स्याह
स्याह समय के गाल पर है
तिल की तरह नहीं
दाग़ की तरह
ग़लत दिमाग़ों के उजाले में है
राह में है उसे ढाँकता हुआ
दाईं ओर से आगे निकलकर भागता हुआ
कुछ बर्बर मानव-समूह संगठन बन गए हैं
उनके विधान में है स्याह
घर-गाँव की याद आती है तो याद आता है
सड़ी हुई सामन्ती शान में है
परिजनों के बर्ताव में
मण्डी में विपन्न सब्ज़ी वाले से लगातार हो मोल-भाव में वह है
गहराती रात में उतना नहीं
उसकी अकादमिक व्याख्याओं में है
जनता के नाम पर क़ायम हुई
व्यवस्थाओं में है
अनन्त उसके बसेरे
एक लगभग कविता आख़िर कितने कोने घेरे
मैं एक कोने में बैठ कर
स्याह को कोसता भर नहीं रह सकता
उजाले की आँखें कहाँ-कहाँ बन्द है
यह देखना भी मेरा ही काम है
इस नितान्त अपर्याप्त लेखे में
कवि की आँखों के नीचे वह है
वहाँ उसका होना
न भुलाया जा सकने वाला इतिहास है
और फ़िलहाल
उसे मिटाए जाने की कोई ज़रूरत भी नहीं है
पुकार
चौंक कर देखता हूँ
अपने बिलकुल आसपास
ढहने के बीच से एक बार पुकारते तो हैं मेरे पहाड़
उखड़ने के बीच से दरख़्त
गिरने के बीच से पुकारकर सावधान करते हैं पत्थर
अचानक उड़ान खोकर पुकारता है पक्षी
आग के बीच से आँच लपक कर पुकारती है
ज़मीन पुकारती है उसकी गोद में जहाँ लोग थे
अब वहाँ उसकी छाती दबाता ढेर सारा पानी है
या बड़ी-बड़ी इमारतें
मेरी राजधानी किसी को नहीं पुकारती
उसे पुकारा जाए तो सुनती नहीं
हम भाषा को नहीं
महज अर्थ को पुकार रहे हैं
यानी व्यर्थ में पुकार रहे हैं
पुकार की हूक हम भूल गए हैं
जबकि वही अनिवार्य शिल्प है पुकार का
जिन्हें सुनना है
वे सुनने का सलीका खो चुके हैं
यह किस सभ्यता का उत्तरकाल है
हम चीज़ों को पुकार रहे हैं
मनुष्य हमारे अगल-बगल से जा रहे हैं
विचारधारा को पैताने बिठाए कुछ कवि
गीदड़ को मात करते
अलाप रहे हैं मानव-बस्तियों के छोर पर
कविता भी पुकारना छोड़ देगी
एक दिन
सुनने की उस मृत्यु के बाद
श्राद्ध का अन्न खाएँगे आलोचक
मुदित मन घर जाएँगे
पहले भी आते-जाते रहे हैं
सो आएँगे
फिर एक बार
हत्यारों के अच्छे दिन आएँगे
जाएँगे
दिल्ली में कविता-पाठ /
प्रिय आयोजक मुझे माफ़ करना
मैं नहीं आ सकता
आदरणीय श्रोतागण ख़ुश रहना
मैं नहीं आ सका
मैं आ भी जाता तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता
मैं हिन्दी के सीमान्तों की कुछ अनगढ़ बातें सुनाता अटपट अन्दाज़ में
मैं वो आवाज़ हूँ जिसके आगे उत्तरआधुनिक माइक अकसर भर्रा उठते हैं
आपके लिए अच्छा है मेरा न आना
अध्यक्ष महोदय अवमानना से बच गए
संचालक महोदय अवहेलना से
न आने के सिवा और मैं कुछ नहीं कर सकता था आपके कविता-पाठ की
अपूर्व सफलता के लिए
तस्वीरें दिखाती हैं
कविता-पाठ अत्यन्त सफल रहा
ख़बरें बताती हैं मँच पर थे कई चाँद-तारे
सभागार भरा था
एक आदमी के बैठने लायक भी जगह नहीं बची थी
आप इसे यूँ समझ लें
कि मैं कवि नहीं
बस वही एक आदमी हूँ जिसके बैठने लायक जगह नहीं बची थी
राजधानी के सभागार में
नहीं आया अच्छा हुआ आपके और मेरे लिए
आपका धैर्य भले नहीं थकता
पर मेरे पाँव थक जाते खड़े-खड़े
सत्ताओं समक्ष खड़े रहना मैंने कभी सीखा नहीं
लड़ना सीखा है
आप एक लड़ने वाले कवि को बुलाना तो
नहीं ही चाहते होंगे
चाहें तो मेरे न आ पाने पर अपना आभार प्रकट कर सकते हैं
मुझे अच्छा लगेगा ।
भूला हुआ नहीं भूला
मैं राजाओं की शक्ति और वैभव भूल गया
उस शक्ति और वैभव के तले पिसे अपने जनों को नहीं भूला
सैकड़ों बरस बाद भी वे मेरी नींद में कराहते हैं
मैं इतिहास की तारीख़ें भूल गया
अन्याय और अनाचार के प्रसंग नहीं भूला
आज भी कोसता हूँ उन्हें
मैं कुछ पुराने दोस्तों के नाम भूल गया
चेहरे नहीं भूला
इतने बरस बाद भी पहचान सकता हूँ उन्हें
तमाम बदलावों के बावजूद
मैं शैशव में ही छूट गए मैदान के बसन्त भूल गया
धूप में झुलसते दु:ख याद हैं उनके
वो आज भी मेरी आवाज़ में बजते हैं
बड़े शहरों के वे मोड़ मुझे कभी याद नहीं हुए
जो मंज़िल तक पहुँचाते हैं
मेरे पहाड़ी गाँव को दूसरे कई-कई गाँवों को जोड़ती
हर एक छरहरी पगडण्डी याद है मुझे
किन पुरखे या अग्रज कवियों को कौन-से पुरस्कार-सम्मान मिले
याद रखना मैं ज़रूरी नहीं समझता
उनकी रोशनी से भरी कई कविताएँ और उनके साथ हुई
हिंसा के प्रसंग मैं हमेशा याद रखता हूँ
भूल जाना हमेशा ही कोई रोग नहीं
एक नेमत भी है
यही बात न भूलने के लिए भी कही जा सकती है
क्योंकि बहुत कुछ भूला हुआ नहीं भी भूला
उस भूले हुए की याद बाक़ी है
तो साँसों में तेज़ चलने की चिंगारियाँ बाक़ी हैं
वही इस थकते हुए हताश हृदय को चलाती हैं ।
खुला घाव
मैं खुला घाव हूँ कोई साफ़ कर देता
कोई दवा लगा देता है
मैं सबका आभार नहीं मान सकता
पर उसे महसूस करता हूँ
सच कहूँ तो सहानुभूति पसन्द नहीं मुझे
खुले घाव जल्दी भरते हैं
गुमचोटें देर में ठीक होती हैं
पर खुले घाव को लपेट कर रखना होता है
मैं कभी प्रेम लपेटता
कभी स्वप्न लपेटता हूँ कई सारे
कभी कोई अपनी कराहती हुई कविता भी लपेट लेता हूँ
लेकिन हर पट्टी के अन्दर घुटता हुआ घाव तंग करता है
वह ताज़ा हवा के लिए तड़पता है
प्रेम, स्वप्न और कविता ऐसी पट्टियाँ हैं जो लिपट जाएँ
तो खुलने में दिक़्क़त करती हैं
मैं इनमें से किसी को नुक़सान नहीं पहुँचाना चाहता
पर घाव के चीख़ पड़ने पर इन्हें जगह-जगह से काटकर
खोल देना पड़ता है
खुला घाव खुला ही रहना चाहता है
खुला घाव तुरत इलाज चाहता है अपने में बंधा रहना नहीं चाहता
गुमचोटों की तरह बरसों टीसना नहीं चाहता
उसकी ओर से मैं क्षमा माँग लेता हूँ —
ओ मेरे प्रेम !
हे मेरे स्वप्नों !!
अरी मेरी कविता !!!
