चाहती हैं खड़ी
चौपालों, पान ठेलों और चाय की गुमटियों पर
करना चाहती हैं बहसें
और निकालना चाहती हैं निष्कर्ष
मगर सिमट जाती हैं
निकालने में
लाली-लिपस्टिक-कपड़ों और ज़ेवरों के दोष,
कौन हैं ये स्त्रियाँ?
क्या ये सदियों से ऐसी ही थीं?
या बना दी गईं?
अगर बना दी गईं तो बदलेंगी कैसे?
बदलेंगी… मगर सिर्फ तब
जब वे ख़ुद चाहेंगी बदलना
सिमटना छोड़कर।
कहानी तेरी-मेरी
मैं लिखती रहती हूँ
घर की दीवारों पर
कहानी तेरी-मेरी
जैसे किसी बड़े से मंदिर की दीवारों पर
गोदे जाते हैं
श्लोक
शास्त्र
और प्रार्थनाएँ
और तुम करते रहते हो अनदेखी
उन दीवारों पर लिखी
कहानी तेरी-मेरी
जैसे कई हज़ार श्रद्धालुओं से होते रहते हैं अनदेखे
वे सभी श्लोक
शास्त्र
और प्रार्थनाएँ,
उन्हीं श्रद्धालुओं से
जो करते हैं दावा भक्त होने का
सीना ठोककर
दान देकर
रतजगे कर
चौकियाँ बैठाकर
तीरथ जाकर
लेकिन फिर भी उन्हें लगते हैं आकर्षण भर
कोई सुंदर चित्रकारी हो जैसे
कोई रंगों की पहेली हो जैसे
या बस चीख़ते-पुकारते शब्द
जबकि हैं वो, उन्हीं के लिए लिखे गए
श्लोक
शास्त्र
और प्रार्थनाएँ
क्या तुम्हें भी दृष्टि-भ्रम है
या दिखाई ही नहीं देती
घर की दीवारों पर
चाकू से गोदी गई
कहानी तेरी-मेरी।
भूख
बच्चा
पहचान लेता है अंधेरे में भी
दूध से भरी छातियाँ
और हम
बड़े होते हुए भी
नहीं पहचान पाते
अपनी भूख
कि ये पेट की है
या स्वार्थ की,
मन की है
या शरीर की,
इच्छाओं की है,
या बदले की,
और तड़पते रहते हैं
ताउम्र
उसी भूख की तड़प से
उसे
अलग-अलग नामो से पुकारते हुए
ओढ़े रहते हैं चादर
समझदारी की
और भीतर दुपकाए रखते हैं
अपनी मूर्खता
जो रोकती रहती है हमें
पहचानने से हमारी भूख
काव्य मर गया हो जैसे
अब काव्य मर गया है जैसे
भीतर मेरे कहीं
क्या प्रेम नहीं बचा
या अहसासों की राख़ बन गई है
कितना कुछ था जीने को
जो तिल-तिल कर जलता रहा
हर दिन थोड़ा मर जाता
हर रात सिसकता रहा
कभी उम्मीद टूटी
कभी आस
कभी विश्वास टूटा
तो कभी पा जाने की प्यास
कभी दूर तक चली गई
कभी लौटी मैं घर को
पर कुछ कह न सकी
बिस्तर तकिया सब ख़ाली थे
कहीं हमारे तिनके भी बिखरे न थे
उन रातों को ढँक दिया था अमावस ने
जिनमें हम तुम जगते थे
जी भर उड़ेला था सब कुछ जहाँ
वहाँ अब सन्नाटे थे
इन सन्नाटों में कोई गुंजन फिर हो भला कैसे
अब भीतर कहीं मेरे
काव्य मर गया है जैसे
एक आस
बारिश की आस में जीती है वो
रोज़, थोड़ा-थोड़ा
मरती भी है
साँसें अटकाए रहती है हलक में कहीं
धड़कनें लटका लेती है
पत्तों के कोनों पर
जो चाहती हैं टपकना
और मिट्टी में मिल जाना,
जो जलती हैं दिनभर
और पसीजती हैं
फिर भी उसकी आस थामे
डटी रहती हैं
पत्तों के उन कोनों पर जिनमें फिसलन है
जिनमें उदासी की काई है,
नाउम्मीदी का दलदल बिछा है नीचे कहीं,
