अधूरा मकान-1
उस रास्ते से गुज़रते हुए
अक्सर दिखाई दे जाता था
वर्षों से अधूरा बना पड़ा वह मकान
वह अधूरा था
और बिरादरी से अलग कर दिए आदमी
की तरह दिखता था
उस पर छत नहीं डाली गई थी
कई बरसातों के ज़ख़्म उस पर दिखते थे
वह हारे हुए जुआरी की तरह खड़ा था
उसमें एक टूटे हुए आदमी की परछाईं थी
हर अधूरे बने मकान में एक अधूरी कथा की
गूँज होती है
कोई घर यूँ ही नहीं छूट जाता अधूरा
कोई ज़मीन यूँ ही नहीं रह जाती बाँझ
उस अधूरे बने पड़े मकान में
एक सपने के पूरा होते -होते
उसके धूल में मिल जाने की आह थी
अभाव का रुदन था
उसके ख़ालीपन में एक चूके हुए आदमी की पीड़ा का
मर्सिया था
एक ऐसी ज़मीन जिसे आँगन बनना था
जिसमें धूप आनी थी
जिसकी चारदीवारी के भीतर नम हो आए
कपड़ों को सूखना था
सूर्य को अर्ध्य देती स्त्री की उपस्थिति से
गौरवान्वित होना था
अधूरे मकान का एहसास मुझे सपने में भी
डरा देता है
उसे अनदेखा करने की कोशिश में भर कर
उस रास्ते से गुज़रती हूँ
पर जानती हूँ
अधूरा मकान सिर्फ़ अधूरा ही नहीं होता
अधूरे मकान में कई मनुष्यों के सपनों
और छोटी-छोटी ख़्वाहिशों के बिखरने का
इतिहास दफ़्न होता है ।
अधूरा मकान-2
कोई मकान अधूरा क्यों रह जाता है !!
सलीब की तरह टँगा है
यह सवाल मेरे मन में
अधूरे मकान को देख कर
मुझे पिता की याद आती है
उनकी अधूरी इच्छाएँ और कलाकृतियाँ
याद आती हैं
देख कर कोई अधूरा मकान
उम्र के आख़िरी पड़ाव में
एक स्त्री के आँचल में
एक बेबस आदमी का
बच्चे की तरह फफकना याद आता है
अतीत में आधी-आधी रात को जग कर
कुछ हिसाब-किताब करते
कुछ लिखते
एक ईमानदार आदमी का चेहरा सन्नाटे में
पीछा करता है
एक अकेले और थके हुए आदमी की पदचाप
सुनाई देती है सपने में
कोई मकान अधूरा क्यों रह जाता है !!
प्रार्थना
मेघ से मेरी प्रार्थना है कि
अबकी बारिश के बाद
बरसे आग
गीली लकड़ियाँ सुलगे और मैं सेंकूँ
अपने चूल्हे पर गर्मागर्म फूली हुई
गोल-गोल रोटियाँ!
आग से मेरी प्रार्थना है कि
जले काई सीलन और बदबूदार वस्तुएँ
उपजे ढेर सारी किसिम-किसिम की सब्ज़ियाँ…
गेहूँ… और… धान…
भरे हर रसोई
लोक से है प्रार्थना मेरी कि
उसकी बिन ब्याही बेटी की बच्ची को
माँ का नाम मिले
हो उसका भी अपना एक घर-आँगन
उसकी देहरी पर भी थोड़ी-सी धूप
खिले!
दोराहे पर लड़कियाँ
दोराहे पर खड़ी लड़कियाँ
गिन -गिन कर क़दम रखती हैं
कभी आगे-पीछे
कभी पीछे-आगे
कभी ये पुल से गुज़रती हैं
कभी नदी में उतरने की हिमाक़त करती हैं
ये अत्यन्त फुर्तीली और चौकन्नी होती हैं
किन्तु इन्हें दृष्टि-दोष रहता है
इन्हें अक्सर दूर और पास की चीज़ें नहीं दिखाई पड़तीं
ये विस्थापन के बीच
स्थापन से गुज़रती हैं
जीवन के स्वाद में कहीं ज़्यादा नमक
कहीं ज़्यादा मिर्च
…कहीं दोनो से खाली
दोराहे पर खड़ी लड़कियाँ गणितज्ञ होती हैं
लेकिन कोई सवाल हल नहीं कर पातीं!
गोश्त बस
वह काला चील्ह…!!
क्या तुमने देखा नहीं उसे…
जाना नहीं…??
है बस काला…
सर से पाँव तक…
फैलाये अपने बीभत्स पंख काले
शून्य में मंडराता रहता है
इधर-उधर
गोश्त की आस में
आँखों को मटमटाता
अवसर की ताक में….