बना रहे प्रेम पर घाव को न छुपाए
बने रहेंगे मेरे स्वप्न सही राह चले तो झूटे आवरण नहीं बन जाएँगे
उघाड़ेंगे ही मुझे भीतर तक
बनी रहे कविता लगभग जैसी वह जीवन में है विकल पुकारती
यह खुला घाव खुला घाव ही है
बस कीड़े न पड़ें इसमें
वे जब ख़ूब छक चुकने के बाद भी
आसपास बिलबिलाते हैं
तो उनकी असमाप्त भूख मैं महसूस कर पाता हूँ
उनका जैविक आचरण रहा है मृत्यु के बाद देह को खा जाना
पर अब जीवन भी उनकी भूख में शामिल हैं
विचारहीन मनुष्यता उनका सामना नहीं कर सकती
वह जीवित रहते खा ली जाएगी
खुले घाव और बिलबिलाते कीड़ों के इस जुगुप्सा भरे प्रसंग में
मैं अपनी कोई चिन्ता नहीं करता
अपनी चिन्ता करना अपनी वैचारिकी के खिलाफ़ जाना है
लगातार लगते घावों से ही अब तक जीवन कई भटकावों से बचा है
कुछ और सधा है
मेरे अपनो
आश्वस्त रहो
मेरा होना एक खुला घाव तो है
लेकिन विचारों से बँधा है ।
हाशिया
मुझे हाशिए के जीवन को कविता में लाने के लिए पहचाना गया -–
ऐसा मुझे मिले पुरस्कार के मानपत्र पर लिखा है
जिस पर दो बड़े आलोचकों और दो बड़े कवियों के नाम हैं
उस वक़्त पुरस्कृत होते हुए
मैं देख पा रहा था हाशिए पर भी नहीं बच रही थी जगह
और रहा जीवन तो उसे हाशिए पर मान लेना मेरे हठ के खिलाफ़ जाता है
मैंने पूरे पन्ने पढ़े थे
उन पर लिखा बहुत कुछ ग़लत भी पढ़ा था
मैंने उस ग़लत पर ही सही लिखने से शुरूआत करने की छोटी-सी कोशिश की थी
हाशिया मेरे जीवन में महज इसलिए आया था
क्योंकि पहाड़ के एक कोने में मेरा रहवास था और कोने अकसर हाशिए मान लिए जाते हैं
बड़े शहर पन्ना हो जाते हैं
मैं दरअसल लिखे हुए पर लिख रहा हूँ अब तक
यानी पन्ने पर लिख रहा हूँ
साफ़ पन्ना मेरे समय में मिलेगा नहीं
लिख-लिखकर साफ़ करना पड़ेगा
कुछ पुरखे सहारा देंगे
कुछ अग्रज मान रखेंगे
कुछ साथी साथ-साथ लिखते रहेंगे
तो मैं लिखे हुए पन्नों पर भी कविता लिख कर दिखा दूँगा
कवि न कहलाया तो क्या हुआ
कुछ साफ़-सफ़ाई का काम ही अपने हिस्से में लिखा लूँगा ।
वसन्त
सत्यानन्द निरूपम के लिए
हर बरस की तरह
इस बरस भी वसन्त खोजेगा मुझे
मैं पिछले सभी पतझरों में
थोड़ा-थोड़ा मिलूँगा उसे
उनमें भी
जिनकी मुझे याद नहीं
प्रेम के महान क्षणों के बाद मरे हुए वसन्त
अब भी मेरे हैं
मिलूँगा कहीं तो वे भी मिलेंगे
द्वन्द्व के रस्तों पर
सीधे चलने और लड़ने के सुन्दर वसन्त
लाल हैं पहले की तरह
उनसे ताज़ा रक्त छलकता है तो नए हो जाते हैं
मेरे पीले-भूरे पतझरों में
उनकी आँखें चमकती हैं
वसन्त खोजेगा मुझे
और मैं अपने उन्हीं पीले-भूरे पतझरों के साथ
मिट्टी में दबा मिलूँगा
साथी,
ये पतझर सर्दियों भर
मिट्टी में
अपनी ऊष्मा उगलते
गलते-पिघलते हैं
महज मेरे नहीं
दुनिया के सारे वसन्त
अपने-अपने पतझरों पर ही पलते हैं ।
कुछ फूल रात में ही खिलते हैं
कुछ बिम्ब बहुत रोशनी में
अपनी चमक खो देते हैं
कुछ प्रतीक इतिहास में झूट हो जाते हैं
वर्तमान में अनाचारियों के काम आते है
कुछ मिथक सड़ जाते हैं पुराकथाओं में
नए प्रसंगों में उनकी दुर्गंध आती है
कुछ भाषा परिनिष्ठण में दम तोड़ देती है
कविता के मैदान में नुचे हुए मिलते हैं कुछ पंख
सारे ही सुख दु:ख से परिभाषित होते हैं
गो परिभाषा करना कवि का काम नहीं है
घुप्प अन्धेरे में
माचिस की तीली जला
वह काग़ज़ पर कुछ शब्द लिखता है
यह समूची सृष्टि पर छाया एक अन्धेरा है
और सब जानते हैं
कि कुछ फूल सिर्फ़ रात ही में खिलते हैं
हेर रहे हम
अरे पहाड़ी रस्ते
कल वो भी थी संग तिरे
हम उसके साथ-साथ चलते थे
उसकी वह चाल बावली-सी
बच्चों-सी पगथलियाँ
ख़ुद वो बच्ची-सी
उसकी वह ख़ुशियाँ
बहुत नहीं माँगा था उसने
अब हेर रहे हम पथ का साथी
आया
आकर चला गया
क्यों चला गया
उसके जाने में क्या मजबूरी थी
मैं सब कुछ अनुभव कर पाता हूँ
कभी खीझ कर पाँव ज़ोर से रख दूँ तुझ पर
मत बुरा मानना साथी
अब हम दो ही हैं
मारी लँगड़ी गए साल जब तूने मुझे गिराया था
मैंने भी हँसकर सहलाया था
घाव
पड़ा रहा था बिस्तर पर
तू याद बहुत आया था
मगर लगी जो चोट
बहुत भीतर
तेरा-मेरा जीवन रहते तक टीसेगी
क्या वो लौटेगी
चल एक बार तू – मैं मिलकर पूछें
उससे
अरी बावरी
क्या तूने फिर से ख़ुद को जोड़ लिया
क्या तू फिर से टूटेगी
दिनचर्या
आज सुबह सूरज नहीं निकला अपनी हैसियत के हिसाब से
बहुत मोटी थी बादलों की परत
उस नीम-उजाले से मैंने
उजाला नहीं बादलों में संचित गई रात का
नम अन्धेरा माँगा
उसमें मेरे हिस्से का जल था
काम पर जाते हुए बुद्ध मूर्ति-सा शान्त और एकाग्र था रास्ता
उस विराट शान्ति से मैंने
सन्नाटा नहीं गए दिन की थोड़ी हलचल माँगी
मेरे कुछ लोग जो फँस गए थे उसमें आज दिख भी नहीं रहे थे दूर-दूर तक
उनके लिए चिन्तित हुआ
दिन भर बाँएँ पाँव का अँगूठा दुखता रहा था
मैंने रोज़ शाम के अपने भुने हुए चने नहीं माँगे
कुछ गाजर काटीं और
शाम में मिला दिया एक अजीब-सा रंग
रात बादल छँट गए
बालकनी में खड़े हुए देख रहा हूँ
भरपूर निकला है पूनम का चाँद
मैं उससे क्या माँगू
थोड़ा उजाला मैंने कई सुबहों से बचा कर रखा है
उस उजाले से अब मैं एक कविता माँग रहा हूँ
अपने हिस्से की रात को
कुछ रोशन करने के लिए
शर्म की बात है
पर जिन्हें अब तब गले में लटकाए घूम रहा था
वे भी कम पड़ गईं भूख मिटाने को
काव्यालोचना
एक रास्ते पर मैं रोज़ आता-जाता रहा
अपनी ज़रूरत के हिसाब से उसे बिगाड़ता-बनाता रहा
अब उस पर श्रम और सौन्दर्य खोजने का एक काम लिया है
सार्थक-निरर्थक होने के फेर में नहीं पड़ा कभी
जीवन और कविता में जो कुछ जानना था
ज़्यादातर अभिप्रायों से जान लिया है
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में सुरक्षित है रामचन्द्र शुक्ल की कुर्सी
पुख़्ता ख़बर है
कि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में सम्भालकर रखी गई है
रामचन्द्र शुक्ल की कुर्सी
रामचन्द्र शुक्ल की कुर्सी को सम्भालने की इच्छा रखने वाले भक्तजन
जीवनपर्यन्त रामचन्द्र शुक्ल को नहीं एक आचार्यनुमा कुर्सी को पढ़ते रहे हैं
अपने लिए भी महज एक कुर्सी ही गढ़ते रहे हैं
विद्रोहिणी
उसने माँ के पेट से फेमिनिज़्म नहीं पढ़ा था
उसके वहां रहते माँ के पेट में कुछ भोजन आता था
सुबह-शाम
और अपमान में पिए हुए ग़ुस्से के कई घूँट
वह माँ का जीवन था
वह जन्मते ही अभागी कहाई
यह पुराकथा है
फिर फिर दोहराई जाए ज़रूरी नहीं
स्कूल जा पाई इतनी बड़भागी थी
बड़ी पढ़ाई का हठ ठाने शहर जाने को अड़ी तो
बिगड़ैल कहाई
पर उसने बिगड़ी बात बनाई
नौकरी मिलना सरल नहीं था मिली
पढ़ते हुए एकाध बार और नौकरी करते दो-तीन बार प्रेम में पड़ी
शादी को मना करती विद्रोही कहलाने लगी थी तब तक
रिश्तों के दमघोंटूं ताने-बाने में जिसे सरलता के लिए अतिव्याप्ति के बावजूद
समाज कह लेते हैं
अभी उसका प्रेम टूटा है जिसे वो अन्तिम कहती है
शादी करने को तैयार थी पर बच्चे के लिए दूर-दूर तक नहीं
टूटकर अलग हो चुका है भावुक प्रेमी
कोई गूढ़ राजनीति नहीं है यह
कि चरम पर पहुँचे और सही राह पर हो
तो विद्रोह से
राज पलट जाते हैं
संसार बदल जाता है
स्त्री विद्रोही हो जाए
तो थम जाता है संसार का बनना
उसे बदलने की नहीं
बचाने की ज़रूरत बचती है ।
अपनी भाषा में वास
हैरां हूँ कि किसे ग़ैर बताऊँ, अपना कहूँ किसे
मैं किसी और भाषा की कविता के मर्म में बिन्धा हूँ
बन्धा हूँ किसी और की गरदन के दर्द में
न मुझे लिखने के लिए बाध्य किया गया न लटकाया फाँसी पर
दूसरों के अनुभवों में बिंधना और बंधना हो रहा है
इतना होने पर भी प्रवास पर नहीं हूँ
मेरा वास अपनी ही भाषा के भीतर है
वह भाषा मेरी भाषा में प्रवासी है
इन दिनों
आप चाहें तो सुविधा के लिए उसे अँग्रेज़ी कह सकते हैं
मैं बहुत मजबूर आदमी हूँ
मिले हुए जीवन को सुविधाओं से जीता हुआ मैं बहुत मजबूर आदमी हूँ
यही मेरी मजबूरी है
मेरी मजबूरी सरल नहीं है
मेरे सिरहाने वह आकाश तक खड़ी है
मेरे पैताने बैठी है पाताल तक
मेरी बगल में क्षितिज तक लेटी है
पर यह एक छोटी मजबूरी है
मजबूरियाँ जिन्हें कहते हैं वे मेरे दरवाज़े के बाहर खड़ी हैं
वहाँ से न जाने कहाँ-कहाँ तक फैली हैं
चीड़ की कच्ची डाल टूटने से मरे लकड़ी तोड़ने वाले की मजबूरी
हम पक्के बरामदों में आग तापते हुए अपनी चमड़ी से लील जाते हैं
उधर जिन कच्चे घरों को वाकई आग की ज़रूरत है
वे सर्द और नम हवाओं में सील जाते हैं