मगर फिर भी डूबती नहीं
न सूखती, न मरती
बस एक उम्मीद में चिपकाए रखती है
अपने अस्थि-पंजर उस ठूँठ से
जो सूख चुका है सालों पहले
मर चुका है जिसमें प्रेम और जीवन भी
उसमें जीवन की उम्मीद लिए
साधे रहती है उसे
उसके पौरुष को,
उसके निर्मोही “मैं” को,
और
बखूबी निभाती है अपने जीवन चरित्र
“प्रेम-बारिश” की आस में
“विष-बेल नारी” बनकर।
वह भूल गई है दुःख जीना
वह भूल गई है दुःख जीना
संवेदनाएँ भी
कि अब, बस एक पहिए में बिदी
कोई पन्नी सी हो गई है ज़िन्दगी
जो चक्के के साथ
बिना किसी ध्येय के
सभी दिशाओं में फड़फड़ाती रहती है।
वह समेटती है ख़ुद को हर सुबह बिस्तर से
मिटाती है सलवटें थकान की
बुझाती है सुकून की लौ
और जमा देती है
अपने अधूरे सपनों को
बकस के ऊपर दोहड़ के साथ
कि लौटकर शाम को ओढ़ लेगी फिर वही चादर सपनों की
जिसे ओढ़कर वह जी पाती है
एक और दिन
मर पाती है एक और रात
वह निकलती है लादकर पीठ पर
बालिश्त भर का गोश्त
जिसे मालिक उसके कहते हैं बच्चा
और दुलार लेते हैं दूर से
मगर वह नहीं दुलारती
क्योंकि नहीं होती फुरसत उसे
पसारने की आँचल और
बिसारने की वह फेहरिस्त
जो तैयार मिलती है उसे हर सुबह,
जिसे करना होता है ख़तम हर शाम
वह भूल गई है रोना, मचलना, ज़िद करना
कि अब,
बस एक कोयले से काली हो गई है ज़िन्दगी
जो जानती है, जलना
या
रच देना काला अंधियारा संसार छुअन भर से।
बुरा होता है बड़ा होना
बुरा होता है बड़ा होना
कि फिर
छोटी सी चोट भी
माँ की प्यारी से ठीक नहीं होती
बड़े होते ही बाँधने लगते हैं गठरियाँ
द्वेष और पीड़ा की
ढोते हैं उन्हें, लाद चलते हैं पीनस पर
और तानकर सीना गुज़रते हैं
ज़ख्म देने वाले के सामने से
जैसे गुज़र रही हो सवारी किसी लाट की
कि फिर
हम बहलते नहीं किसी खिलौने से
और भूलते नहीं रोना मिनिट में
बल्कि
गाते हैं गीत रुदन के, दिन-महीनों-सालों तक
अंजुल भर व्यथा के लिए,
जिसने मारा है हथौड़ा, हमारे अभिमान से भरे मजूस पर
कि फिर
हम नहीं हो पाते अद्वैत
और पड़ जाते हैं फेर में द्वैत के,
तौलने लगते हैं अपने-पराए
नफ़े-नुकसान की तराजू से
और बांट देते हैं प्रेम टुकड़ों में
वैसे ही
जैसे बाँट दिए जाते हैं पत्ते किसी सट्टे को जीतने
कि फिर
हम रुक जाते हैं
बंद कर देते हैं सीखना, जानना, समझना
और शुरू कर चुके होते हैं
सिर्फ बघारना, मैं और मेरा
कि फिर
हम खो देते हैं
सारी संभावनाएँ एक बेहतर दुनिया बनाने की
क्योंकि हम बन चुके होते हैं
उसी दुनिया का हिस्सा
जिसके बेहतर होने की उम्मीद में मर चुके हैं
उसे बेहतर बनाने के सपने देखने वाले
इसलिए बुरा होता है बड़ा होना
अच्छा और सुंदर होता है तो सिर्फ
बच्चा बने रहना,
एक सुंदर मासूम बच्चा।
मेरे प्रेम
तुम नहीं जानते प्रेम को बांधना
किसी निहित दिन या हफ़्ते की बेड़ी में
