मोहब्बत में आया है तन्हा अभी रंग
मोहब्बत में आया है तन्हा अभी रंग
बदलने लगी है मगर ज़िंदगी रंग
बहारों के आँचल में ख़ुश-बू छुपी है
गुलों की क़बा में भरे हैं सभी रंग
तुम्हारे बिना सब अधूरे हैं जानाँ
सबा फूल ख़ुश-बू चमन रौशनी रंग
जो भूले से बचपन में पकड़ी थी तितली
सुरूर-ए-वफ़ा में भी उतरा वही रंग
न जाने कहाँ से बरसती है बारिश
सजाती है तेरे अगर दिल-बरी रंग
मिले ‘इंदिरा’ मेरा पैग़ाम उन को
लिए है मुकम्मल मेरी शाएरी रंग
वो अजीब शख़्स था भीड़ में जो नज़र में
वो अजीब शख़्स था भीड़ में जो नज़र में ऐसे उतर गया
जिसे देख कर मेरे होंट पर मेरा अपना शेर ठहर गया
कई शेर उस की निगाह से मेरे रुख़ पे आ के ग़ज़ल बने
वो निराला तर्ज़-ए-पयाम था जो सुख़न की हद से गुज़र गया
वो हर एक लफ्ज़ में चाँद था वो हर एक हर्फ़ में नूर था
वो चमकते मिसरों का अक्स था जो ग़ज़ल में ख़ुद ही सँवर गया
जो लिखूँ तो नोक-ए-क़लम पे वो जो पढ़ूँ तो नोक-ए-ज़बाँ पे वो
मेरा ज़ौक़ भी मेरा शौक़ भी मेरे साथ साथ निखर गया
हो तड़प तो दिल में ग़ज़ल बने हो मिलन तो गीत हूँ प्यार के
हाँ अजीब शख़्स था ‘इंदिरा’ जो सिखा के ऐसे हुनर गया
दिल के बे-चैन जज़ीरों में उतर जाएगा
दिल के बे-चैन जज़ीरों में उतर जाएगा
दर्द आहों के मुक़द्दर का पता लाएगा
मेरे बिछड़े हुए लम्हात सजा कर रखना
वक़्त लफ़्ज़ों में ग़ज़ल बन के ठहर जाएगा
उस की हर बात जफ़ा-पेशा हुई है अक्सर
ज़ख़्म का ख़ौफ़ कभी उस को भी दहलाएगा
वक़्त ख़ामोश है टूटे हुए रिश्तों की तरह
वो भला कैसे मेरे दिल की ख़बर पाएगा
शाम-ए-ग़म आज भी गुज़री है हसीं ख़्वाबों में
ग़म-ए-जानाँ तो मोहब्बत में सितम ढाएगा
दिल मेरा आज जफ़ाओं पे बहुत नाज़ाँ है
मेरे होंटों पे तबस्सुम ही नज़र आएगा
उस के मिज़राब से जब राग बनेंगे दीपक
मेघ चुपके से मेरे दिल पे बरस जाएगा
आज फिर चाँद उस ने माँगा है
आज फिर चाँद उस ने माँगा है
चाँद का दाग़ फिर छुपाना है
चाँद का हुस्न तो है ला-सानी
फिर भी कितना फ़लक पे तन्हा है
काश कुछ और माँगता मुझ से
चाँद ख़ुद गर्दिशों का मारा है
दूर है चाँद इस ज़मीं से बहुत
फिर भी हर शब तवाफ़ करता है
बस्तियों से निकल के सहरा में
जुस्तुजू किस की रोज़ करता है
किस ख़ता की सज़ा मिली उस को
किस लिए रोज़ घटता बढ़ता है
चाँद से ये ज़मीं नहीं तन्हा
ऐ फ़लक तू भी जगमगाया है
आज तारों की बज़्म चमकी है
चाँद पर बादलों का साया है
रौशनी फूट निकली मिसरों से
चाँद को जब ग़ज़ल में सोचा है
अभी से कैसे कहूँ तुम को बे-वफ़ा साहब
अभी से कैसे कहूँ तुम को बे-वफ़ा साहब
अभी तो अपने सफ़र की है इब्तिदा साहब
न जाने कितने लक़ब दे रहा है दिल तुम को
हुज़ूर जान-ए-वफ़ा और हम-नवा साहब
तुम्हारी याद में तारे शुमार करती हूँ
न जाने ख़त्म कहाँ हो ये सिलसिला साहब
किताब-ए-ज़ीस्त का उनवान बन गए हो तुम
हमारे प्यार की देखो ये इंतिहा साहब
तुम्हारा चेहरा मेरे अक्स से उभरता है
न जाने कौन बदलता है आईना साहब
रह-ए-वफ़ा में ज़रा एहतियात लाज़िम है