हमारे घरों में मटर-पनीर की सब्ज़ी बच जाती है
असंख्य रसोईघरों में बासी रोटियाँ भी खप जाती हैं
मजबूरियाँ जिन्हें कहते हैं
वे सरल होती हैं उनसे पार पाना जटिल होता है
अपनी मजबूरी कहते अब शर्म आने लगी है
जैसे इसी कविता के भीतर और बाहर
मैं बहुत मजबूर आदमी नहीं हूँ
यह शीर्षक एक बेशर्म धोखा है
और मैं अपनी मजबूरी में दरअसल एक बेशर्म आदमी हूँ
आदमी की जगह कवि कहता
पर कवि कहना शर्म के चलते अब छोड़ दिया है
लोकसभा चुनाव 2014
चढ़ती रातों में कुछ पढ़ते हुए
तमतमा जाता चेहरा
हाथ की नसें तन जातीं
पाँवों में कुछ ऐंठता
कभी आँखों में नमी महसूस होती
गालों पर आँसू की लकीर भी दिखती
लेकिन पाग़ल नहीं था मैं कि अकेला बैठा गुस्साता या रोता
सामान्य मनुष्य ही था
सामान्य मनुष्य जैसी ही थीं ये हरक़तें भी
आजकल सामान्य होना पाग़ल होना है
और पाग़लों की तरह दहाड़ना-चीख़ना-हुँकारना
सामान्यों में रहबरी के सर्वोच्च मुकाम हैं
संयोग मत जानिएगा
पर जून 2014 में मुझे अपने साइको-सोमैटिक पुनर्क्षीण के लिए
दिल्ली के अधपग़ले डाक्टर के पास जाना है
अधम कहानी
स्त्री देह में धँस जाने की लालसा पुरुषों में पुरानी है
और मन टटोलने का क़ायदा अब भी उतना प्रचलित नहीं
लाखों वर्षो में मनुष्य के मस्तिष्क का विकास इस दिशा में बेकार ही गया है
जब भी
नाभि से दाना चुगती है होठों की चिडिया
तो डबडबा जाती हैं उसकी आँखें
कुछ प्रेम कुछ पछतावे से
प्राक्-ऐतिहासिक तथ्य की तरह याद आता है कि यह भी एक मनुष्य ही है
इसे अब प्रेम चाहिए
लानतों से भरा कोई पछतावा नहीं
शनि
अचानक मिले एक जानकार ने बताया
पिछले साढ़े तीन बरस से वह मेरी राशि में था
अब भी है
किसी करेले-सा
मंगल के निकट सान्निध्य में
नीम चढ़ा होता हुआ
आगे भी चार बरस रहेगा
फिर उसी ने बताया मेरी राशि का नाम
दुनिया जहान के बारे में मेरी इस अनभिज्ञता पर अचरज करते हुए
उसने बताया पाँच तत्वों से बनी है हमारी देह
इसलिए सौरमंडल से प्रभावित होती है
और यह भी कि
किया जा सकता है सरसों के तेल के साथ पाँच किलो उड़द के दान से
सुदूर घूमते परमप्रतापी सूर्यपुत्र शनिदेव का इलाज
दरअसल मैं इतना अनभिज्ञ भी नहीं था
झाँक ही लेता था
मौके-बेमौके ग्रह नक्षत्रों की आसमानी दुनिया में
जिसकी टिमटिमाती निस्तब्धता
मुझे थाम-थाम लेती थी
क्या कुछ नहीं घटता उस रहस्यलोक में
जिसे हम अन्तरिक्ष कहते हैं
अचानक प्रसिद्धि पाए कवियों सरीखे
चमचमाते
आते धूमकेतु
छोड़ जाते धुँआ छोड़ती पूँछ के
अल्पजीवी निशान
कहीं से टूटकर आ गिरती
उल्का भी कोई
गड़ती हुई दिल में एक मीठी -सी याद
कभी कोई रोशनी जाती हुई दीखती
बच्चे बहुत उत्तेजित चमकती ऑंखों से निहारते उसे
शोर मचाते
उन्हीं में से कोई एक सयाना बतलाता
अमरीका के छोड़े उपग्रह हैं यह
कोई कहता हमने भी तो छोड़े हैं कुछ
तो मिलता जवाब
हमारे नहीं चमक सकते इतना
और फिर देखो वह तेज़ भी तो कितना है
अचानक दिख जाती
रात में भटके या फिर शायद शिकार पर निकले
किसी परिन्दे की छाया भी
घुलमिल जाती उसी रहस्यलोक के अ-दृश्यों में कहीं
लेकिन
हमारे वजूद के बहुत पास
हल्के-हल्के आती
पंखों के फड़फड़ाने की आश्वस्तकारी आवाज़
मैं देखता और सुनता चुपचाप
सोचता उन्हीं शनिदेव के बारे में जो
फिलहाल
अपना आसमानी राजपाट छोड़
मुझ निकम्मे के घर में थे
पहली बार किसने बनाया होगा
यह विधान
दूर सौरमंडल में घूमते ग्रहों को
अपने पिछवाड़े बाँधने का
किसने ये राशियाँ बनाई होंगी
किसने बिठाए होंगे
हमारे प्रारब्ध पर ये पहरेदार
दुनिया भर में
अपने हिंसक अतीत से डरे
और भविष्य की घोर अनिश्चितताओं में घिरे
अनगिनत कर्मशील
मनुष्यों ने आख़िर कब सौंप दिया होगा
कुछ चालबाज़ मक्कारों के हाथों
अपने जीवन का कारोबार
मत हार!
मत हार!
कहते हैं फुसफुसाते कुछ दोस्त-यार
उनकी मद्दम होती आवाज़ों में
अपनी आवाज़ मिला
यह एक अदना-सा कवि
इस महादेश की पिसती हुई जनता के
इन भविष्यवक्ता
कर्णधारों से
इतना ही कह सकता है
कि बच्चों की किताबों में
किसी प्यारे रंगीन खिलौने-सा लगता
सौरमंडल का सबसे खूबसूरत
यह ग्रह
क्या उसकी इस तथाकथित राशि में
उम्र भर रह सकता है?
रुलाई
मुझे नहीं पता मैं पहली बार
कब रोया था
हालांकि मुझे बताया गया कि पैदा होने के बाद भी
मैं खुद नहीं रोया
बल्कि नर्स द्वारा च्यूंटी काटकर रुलाया गया था
ताकि भरपूर जा सके ऑक्सीजन पहली बार हवा का स्वाद चख रहे
मेरे फेफड़ों तक
मुझे अकसर लगता है कि मैं शायद पहली बार रोया होऊंगा
मां के गर्भ के भीतर ही
जैसे समुद्रों में मछलियां रोती हैं
चुपचाप
उनके अथाह पानी में अपने आंसुओं का
थोड़ा-सा नमक मिलाती हुई
हो सकता है
उनके और दूसरे तमाम जलचरों के रोने से ही
खारे हो गए हों समुद्र
मैं भी ज़रूर ऐसे ही रोया होऊंगा
क्षण भर को अपने अजन्मे हाथ-पांव हिलाकर
बाहर की दुनिया की तलाश में
और मेरे रोने से कुछ तो खारा हो ही गया होगा
मेरे चारों ओर का जीवन-द्रव
मुझे नहीं मालूम कि मां ने कैसा अनुभव किया होगा और इस अतिरिक्त खारेपन से
उसे क्या नुकसान हुआ होगा ?
उस वक्त
वह भी शायद रोयी हो नींद में अनायास ही
बिसूरती हुई
सपना देख रही है कोई दुख भरा – शायद सोचा हो पिता ने
सोते में उसका इस तरह रोना सुनकर
जहां तक मुझे याद है
मैं कभी नहीं रोता था खुद-ब-खुद फूटती
कोई अपनी
निहायत ही निजी रुलाई
मुझे तो रुलाया जाता था
हर बार
कचोट-कचोट कर
बचपन में मैं रोता था चोट लगने या किसी के पीटने पर
और चार साल की उम्र में एक बार तो मैं रोते-रोते बुखार का शिकार भी हुआ
जीवन में अपनी किसी आसन्न हार से घबराए
पिता द्वारा पीटे जाने पर
तब भी मां बहुत रोयी थी
रोती ही रही कई दिन मेरे सिरहाने बैठी
पीटने वाले पिता भी रोये होंगे ज़रूर
बाद में काम की मेज़ पर बैठ
पछताते
दिखाते खुद को
झूटमूट के
किसी काम में व्यस्त
मेरे बड़े होने साथ-साथ ही बदलते गए
मेरे रोने के कारण
महज शारीरिक से नितान्त मानसिक होते हुए
हाई स्कूल में रोया एक बार
जब किसी निजी खुन्नस के कारण
आन गांव के
चार लड़कों ने पकड़ा मुझे ज़बरदस्ती
और फिर उनमें से एक ने तो मूत ही दिया मेरे ऊपर धार बांधकर
गालियां बकते हुए
क्रोध और प्रतिहिंसा में जलता हुआ धरा गया मैं भी अगले ही दिन
लात मार कर उसके अंडकोष फोड़ देने के
जघन्यतम अपराध में
मुरगा बन दंडित हुआ स्कूल छूटते समय की प्रार्थना-सभा के दौरान
और फिर उसी हालत में
मेरे पिछवाड़े पर
जमाई हीरा सिंह मास्साब ने
अपनी कुख्यात छड़ी
गिनकर
दस बार
दिल्ली के किसी बड़े अस्पताल में
महीनों चलता रहा
उस लड़के का इलाज
इस घटना के एक अजीब-से एहसास में
आने वाली कितनी ही रातों तक रोया मैं एक नहीं कई-कई बार
घरवालों से अकारण ही छुपता हुआ
रजाई के भीतर घुट कर रह गई मेरी वह पहली बदली हुई रुलाई
जीवन में ये मेरे अपने आप रोने की
पहली घटना थी
जितनी अप्रत्याशित लगभग उतनी ही तय भी
मैंने देखा था अकसर ही विदा होते समय रोती थीं घरों की औरतें भी
लेकिन किसी बहुत खुली चीख या फिर किसी गूढ़ गीत जैसा होता था उनका यह रोना
और मैंने इसे हमेशा ही रुलाई मानने से
इनकार किया
कुछ और बड़ा हुआ मैं तो
आया एक और एहसास जीवन में लाया खुशियां अनदेखी कई-कई
जिनमें बहुत आगे कहीं एक अजन्मा शिशु भी था
और जिस दिन उस लड़की ने स्वीकार किया मेरा प्यार
तो मैंने देखा हंसते हुए चेहरे के साथ वह रो भी रही थी
धार-धार
उन आंसुओं को पोंछने के लिए बढ़ाया हाथ तो उसने भी मेरे गालों से
कुछ पोंछा
मैं थोड़ा शर्मिन्दा हुआ खुद भी इस तरह खुलेआम रो पड़ने पर
बाद में जाना कि दरअसल वह तो तरल था
मेरे हृदय का
इस दुनिया में मेरे होने का सबसे पुख्ता सबूत
जो निकल पड़ा बाहर
उसे भी एक सही राह की तलाश थी मुद्दत से
जब उसने मेरी आंखों का रुख लिया
फिर आए – फिर फिर आए दु:ख अपार
कई लोग विदा हो गए मेरे संसार से बहुत चुपचाप
कईयों ने छोड़ दिया साथ
कईयों ने किए षड़यंत्र भी
मेरे खिलाफ
मैं कई-कई बार हारा
तब जाकर जीता कभी-कभार
लेकिन बजाए हार के
अपनी जीत पर ही रोया मैं हर बार
बहुत समय नहीं गुज़रा है
अभी हाल तक मैं रो लेता था प्रेयसी से पत्नी बनी उस लड़की के आगे भी खुलकर
बिना शर्माए
पर अब निकलते नहीं आंसू
उन्हें झुलसा चुकी शायद समय की सैकड़ों डिग्री फारेनहाइट आग
होने को तो
विलाप ही विलाप है जीवन
पर वो तरल – हृदय का खो गया है कहीं
डरता हूं
कहीं हमेशा के लिए तो नहीं ?