चाहिये उसे गोश्त बस
…लबालब ख़ून से भरा
नर हो या मादा
शिशु हो नन्हा-सा
या कोई पालतू पशु ही
काला हो या उजला
हो लाल या मटमैला
उसे चाहिये गोश्त बस!
कुछ भी नहीं बदला
सन्दूक से पुराने ख़त निकालती हूँ
कुछ भी नहीं बदला…
छुअन
एहसास
संवेदना!
पच्चीस वर्षों के पुराने अतीत में
सिर्फ़
उन उंगलियों का साथ
छूट गया है…
राज ठाकरे के लिये
कुम्हार ने मिट्टी के ढेलों को पहले तोड़ा
फिर उन्हें बारीक किया और पानी डाल कर भिगोया
मिट्टी को पैरों से खूब रौंदने के बाद
उसे हाथों से कमाया
मिट्टी घुल-मिल कर एक हो गई
बिलकुल गुंधे हुए आटे की तरह
कमाई हुई मिट्टी को कुम्हार ने चाक पर रखा
एक डंडे के सहारे चाक को गति दी
इतनी गति की वह हवा से बातें करने लगा
चाक पर रखी मिट्टी को कुम्हार के कुशल हाथ
आकृतियाँ देने लगे
मिटटी सृजन के उपक्रम में भिन्न-भिन्न
आकृतियों में ढलती गई
पास ही रेत का ढेर पड़ा था…
कुम्हार नहीं बनाता रेत से बर्तन
रेत के कण आपस में कभी
पैवस्त नहीं हो सकते !
वह संसार नहीं मिलेगा
और एक रोज़ कोई भी सामान
अपनी जगह पर नहीं मिलेगा
एक रोज़ जब लौटोगे घर
और… वह संसार नही मिलेगा
वह मिटटी का चूल्हा
और लीपा हुआ आंगन नहीं होगा
लौटोगे… और
गौशाले में एक दुकान खुलने को तैयार मिलेगी
घर की सबसे बूढ़ी स्त्री के लिए
पिछवाड़े का सीलन और अंधेरे में डूबा कोई कमरा होगा
जिस किस्सागो मज़दूर ने अपनी गृहस्थी छोड़ कर
तुम्हारे यहाँ अपनी ज़िन्दगी गुज़ार दी
उसे देर रात तक बकबक बंद करने
और जल्दी सो जाने की हिदायत दी जाएगी
देखना-
विचार और संवेदना पर नये कपड़े होंगे!
लौट कर आओगे
और अपनों के बीच अपने कपड़ो
और जूतो से पहचाने जाओगे…!
वहाँ वह संसार नहीं मिलेगा !!
सुबह
सूर्य का गोला आसमान पे उजले रंग से लिखता है –
सुबह
और चमक उठती हैं इस धरती पर जल की तरंगें
जीवन के रंगों से भर कर
तरोताज़ा हो उठती है हवा किरणों से नहा-धोकर
हल-बैल लिये किसान उतर पड़ते हैं खेतों में
नई उमंग के साथ नई फसल बोने को
निकल पड़ती हैं चींटियाँ अपने बिलों से कतारबद्ध
अपने गंतव्य की ओर …और
परिन्दे कभी नहीं ठहरते अपने घोंसलों में
सुबह होने के बाद
…लेकिन मित्रो !
अफसोस! कि इधर बहुत दिनों से
सुबह नहीं हुई!
बेहद ज़रूरी है सुबह का होना
एक लम्बी काली रात के बाद
इन्तज़ार है धान को ओस का
और ओस को एक सुबह का…!!
वे फक्कड थे!… कबीर थे!…
वे नहीं रहे
तब हमने उनके बारे में जाना
वे सूर्य को दिए जाने वाले अर्ध्य का
पवित्र जल थे
बरगद की छाँह थे
मंदिर की सीढ़ियाँ थे
खेत में लगातार जुते हुए बैल थे
संघर्ष के बीच
जिजीविषा को बचाने की इच्छाओं की
प्रतिमूर्ति थे
वे राष्ट्र के निर्माण की कथा थे
वे जनपद में पहली लालटेन लेकर आए थे
यह सिर्फ किवदंती ही नहीं है
जब कई स्त्रियों को रखने की प्रवृति
आदमी की दबंगता में शुमार की जाती थी
उन्होंने बच्चों के लिये स्कूल
गाँव के लिये अस्पताल
भूमिहीनों के लिये ज़मीन
बेरोजगारों के लिये चरखे-करघे की पहल की
उनके पास पराधीन देश की कई कटु
और मधुर स्मृतियाँ थीं
होश सम्भालने से लेकर
अपने जीवन का एक तिहाई
देश को स्वाधीन करने में होम कर दिया
यह आजीवन संघर्ष का एक महत्वपूर्ण पहलू था
जिसे उन्होंने कभी बातचीत में
तकिया क़लाम नहीं बनाया
अलबत्ता अंतिम दौर की लड़ाई में
जर्जर – रूग्णकाय
शून्य में कुछ इस तरह देखा करते
जैसे कोई अपने बनाये हुए घरौंदे को
टूटते हुए देख रहा हो
यह सच है
कि पेंशन के लिये वे कभी परेशान नहीं दिखे
पर आज़ादी के बाद की पीढ़ी ने उनके लिये
चिन्ता प्रकट की
उन्हें उनकी भौतिक समृद्वि पर
असंतोष था
उनकी नज़र में वे अव्यावहारिक थे
उनके पास जीवन के अंतिम क्षणों में
कोई सुन्दर मकान नहीं था
आखि़री साँस तक की लड़ाई के बाद भी
कोई बैंक-बैलेंस नहीं था
जो उनके लिये चिन्तित दिखे
वे वक़्त का मिज़ाज समझने वाले
सफल नज़रिया रखने वाले
दुनियादार लोग थे
उनके सधे अनुभव में उन्हें
समय के साथ चलना था
वे फक्कड़ थे ! कबीर थे !