ना ही उबलता है प्रेम तुम्हारा
किसी वार्षिक उत्सव के नाम पर
तुम्हें याद नहीं रहता
दुनिया में हम-तुम आए कब थे
या मेरी माँग में सितारे तुमने
सजाए कब थे
तुम अक्सर ही भूल जाते हो
किसी नए लिवास में मेरी तारीफें गढ़ना
या बनी-संवरी मेरी काया के नाम
चासनी में लिपटे क़सीदे पढ़ना
तुमने ख़रीदा नहीं मेरे नाम का
कोई तोहफ़ा ही कभी,
ना ही चमकी मेरी आँखों में
कभी अचरजभरी ख़ुशी
पर तुम जानते हो
शरीर से इतर मेरी आत्मा को तुष्ट करना
विपरीत घड़ियों में उपजी
मेरी असंतुष्टि को संतुष्ट करना
तुम करते हो प्रेम एक लय में
एक जैसा, एक बराबर
हर मिनिट, हर घंटे,
हर दिन, हर हफ़्ते
तुम मना लेते हो मेरे होने की ख़ुशी
बिना किसी तयशुदा दिन के
नहीं जीते तुम हमारे एक होने के हर्ष
तारीख़ें गिन-गिन के
तुम मुझे एहसास कराते हो
कि मैं सुंदर हूँ हर रूप में
मैंने पाया है तुम्हारा चरम प्रेम
जब जी रही थी जीवन के
क्षण सबसे कुरूप मैं,
तुम देते हो तोहफ़े में अक्सर ही
मेरे लिंग के नाम पर बनी
बेड़ियों को आहूतियाँ
भर देते हो मेरे रोम-रोम को अचरज से
देकर नित-नई विभूतियां
जब भी रुकी हूँ हताशा से
तुमने उत्साह से आगे बढ़ाया है
जब भी जकड़ा है रोष ने
तुमने प्रेम से शांत कराया है
तुम समेट लेते हो
मुझे बिखरने से पहले
तुम कहते हो मन से
कि मन का हर काम कर ले
तुम फँसने नहीं देते मेरे ख़याल
छल और प्रपंच में
तुम खड़े हो सीना तान आगे यूँ
कि नहीं लुट पाती लुटेरों से रंच मैं
तुममें भौतिकवाद का दंश नहीं
और सुनो
तुमसा निराला दुनिया में
दूसरा कोई अंश नहीं !!
जीवन का सुख
जीवन का सुख
जो चाहा था यथार्थ में
भटक रहा है कल्पनाओं के बीच कहीं,
मन की चाह
जिसमें भरी थी सपनों की हवा
गुब्बारे सी फूट, लावारिश पड़ी है कहीं
दिल के अरमान
जो डोलते थे बॉल से
इस पाले से उस पाले में,
अटक गए हैं किसी नोंक पर कहीं,
और दिमागी सुकून
जिसका वास है शांति में
विचर रहा है, कोलाहल के बीच कहीं।
सुनो पुरुष!
सुनो पुरुष,
ए मेरे दौर के लेखक
क्या लिखा है तुमने कभी
गोदी का एक पैर हिलाते हुए?
एक हाथ बच्चे के सर के नीचे फंसा उसे छाती से दूध पिलाते,
दूसरे हाथ से चलाते हुए?
क्या लिखा है तुमने कभी
कोई आधा ख़याल
जिसे पूरा करने से पहले ही रोया हो तुम्हारा बच्चा
और रुकी हो तुम्हारी क़लम
जिसे मिनिट और फिर घंटों तक रखा हो तुमने अधपका
क्योंकि तुम देख नहीं सकते बच्चे को रोता हुआ
न ही ख़याल को खोता हुआ,
क्या किया है तुमने कोई अधूरा ख़याल पूरा बच्चे के रुदन के साथ?
क्या लिखा है तुमने कभी
बच्चे को नहलाते, तेल लगाते
खाना खिलाते, खेल दिखाते
रसोई में खड़े होकर
एक हाथ से मसाले मिलाते
दूसरे हाथ से करछी हिलाते
मेहमानों को पानी पिलाते,
झाड़ू लगाते, चाय बनाते
और पूजा घर में सुबह-सबेरे दिया जलाते?