रात-रात भर अंधेरे में आंखें गड़ाए खोजता हूं उसी को
भीतर ही भीतर भटकता दर-ब-दर
अपने हिस्से की पूरी दुनिया में
उन बहुत सारी चीज़ों के साथ
जो अब नहीं रही
चाहता हूं
वैसी ही हो मेरी अन्तिम रुलाई भी
जैसे रोया था मां के गर्भ में पहली बार
मुझे एक बार फिर ढेर सारे अंधेरे और एक गुमनाम तलघर से बाहर
किसी बहुत जीवन्त
और रोशन दुनिया की तलाश है
अब तो मेरे भीतर नमक भी है ढेर सारा
मेहनत-मशक्कत से कमाया
लेकिन कोई हिलता-डुलता जीवन-द्रव नहीं मेरे आसपास
कर सकूं जिसे खारा
रो-रोकर
और इस लम्बी और अटपटी एक कोशिश के बाद तो
स्वीकार करूंगा यह भी
कि मेरी रुलाई कोई कविता भी नहीं
आखिर तक
लिखता रह सकूं जिसे मैं महज
कवि होकर।
बनारस से निकला हुआ आदमी
जनवरी की उफनती पूरबी धुंध
और गंगातट से अनवरत उठते उस थोड़े से धुँए के बीच
मैं आया इस शहर में
जहाँ आने का मुझे बरसो से
इन्तज़ार था
किसी भी दूसरे बड़े शहर की तरह
यहाँ भी
बहुत तेज़ भागती थी सड़कें
लेकिन रिक्शों, टैम्पू या मोटरसाइकिल-स्कूटरवालों में बवाल हो जाने पर
रह-रहकर
रूकने-थमने भी लगती थी
मुझे जाना था लंका और उससे भी आगे
सामने घाट
महेशनगर पश्चिम तक
मैं पहली बार शहर आए
किसी गँवई किसान-सा निहारता था
चीज़ों को
अलबत्ता मैंने देखे थे कई शहर
किसान भी कभी नहीं था
और रहा गँवई होना –
तो उसके बारे में खुद ही बता पाना
कतई मुमकिन नहीं
किसी भी कवि के लिए
स्टेशन छोड़ते ही यह शुरू हो जाता था
जिसे हम बनारस कहते हैं
बहुत प्राचीन-सी दिखती कुछ इमारतों के बीच
अचानक ही
निकल आती थी
रिलायंस वेब वर्ल्ड जैसी कोई अपरिचित परालौकिक दुनिया
मैंने नहीं पढ़े थे शास्त्र
लेकिन उनकी बहुश्रुत धारणा के मुताबिक
यह शहर पहले ही
परलोक की राह पर था
जिसे सुधारने न जाने कहाँ से भटकते आते थे साधू-सन्यासी
औरतें रोती-कलपती
अपना वैधव्य काटने
बाद में विदेशी भी आने लगे बेहिसाब
इस लोक के सीमान्त पर बसे
अपनी तरह के
एक अकेले
अलबेले शहर को जानने
लेकिन
मैं इसलिए नहीं आया था यहाँ
मुझे कुछ लोगों से मिलना था
देखनी थीं
कुछ जगहें भी
लेकिन मुक्ति के लिए नहीं
बँध जाने के लिए
खोजनी थीं कुछ राहें
बचपन की
बरसों की ओट में छुपी
भूली-बिसरी गलियों में कहीं
कोई दुनिया थी
जो अब तलक मेरी थी
नानूकानू बाबा की मढ़िया
और उसके तले
मंत्र से कोयल को मार गिराते एक तांत्रिक की
धुंधली-सी याद भी
रास्तो पर उठते कोलाहल से कम नहीं थी
पता नहीं क्या कहेंगे इसे
पर पहँचते ही जाना था हरिश्चंद्र घाट
मेरे काँधों पर अपनी दादी के बाद
यह दूसरी देह
वाचस्पति जी की माँ की थी
बहुत हल्की
बहुत कोमल
वह शायद भीतर का संताप था
जो पड़ता था भारी
दिल में उठती कोई मसोस
घाट पर सर्वत्र मँडराते थे डोम
शास्त्रों की दुहाई देते एक व्यक्ति से
पैसों के लिए झगड़ते हुए कहा एक काले-मलंग डोम ने-
‘किसी हरिश्चंद्र के बाप का नहीं
कल्लू डोम का है ये घाट!’
उनके बालक
लम्बे और रूखे बालों वाले
जैसे पुराणों से निकलकर उड़ाते पतंग
और लपकने को उन्हें
उलाँघते चले जाते
तुरन्त की बुझी चिताओं को भी
आसमान में
धुँए और गंध के साथ
उनका यह
अलिखित उत्साह भी था
पानी बहुत मैला
लगभग मरी हुई गंगा का
उसमें भी गुड़प-गुड़प डुबकी लगाते कछुए
जिनके लिए फेंका जाता शव का
कोई एक अधजला हिस्सा
शवयात्रा के अगुआ
डॉ0 गया सिंह पर नहीं चलता था रौब
किसी भी डोम का
कीनाराम सम्प्रदाय के वे कुशल अध्येता
गालियों से नवाज़ते उन्हें
लगभग समाधिष्ठ से थे
लगातार आते अंग्रेज़
तरह-तरह के कैमरे सम्भाले
देखते हिन्दुओं के इस आख़िरी सलाम को
उनकी औरतें भी लगभग नंगी
जिन्हें इस अवस्था में अपने बीच पाकर
किशोर और युवतर डोमों की जाँघों में
रह-रहकर
एक हर्षपूर्ण खुजली-सी उठती थी
खुजाते उसे वे
अचम्भित से लुंगी में हाथ डाल
टकटकी बाँधे
मानो ऑंखो ही ऑंखों में कहते
उनसे –
हमारी मजबूरी है यह
कृपया इस कार्य-व्यापार का कोई
अनुचित
या अश्लील अर्थ न लगाएँ
गहराती शाम में आए काशीनाथ जी
शोकमग्न
घाट पर उन्हें पा घुटने छूने को लपके बी0एच0यू0 के
दो नवनियुक्त प्राध्यापक
जिन्हें अपने निकटतम भावबोध में
अगल-बगल लिए
वे एक बैंच पर विराजे
‘यह शिरीष आया है रानीखेत से’ – कहा वाचस्पति जी ने
पर शायद
दूर से आए किसी भी व्यक्ति से मिल पाने की
फुर्सत ही नहीं थी उनके पास
उस शाम एक बार मेरी तरफ अपनी ऑंखें चमका
वे पुन: कर्म में लीन हुए
मैं निहारने लगा गंगा के उस पार
रेती पर कंडे सुलगाए खाना पकाता था कोई
इस तरफ लगातार जल रहे शवों से
बेपरवाह
रात हम लौटे अस्सी-भदैनी से गुज़रते
और हमने पोई के यहाँ चाय पीना तय किया
लेकिन कुछ देर पहले तक
वह भी हमारे साथ घाट पर ही था
और अभी खोल नहीं पाया था
अपनी दुकान
पोई – उसी केदार का बेटा
बरसों रहा जिसका रिश्ता राजनीति और साहित्य के संसार से
सुना कई बरस पहले
गरबीली गरीबी के दौरान नामवर जी के कुर्ते की जेब में
अकसर ही
कुछ पैसे डाल दिया करता था
रात चढ़ी चली आती थी
बहुत रौशन
लेकिन बेरतरतीब-सा दीखता था लंका
सबसे ज्यादा चहल-पहल शाकाहारी भोजनालयों में थी
चौराहे पर खड़ी मूर्ति मालवीय जी की
गुज़रे बरसों की गर्द से ढँकी
उसी के पास एक ठेला
तली हुई मछली-मुर्गे-अंडे इत्यादि के सुस्वादु भार से शोभित
जहाँ लड़खड़ाते कदम बढ़ते कुछ नौजवान
ठीक सामने
विराट द्वार ‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय’ का
…
अजीब थी आधी रात की नीरवता
घर से कुछ दूर गंगा में डुबकी लगातीं शिशुमार
मछलियाँ सोतीं
एक सावधान डूबती-उतराती नींद
तल पर पाँव टिकाए पड़ें हों शायद कछुए भी
शहर नदी की तलछट में भी कहीं साफ़ चमकता था
तब भी
हमारी पलकों के भीतर नींद से ज्यादा धुँआ था
फेफड़ों में हवा से ज्यादा
एक गंध
बहुत ज़ोर से साँस भी नहीं ले सकते थे हम
अभी इस घर से कोई गया था
अभी इस घर में उसके जाने से अधिक
उसके होने का अहसास था
रसोई में पड़े बर्तनों के बीच शायद कुलबुला रहे थे
चूहे
खाना नहीं पका था इस रात
और उनका उपवास था
…
सुबह आयी तो जैसे सब कुछ धोते हुए
क्या इसी को कहते हैं
सुबहे-बनारस ?
क्या रोज़ यह आती है ऐसे ही?
गंगा के पानी से उठती भाप
बदलती हुई घने कुहरे में
कहीं से भटकता आता आरती का स्वर
कुछ भैंसें बहुत गदराए काले शरीर वाली
धीरे से पैठ जातीं
सुबह 6 बजे के शीतल पानी में
हले!हले! करते पुकारते उन्हें उनके ग्वाले
कुछ सूअर भी गली के कीच में लोट लगाते
छोड़ते थूथन से अपनी
गजब उसाँसे
जो बिल्कुल हमारे मुँह से निकलती भाप सरीखी ही
दिखती थीं
साइकिल पर जाते बलराज पांडे
रीडर हिन्दी बी.एच.यू.