हर एक गाम पे होता है हादसा साहब
सियाह रात है महताब बन के आ जाओ
ये ‘इंदिरा’ के लबों पर है इल्तिजा साहब
मुझे रंग दे न सुरूर दे मेरे दिल में ख़ुद
मुझे रंग दे न सुरूर दे मेरे दिल में ख़ुद को उतार दे
मेरे लफ़्ज़ सारे महक उठें मुझे ऐसी कोई बहार दे
मुझे धूप में तू क़रीब कर मुझे साया अपना नसीब कर
मेरी निकहतों को उरूज दे मुझे फूल जैसा वक़ार दे
मेरी बिखरी हालत-ए-ज़ार है न तो चैन है न क़रार है
मुझे लम्स अपना नवाज़ के मेरे जिस्म ओ जाँ को निखार दे
तेरी राह कितनी तवील है मेरी ज़ीस्त कितनी क़लील है
मेरा वक़्त तेरा असीर है मुझे लम्हा लम्हा सँवार दे
मेरे दिल की दुनिया उदास है न तो होश है न हवास है
मेरे दिल में आ के ठहर कभी मेरे साथ उम्र गुज़ार दे
मेरी नींद मूनिस-ए-ख़्वाब कर मेरी रत-जगों का हिसाब कर
मेरे नाम फ़स्ल-ए-गुलाब कर कभी ऐसा मुझ को भी प्यार दे
शब-ए-ग़म अँधेरी है किस क़दर करूँ कैसे सुब्ह का मैं सफ़र
मेरे चाँद आ मेरी ले ख़बर मुझे रौशनी का हिसार दे
ये मौसम सुरमई है और मैं हूँ
ये मौसम सुरमई है और मैं हूँ
मगर बस ख़ामोशी है और मैं हूँ
न जाने कब वो बदले रुख़ इधर को
मुसलसल बे-रुख़ी है और मैं हूँ
तग़ाफ़ुल पर तग़ाफ़ुल हो रहे हैं
किसी की दिल-लगी है और मैं हूँ
तसव्वुर ही सहारा बन गया है
अजब तन्हाई सी है और मैं हूँ
ये कैसी वक़्त ने बदली है करवट
फ़रेब-ए-ज़िंदगी है और मैं हूँ
लबों पे नाम चेहरा है नज़र में
बड़ी नाज़ुक घड़ी है और मैं हूँ
उदासी ‘इंदिरा’ इतनी बढ़ी है
हमेशा शाएरी है और मैं हूँ”
तमाम फ़िक्र ज़माने की टाल देता है
तमाम फ़िक्र ज़माने की टाल देता है
ये कैसा कैफ़ तुम्हारा ख़याल देता है
हमारे बंद किवाड़ों पे दस्तकें दे कर
शब-ए-फ़िराक़ में वहम-ए-विसाल देता है
उदास आँखों से दरिया का तज़्करा कर के
ज़माना हम को हमारी मिसाल देता है
ये कैसा रात में तारों का सिलसिला निकला
जो गर्दिशों में मुक़द्दर भी ढाल देता है
बिछड़ के तुम से यक़ीं हो चला है ये मुझ को
के इश्क़ लुत्फ़-ए-सज़ा बे-मिसाल देता है
शिकस्ता-दिल अँधेरी शब अकेला राह-बर
शिकस्ता-दिल अँधेरी शब अकेला राह-बर क्यूँ हो
न हो जब हम-सफ़र कोई तो अपना भी सफ़र क्यूँ हो
किसी की याद में आँसू का रिश्ता इस तरह रक्खो
के दिल पहलू अगर बदले तो चेहरा तर-ब-तर क्यूँ हो
मेरे हम-दम मेरे दिल-बर ज़रा इतना बता देना
कोई बे-दर्द हो तो दर्द दिल में इस क़दर क्यूँ हो
कभी भूले से जो पैग़ाम उन का आया भी इक दिन
जुदाई की तड़प में रोज़ ऐसा ही असर क्यूँ हो
नश्शा आँखों में ले कर सो रहो ऐ जागने वालो
अगर ये आँख खुल जाए तो ख़्वाबों का गुज़र क्यूँ हो
परीशाँ रात में दिल है चराग़-ए-आस के मानिंद
शब-ए-वादा न आए वो तो रौशन सी सहर क्यूँ हो
मुसलसल रात दिन चलना है राह-ए-इश्क़ में तन्हा
किसी के वास्ते ये राह आख़िर मुख़्तसर क्यूँ हो
मोहब्बत में सुना है राह दिल की दिल से होती है
अगर यूँ ‘इंदिरा’ तड़पे तो जानाँ बे-ख़बर क्यूँ हो
हज़ार ख़्वाब लिए जी रही हैं सब आँखें