क्या लिखा है तुमने कभी
इस डर के साथ कि बहु क्या लिख रही है?
लैपटॉप-मोबाइल पर चलती उसकी उंगलियां दुनिया से क्या कह रही हैं?
कहीं वह घर और परंपरा की बुराई तो नहीं लिखती
थोड़ा लगाम कसकर रखो, दुनिया की शह से लड़कियाँ बहुत हैं अकड़ती
क्या लिखा है तुमने कभी संस्कारों का घूंघट ओढ़े,
मर्यादाओं को बिना तोड़े
रात के अंधेरे में छुपते-छुपाते हुए?
नहीं, तुमने नहीं लिखा होगा
तुम लिखते हो ऑफिस की डेस्क पर
घर में अपनी मेज पर
अपने समय में
जो सिर्फ तुम्हारा है
न तुम्हारी पत्नी का, न तुम्हारे बच्चे का
तुम लिखते हो तुम्हारे समय में क़लम चलाते हुए।
और हमें लिखना पड़ता है ‘सबके’ समय से थोड़ा-थोड़ा समय चुराते हुए।
हम चुन सकते हैं ना लिखना भी
जैसे बहुतों ने चुना होगा
हम चुन सकते हैं सिर्फ माँ, पत्नी, बहु और बेटी बने रहना भी,
हम चुन सकते हैं ऑफिस और घर में वर्कर बने रहना भी
हम चुन सकते बच्चों को बड़ा कर हॉस्टल भेजने तक का इंतज़ार अपने लिखने के लिए
हम चुन सकते हैं ‘अपने’ लिए अपने समय का खाली हो जाना भी
मगर हम नहीं चुनेंगे
क्योंकि अब हमने टुकड़ों-टुकड़ों में ही सही
लिखना सीख लिया है
अधूरे ख़यालों को मिनिट, दिन, महीनों तक भी मरने न देना सीख लिया है
तुम्हारे जीवन को चलाते हुए अपने जीवन को जीना सीख लिया है।
मटमैला पानी
झोंपड़ी के बाहर
मटमैले पानी में खेलती
बालिस्त भर की, नन्ही मछली सी ज़िन्दगी
चर्र-चूं की आवाज़ के साथ हिलते
टूटे कब्जों पर अटके, लकड़ी के फाटक से
भीतर माँ को देखती
जो बुन रही है
उंगलियों की सलाइयों
और उतरन की ऊन से
छत,
जो रोज़ थोड़ा फटकर
जोड़ लेती एक और पैबंद
जिसके नीचे माँ रातभर जागती है बंद आँखों से
जिसके उड़ जाने,
बह जाने,
और ढह जाने की बात माँ मुस्कुराकर सुना लेती है
वैसे ही
जैसे वो मुस्कुरा लेती है
मटमैले पानी में नहाकर,
उसमें अपनी भी मिट्टी मिलाकर,
छईं-छपाक के खेल खेलकर,
मुँह में भर, उँगली से दांत माँझकर,
उसे
देहरी से बाहर गड्ढे का पानी
कुआं जितना ही साफ दीखता है,
माँ दिखाती है
घड़ों में भरा मटमैला पानी
बताती है
बारिश में मटमैला होना पानी की सीरत है
वो कहती है,
हाँ,
देखी है उसने भी बारिश की मटमैली नदी,
फिर उसी गड्ढे के पानी से
कुछ बूंदें
छत बुनती माँ की तरफ उछालकर पूछती है
क्या हमारे घर में हमेशा बारिश का पानी आता है?
