आशा
पतझड़ की सूनी शाखों को
नित है हरियाली की आशा,
फिर से मानवता लौटेगी
जोह रहा पथ “पथिक” उदासा|
आजादी की आशा लेकर
वीरों ने दे दी कुर्बानी,
पर भारत के लोगों का है
मरा आज आँखों का पानी |
शहर-शहर है दहशत फैली
बस्ती-बस्ती आग लगी है,
अपने पुत्रों की करनी पर
भारत माँ स्तब्ध ,ठगी है |
घोर विषमता की बेला है
हर इन्सां का मन मैला है,
बीत गई वह हँसी-ठिठोली
कैसा सन्नाटा फैला है?
पर लौटेंगे स्वर्णिम दिन फिर
धीर धरो रे! प्यारी आशा,
द्वारे वन्दनवार सजाए
लिये आरती मेरी आशा
गुमशुदा
चाँद से तेरा पता जो पूछा
उसने कहा मालूम नही
वो भी तो तेरा आशिक है
हमको भला मालूम नहीं
पहले तो बातों पे बातें थीं
तनहा न ये चाँद रातें थीं
कहते थे मुझसे कि सो जाईये
और नींदों में फिर सौगातें थीं
वो हमसे रूठे बैठे हैं
हमें अपनी खता मालूम नहीं
चाँद से तेरा पता जो पूछा
उसने कहा मालूम नही
राहों में गिरते संभलते हैं
अरमां भी यूं अब मचलते हैं
यादों में उनकी ही खोए हैं
रातों को जागे न सोए हैं
वो दिल में जबसे आई है
हमेंअपना पता मालूम नहीं
चाँद से तेरा पता जो पूछा
उसने कहा मालूम नही
यादों की छतरी सुनहरी मेंं
बैठे हैं जलती दुपहरी में
होठों पे उनके तराने लिए
आखों में गुजरे जमाने लिए
हम भीगे-भीगे लगते हैं
कब छाई घटा मालूम नहीं
चाँद से तेरा पता जो पूछा
उसने कहा मालूम नही ।
खुद को पाया तन्हा जब भी
खुद को पाया तनहा जब भी
बस किया यही एक काम
लिखा किया मैने छिपकर
एक गजल तुम्हारे नाम
इस भीगी सी तनहाई में
याद तुम्हारी होती संग
मेरे रूखे से मन में भी
भर जाती जाने क्या उमंग
अब मन ही मन मुस्काने को
हुआ गली गली बदनाम
लिखा किया मैने छिपकर
एक गजल तुम्हारे नाम
मेरे इन गीतों को जो कभी
आवाज तुम्हारी मिल जाए
इनमें से खुशबू बिखर उठे
सांसों मेंं चंदन घुल जाए
तुम राग में ढालो जो इनको
मेरे गीत न हो गुमनाम
लिखा किया मैने छिपकर
एक गजल तुम्हारे नाम
हो दूर तुम्हारी आंखों से
देखो कितना मैं भटका हूं
पा ही लूंगा तुमको एक दिन
इस एक आस पर अटका हूं
मन में अपने ही रख लो तुम
बस यही है मेरा मकाम
लिखा किया मैने छिपकर
एक गजल तुम्हारे नाम
तुम्हारे बिना
आंखों से अक्सर ही
आंसू छलक जाते हैं
हम उनको पोंछकर
फिर भी मुस्कुराते हैं
देखो अनगिन सितारों में चाँद अकेला है
मैं भी तो हूं तनहा चारों तरफ मेला है
जब याद आती हो तुम
कटती नहीं रातें हैं
आंखों से अक्सर ही
आंसू छलक जाते हैं
खुशबू तुम्हारी मैंने रूह में बसाई है