सड़क के पास अचानक ही दिखता
किसी अचरज-सा एक पेड़
बादाम का
एक बच्चा लपकता जाता लेने
कुरकुरी जलेबी
एक लौटता चाशनी से तर पौलीथीन लटकाए
अभी पान का वक्त नहीं पर
दुकान साफ कर अगरबत्ताी जलाने में लीन
झब्बर मूँछोंवाला दुकानदार भी
यह धरती पर भोर का उतरना है
इस तरह कि बहुत हल्के से हट जाए चादर रात की
उतारकर जिसे
रखते तहाए
चले जाते हैं पीढ़ी दर पीढ़ी
बनारस के आदमी
अभी धुंध हटेगी
और राह पर आते-जातों की भरमार होगी
अभी खुलेंगे स्कूल
चलते चले जायेंगे रिक्शे
ढेर के ढेर बच्चों को लाद
अभी गुज़रेंगे माफियाओं के ट्रक
रेता-रोड़ी गिराते
जिनके पहियों से उछलकर
थाम ही लेगा
हर किसी का दामन
गङ्ढों में भरा गंदला पानी
अभी
एक मिस्त्री की साइकिल गुज़रेगी
जो जाता होगा
कहीं कुछ बनाने को
अभी गुज़रेगी ज़बरे की कार भी
हूटर और बत्ती से सजी
ललकारती सारे शहर को
एक अजब-सी
मदभरी अश्लील आवाज़ में
इन राहों पर दुनिया चलती है
ज़रूर चलते होंगे कहीं
इसे बचाने वाले भी
कुछ ही देर पहले वे उठे होंगे एक उचाट नींद से
कुछ ही देर पहले उन्होंने अपने कुनमुनाते हुए बच्चों के
मुँह देखे होंगे
अभी उनके जीवन में प्रेम उतरा होगा
अभी वे दिन भर के कामों का ब्यौरा तैयार करेंगे
और चल देंगे
कोई नहीं जानता
कि उनके कदम किस तरफ बढ़ेंगे
लौटेंगे
रोज़ ही की तरह पिटे हुए
या फिर चुपके से कहीं कोई एक हिसाब
बराबर कर देंगे
अभी तो उमड़ता ही जाता है
यह मानुष-प्रवाह
जिसमें अगर छुपा है हलाहल
जीवन का
तो कहीं थोड़ा-सा अमृत भी है
जिसकी एक बँद अभी उस बच्चे की ऑंखों में चमकी थी
जो अपना बस्ता उतार
रिक्शा चलाने की नाकाम कोशिश में था
दूसरी भी थी वहीं
रिक्शेवाले की पनियाली ऑंखों में
जो स्नेह से झिड़कता कहता था उसे – हटो बाबू साहेब
यह तुम्हारा काम नहीं!
…
बहुत शान्त दीखते थे बी.एच.यू. के रास्ते
टहलते निकलते लड़के-लड़कियाँ
‘मैत्री’ के आगे खड़े
चंदन पांडे, मयंक चतुर्वेदी, श्रीकान्त चौबे और अनिल
मेरे इन्तज़ार में
उनसे गले मिलते
अचानक लगा मुझे इसी गिरोह की तो तलाश थी
अजीब-सी भंगिमाओं से लैस हिन्दी के हमलावरों के बीच
कितना अच्छा था
कि इन छात्रों में से किसी की भी पढ़ाई में
हिन्दी शामिल नहीं थी
ज़िन्दगी की कहानियाँ लिखते
वे सपनों से भरे थे और हक़ीक़त से वाकिफ़
मैं अपनी ही दस बरस पुरानी शक्ल देखता था
उनमें
हम लंका की सड़क पर घूमते थे
यूनीवर्सल में किताबें टटोलते
आनी वाली दुनिया में अपने वजूद की सम्भावनाओं से भरे
हम जैसे और भी कई होंगे
जो घूमते होंगे किन्हीं दूसरी राहों पर
मिलेंगे एक दिन वे भी यों ही अचानक
वक्त के परदे से निकलकर
ये, वो और हम
सब दोस्त बनेंगे
अपनी दुनिया अपने हिसाब से रचेंगे
फिलहाल तो धूल थी और धूप
हमारे बीच
और हम बढ़ चले थे अपनी जुदा राहों पर
एक ही जगह जाने को
साथ थे पिता की उम्र के वाचस्पति जी
जिन्हें मैं चाचा कहता हँ
बुरा वक्त देख चुकने के बावजूद
उनकी ऑंखों में वही सपना बेहतर जिन्दगी का
और जोश
हमसे भी ज्यादा
साहित्य, सँस्कृति और विचार के स्वघोषित आकाओं के बरअक्स
उनके भीतर उमड़ता एक सच्चा संसार
जिसमें दीखते नागार्जुन, त्रिलोचन, शमशेर, धूमिल और केदार
और उनके साथ
कहीं-कहीं हमारे भी अक्स
दुविधाओं में घिरे राह तलाशते
किसी बड़े का हाथ पकड़ घर से निकलते
और लौटते
…
हम पैदल भटकते थे – वाचस्पति जी और मैं
जाना था लौहटिया
जहाँ मेरे बचपन का स्कूल था
याद आती थीं
प्रधानाध्यापिका मैडम शकुन्तला शुक्ल
उनका छह महीने का बच्चा
रोता नींद से जागकर गुँजाता हुआ सारी कक्षाओं को
व्योमेश
जो अब युवा आलोचक और रंगकर्मी बना
एक छोटी सड़क से निकलते हुए वाचस्पति जी ने कहा –
यहाँ कभी प्रेमचन्द रहते थे
थोड़ा आगे बड़ा गणेश
गाड़ियों की आवाजाही से बजबजाती सड़क
धुँए और शोर से भरी
इसी सब के बीच से मिली राह
और एक गली के आख़ीर में वही – बिलकुल वही इमारत
स्कूल की
और यह जीवन में पहली बार था
जब छुट्टी की घंटी बज चुकने के बाद के सन्नाटे में
मैं जा रहा था वहाँ
वहाँ मेरे बचपन की सीट थी
सत्ताइस साल बाद भी बची हुई
ज्यों की त्यों
अब उस पर कोई और बैठता था
मेरे लिए
वह लकड़ी नहीं एक समूचा समय था
धड़कता हुआ
मेरी हथेलियों के नीचे
जिसमें एक बच्चे का पूरा वजूद था
ब्लैकबोर्ड पर छूट गया था
उस दिन का सबक
जिसके आगे इतने बरस बाद भी
मैं लगभग बेबस था
बदल गयी मेरी ज़िन्दगी
लेकिन
बनारस ने अब तलक कुछ भी नहीं बदला था
यह वहीं था
सत्ताइस बरस पहले
खोलता हुआ
दुनिया को बहुत सम्भालकर
मेरे आगे
…
गाड़ी खुलने को थी – बुन्देलखण्ड एक्सप्रेस
जाती पूरब से दूर ग्वालियर की तरफ
इससे ही जाना था मुझे
याद आते थे कल शाम इसी स्टेशन के पुल पर खड़े
कवि ज्ञानेन्द्रपति
देखते अपने में गुम न जाने क्या-क्या
गुज़रता जाता था एक सैलाब
बैग-अटैची बक्सा-पेटी
गठरी-गुदड़ी लिए कई-कई तरह के मुसाफिरों का
मेरी निगाह लौटने वालों पर थी
वे अलग ही दिखते थे
जाने वालों से
उनके चेहरे पर थकान से अधिक चमक नज़र आती थी
वे दिल्ली और पंजाब से आते थे
महीनों की कमाई लिए
कुछ अभिजन भी
अपनी सार्वभौमिक मुद्रा से लैस
जो एक निगाह देख भर लेने से
शक करते थे
छोड़ने आए वाचस्पति जी की ऑंखों में
अचानक पढ़ा मैंने- विदाई!
अब मुझे चले जाना था सीटी बजाती इसी गाड़ी में
जो मेरे सामने खड़ी थी
भारतीय रेल का सबसे प्रामाणिक संस्करण
प्लेटफार्म भरा हुआ आने-जाने और उनसे भी ज्यादा
छोड़ने-लेने आनेवालों से
सीट दिला देने में कुशल कुली और टी.टी. भी
अपने-अपने सौदों में लीन
समय दोपहर का साढ़े तीन
कहीं पहँचना भी दरअसल कहीं से छूट जाना है
लेकिन बनारस में पहँचा फिर नहीं छूटता
कहते हैं लोग
इस बात को याद करने का यही सबसे वाजिब समय था
अपनी तयशुदा मध्दम रफ्तार से चल रही थी ट्रेन
और पीछे बगटुट भाग रहा था बनारस
मुझे मालूम था
कुछ ही पलों में यह आगे निकल जाएगा
बार-बार मेरे सामने आएगा
इस दुनिया में क्या किसी को मालूम है
बनारस से निकला हुआ आदमी
आख़िर कहाँ जाएगा?
हल
उसमें बैलों की ताकत है और लोहे का पैनापन
एक जवान पेड की मजबूती
किसी बढ़ई की कलाकार कुशलता
धौंकनी की तेज़ आंच में तपा
लुहार का धीरज
इन सबसे बढ़ कर
धरती को फोड़ कर उर्वर बना देने की
उत्कट मानवीय इच्छा है
उसमें
दिन भर की जोत के बाद पहाड़ में
मेरे घर की दीवार से सट कर खडा वह
मुझे किसी दुबके हुए जानवर की तरह
लगता है
बस एक लंबी छलाँग
और वह गायब हो जाएगा
मेरे अतीत में कहीँ।
पुरानी हवाएं
वे उस तरह अप्रमाणित, साम्प्रदायिक और हिंसक नहीं हैं
जिस तरह इस दुनिया के
हमारे ईश्वर
कभी वे थे सचमुच के ज़िन्दा इंसान
हमारी ही तरह
रक्त और मांस के बने
वायवीय नहीं थी उनकी उपस्थिति
सैकड़ों बरस पहले वे आए
किन्हीं अनाम दुश्मनों से बचते-बचाते
जीवन की खोज में
मुट्ठी भर लोगों के साथ
इन अगम-अलंघ्य पहाड़ों पर
उनकी वह दुर्धर्ष जिजीविषा खींच लाई
उन्हें यहां
उन्होंने पार की नदियां
अपनी बांहों के सहारे
खोजे
जीवनदायी गाड़-गधेरे-सोते
भेदा
किसी तरह मृत्यु का वह सूचीभेद्य अन्धकार
और आ बसे इन दुर्गम जंगली लेकिन निरापद जगहों में
अपने कुनबों के साथ
राज नहीं किया उन्होंने बस साथ दिया अपने लोगों का
और न्याय किया
संकट के कठोरतम क्षणों में भी
इस तरह वे नायक बने मरने के बाद
गुज़रे सैकड़ों साल
उनकी प्रामाणिक छवियां धुंधलाती गईं
जन्म लेते गए मिथक
बनती गईं लोकगाथाएं और किंवदन्तियां
जिनमें
आज भी वे रहते हैं
अपने पूरे सम्मान और गरिमा के साथ
गांव-गांव में बने हैं उनके थान
ढाढ़स बंधाते हारते हुए मनुष्यों को
दिलाते हुए याद उस ताक़त की जिसे हर हाल में
हम जीवन कहते हैं
वाकई
समय भी एक दिशा है
जहां आज भी दिख जाएंगे वे
लकड़ी चीरते
पीठ पर मिट्टी ढो मेहनत कर सीढ़ीदार खेत बनाते
बुवाई करते
काटते फसलें
मनाते अपने उत्सव-त्यौहार
और साथ ही
धार लगाते अपनी तलवारों को भी किन्हीं अमूर्त दुश्मनों के
खिलाफ
वे आज भी लौट आते हैं
दुख की मारी देहों में बार-बार
कभी होते हुए क्रुद्ध
तो कभी करते हुए विलाप
वे क्यों लौट आते हैं
बार-बार?