15 अगस्त 1947 को पहली बार
दस घंटे सोये थे।
पूज्य पिता श्री श्रीकृष्ण प्रसाद की स्मृति में, जो झारखण्ड राज्य, संथाल परगना के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी थे और जिनका कार्य-क्षेत्र – मुख्यतः झारखण्ड-बिहार, उत्तर प्रदेश था। वे प्रताप, वीरभारत, आज, अमृत प्रभात, गाधी संदेश, गाधी मार्ग, अम्बर इत्यादि महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं से सम्बद्ध रहे। वे ऐसे सम्पादक-लेखक थे जिनका सम्पूर्ण जीवन निःस्वार्थ सेवा और त्याग में व्यतीत हुआ और जिन्हें अपने विज्ञापन में कोई रुचि नहीं थी।
केटोली
त्रिकुटि पहाड़ की तराई में बसे उस गाँव को
प्रकृति ने अपने ढंग से सँवारा था और
लोगों ने कुछ अपने ही ढंग से
वहाँ खेत नदी झरने तालाब और वृक्षों के अलावे
लोगों की बसाई कुछ बस्तियाँ भी थीं
जहाँ कुछ मिली -जुली किस्मों के लोगों के अलावे
केवट कहलाये जाने वाले लोग बसते थे
-जिनकी कभी गरिमापूर्ण विरासत थी
जो अब भूगर्भ में समा चुकी थी
इनकी बस्ती में
जिसे वे खुद केटोली (केवट-टोली)
के नाम से पुकारते थे और दूसरे किस्म के लोग
उसे गंदी बस्ती के नाम से जानते थे
-झोपड़ियाँ थीं, घर नहीं
जो साफ-सफाई के बावजूद गंदी रहती थीं
इस गंदी बस्ती में रहनेवाले लोग बेशक गंदे थे!
इनका रहन-सहन गंदा था
इनकी शिक्षा शून्य और दीक्षा वश परम्परा से थी
भाषा के नाम पर इनके पास
निन्यानबे प्रतिशत गालियाँ ही थीं!
ये लोग अपने जीवन का मायने और मकसद
नहीं तलाशते थे
वे क्या हैं ?… और क्यों हैं?…
-ये नहीं जानते थे!
ये जीवन को कुत्ते की तरह दुत्कारते और
कबड्डी की तरह जीते लोग थे!
इनकी अपनी एक अलग दुनिया थी
जिसके सारे कायदे -कानून पेट से शुरू और
पेट ही में खत्म होते थे!
यहाँ खजखजाते हुए बच्चे़ थे और
टिमटिमाते हुए बूढ़े-
भूखे ,नंगे, कुपोषण और बीमारियों के बीच
बच्चे पलते और बूढ़े मर जाते
मर्द जाल बुनते …मछलियाँ पकड़ते और
औरतें मुढ़ी भूंजतीं
मर्द की कमाई ताड़ी और जुए में जाती
औरत की कमाई से घर चलता
रोज शाम को मर्द ताड़ी के नशे में
झूमते हुए घर आते और
अजीबोग़रीब दृश्यों का सृजन करते!
कभी वे गुदड़ी में बेताज़ बादशाह होते…
कभी अमिताभ… गोविंदा…
कभी पत्नी और बच्चों को पीटते हुए दरिंदे
तो कभी अधिक पी लेने के कारण
रास्ते में पड़े लावारिस लाश की तरह होते!
गौरतलब है कि औरतें इस बस्ती में
गड्ढे के ठहरे हुए पानी में पड़ी
चाँद की परछाईं थीं
पहाड़ से लकड़ियाँ काट कर सर पे रखे
राजधानी एक्सप्रेस से अधिक तेजी से
भागती हुई आती ये औरतें…
धान उसनतीं… बीच सड़क पर बैठ कर सुखातीं…
कूटतीं -पीसतीं…बच्चे पालतीं
मर्दों के हाथों पिटतीं
और उनकी इच्छाओं पर बिछ-बिछ जातीं…
किन्तु सूरज की हर आहट पर चौंक-चौंक
उठतीं ये औरतें…!!