तुम नहीं साथ मेरे रहती तनहाई है
सामने नजर के तुम
तनहा खुद को पाते हैं
आंखों से अक्सर ही
आंसू छलक जाते हैं
आना मत लौट कभी रिमझिम बरसात में
अब नहीं कुछ भी तुम्हें देने को हाथ में
याद कोई दिल में लिए
गीत लिखते जाते है
आंखों से अक्सर ही
आंसू छलक जाते हैं
आंसुओं में भीग भीग
होठ मुस्कुराते हैं
एक बगिया ढूंढा करता था
एक बगिया ढूंढा करता था
एक फूल की खुश्बू दिल मे थी
कुछ भौरें गूंजा करते थे
एक डाल पे चिड़िया बोली थी
तेरे काँधे पे जो सर रक्खा
तेरी जुल्फें वो बाग बनी
मुस्कान तेरी वो फूल बनी
मन भौंरे सा फिर बहक उठा
तेरे डाल से कंधे पर
में चिड़िया बन कर चहक उठा
अजनबी बन कर रहा
एक अजनबी से प्यार कर मैं अजनबी बनकर रहा
साँस जिसने छीन ली वो ही जिंदगी बनकर रहा
झूम उठा उसे सोचकर उसे देखकर मै खिल पड़ा
मैं कोई प्यासा वो मेरी मयकसी बनकर रहा
जिस तरफ भी वो गया मैं उधर ही चल पड़ा
है चितेरा वो कोई मैं मुसव्वीरी बनकर रहा
उसकी खातिर दीप सा जलता रहा मैं उम्रभर
उसको खोकर अब तो मैं भी तीरगी बनकर रहा
चाह पाने की उसे कबसे लिए बैठा “पथिक”
मैं मुसाफिर रेत का वो तिश्नगी बनकर रहा
मुझे याद कोई रहने देना
मुझे नाम नही देना कोई
मुझे याद कोई रहने देना
कह मत देना कभी कहीं
कोई आशिक़ था दीवाना था
जो पागल शम्म-ए-इश्क़ में
जल गया मैं वो परवाना था
मुझे नाम नही देना कोई
मुझे याद कोई रहने देना
तूने चाहा नही मुझे पर
उस दिल का एक कोना मेरा है
वही बैठ तुझे पुकारूंगा
इतना अधिकार तो मेरा है
मुझे आराम नही देना कोई
मुझे याद कोई रहने देना
कभी दिल जो तेरा टूटेगा
तू याद करेगी मुझको तब
तू मुझको ढूंढेगी सुनले और
मैं न मिला जो तुझको तब
मुझे इल्ज़ाम नही देना कोई
मुझे याद कोई रहने देना
कब तक रहोगे दोस्त निगाह-ए-यार के बिना
कब तक रहोगे दोस्त निगाह-ए-यार के बिना?
हमने है काटी उम्र एक प्यार के बिना
है प्यार अगर दिल में , नफरत भी लाज़िमी
क्या देखा खिलते फूल कभी खार के बिना ?
वह बेसबब ही मोड़ गए मुँह तो क्या हुआ
कहलाया है आशिक़ कोई इनकार के बिना ??
छानें न खाक कूचे के तो और क्या करें
लगता कहाँ है दिल कहीं सरकार के बिना??
आंखें बिछाये राह में बैठा है अब “पथिक”
क्या इश्क़ भी हुआ है इंतज़ार के बिना?
इस कलम से आज कवि तुम
इस कलम से आज कवि तुम,
एक नया संसार लिख दो।
हो नहीं समता जहाँ पर,
तुम वहाँ अंगार लिख दो।
आज लिख दो आँसुओ से,
एक ख़ुशी का गान कोई.
दर्द में डूबे मनुज के,
अधर पर मुस्कान कोई.