मैं आपसे पूछता हूं
उनके इस तरह लौट आने को क्या कहेंगे आप?
ग्रामदेवता
वे उस तरह अप्रमाणित, साम्प्रदायिक और हिंसक नहीं हैं
जिस तरह इस दुनिया के
हमारे ईश्वर
कभी वे थे सचमुच के ज़िन्दा इंसान
हमारी ही तरह
रक्त और मांस के बने
वायवीय नहीं थी उनकी उपस्थिति
सैकड़ों बरस पहले वे आए
किन्हीं अनाम दुश्मनों से बचते-बचाते
जीवन की खोज में
मुट्ठी भर लोगों के साथ
इन अगम-अलंघ्य पहाड़ों पर
उनकी वह दुर्धर्ष जिजीविषा खींच लाई
उन्हें यहा
उन्होंने पार की नदियां
अपनी बांहों के सहारे
खोजे
जीवनदायी गाड़-गधेरे-सोते
भेदा
किसी तरह मृत्यु का वह सूचीभेद्य अन्धकार
और आ बसे इन दुर्गम जंगली लेकिन निरापद जगहों में
अपने कुनबों के साथ
राज नहीं किया उन्होंने बस साथ दिया अपने लोगों का
और न्याय किया
संकट के कठोरतम क्षणों में भी
इस तरह वे नायक बने मरने के बाद
गुज़रे सैकड़ों साल
उनकी प्रामाणिक छवियां धुंधलाती गईं
जन्म लेते गए मिथक
बनती गईं लोकगाथाएं और किंवदन्तियां
जिनमें
आज भी वे रहते हैं
अपने पूरे सम्मान और गरिमा के साथ
गांव-गांव में बने हैं उनके थान
ढाढ़स बंधाते हारते हुए मनुष्यों को
दिलाते हुए याद उस ताक़त की जिसे हर हाल में
हम जीवन कहते हैं
वाकई
समय भी एक दिशा है
जहां आज भी दिख जाएंगे वे
लकड़ी चीरते
पीठ पर मिट्टी ढो मेहनत कर सीढ़ीदार खेत बनाते
बुवाई करते
काटते फसलें
मनाते अपने उत्सव-त्यौहार
और साथ ही
धार लगाते अपनी तलवारों को भी किन्हीं अमूर्त दुश्मनों के
खिलाफ
वे आज भी लौट आते हैं
दुख की मारी देहों में बार-बार
कभी होते हुए क्रुद्ध
तो कभी करते हुए विलाप
वे क्यों लौट आते हैं
बार-बार?
मैं आपसे पूछता हूं
उनके इस तरह लौट आने को क्या कहेंगे आप?
उसका लौटना
अभी मैंने जाना उसका लौटना
वह जो हमारे मुहल्ले की सबसे खूबसूरत लड़की थी
अब लौट आयी है हमेशा के लिए
शादी के तीन साल बाद वापस
हमारे ही मुहल्ले में
उसे कहाँ रखे -समझ नहीं पा रहा है उसका लज्जित परिवार
उसके शरीर पर पिटने के स्थाई निशान हैं
और चेहरे पर
उतना ही स्थाई एक भाव जिसे मैं चाहूँ तो भी नाउम्मीदी नहीं कह सकता
जहाँ लौटी है
वह एक क़स्बा है जिसे अपने ही जैसे अनगिन हिन्दुस्तानी क़स्बों की तरह
शहर बनने की तीव्र इच्छा और हड़बड़ी है
हालांकि मालिक से पिटा ठर्रा पीकर घर लौटता एक मज़दूर भी
औरत के नाम पर
पूरा सामन्त हो जाता है यहाँ
तीन बरस दूसरे उपनाम और कुल-गोत्र में रहने की
असफल कोशिश के बाद
वह लौटी है
दुबारा अपने नाम के भीतर खोजती हुई
अपनी वही पुरानी सुन्दर पहचान
महान हिन्दू परम्पराओं के अनुसार कुल-गोत्र में उसकी वापसी सम्भव नहीं
तब भी उसने अपनाया है
दुबारा वही उपनाम
जिसे वह छोड़ गई थी अपने कुछ गुमनाम चाहने वालों की स्मृतियों में कहीं
आज उसे फिर से पाया है उसने
किसी खोये हुए क़ीमती गहने की तरह
जहाँ
डोली में गई औरत के अर्थी पर ही लौटने का विधान हो
वहाँ वो लौटी है
लम्बे-लम्बे डग भरती
मिट चुकने के बाद भी
उसके उन साहसी पदचिन्हों की गवाह रहेगी
ये धरती
हमारे देश में कितनी औरतें लौटती हैं
इस तरह
जैसे वो लौटी है बिना शर्मिन्दा हुए
नज़रें उठाए ?
वो लौटी है
अपने साल भर के बच्चे को छाती से चिपटाए
अपने बचपन के घर में
पहले भी घूमते थे शोहदे
हमारी गली में
लेकिन उनकी हिम्मत इतनी नहीं बढ़ी थी
तब वो महज इस मुहल्ले की नहीं
किसी परीलोक की लड़की थी
पर अब कोई भी उधेड़ सकता है सीवन
उसके जीवन की
कितने ही लालच से भरकर
राह चलते कंधा मार सकता है उसे
प्रतिरोध की कोई ख़ास चिंता किए
बग़ैर
कुछ उसके मृत पिता
और कुछ उसकी वापसी के शोक में निरूपाय-सी
अकसर ही बिलख उठती है उसकी माँ
पता नहीं क्या हुआ
कि अब मुहल्ले में उसके लिए कोई भाई नहीं रहा
कोई चाचा
कोई ताऊ
या फिर ऐसा ही कोई और रिश्ता
एक पुरुष को छोड़ते ही जैसे
कई-कई
पुरुषों से भर गई उसकी दुनिया
खेलती है अकसर
छोटी बहन के साथ बैडमिंटन अपने घर की खुली हुई
बिना मुंडेर वाली खतरनाक छत पर
तो सोचता हूँ मैं
कि यार आख़िर किस चीज़ से बनी होती है औरत !
आग से ?
या पानी से ?
हो सकता है
वह बनी होती हो आग और पानी के मिलने से
जैसे बनती है भाप
और उसे बहुत जल्दी से अपनी ओर खींच लेते हैं
आकाश के खुले हुए हाथ
मैं सोचता हूँ तो वो मुझे
हाथ में रैकेट सम्भाले आकाश की ओर आती सांझ के
रंगीन बादलों सरीखा अपना आँचल फहराती
उड़ती दीखती है
दरअसल
एक अनोखे आत्मसम्मान से भरा
जीवन का कितना असम्भव पाठ है यह
जिसे मेरी कविता
अपने डूबते हुए शिल्प में
इस तरह
वापस घर लौटी एक लड़की से सीखती है !
राजा और किले का किस्सा
एक है राजा
राजा अमनपसन्द है और अदबपसन्द भी
राजा शांति चाहता है राजा चाहता है झुकी हुई गरदनें
बंधे हुए हाथ
वह चाहता है उसके सामने कोई मुंह न खोले जब उसकी मर्जी हो तब बोले !
राजा के पास है किला
जिसमें राजा की पूरी-पूरी सुरक्षा है
किला शहर से बाहर है
आदमी से दूर किले की अपनी भाषा है
अपना मुहावरा
किले में जब भी राजा का खून गरमाता है
वह दरबार लगाता है
एक दरबार खास होता है और एक आम होता है
एक दरबार में काम होता है
और दूसरे से नाम होता है
दरबार में होते हैं दरबारी
जी-हुजूरिये
जिनकी सहायता से राजा इंसाफ करता है
जिसे चाहे दंड देता है जिसे चाहे माफ करता है
दरबार से बाहर होती है प्रजा
प्रजा बेचारी दुखी रहती है
अपने दुखों में
बालू के ढेर-सी ढहती है
एक दिन
प्रजा के बीच से निकलता है
एक आदमी
और किले के सामने खड़ा हो जाता है
उसकी नजर किले के द्वार से सीधी टकराती है
जिस पर लगी लोहे की जंजीर
अपने आप खड़क जाती है
राजा
इस आदमी से बहुत डरता है
फौरन उसके कत्ल का हुक्म जारी करता है
फिर जब पूरे देश में होता है अंधेरा
और रात गहराती है
किले के पत्थरों से मारे गए आदमी की आवाज आती है
किले की नींव में
उस आदमी का खून सरसराता है
और राजा
रात भर सो नहीं पाता है
फिर आता है अगला दिन
और राजा एक और आदमी को किले के सामने खड़ा पाता है
इस आदमी को देखकर
किले की दीवारें बुरी तरह हिलती हैं
इस आदमी की शक्ल
मारे गए गए आदमी से हू-ब-हू मिलती है !
अपने शहर में
अपने शहर में
जब मैं कुछ बोलता था
तो उसका
जवाब आता था
अब मैं बोलता रहता हूँ
अकेला ही
किसी काम नहीं आता
मेरा बोलना
यह बताने के भी नहीं
कि मैं
अपने शहर में हूँ !