– अपने आप में निराली पर इकलौती नहीं
यह वही बस्ती है दोस्तो !
जहाँ सदियाँ कभी नहीं बदलतीं!!
(केटोली-झारखण्ड स्थित देवघर ज़िले में त्रिकुटि पहाड़ की तराई में बसे गाँव मोहनपुर की एक बस्ती)
क़ब्रगाह
कितने लोग दफ़न हुए इस ज़मीन में
कितने घर और कितने मुल्क…
तबसे …जबसे यह ज़मीन बनी है !
…उनकी क़ब्रगाह पर ही तो बसी हुई हैं
सारी बस्तियाँ
हमारे घर… शहर…
दुकान… मकान…
उसी क़ब्रगाह पर खड़े हैं हम
एक और क़ब्रगाह बसाए हुए !!
इस सभ्यता के पास अनुकूल तर्क है!
यह बहुत चालाक सभ्यता है
यहाँ चिड़ियों को दाने डाले जाते हैं
और चिड़ियों को मारने के लिये बंदूकें भी बनती हैं
यहाँ बलत्कृत स्त्री
अदालत में पुनः एक बार कपड़े उतारती है
इस सभ्यता के पास
स्त्री को कोख में ही मार देने की पूरी गारंटी है
यहाँ पहली बरसात में
वर्षों की प्रतीक्षा से बनी गाँव की ओर
जाने वाली सड़क बह जाती है
सबसे बड़ी बात है…
इस सभ्यता के पास अनुकूल तर्क है!
जंगल में होना चाहती हूँ!
जानती हूँ मैं जंगल में होने के ख़तरों के बारे में
बीहड़ों और हिंस्र पशुओं के बीच से गुज़रने की
कल्पना मात्र भी
किस क़दर ख़ौफ़नाक़ है!!
और जंगल की धधकती आग!
किसे नहीं जलाकर राख कर देती वो तो!!
जंगल में होने का मतलब है
हर पल जान हथेली पर रखना!
…मैं ख़तरे उठाना चाहती हूँ …
…जंगल में होने के सारे ख़तरे क्योंकि
मुझे भरोसा है जंगल के न्याय पर पूरा का पूरा
और वहाँ भरोसों की हत्या नहीं होती
आख़िरकार जंगल मेरा अपना है
सबसे पुराना साथी !
चित्र
मैं चित्र बनाती हूँ
जल की सतह पर
देखो –
कितने सुन्दर हैं!!
जितनी यह काली और चपटी नाक वाली
कुबड़ी लड़की
जितने कुम्हार के ये टूटे हुए बर्तन
जितनी समन्दर की दहकती हुई आग
भूकम्प के बीच डोलती धरती
और
उलटी हुई नाव
देखो…!
उस कच्चे रास्ते पर …
एक शून्य सा फैला है
कुछ मटमैला… कुछ धूसर
…टील्हे खाई पत्थर
अटके पानी और
कटरंगनी की झाड़ियों के बीच
देसी दारु की गंध में लिपटा
उस कच्चे रास्ते पर …
उस पार बस्ती है मगर
वह एक द्वीप है
कच्चे रास्तों से घिरा
पहाड़ टूटते हैं और हाईवे पर बिछते हैं
कच्चे रास्तों से कच्चे माल गुजरते हैं
फसल पकती है
फल पकते हैं
आदमी पकता है
मगर ताज्जुब है…
वह रास्ता नहीं पकता !!
