मर्यादा का मुखौटा
ये क्या है,
जो मानता नहीं
समझता नहीं
समझना चाहता नहीं
कुछ कहता नहीं
कुछ कहना चाहता नहीं।
तुम इसे गफ़लत का नाम दो
मैं इसे मतलब का ।
तुम्हारा समर्पण, निष्ठा
कहीं मेरे स्वार्थ के शिकार तो नहीं
तुम्हारी अटूट श्रद्धा ने
मुझे न जाने क्या समझा है
लेकिन मैं अन्दर तक जब भी
झाँकता हूँ अपने गिरेबाँ में तो
नज़र आता है केवल
मेरा बौनापन
विकृत मानसिकता,
जिसे दिन के उजाले में
मैं ढाँपे रहता हूँ
मर्यादा के मुखौटे से
सामाजिक शिष्टाचार से ।
क्या लिखूँ ?
भाव बहुत हैं,
बेभाव है, पर
उनका क्या करूँ
तुम मुझे कहते हो लिखो, पर
मैं लिखूँ किस पर
समाज के खोखलेपन पर
लोगों के अमानुषिक व्यवहार पर
या अपने छिछोरेपन पर
लिखने को कलम उठाता हूँ
तो सामने नज़र आती है
भूख ।
जो मगरमच्छ–सा मुँह उठाए
सब कुछ निगल लेना चाहती है
क्या लिखूँ
अपने सामाजिक स्तर पर ।
जहॉं पहनने को कपड़ा नहीं
रहने को घर नहीं
देश का भविष्य
कई वर्षों तक नंगा घूमता है ।
और क्या लिखूँ
आर्थिक प्रगति के नाम पर
कच्ची सड़कें हैं ।
लोग पैदल चल रहे हैं ।
मोटी जूतियों के तलवे भी
अब घिस चुके हैं ।
पाँवोँ में मोटी-मोटी आँटने-सी
हो गई हैं
फिर भी, चल रहे हैं
आर्थिक प्रगति के नाम पर
सब कुछ कर रहे हैं ।
फिर भी यदि कुछ लिखना चाहूँ
तो अपनों से डरता हूँ ।
कुछ ध्यान भंग करते हैं
कुछ रोज़ तंग करते हैं।
फिर भी थोडे बहुत
सफ़ेह स्याह किए
उन्हें सफ़ेद करने का श्रेय
कोई और न ले ले
इसीलिए डरता हूँ
अब तुम्हीं बताओ
किसके लिए लिखूँ
शोहरत के लिए
जो कभी बिक जाएगी
या फिर लोग उसे
मेरे मरने के बाद
हुण्डी की तरह
भुनायेंगे, उनके लिए
ऐसे लिखने से बेहतर है
बेभाव सहते जाओ
पीते जाओ – अन्दर ही अन्दर मज़ा लो
बाहर आते ही दुनिया की सज़ा लो ।
मृगतृष्णा
एक मोटा चूहा
मेरी ज़िन्द़गी को
बार-बार कुतर रहा है
अपने पैने दाँतों से ।
उसने मेरी ज़िन्दगी की
डायरी को कुतर-कुतर के
अपनी भटकती ज़िन्दगी
का बदला लेना चाहा ।
उसकी मांग है कि
आदमी की तरह
उसके जीवन में भी
सुरक्षा हो ।
वो मेरा जीवन
सुरक्षित समझ रहा है
शायद ये उसकी मृगतृष्णा है
सच ये है कि
मैं भी अपने अस्तित्व के लिए
किसी न किसी बहाने
किसी न किसी को
कुतर ही रहा हूँ ।
पर मेरे दाँत दिखाई नहीं देते
क्योंकि मैं रोज़
इन पर ब्रुश से
सुगन्धित मुल्लम्मा
लगाता हूँ ।
यह कैसी शाम है
यह कैसी शाम है
जो ठहर-सी गई है
यह कैसी शाम है
जो देख रही है मायूस नज़रों से ।
आज क्या हो गया है इन्हें
मेरे मन की तरह
हवाओं को, सुगन्धों को
और दिशाओं को
पक्षघात-सा क्यों हो गया है ।
वातावरण में थिरकन क्यों नहीं
मुझे बिना साँसों की शाम से
डर लगता है ।
घर के झरोखों से
छन-छन का आता
बुझा-बुझा-सा प्रकाश
मेरे मन को जैसे बाँध रहा है ।
किसी शिवालय में बजते घंटे
और मंदिरों में हो रही आरती
जैसे प्रयासरत हों इस मरी हुई
शाम को सुहानी बनाने के लिए ।
सजीव पौधे
आज की शाम इतने निर्जीव
क्यों हो गए हैं
क्यों नहीं
चिडि़या कोई गीत गाकर
इस शाम को बहलाती ।
प्यासे पेड़ों को आज
अपनी प्यास बुझानी है ।
पत्ता-पत्ता मेरे मन की तरह
प्यासा नज़र आता है।
आओ ना
तुम मुझे इस ठहरी हुई
उदास शाम के चंगुल से
मुक्त करा कर ले चलो ।
ये मन
हाँ, ये मन प्यासा कुआँ है
मन अंधा कुआँ है ।
मन एक ऐसा जुआ है
जो सब कुछ जीत कर भी
अतृप्त ही रहता है ।
जिसकी अभिलाषाओं का
पार नहीं ।
ये न मेरी बेबसी देखता है
न मेरी मुफ़लिसी ।
एक जिद्दी औरत की तरह
इसकी माँग मुझे बिकने को
मज़बूर करती है ।
मन पर महावत का अंकुश भी
बेमानी है ।
मन की छटपटाहट, बेचैनी
और उदासी
मुझे उद्वेलित करती है ।
इसके आचरण का
दास बने कोई ।
लेकिन
ये मन साधना की लगाम से
कतराता है, घबराता है ।