हर ख़ुशी के कोष पर तुम,
मनुज का अधिकार लिख दो।
इस कलम से आज कवि तुम,
एक नया संसार लिख दो।
दे रही सदियों से धरती,
अन्न, जल, जीवन सहारा।
पर सहमकर जी रही है,
आज यमुना गंग धारा।
जो मिटाये इस धरा को,
तुम उन्हें धिक्कार लिख दो।
इस कलम से आज कवि तुम,
एक नया संसार लिख दो।
आज कैसा वक़्त आया,
भाई-भाई को न जाने।
सब खिंचे से जी रहे हैं,
बात किसकी कौन माने।
नफ़रतों को तुम मिटाकर,
आज केवल प्यार लिख दो।
इस कलम से आज कवि तुम,
एक नया संसार लिख दो
मैं था और तन्हाई थी
मैं था और तन्हाई थी
एक ही घर में साथ रहे थे मैं था और तन्हाई थी
जब भी मुझको दर्द मिले थे मैं था और तन्हाई थी
भीड़ में जब भी घूमा था तो धक्का-मुक्की मार पड़ी
जब भी सारे जख्म सिले थे मैं था और तन्हाई थी
एक जरा सी बात पे देखो उसने मुझको छोड़ दिया
एक में ही पर लाख गिले थेमैं था और तन्हाई थी
अब मैं वीरां दिल को अपने देख के तन्हा होता हूं
बागों में जब फूल खिले थे मैं था और तन्हाई थी
बोलने की तो कोशिश की थीफिर भी हम खामोश रहे
दोनों के लब साथ हिले थे मैं था और तन्हाई थी
मेरी सुधियों के अंबर पर
मेरी सुधियों के अंबर पर
तुम इन्द्रधनुष सी छा जाओ
मेरे गीतों की हर धुन में तुम
सरगम बन कर बस जाओ
जब गीत लिखा करता हूँ मैं
मन रंगों में खो जाता है
जब याद कभी आती हो तुम
जादू कोई छा जाता है
तुम सर्द हवा की ठिठुरन मेंं
गुनगुनी धूप सी आ जाओ
मेरी सुधियों के अंबर पर
तुम इन्द्रधनुष सी छा जाओ
तुम आओ बैठो बात करो
फिर चांद अकेला ढल जाए
मेरी डूबी इन आँखों में कोई
ख्वाब सुनहरा पल जाए
मेरे ही गीतों में आकर तुम
मुझको ही बहला जाओ
मेरी सुधियों के अंबर पर
तुम इन्द्रधनुष सी छा जाओ
तुम आओ कुछ ऐसे मन का
सूनापन मधुवन हो जाए
तुम पास रहो तो जीवन का
हर मौसम चंदन हो जाए
दुनियां वालों की नज़रों में
बस मेरी तुम कहला जाओ
मेरी सुधियों के अंबर पर
तुम इन्द्रधनुष सी छा जाओ
तुम रूप संवारा करती हो
तुम रूप संवारा करती हो
दर्पण शर्माने लगता है
तुम जब मुस्काया करती हो
मन मेरा गाने लगता है
तुमको देखूं तो लगता है
तुम ही हो वो अनजानी
जिसके साथ युगों से है
मेरी पहचान पुरानी
तुमको पाने के खाब दिखे
वह पूरे होंगे लगता है
तुम रूप संवारा करती हो
दर्पण शर्माने लगता है
जो हाथ तुम्हारा पकड़ू तो
यह मत कहना छोड़ो जी
वादे थे तुमने किये कभी
उनको अब यूँ मत तोड़ो जी
जब दूर रहो तुम मुझसे तब
जीवन ये सूना लगता है
तुम रूप संवारा करती हो
दर्पण शर्माने लगता है
तुम साथ चलो जो मेरे तो
फिर रस्ता मंज़िल हो जाए
तुम पास रहो यदि मेरे तो
सूनापन महफ़िल हो जाए
जिस गीत को छू दो होठों से
वह गीत सुहाना लगता है
तुम रूप संवारा करती हो
दर्पण शर्माने लगता है
आओ न आओ
द्वार अपना आज फूलों से सजाए जा रहा हूँ
जिंदगी की इस अकेली रात में आओ न आओ