पाँच हजार साल पहले
यहाँ क्या था?… नहीं पता…
लेकिन अभी एक समाज है
ऊपर -नीचे दाँयें-बाँयें से एक-सा
केंदुआ… चैकुंदा… बांदा… डकैता
…डुबाटोला… मुरीडीह… मातुडीह…
सरीखा कुछ नाम हो सकता है उसका
वह देश-प्रेम के जज़्बे में कभी नहीं डूबा
मातृभूमि के लिये शीश झुकाना
उसके मन के किसी धरातल पर नहीं
अपना देश क्या है
…उसके अवचेतन में भी नहीं
यह दुनिया एक अजायबघर है उसके लिये
तिलिस्मों से भरी
…किन्तु हमारी भूख मिटाने और हमारा जीवन
चमकाने में उसकी अहम भूमिका है
कोई पुरातत्ववेत्ता, खगोलशास्त्री या वास्तुविद्
नहीं गुज़रा कभी उस कच्चे रास्ते पर
उसकी ऐतिहासिक – भौगोलिक स्थिति में
किसी को कोई दिलचस्पी नहीं
वहाँ कोई महाराणाप्रताप या वीरप्पन पैदा नहीं हुआ
कोई जादूगर या मदारी तक नहीं
उस भूखण्ड के नीचे
कितना सोना… कितना हीरा… दबा है
किसी को नहीं मालूम
हो सकता है…किसी दिन… या रात …
कोई सुषुप्त ज्वालामुखी भड़क उठे
और एकाएक सबका ध्यान
अपनी ओर आकर्षित कर ले
करवट बदलता… पेट के बल रेंगता
… घुटनों पर उठता
वह कच्चा रास्ता …
तय तो यह था…
तय तो यह था कि
आदमी काम पर जाता
और लौट आता सकुशल
तय तो यह था कि
पिछवाड़े में इसी साल फलने लगता अमरूद
तय था कि इसी महीने आती
छोटी बहन की चिट्ठी गाँव से
और
इसी बरसात के पहले बन कर
तैयार हो जाता
गाँव की नदी पर पुल
अलीगढ़ के डॉक्टर बचा ही लेते
गाँव के किसुन चाचा की आँख- तय था
तय तो यह भी था कि
एक दिन सारे बच्चे जा सकेंगे स्कूल…
हमारी दुनिया में जो चीजें तय थीं
वे समय के दुःख में शामिल हो एक
अंतहीन…अतृप्त यात्राओं पर चली गयीं
लेकिन-
नहीं था तय ईश्वर और जाति को लेकर
मनुष्य के बीच युद्ध!
ज़मीन पर बैठते ही चिपक जायेंगे पर
और मारी जायेंगी हम हिंसक वक़्त के हाथों
चिड़ियों ने तो स्वप्न में भी
नहीं किया था तय!
बना लिया मैंने भी घोंसला
घंटों एक ही जगह पर बैठी
मैं एक पेड़ देखा करती
बड़ी पत्तियाँ… छोटी पत्तियाँ…
फल-फूल और घोंसले…
मंद-मंद मुस्काता पेड़
खिलखिला कर हँसतीं पत्तियाँ…
सब मुझसे बातें करते!!
कभी नहीं खोती भीड़ में मैं
खो जाती थी अक्सर इन पेडों के बीच!
साँझ को वृक्षों के फेरे लगाती
चिड़ियों की झुण्डों में अक्सर
शामिल होती मैं भी!
…और एक रोज़ जब
मन अटक नहीं पाया कहीं किसी शहर में
तो बना लिया मैंने भी एक घोंसला
उसी पेड़ पर!
एक ग़ैर-दुनियादार शख़्स की मृत्यु पर एक संक्षिप्त विवरण
एक विडम्बना ही है और इसे ग़ैर-दुनियादारी ही कहा जाना चाहिए
जब शहर में हत्याओं का दौर था…..उसके चेहरे पर शिकन नहीं थी
रातें हिंसक हो गई थीं और वह चैन से सोता देखा गया
यह वह समय था जब किसी भी दुकान का शटर
उठाया जा रहा था आधी रात को और हाथ
असहाय मालूम पड़ते थे
सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष उसके जीवन का यह है कि वह
बोलता हुआ कम देखा गया था
“ दुनिया में किसी की उपस्थिति का कोई ख़ास
महत्व नहीं ”-
एक दिन चौराहे पर
कुछ भिन्नाई हुई मनोदशा में बक़ता पाया गया था
उसकी दिनचर्या अपनी रहस्यमयता की वज़ह से अबूझ
क़िस्म की थी लेकिन वह पिछले दिनों अपनी
ख़राब हो गई बिजली और कई रोज़ से ख़राब पड़े
सामने के हैण्डपम्प के लिये चिन्तित देखा गया था
उसे पुलिस की गाड़ी में बजने वाले सायरनों का ख़ौफ़
नहीं था…मदिर की सीढ़ियाँ चढ़ने में भी उसकी
दिलचस्पी कभी देखी नहीं गई
राजनीति पर चर्चा वह कामचोरों का शगल मानता था
यहाँ तक कि इन्दिरा गाँधी के बेटे की हुई मृत्यु को वह
विमान दुघर्टना की वज़ह में बदल कर नही देखता था
अपनी मौत मरेंगे सब !!!
उस अकेले और ग़ैर-दुनियादार शख़्स की राय थी
जब एक दिन तेज़ बारिश हो रही थी
बच्चे, जवान शहर से कुछ बाहर एक उलट गई बस को
देखने के लिये छतरी लिए भाग रहे थे
वह अकेला और
जिसे ग़ैर-दुनियादार कहा गया था,
शख़्स इसी बीच रात के तीसरे पहर को मर गया
तीन दिन पहले उसकी बिजली ठीक हो गई थी
और जैसा कि निश्चित ही था कि घर के सामने वाले
हैण्डपम्प को दो या तीन दिनों के भीतर
विभागवाले ठीक कर जाते
उस अकेले और गैर दुनियादार शख़्स का भी
मन्तव्य था कि मृत्यु किसी का इन्तज़ार नहीं करती
पर जो निश्चित जैसा था और इस पर मुहल्लेवालों की
बात भी सच निकली
उसका शव बहुत कठिन तरीके से
और मोड़ कर उसके दरवाजे़ के बाद की
सँकरी गली से निकला !