गरीब स्त्री
दुबली, पतली, छोटी सी
काली, लंबी, मोटी सी
वो हर रूप और हर रंग की
स्त्री ही तो है
नहीं, वह स्त्री नहीं
बस एक गरीब है
पेट बढ़ाए, कमर झुकाए
सांस फुलाए, आस लगाए
वो हर भाव, और हर ढंग की
स्त्री ही तो है
नहीं, वह स्त्री नहीं
बस एक गरीब है
पत्थर तोड़े, बासन रगड़े
कपड़े धोती, मैला ढोती
वो हर काम और हर मकाम पर
स्त्री ही तो है
नहीं, वह स्त्री नहीं
बस एक गरीब है
वो बिकती है बाजारों में
लुट जाए घर-बारों में
वो छलनी कपड़े से लाज बचाती
स्त्री ही तो है
नहीं, वह स्त्री नहीं
बस एक गरीब है
भीख माँगती, देहरी लाँघती
जूठा खाती, ढोर हाँकती
वो हर दर्द का थूक गटकती
स्त्री ही तो है
नहीं, वह स्त्री नहीं
बस एक गरीब है।
वो अधनंगी रहने को मजबूर थी
क्योंकि अमीरों के लिए वो मजदूर थी
वो एक रात की रखैल बनी
क्योंकि नौकर मालिक से नहीं कर सकता कहा-सुनी
उसे बेचा जाना निर्धनता
और खरीदा जाना अमीरी है,
जब हम ऊँचे कद कह देते हैं
ये लाचारी है, गरीबी है।
राहगीर की जिरह
हर रोज़ गुज़रती हूँ उस सड़क से
संग बांधे अपने
प्रेम, दया, करुणा और ममत्व की गठरी
उस सड़क से
जहाँ किनारे खुदे हैं ढेर सारे गड्ढे
दबे जिनमें कुछ बीज
घृणा, नफ़रत और टीस के
बीते वक़्त में लगी चोट के
किसी उलझन के
क्रोध के
बीज जो फूट पड़ते हैं
मेरे कदमों के साथ
कदम-दर-कदम
और रोक लेते हैं मेरी राह को
मेरे सफ़र को
जो पाना चाहता है मंज़िल
करना चाहता है प्रेम
लुटाना चाहता है सर्वश्व
लेकिन सफ़र के अंत तक
दब चुके होते हैं उन गड्ढों में
करुणा, प्रेम, ममत्व और दया
और साथ पहुँचते हैं
वे जो कपड़ो में लिपट जाते हैं
किसी थेथर कांटे की तरह
बिन बताए,
बस करने को जिरह
और
देने को विरह।
मेरी पुत्रवधु
अर्द्धरात्रि के स्वप्न में देखना पुत्रवधु को
भविष्य की एक सुंदर कल्पना का
आश्चर्यकारी रूप था
मैं हैरान थी उसकी सूरत पर
कुछ हद तक सीरत पर भी
क्या वह मेरा ही प्रतिरूप था?
क्षणभर के लिए पाया मन को
अप्रत्याशित भय से काँपता
क्या पाएगी वह भी कोई चरवाहा
जो रहेगा उसे हाँकता?
मैंने झट बदली अपनी कल्पना कि वह कुरूप छवि
अगले क्षण जीवंत हुई फिर कोई अखंडनीय प्रति
क्योंकि,
नहीं चाहती हूँ
एक और पुत्री को होते देखना बड़ा
पराया मानकर
वह रहेगी ‘निज’ घर में
स्व-अस्तित्व को पहचानकर
मैंने देखी सपने में
सपनों के पीछे भागती
ख़्वाहिशें पहचानती
मेहनतकश पुत्रवधु
जिसकी फ़िक्र में सिर्फ़
रोटी गोल नहीं,
ज़ेवर अनमोल नहीं,
बैंक बैलेंस पति का
जो ना समझे पुरु
मैंने देखा अपने पुत्र को
बच्चे संभालते
कपड़े खंगालते
गृहस्थी में निपुण
जो साथी हो पत्नी का
अधिकारी नहीं
दुराचारी नहीं
न हो उसमें पितृसत्ता का दुर्गुण
भविष्य के क्षितिज पर वह दमकता स्वप्न-स्वरूप था,
परस्व को नकारती उस पुत्रवधु का
वह सुंदरतम परिरूप था।
सुंदर स्त्री
वामा रूप धरे