जो मन को अपने शिकंजे में
कसने के लिए तैयार तो है
लेकिन वृत्तियों को सहारा
तो देना ही पडेगा ।
श्रम और साधना
उपासना को साकार बना देंगे ।
फिर ये मन
प्यासा, अंधा, कुआँ
न जुआ होगा ।
एक विनम्र सदाचारी
विद्यार्थी की तरह
निर्मल रहेगा, ये मन
हाँ ! ये मन ।
उजियारे की डोर (कविता)
उजाले के समन्दर में
गोते लगाकर मैंने
अंधियारे मन को
रोते देखा ।
जगमगाहट से लबरेज़ उस हवेली
का हर कोना
फटे-हाल भिखारी-सा, सजा-धजा-सा था ।
पर, मौन, नि:शब्द, डरा-सहमा
कातर निगाहों से अपनी
बेबसी कहता ।
थका देने वाला इन्तज़ार
हतोत्साहित प्रेमिका के आगोश में
उजियारक की प्रतीक्षा में
सजा-सँवरा ।
कैसी है ये ख़ुशी, किसके लिए
कौन थामेगा, इस उजियारे की डोर
जिसका उजाले में
कोई ओर न छोर ।
समन्दर का किनारा
उफनती लहर ने पूछा
समन्दर के किनारे से
निस्तेज से क्यूँ हो
शान्त मन में क्या है तुम्हारे ।
समेटे हूँ अथाह सागर
तीखा, पर गरजता है ।
छल, दम्भ इसका कोई न जाना
मैं शान्त, नीरव और निस्तेज-सा
बेहारल, करता इसकी रखवाली।
कहीं विध्वंस ना कर दे,
चाल इसकी मतवाली ।
गरजता ज़ोर से जब वो
ऊन कर मुझ तक आता है
थपेड़ा प्यार का पाकर वहीं
यह बुझ-सा जाता है ।
कदम दो-चार पीछे जा के फिर
ये जोश खाता है ।
लेकिन मुझ तक आकर
यह फिर लौट जाता है ।
अनवरत यह चक्र चलता ही रहा है
ताण्डव करे शिव, क्रोध देवों ने सहा है ।
बस यही सोचकर निस्तेज़ हूँ ।
लहरों के थपेड़ों से
हर क्षण लबरेज हूँ ।
पंछी की पीड़ा
पंछी उड़ता डोले है आकाश में
डोल- डोल थक जाए ये तन
जरत दिया मन आस में
पंछी उड़ता डोले है आकाश में ।
उषा की वेला में
पंछी अपने पंख पसार उड़ा
गगन चूम लूँ,
सूरज मेरा, मन में था विश्वास बड़ा
सांझ हुई तब लौट चला वो
पिया मिलन की आस में ।
बड़े पेड़ पर नीड़ बनाकर,
कुनबे को उसने पाला था ।
इधर-उधर से दाना लाकर
अपने बच्चों को डाला था ।
पंख मिले पड़ चले परिन्दे
भूल गया विश्वास में ।
बनना और बिगड़ना घर का,
पंछी की है यही कहानी
उजड़े घर को फिर बना लूँगा,
जब तक मेरी रहे जवानी
अनचाही पीड़ा से कैसी,
रहे प्यार की प्यास में।
पंछी उड़ता डोले है आकाश में ।
अनाम रिश्तों का दर्द
अनाम रिश्तों में कोई दर्द कैसे सहता है,
खून के बाद नसों में पानी जैसा बहता है ।
जरा सी ठेस से दिल में दरार आ जाती है,
बादे सब भूल के वो अजनबी-सा रहता है ।
खुलूस-ए दिल में मोहब्बत का असर है उसमें,
फिर क्यों वो अनमना और बेरूखा-सा रहता है ।
जरा से घाव को कुरेदा लहुलुहान हुआ,
मरीजे हिज्र का अब हाल बुरा रहता है ।
दिल हो जब बोझिल तो सुकून आता नहीं,
सारी दुनिया से ही वो अनमना-सा रहता है ।
उसने हँसकर दिखाया आइना मुझे,
देख के शक्ल खुद वो खौफ़ज़दा रहता है ।
मेरे नसीब में सिर्फ़ मेरे आँसू हैं,
इन्हें लबों से पी लूँ ये कौन कहता है ।
जीने का अरमान
दु:ख में मुझको जीने का अरमान था
सुख आया जीवन में ऐसे
लेकिन मैं कंगाल था ।
लक्ष्य नहीं था, दिशा नहीं थी
लेकिन बढ़ते ही जाना था
नहीं सूझता था मुझको कुछ
अपनी ही धुन में गाता था ।
पंख लगाकर समय उड़ गया
लेकिन मैं ग़मख़्वार था ।
सुख की बदली ऐसी आई
मन में केवल प्रीत समाई ।
दिन के पंख लगे कुछ ऐसे
शेष नहीं केवल परछाईं ।
अब अपने ही लगे डराने
लेकिन मैं लाचार था ।
रेत के समन्दर में सैलाब
रेत के समन्दर में सैलाब आया है
न जाने आज ये कैसा ख़्वाब आया है
दूर तक साँय-साँय-सी बजती थी शहनाई जहाँ
वहीं लहरों ने मल्हार आज गाया है ।
अजनबी खुद परछाई से भी डरता था जहॉं
वहीं आइना खुद-ब-खुद उग आया है ।
अनगढ़ा झोंपड़ा मेरे सपनों का महल होता था
मेरे बच्चों को फिर वो ही ख़्वाब भाया है ।
करेगा कौन परवरिश मेरी विरासत की
यही सोच के हर बार दु:ख में गीत गाया है ।