उस स्त्री के बारे में
करवट बदल कर सो गई
उस स्त्री के बारे में तुम्हे कुछ नहीं कहना!
जिसके बारे में तुमने कहा था
उसकी त्वचा का रंग सूर्य की पहली किरण से
मिलता है
उसके खू़न में
पूर्वजों के बनाए सबसे पुराने कुएँ का जल है
और जिसके भीतर
इस धरती के सबसे बड़े जंगल की
निर्जनता है
जिसकी आँखों में तुम्हें एक पुरानी इमारत का
अकेलापन दिखा था
और….जिसे तुम बाँटना चाहते थे
जो… एक लम्बे गलियारे वाले
सूने घर के दरवाज़े पर खड़ी
तुम्हारी राह तकती थी !
चुप नहीं रह सकता आदमी
चुप नहीं रह सकता आदमी
जब तक हैं शब्द
आदमी बोलेंगे
और आदमी भले ही छोड़ दे लेकिन
शब्द आदमी का साथ कभी छोड़ेंगे नहीं
अब यह आदमी पर है कि वह
बोले …चीख़े या फुसफुसाए
फुसफुसाना एक बड़ी तादाद के लोगों की
फ़ितरत है!
बहुत कम लोग बोलते हैं यहाँ और…
चीख़ता तो कोई नहीं के बराबर …
शब्द ख़ुद नहीं चीख़ सकते
उन्हें आदमी की ज़रूरत होती है
और ये आदमी ही है जो बार-बार
शब्दों को मृत घोषित करने का
षड्यंत्र रचता रहता है !
प्रारम्भ में लौटने की इच्छा से भरी हूँ !
मैं उसके रक्त को छूना चाहती हूँ
जिसने इतने सुन्दर चित्र बनाए
उस रंगरेज़ के रंगों में घुलना चाहती हूँ
जो कहता है-
कपड़ा चला जाएगा बाबूजी!
पर रंग हमेशा आपके साथ रहेगा
उस काग़ज़ के इतिहास में लौटने की इच्छा से
भरी हूँ
जिस पर
इतनी सुन्दर इबारत और कविताएँ हैं
और जिस पर हत्यारों ने इक़रारनामा लिखवाया
तवा, स्टोव
बीस वर्ष पहले के कोयले के टुकड़े
एक च्यवनप्राश की पुरानी शीशी
पुराने पड़ गए पीले ख़त
एक छोटी-सी खिड़की वाला मंझोले आकार का कमरा
एक टूटे हुए घड़े के मुहाने को देख कर
….शुरू की गई गृहस्थी के पहले एहसास
को छूना चाहती हूँ
अभी स्वप्न से जाग कर उठी हूँ
अभी मृत्यु और जीवन की कामना से कम्पित है
यह शरीर !
सिर्फ़ स्मृतियाँ नहीं
बरसों बाद
वह भरी दोपहरी में एक दिन मेरे घर आया
इसे संभालो – ये कविताएँ हैं तुम्हारी
मैं हार गया !!
उसने दरवाज़े के नीचे पुराने दिनों की तरह
चप्पल छोड़े
ये क़िताबें रख लो
यह पेन भी
अब अपने दुःख की तरह संभाले नहीं संभलता
यह सब
यह आदमी ही है
जो संजोकर सिर्फ़ स्मृतियाँ ही नहीं रखता !
नींद
यह कोई बहुत व्याकुल कर देने वाली
जैसे युद्ध के दिनों की नींद है
देखना-
जैसे हहराकर वेग से बहती हुई नदी को
जैसे समुद्र पार करने की इच्छा से भरी
चिड़ियों का थक कर अथाह जल-राशि में
समाने के पहले की अनुभूति
यह उम्र बढ़ती जा रही है
घट रहा है हमारे भीतर आवेग
मिट रही हैं स्मृतियाँ उसी गति में
मेरी व्याकुलता
जैसे लड़ाई के दिनों में एक सैनिक का
परिवार को लिखा पत्र
और उसके लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाने की पीड़ा में
घुला जीवन !
बहुत धीरे-धीरे व्यतीत हो रहा है यह समय
हमारे ही बुने जाल में
बड़े कौशल से उलझ गई है हमारी नींद
जैसे
मैं किसी सौदे में व्यस्त हूँ
और खिड़की से बाहर कोई रेल मेरी नींद में
धड़धडाती हुई गुज़र रही है रोज़ !