गालियाँ
अशोक पांडे के लिए कविता…
भाषा में
वे हमारे शरीर से आती ह
और लौट जाती हैं अपना काम करके
वापस शरीर में
वे बेधक होती हैं कभी
और कातर भी
उनमें चहरे दिखायी देते हैं
कभी अपमान तो कभी क्रोध से भरे
उनमें झलकते हैं हमारे दिल
प्रेम और घृणा
साहस और कायरता से बने
वे ताक़त का अभद्र बखान हो सकती हैं
और असमर्थता का हताश बयान भी
जो भी हो पूरी दुनिया में
हर कहीँ
वीभत्स और अश्लील करार दिए जाने के बावजूद
वे एक पुराना और ज़रूरी हिस्सा हैं
हमारी अभिव्यक्ति का<
सोचिये तो ज़रा
कितना पराया लग सकता है एक दोस्त
अगर नहीं देता गालियाँ !
विद्वेष
आप
उसे महसूस कर सकते हैं
बातों की
धूप – छाँव में
चेहरे पर वह कुछ अलग तरह की रेखाएं
बनाता है
पहली निगाह में दिखाई भले न दे
पर धीरे – धीरे
समझ में आता है
अचानक ही जन्म नहीं लेता वह
ह्रदय में पलता है
सरीसृपों के अंडे -सा
फूटता है
वांछित गर्माहट और नमी पा कर
मादा मगरमच्छ की तरह
हमेशा तैयार मिलते हैं
उसे
संभालकर मुंह में दबाये
जीवन के प्रवाह तक
पहुंचाने वाले !
शोकसभा में
यह समय
घनीभूत पीड़ा का है
और झुके हुए सिर
इसकी
गवाही दे रहे हैं
तूफान से पहले की नहीं
तूफान के बाद की शांति है ये
अवसाद के इस क्षण में
शोक मुझको भी है
शोक
उसका नहीं उतना
जो खो गया
शोक उसका
जो खो जायेगा एक दिन
यूं ही सिर झुकाये …
किताबें
सदियों से
लिखी और पढ़ी जाती रही हैं
किताबें
किताबों में आदमी का इतिहास होता है
राजा
रियासतें
और हुकूमतें होती हैं किताबों में
जो पन्नों की तरह
पलटी जा सकती हैं
किताबों में होता है
विज्ञान
जो कभी आदमी के पक्ष में होता है तो कभी
टूटता है
कहर बनकर उस पर
कानून होता है किताबों में जो बनाया
और तोड़ा जाता रहा है
किताबों में होती हैं दुनिया भर की बातें
यहां तक कि किताबों के बारे में भी लिखी जाती हैं
किताबें
कुछ किताबें नहीं होतीं हमारे लिए
देवता वास करते हैं
उनमें
पवित्र किताबें होती हैं वे
फरिश्तासिफत इंसानों के पास
हमारी किताबों में तो बढ़ते हुए कदम होते हैं
उठते हुए हाथ होते हैं
हमारी किताबों में
और उन हाथों में होती हैं
किताबें !
राहु
वह क्या है?
ख़ुद की मेहनत से पाए अमृत की चाह में
कलम किया हुआ
एक सर !
देवताओं के इस नए अहद में
उसका नाम
ईराक भी हो सकता है ।
फीकी अरहर दाल
एक बहुत बड़ी गल्ला मण्डी है पिपरिया
एक बहुत छोटा शहर है पिपरिया
मेरे बचपन में यह बहुत छोटा क़स्बा होता था
वो आत्मीय आढ़तें छोटी-छोटी
वो लाजवाब मशहूर अरहर की दाल
वहाँ एक छोटी नगरपालिका है जिसमें मेरा छोटा चाचा
बड़े-बड़े काम करता है
एक लगातार चलती दारू की भट्टी है जिसमें छोटे से बड़ा वाला
दिन-रात दारू पीता
पिपरिया से नागपुर तक डॉक्टरों के चक्कर लगाता है
उससे बड़ा वाला बुरी तरह कराहता है
पुरानी चोटों
और समकालीन दबदबे के बीच अपनी एक अजीब गरिमा के साथ
वह किसी ‘नीच ट्रेजेडी’ में फँसा है
मैं उसे निकाल नहीं सकता
इस बहुत बड़ी गल्ला मण्डी में
झाड़न भी साल भर में लाखों का निकलता है
ठेका-युग में उसके लिए भी दिया जाता है ठेका
ख़ून होते हैं हर साल
झाड़न के लिए
बहुत छोटे शहर के बड़े भविष्य की योजनाओं के नाम
नए बन रहे बढ़ रहे सीमान्तों पर
तहसील में पुराने गोंडों की ज़मीनों के नए-नए दाखिल-खारिज सामने आते हैं
रेलवे लाइन पर मिली है लाश –- यह एक स्थाई समाचार है
चोरी-छिनैती करते आवारा छोकरे स्मैक पीते हैं जिसे आम बोलचाल में
पाउडर कहा जाता है
मैं पिपरिया नहीं जाता
कभी-कभी बरसों पहले गुज़र गई दादी के घर जाता हूँ
मुझे वो घर नहीं मिलता
एक बहुत छोटा शहर मिलता है
मेरे अर्जित किए हुए पहाड़ी सुकून में
पत्नी बनाती है कभी धुली तो कभी छिलके वाली मूंग दाल
कभी उड़द मसाले में छौंकी हुई शानदार
मसूर भी बनती है मक्खन के साथ
जिसे इसी मुँह से खाता हूँ
कभी राजमा
भट्ट की चुड़कानी
कभी स्वादिष्ट रस-भात
किसी दोपहर बनती है अरहर
पहला निवाला तोड़ते ही मुझे आता है याद
कि जीवन में पिपरिया उतना ही बच गया है
जितनी भोजन में उत्तर की यह
फीकी अरहर दाल
ज़मीन को पाला मार रहा है
अभी कुछ समय पहले ढह पड़ी थी
इसकी उर्वर त्वचा झर गई थी
जो बच गई उसे पाला मार रहा है पहाड़ पर
इस मौसम में कौन-सी फ़सलें होती हैं
मैं भूल गया हूं
जबकि अब भी
सीढ़ीदार कठिन खेतों के बीच ही रहता हूं
फ़र्क़ बस इतना है
कि कल तक मैं उनमें उतर पड़ता था पाँयचे समेटे
अब नौकरी करने जाता हूँ
कच्ची बटियों पर कठिन ऋतुओं के संस्मरण
मुझे याद नहीं
कुछ पक्के रास्ते जीवन में चले आए हैं
मुझे इतना याद है
कि सर्दियों के मौसम को भी ख़ाली नहीं छोड़ते थे
उगा ही लेते थे कुछ न कुछ
कुछ सब्जियाँ कुछ समझदारी से कर ली गई
बेमौसम पैदावार
पर इतना याद होने से कुछ नहीं होता
ज़मीन को पाला मार रहा है या मेरे दिमाग़ को
अगर मेरे जैसे और भी दिमाग़ हुए इस विस्मरण काल में
तो ज़मीन को पाला मार रहा है जैसा वाक्य
कितना भयावह साबित हो सकता है
यह सोच कर पछता रहा हूं
ज़मीन को पाला मारने पर हम घास के पूले खोलकर
सघन बिछा देते थे
नवाँकुरों पर
मैं बहुत बेचैन
दिमाग़ के लिए भी कोई उतनी ही सुरक्षित
और हल्की-हवादार परत खोज रहा हूँ
पनपने का मौसम हो या न हो पर बमुश्किल उग रहे जीवन को
नष्ट होने देना भी
उसकी मृत्यु में सहभागी होना ही होगा ।
मैं पुरानी कविता लिखता हूँ
इधर
पुरानी कविताएँ मेरा पीछा करती हैं
मैं भूल जाता हूँ उनके नाम
कई बार तो उनके समूचे वजूद तक को मैं भूल जाता हूँ
कोई कवि-मित्र दिलाता है याद –
मसलन अशोक ने बताया मेरी ही पंक्ति थी यह
कि स्त्री की योनि में गाड़ कर फहराई जाती रहीं
धर्म-ध्वजाएँ
अब मुझे यह कविता ही नहीं मिल रही
शायद चली गई जहाँ ज़रूरत थी इसकी
उन लोगों के बीच
जिनके लिए लिखी गई
इधर कविता इतना तात्कालिक मसला बन गई है
कि लगता है कवि इन्तज़ार ही कर रहे थे
घटनाओं का
दंगों का
घोटालों का
बलात्कारों का
कृपया मेरी क्रूरता का बुरा मानें
मेरे कहे को अन्यथा लें
मेरे भूल जाने के बीच याद रखने का कोलाहल है अगल-बगल
मुझे बुरा लगता है
जब कवि प्रतीक्षा करते हैं अपनी कविताओं के लिए
आन्दोलनों का
ख़ुद उतर नहीं पड़ते
न उतरें सड़कों पर
पन्नों पर ही कुछ लिखें
फिर कविताओं में भी शान से दिखें
हिन्दी कविता के
इस सुरक्षित उत्तर-काल में
मुझे माफ़ करना दोस्तो
मेरी ऐतिहासिक बेबसी है यह
कि मैं हर बार एक पुरानी कविता लिखता हूँ
और
बहुत जल्द भूल भी जाता हूँ उसे ।
चुनाव-काल में एक उलटबाँसी
सड़क सुधर रही है
मैं काम पर आते-जाते रोज़ देखता हूँ
उसका बनना
गिट्टी-डामर का काम है यह
भारी मशीनें
गर्म कोलतार की गन्ध
ये सब स्थूल तथ्य हैं और हेतु भर बताते हैं
प्रयोजन नहीं
मैं जैसे शब्दों के अभिप्रायों के बारे में सोचता हूँ
वैसे ही क्रियाओं के प्रयोजनों के बारे में
अगर कुछ सुधर रहा है तो मैं उत्सुक हो जाता हूँ
सड़क सुधर रही है तो हमारी सहूलियत के लिए
लेकिन यह भी हेतु ही है
प्रयोजन नहीं है
प्रयोजन तो इन सुधरी हुई सड़कों से सन्निकट चुनाव में सधने हैं
राजनेतागण आराम से कर सकेंगे
अपनी यात्रा
यात्रा की समाप्ति पर इसे अपनी उपलब्धि बता पाएँगे
ये सब बहुत सरल बातें हैं पर इनकी सरलता
विकट है
हम सुधरने से पहले की बिगड़ी हुई सड़कों पर चले थे
कुछ गड्ढे तो हमने हारकर ख़ुद भरे थे
तो जटिलता अब यह है
कि बिगड़ी हुई सड़क पर चले लोग
क्या चन्द दिनों में सुधरी हुई सड़क पर चलने से
सुधर जाएँगे
इस कवि को छुट्टी दीजिए, पाठको
क्योंकि आप तो समझते ही है
अब राजनेताओं को समझने दीजिए यह उलटबाँसी
कि बिगड़ी हुई सड़क पर चले हुए लोग
उनकी सेहत में सुधार लाएँगे
या वहाँ हुए कुछ चालू सुधारों पर चलते हुए
उसे और बिगाड़ जाएँगे ।
गुरु जी, जहाँ बैठूँ वहाँ छाया जी
जतन नहीं करना पड़ता
काम से घर लौट आना होता है भटकना नहीं पड़ता
नींद आने पर बिस्तर मिल जाता है
चलने के लिए रास्ता मिल जाता है
निकलने के लिए राह
कुछ लोग हरदम शुभाकांक्षी रहते हैं
हितैषी चिन्ता करते हैं
हाल पूछ लेते हैं
कोई सहारा दे देता है लड़खड़ाने पर
गिर जाने पर उठा लेता है
ये अलग बात है कि शरीर ही गिरा है
अब तक
मन को कभी गिरने नहीं दिया
किसी के घर जाऊँ तो सुविधाजनक आसन मिलता है
और गर्म चाय
जिससे चाहूँ मिल सकता हूँ
ख़ुशी-ख़ुशी
अपने सामाजिक एकान्त में रह सकता हूँ
अकेला अपने आसपास
अपने लोगों से बोलता-बतियाता
अपनी नज़रों से देखता हूँ और देखता रह सकता हूँ
भरपूर हैरत के साथ
कि यह वैभव सम्भव होता है इसी लोक में
जबकि
परलोक कुछ है ही नहीं
अपने लोक में होना भी
एक सुख है
कविता और जीवन का
बेटे के साथ दुनिया
उसे आए अभी पाँच ही बरस हुए हैं
और हम दोनों को बत्तीस
लेकिन हम आगे खड़े हो नहीं दिखा पाते
दुनिया उसे
अक्सर वही उठाता है उंगली
किसी भी परिचित या अनजान चीज़ की तरफ़
कुछ ही समय पहले वह खड़ा हुआ था धरती पर पहली बार
उसे बेहद कोमल और जीवंत चीज़ की तरह
इस्तेमाल करता हुआ
डगमगाते चलते थे उसके पाँव
जिन्हें अब वह जमा चुका
हमारी भाषा सीखने से पहले
उसने न जाने कितनी भाषाएँ बोलीं
हमें कुछ न समझता देख
खीझ कर
अक्सर ही हाथ-पाँवों से समझाई
अपनी बात
वह रोया ख़ूब चीख़-चीख़कर
और हँसा दुनिया की सबसे बेदाग हँसी
उसे चोट लगी तो दुनिया थम गई
पहली बार स्कूल गया तो हमने किया उसके लौटने तक
जीवन का सबसे लम्बा इंतज़ार
बिस्तर पर उसे अपने बीच सोतादेख पत्नी ने
कई-कई बार कहा–
देखो तो
दरअसल हमने किया
कितना ख़ूबसूरत प्यार !