मैं तुम्हारी याद में कुछ गुनगुनाये जा रहा हूँ
तुम प्रतीक्षा की भरी बरसात में गाओ न गाओ
आज मेरे पास आओ
मुस्कुराओ खिलखिलाओ
हाथ सेे अपने गूँथे जो
हार देहरी पर सजाओ
मैं सुनहरे स्वप्न आँखों मे बसाये जा रहा हूँ
स्वप्न का साकार बन आज तुम आओ न आओ
मैं तुम्हारी याद में कुछ गुनगुनाये जा रहा हूँ
तुम प्रतीक्षा की भरी बरसात में गाओ न गाओ
नीड़ के दो चार तिनके
एक पंछी का बसेरा
एक तिनका तुम बनो
एक प्यार से मैं जोर जाऊँ
आम की एक डाल को मैं देखता ही जा रहा हूँ
तुम चिरइया सी चहकती डार पर आओ न आओ
मैं तुम्हारी याद में कुछ गुनगुनाये जा रहा हूँ
तुम प्रतीक्षा की भरी बरसात में गाओ न गाओ
सांस तपती रेत सी है
आस जलती दुपहरी है
छुप गयी देखो सहमकर
गीत की कोई कड़ी है
भीग उठता मन तुम्हारे नेह का आभास पाकर
तुम घटा घनघोर बन आकाश में छाओ न छाओ
मैं तुम्हारी याद में कुछ गुनगुनाये जा रहा हूँ
तुम प्रतीक्षा की भरी बरसात में गाओ न गाओ
कुछ बात करो
पथ की दूरी कम हो जाए
चुप चलो नही कुछ बात करो
यह मौन कही अब खो जाए
चुप चलो नहीं कुछ बात करो
मेरे सूने मन को अपनी
बातों में उलझा लो तुम
मेरी पलकों की छाया में
जब धूप लगे सुस्ता लो तुम
चुपचाप दुपहरी सो जाए
चुप चलो नहीं कुछ बात करो
पथ की दूरी कम हो जाए
चुप चलो नहीं कुछ बात करो
मेरे अनगाए गीतों से
अधरों के द्वार सजा लो तुम
मधुमास सजेंगे गीतों से
स्वर से स्वर आज मिला लो तुम
तुम छू दो सोए तार प्रिय
चुप चलो नहीं कुछ बात करो
पथ की दूरी कम हो जाए
चुप चलो नहीं कुछ बात करो
हर सांस में चंदन घुल जाए
बगिया महके जो बोलो तुम
कब से है सूनी सूनी ये
चिड़िया चहके जो बोलो तुम
कुछ इत्र फिजा मेंं घुल जाए
चुप चलो नहीं कुछ बात करो
पथ की दूरी कम हो जाए
चुप चलो नहीं कुछ बात करो ।
मैं उस जन्नत को मांगूंगा
मैं पागल सा अल्हड़ कोई
जो मुंह में आया बोल दिया
कोई अपना लगा मुझे तो
दिल का हर कोना खोल दिया
मैं सब कहकर
अब बस थककर
इतना तो हूं जान चुका
चुप रहना है
चुप सहना है
इतना तो हूं मान चुका
पर खुदा कभी जब पूछेगा
मैं उस जन्नत को मांगूंगा
जहां कोई नहीं रोके मुझको
जहां कोई नहीं टोके मुझको
जो अपने थे सपने बनकर
कुछ आंसू केवल छोड़ गए
बस जिनके लिए मैं जीता रहा
वो ही मुझसे मुंह मोड़ गये
मैं रो-रो कर
सब खो-खो कर
इतना तो हूं जान चुका
चुप रहना है
चुप सहना है
इतना तो हूं मान चुका
पर खुदा कभी जब पूछेगा
मैं उस जन्नत को मांगूंगा
जहां कोई नहीं छोड़े मुझको
जहां कोई नहीं तोड़े मुझको
थे बोए प्यार के बीज जहां
वहां पेड़ उगे बस कांटों के
जिन्हें प्यार समझ कर खाए हैं
है हिसाब नहीं उन चांटों के
सबको देखा
सबकी सुन ली
इतना तो हूं पहचान चुका
चुप रहना है
चुप सहना है
इतना तो हूं मान चुका
पर खुदा कभी जब पूछेगा
मैं उस जन्नत को मांगूंगा
जहां कोई नहीं छांटे मुझको
जहां कोई नहीं काटे मुझको ।