किवाड़
इस भारी से ऊँचे किवाड़ को देखती हूँ
अक्सर
इसकी ऊँची चौखट से उलझ कर सम्भलती हूँ
कई बार
बचपन में इसकी साँकलें कहती थीं
– एड़ियाँ उठा कर मुझे छुओ तो!
अब यहाँ से झुक कर निकलती हूँ
और किवाड़ के ऊपर फ्रेम में जड़े पिता
बाहर की दुनिया में सम्भल कर
मेरा जाना देखते हैं !
नेहरू विहार
कहा जाता है कि दिल्ली मे वह एक
बसाई हुई जगह थी
उस बसाई हुई जगह में कुछ बूढ़े बचे थे
जिनके पास विभाजन की स्मृतियाँ थीं
बहुत भाग-दौड़ कर ज़िन्दगी बसर कर लेने के लायक
सवा कट्ठे की ज़मीन हासिल करने की यादें थीं
वहाँ कुछ भयाक्रांत कर देने वाले विवरण थे
जीवन के लिये संघर्ष और आदमी के प्रति
आस्था-अनास्था के क़िस्से थे
उस सवा कटठे की ज़मीन पर बसाई गई जिन्दगी में आँगन नहीं थे
गलियाँ थीं…अंतहीन भागमभाग और काम में लगे स्त्री-पुरुष
321 नम्बर की बस पकड़ कर उस रूट के कामगारों को काम के अड्डे तक पहुँचना होता था
वहाँ सपने थे
थोडी धूप और हवा थी जो धुएँ और शोर में
लिपट गई थी
औरतों के लिये इतवार था…पर्व थे
वे उन्हीं दैत्य-सी दिखतीं रेड -ब्लू लाईन बसों में
रकाबगंज गुरुद्वारा, चाँदनी चौक के मंदिर या फिर लाल किले
जैसी ऐतिहासिक जगहों पर कभी-कभार जाती थीं
कहा जा सकता है कि वहाँ ईश्वर था !
जो अलसुबह उठ पाते थे— घंटिया बजाते थे
दो मकानों के बीच चौड़ी गलियाँ थीं
वहाँ गर्मी और उमस भरी रातों में औरतें और जवान लडकियाँ
बेतरतीबी से सो जाती थीं
गलियों में अलगनी थी जहाँ औरतों मर्दां बच्चों के कपडे
सूखते रहते थे ज़िन्दगी की उमस के बीच देर रात तक
नई-पुरानी फ़िल्मों के गीत बजते थे
उन्हीं गीतों से जवान दिलों में
उस ठहरी हुई जगह में प्यार के जज़्बे उठते थे
कोई सिहरन वाला दृश्य आँखों के सामने फिरता था
उस बसाई हुई जगह पर बसे हुए लोगों ने
किराएदार रख लिए थे— ये किराएदार
दिल्ली की आधी आबादी थे
उन्हें महीने के आखि़री दिनों का इन्तज़ार रहता था
वह दिल्ली का बसाया हुआ इलाका था
दिल्ली पूरी तरह बाज़ार में बदल गई थी
ग़ौरतलब है कि फिर भी उस इलाके में
हाट लगती थी !
आस्था की बेलें मर रहीं थीं
लेकिन वहाँ हाट की संस्कृति बची थी
कुछ चीज़ें अनायास ओर ख़ामोशी से
हमारे साथ चलती हैं ऐसे ही…जैसे…
दिल्ली में हाट
दिल्ली में चौंकना आपके भीतर की संवेदना के
बचे होने की गारंटी है !
उसमें पुराने लोग बचे थे
वहाँ पुरानी स्मृतियाँ थीं…
जहाँ विश्वासघात का अँधेरा था
उनके भीतर अपनी ही मिट्टी से उखड़ जाने
की आह थी
जो कभी -कभी उभरती थी
वे अक्सर गलियों में अकेले
हुक्का गुड़गुड़ाते कहीं भी आंखें स्थिर किए
बैठे पाए जा सकते थे
कुल मिला कर दिल्ली का वह इलाका था
अपनी बेलौस और रुटीनी दिनचर्या में व्यस्त
जिजीविषा के एक अनजाने स्वाद से भरा हुआ
जिजीविषा— जो उखड़ गई अपनी मिट्टी से
या जो पेशावर एक्सप्रेस से आकर
दिल्ली की आबोहवा में घुल गई
—लेकिन अब कहना चाहिए कि
इस महादेश के कई हिस्से
नेहरू विहार में तब्दील हो रहे हैं !