श्रम साधती, स्वप्न पालती स्त्री
कुंठा रोग से ग्रस्त
हर उस पुरुष को खटकती है
जो बाहर से छैला
और
भीतर से विषैला है।
वे नहीं बन सके पुत्र के पिता
वे नहीं बन सके पुत्र के पिता
किस्मत ने डाल दी
झोली में गिनती भर पुत्रियाँ,
पुत्रियाँ जिन्हें बड़ा करने में वे ख़र्च करेंगे जीवन उतना ही
जितना करते ख़र्च, पुत्र को बड़ा करने में
पुत्रियाँ जो इस ख़र्च हुए जीवन का ना मूल चुका पाएंगी ना ब्याज
वे ब्याह दी जाएंगी कुछ और पुत्र जनने के लिए
रह जाएंगे पिता
मुक्त होकर दान से
और बँध जाएँगे पिता
बकाया जीवन अकेले काटने की जद्दोजहद में।
वे उम्मीद करेंगे पेंशन की, नौकरी के बाद
वे जोड़ेंगे धन, बुढ़ापे को काटने
वे मान लेंगे कि उन्हें नहीं मिला कोई “लाभ” जवानी को जलाने का
पुत्रियों को क़ाबिल बनाने का
पुत्रियाँ, जिनसे जुड़ा था अब तक नाम पिता का,
पहचान पिता की,
वे चंद रस्मों के बाद ही अस्तित्व की नई नींव पर खड़ी होंगी
पाकर पहचान पति की
और पिता?
वे बिताएंगे जीवन राह देख-देख
दिन गिनेंगे उंगलियों पर
जिन पुत्रियों को पोषने में जीवन ख़र्च किया
उनके विरह में धुंधलाएगी नज़र
वे उढेल देंगे मोह का घड़ा नाती-नातिनों पर
जिसे भरेंगे प्रतिवर्ष
पुत्रियों के जाने से लेकर पुत्रियों के आने तक।
वे नहीं जता सकते उतना ही अधिकार
अपनी पुत्री के पुत्र पर
जितना तय कर दिया गया है पुत्रों के पुत्र के लिए
वे बस इस संतोष से मृत्यु का आलिंगन करेंगे
कि पुत्री के ‘पुत्र’ द्वारा ही सही
उनका वंश और उनका अंश दोनों ही
उनके बाद भी जीवित रहें,
क्योंकि वे स्वयं नहीं बन सके पुत्र के पिता।
आत्महत्या
मैं चंद घड़ी देखती हूँ
किसी दूर खड़े दरख़्त को
मुझे नहीं दिखता कोई रंग हरा,
या कत्थई,
पत्तियों के बीच से, तने के भीतर से
उभर आता है फिर-फिर वही चेहरा
सितारों-सी चमकती आँखें
चंचल-सी मुस्कान
दिमाग़ का ख़ाली होना
क्या इस क़दर भी वेदनीय हो सकता है?
कि मैं चंद लम्हे भी फ़ुरसत के बिताती हूँ तो
दिखने लगती है एक देह, फंदे से झूलती
मैं हँसती हूँ, हँसाती हूँ
पलटकर बातें भी बनाती हूँ
लिप्त हो बाल-क्रीड़ा में
टीस को ठेंगा भी दिखाती हूँ
ज्यों ही पसरती हूँ थककर सुस्ताने को
मन ले आता है वही ख़याल सताने को
वह कौन था मेरा? मस्तिष्क दुत्कार कर पूछता है,
सुनो! बड़ा ही बेतुका-सा सवाल है
जिसके लिए कहीं कोई जवाब न सूझता है।
जोड़ लेना किसी के सपनों से अपने सपनों को
किसे ऐसे रिश्तों का नाम बुझता है।
मर जाना किसी हमउम्र का वक़्त से पहले
डूब जाना किसी नाव का उस तल में, जहाँ बालक भी रह ले
कट जाना किसी फलदार वृक्ष का, औचित्य के बिना
कैसे संभव है कानों में गूँजती चीख़ों को कोई कर दे अनसुना?
अब तक जीवन में भोगे हैं जितने भी भाव
सब फ़ीके हैं,
घुलनशील लगी सबकी वेदना
जब समझा है आज “आश्चर्य” को
मैं चंद घड़ी देखती हूँ
किसी दूर खड़े दरख़्त को…!