हज़ार ख़्वाब लिए जी रही हैं सब आँखें
तेरे बिना हैं मगर मेरी बे-सबब आँखें
चमकते चाँद सितारो गवाह तुम रहना
लगी रही हैं फ़लक से तमाम शब आँखें
तुम्हारे सामने रहती हैं नीम-वा हम-दम
हया-शनास बहुत हैं ये बा-अदब आँखें
बस एक दीद की हसरत सजा के पलकों पर
मिलेंगी तुम से ख़यालों में बे-तलब आँखें
सिला दिया है मोहब्बत का तुम ने ये कैसा
मुसर्रतों में भी रोने लगी हैं अब आँखें
काश वो पहली मोहब्बत के ज़माने आते
काश वो पहली मोहब्बत के ज़माने आते
चाँद से लोग मेरा चाँद सजाने आते
रक़्स करती हुई फिर बाद-ए-बहाराँ आती
फूल ले कर वो मुझे ख़ुद ही बुलाने आते
उन की तहरीर में अल्फ़ाज़ वही सब होते
यूँ भी होता के कभी ख़त भी पुराने आते
उन के हाथों में कभी प्यार का परचम होता
मेरे रूठे हुए जज़्बात मनाने आते
बारिशों में वो धनक ऐसी निकलती अब के
जिस से मौसम में वही रंग सुहाने आते
वो बहारों का समाँ और वो गुल-पोश चमन
ऐसे माहौल में वो दिल ही दुखाने आते
हर तरफ़ देख रहे हैं मेरे हम-उम्र ख़याल
राह तकती हुई आँखों को सुलाने आते
ये शफ़क़ चाँद सितारे नहीं अच्छे लगते
ये शफ़क़ चाँद सितारे नहीं अच्छे लगते
तुम नहीं हो तो नज़ारे नहीं अच्छे लगते
गहरे पानी में ज़रा आओ उतर कर देखें
हम को दरिया के किनारे नहीं अच्छे लगते
रोज़ अख़बार की जलती हुई सुर्ख़ी पढ़ कर
शहर के लोग तुम्हारे नहीं अच्छे लगते
दर्द में डूबी फ़ज़ा आज बहुत है शायद
ग़म-ज़दा रात है तारे नहीं अच्छे लगते
मेरी तन्हाई से कह दो के सहारा छोड़े
ज़िंदगी भर ये सहारे नहीं अच्छे लगते
यूँ वफ़ा के सारे निभाओ ग़म के फ़रेब में
यूँ वफ़ा के सारे निभाओ ग़म के फ़रेब में भी यक़ीन हो
कोई बात ऐसी कहो सनम के फ़रेब में भी यक़ीन हो
ये दयार-ए-शीशा-फ़रोश है यहाँ आईनों की बिसात क्या
यहाँ इस तरह से रखो क़दम के फ़रेब में भी यक़ीन हो
मेरी चाहतों में ग़ुरूर हो दिल-ए-ना-तवाँ में सुरूर हो
तुम्हें अब के खाना है वो क़सम के फ़रेब में भी यक़ीन हो
यही बात कह दो पुकार के वही सिलसिले रहें प्यार के
इसी नाज़ में रहे फिर भरम के फ़रेब में भी यक़ीन हो
मेरे इश्क़ का ये मेयार हो के विसाल भी न शुमार हो
इसी ऐतबार पे हो करम के फ़रेब में भी यक़ीन हो
मेरे इंतिज़ार को क्या ख़बर तुम्हें इख़्तियार है इस क़दर
मुझे दो सलीक़ा ये कम से कम के फ़रेब में भी यक़ीन हो
जहाँ ज़िक्र-ए-मेहर-ओ-वफ़ा मिले वहीं ‘इंदिरा’ का क़लम चले
ये किताब-ए-इश्क़ में हो रक़म के फ़रेब में भी यक़ीन हो
शफ़क़ के रंग निकलने के बाद आई है
शफ़क़ के रंग निकलने के बाद आई है
ये शाम धूप में चलने के बाद आई है
ये रौशनी तेरे कमरे में ख़ुद नहीं आई
शमा का जिस्म पिघलने के बाद आई है
इसी तरह से रखो बंद मेरी आँखें अब
के नींद ख़्वाब बदलने के बाद आई है
यक़ीन है के कभी बे-असर नहीं होगी
दुआ लबों पे मचलने के बाद आई है
नदी जो प्यार से बहती है रेग-ज़ारों में
ये पत्थरों में उछलने के बाद आई है
थी जिस बहार की उल्झन तमाम मुद्दत से
वो ‘इंदिरा’ के बहलने के बाद आई है