प्रार्थना समय
—यह एक शीर्ष बिन्दु
—यह एक चरम पल
—इसके आगे कोई रास्ता नहीं
—इसके बाद कोई रास्ता नहीं
—सारे रास्ते यहीं से खुलते हैं
—सारे रास्ते यहीं पर बन्द होते हैं
प्रार्थना और बस केवल प्रार्थना
भिन्न-भिन्न रंगों में
भिन्न-भिन्न अंदाज में
भिन्न-भिन्न स्थानों पर की गई प्रार्थना
जिनका स्वाद एक है
जो एक ही जगह से निकलती है
जो एक ही जगह को छूती है
यह एक समर्पण
यह एक विसर्जन
यह एक हासिल संकल्पों और विकल्पों की
अपने आप से लड़ी जाने वाली रोज़ की लड़ाई
देह की मन से
मन की आत्मा से
मैं की तुम से … तुम की मैं से
और भर दिन से छनकर घिर आती साँझ
मन की घाट पर सीढ़ियाँ चढ़ती इच्छाएँ
युगों से जमी काई पर फिसलतीं
गिरतीं और बिखर जातीं…
वह एक पल मन के आकाश पर निकले पूरे चाँद का
पूरी ज़िन्दगी को घेरती
सुबह की प्रार्थनाएँ … शाम की प्रार्थनाएँ
जगाती और सुलाती
केवल और केवल बस प्रार्थनाएँ …
यदि आप
यदि आप मेरे घर को
चारों ओर दीवारों से घेर देंगे
खिड़कियों दरवाजों रोशनदानों
को रुंध देंगे और खुद
स्वच्छंद विचरण करेंगे
तो आखि़रकार मैं सेंधमारी ही करूंगी
क्योंकि आपके घर में
घुसपैठिया भिखारन या दासी बनकर रहना
मुझे कतई स्वीकार नहीं!
डोर से नकेल तक…
मैं यह नहीं जानती कि पतंग का जन्म कैसे हुआ
यह भी नहीं कि इसका जन्मदाता कौन था
और यह भी नहीं कि इस खेल में आखि़र उसे
किस तरह का आनंद मिला होगा
लेकिन जब भी कभी मैं पतंग को आकाश में उड़ते देखती हूं
तो कैसे भी करके मन में उठने वाले इस विचार को
टाल नहीं पाती कि जरूर अपनी उंगलियों के
इशारों पर नचाने की प्रवृत्ति का ही परिणाम है
यह पतंग
जब मैं पंछी और पतंग दोनों को साथ-साथ
उड़ते देखती हूं तो सोचती हूं पंछी को
मालूम है उसका ठिकाना
उसे खुद ही तय करनी है अपनी मंजिलें
अपनी दिशाएं और राहें
शाम होते ही उतर आना है उसे अपने नीड़ में
फिर कल सुबह की ताजा उड़ान के लिए
पंछी अपनी हर उड़ान में आजाद है बिलकुल
लेकिन पतंग की डोर तो किसी और के हाथों है
वह उसे चाहे जब तक और चाहे जैसे नचाए
तब मैं उस व्यक्ति को देखती हूं जो आकाश की
बुलंदियों पर है लेकिन उसकी नकेल किसी और के
हाथ में…तो, उस व्यक्ति और पतंग में मुझे
कोई फर्क नहीं दिखता
पतंग तो पतंग लेकिन वह आदमी क्यों
अपनी इच्छाओं के विरुद्ध उन आदेशों का
पालन करने को प्रस्तुत है जिनसे वह खुद
कतई सहमत नहीं!…जो उसकी आजादी पर
एक बहुत बड़ा सवालिया निशान है!
पतंग और पंछी के बीच मेरी कल्पना में
एक ऐसा आदमी उतर कर आता है
जिसने डोर से नकेल तक की राजनीति को
जन्म दिया है
वह निश्चित रूप से कोई ख़तरनाक इरादों वाला
ही रहा होगा…
लेकिन मैं उसकी शिनाख़्त अभी
ठीक-ठीक कर पाने में असमर्थ हूं!
कल्पना के स्थापत्य में जीवन की इच्छा
चलो लौटती हूं
उस निर्जन मकान में तुम्हारे साथ
यहां कल्पना में जलाओ स्टोव
या फिर मैं लकड़ियों का इंतजाम करती हूं
एक सीढ़ी लगाकर इस मोटी दीवार के उस पार देखना
कैसा रहेगा
चलो! यहां आओ, बैठो!
मेरी गोदी में सिर रखो
अब यहां से दूर जाती सड़क को देखो
यहां हवा कुछ दूसरी तरह से त्वचा का स्पर्श
करती है
यहां अन्न का स्वाद कुछ भिन्न है
पानी का स्वाद भी पूर्व परिचय का नहीं
देखो, धूप का यह रंग कैसा है!
यहां कोई सितार बजाकर उठा है अभी… सुनो!!
जलते हुए इस अलाव की लपट में किस संगीत का
असर है
इस स्थापत्य में कहीं कुछ छूट रहा है
आओ इसके अंदर प्रवेश करते हैं हम तुम
जैसे ओस फूल में!