हम सोच ही नहीं पाते
कि हम कभी उसके बिना भी थे
इस विपुला पृथ्वी पर
उसी के साथ तो हमारी दुनिया ने आकार लिया
उस के लिए बेहद जोश से भरे ये दिल
काँपते भी हैं कभी-कभी
आने वाली दुनिया में उसके किन्हीं अनजान
मुश्किल दिनों के बारे में
सोचकर
हम शायद कभी रचकर नहीं दे सकेंगे उसे
दुनिया अपने हिसाब की
निरापद और सुकून से भरी
अपने सफ़र तो वही तय करेगा
और एक दिन बाद हमारे
अपने साथ
बेहद चुपचाप
हमारी भी दुनिया रचेगा
फिलहाल तो बैठा दिखाई देता है
बिलानागा
पिता की पसंदीदा कुर्सी पर
कुछ गुनगुनाता
घर के उस इकलौते तानाशाह को
अपदस्थ करता हुआ !
प्रधानाध्यापक निलंबित
एक मशहूर अखबार के
स्थानीय संस्करण के पहले सफ़े पर मोटे शीर्षक में
छपी है ख़बर –
“प्रधानाध्यापक निलंबित”
ज़िलाधीश ने अपने औंचक दौरे में पाया
कि पाठशाला में
उपस्थित नहीं थे प्रधानाध्यापक सेवकराम त्रिपाठी
और वहाँ उनकी ओर से छुट्टी की कोई अर्जी भी मौजूद नहीं थी
लिहाजा
उन्हें तत्काल प्रभाव से निलंबित किया जाना तय हुआ
उस दिन तो क्या
लगातार पिछले तीन दिनों से पाठशाला नहीं आए थे
सेवकराम त्रिपाठी
उनके निलम्बन से बावस्ता ख़बर जो छपी
उसमें भी नहीं थी इतनी गुंजाइश
और सदाशयता
कि पता किया जा सके आखिर क्यों उपस्थित नहीं थे
सेवकराम त्रिपाठी ?
महीना भर पहले ही
विभाग के बड़े अफसर को घूस देकर
किसी तरह भविष्य निधि से अग्रिम स्वीकृत करा
अपनी तीसरी और आखिरी बिटिया का विवाह किया था उन्होंने
और अब गंगासागर जाने के बारे में सोच ही रहे थे
कि अचानक
उस बिटिया के ससुराल में दुबारा
तलब कर लिया गया
उन्हें
वे गए भागते
बिना किसी से कुछ कहे
कांपते दिल से
वहाँ जाकर अपने दशम् ग्रह जामाता के मुख से
सुना उन्होंने एक महीने के भीतर होंडा पल्सर मोटरसाइकिल
और
नोकिया एन सिरीज़ मोबाइल ला देने का
फ़रमान
वे न तो इन शब्दों
और न ही इन वस्तुओं को समझ पा रहे थे ठीक से
हालांकि
घूमने लगे थे उनके सामने टीवी में मंडराते
गुदाज़ अधनंगी लड़कियों
और रंगीनियों से बजबजाते कई सारे विज्ञापन
वे तो दरअसल पानी भी नहीं मांग सकते थे
बिटिया की चौखट पर
कंठ के लगातार सूखते चले के बावजूद
ऐसा करने से कुल की परम्परा
और मरजाद भंग होती थी
अपने अंतस में गहराती एक अजीब-सी प्यास लिए
वे लौट रहे थे
रोती-बिलखती बिटिया के घर से
उस गीली और गाढ़ी शाम में
मरे मन से बस अड्डे पर उतरकर उन्होंने बरसों बाद
अकेले में बैठकर
दो प्याला देशी शराब पी
उन्हें नहीं पता था
कि इस दुनिया में लौटने का आखिर ठीक-ठीक क्या आशय होता है
लेकिन वे लौट रहे थे
अभी कोस भर दूर ही था उनका घर कि अधराह में सीने के दर्द से तड़पकर
अपना यह लौटना बीच में रोक
सड़क के किनारे की भीगी मिट्टी में
लेट जाना पड़ा उन्हें
और वे लेट गए आकाश में तारों का आना
और
पक्षियों का लौटना देखते
उनके भीतर टूटती जा रही थी हर चीज़
और वे लेटे रहे
सुनते हुए जीवन के टूटने की कुछेक आखिरी अनाम आवाजें
दूसरे दिन मृत पाये गए
स्कूल से सौ किलोमीटर दूर अपने गाँव के बाहर
हालांकि
उनकी देह ने हार जाने से पहले घिसटकर कुछ दूर चलने की कोशिश भी की
जो दर्ज थी
सड़क किनारे की मिट्टी पर
जब दिखाई जा रही थी
उनकी देह को
उसके हिस्से की आखिरी धुआंती -सुलगती आग
ठीक उसी रात
स्थानीय संवाददाता के हवाले से
अखबार में छापी जा रही थी
यह ख़बर –
“प्रधानाध्यापक निलंबित”
अगले रोज़ ज़िलाधीश महोदय की सुबह की चाय को
खुशनुमा बनाने के वास्ते !
औरतों की दुनिया में एक आदमी
वे दुखों में लिथड़ी हैं
और प्रेम में पगी
दिन-दिन भर खटीं किसी निरर्थक जांगर में
बिना किसी प्रतिदान के
रात-रात भर जगीं
उनके बीच जाते हुए
डर लगता है
उनके बारे में कुछ कहते कुछ लिखते
दरअसल
अपने तमामतर दावों के बावजूद
कभी भी
उनके प्रति इतने विनम्र नहीं हुए हैं हम
इन दरवाज़ों में घुसने की कोशिश भर से ही
चौखट में
सर लगता है
यक़ीन ही नहीं होता
इस दुनिया में भी घुस सकता है
कोई आदमी इस तरह
खंगाल सकता है इसे
घूम सकता है यूँ ही हर जगह
लेता हुआ
सबके हाल-चाल
और कभी
खीझता नहीं इससे
भले ही खाने में आ जाएं
कितने भी बाल!
यहां सघन मुहल्ले हैं
संकरी गलियां
पर इतनी नहीं कि दो भी न समा पाएं
इनमें चलते
देह ही नहीं आत्मा तक की
धूल झड़ती है
कोई भी चश्मा नहीं रोक सकता था इसे
यह सीधे आंखों में
पड़ती है
कहीं भी पड़ाव डाल लेता है
रूक जाता है
किसी के भी घर
किसी से भी बतियाने बैठ जाता है
जहाँ तक नहीं पहुंच पाती धूप
वहाँ भी यह
किसी याद या अनदेखी खुशी की तरह
अंदर तक पैठ जाता है
वे इसके आने का बुरा नहीं मानती
हो सकता है
कोताही भी करती हों
पर अपने बीच इसके होने का मतलब
ज़रूर जानती है
उन्हें शायद पता है
समझ पाया अगर तो यही उन्हें
ठीक से समझ पाएगा
उनके भीतर की इस गुमनाम-सी यातना भरी दुनिया को
बाहर तक ले जाएगा
एक बुढ़िया है कोई अस्सी की उमर की
उसे पुराने बक्से खोलना
अच्छा लगता है
दिन-दिन भर टटोलती रहती है
उनके भीतर
अपना खोया हुआ समय या फिर शायद कोई आगे का पता
पूछताछ करते किसी दरोगा की तरह
चीख पड़ती है
अचानक खुद पर ही- बता !
बता नहीं तो …
एक औरत
जो कथित रूप से पागल है
आदमी को देखते ही नंगी होने लगती है
उसके दो बरस के बच्चे से
पूरी की थी एक दिन
किसी छुपे हुए जानवर ने अपनी वासना
मर गया था उसका बच्चा
कहती है घूम-घूम कर नर-पशुओं से –
छोड़ दो !
छोड़ दो मेरे बच्चे को
बच्चे को कुछ करने से तो मुझ माँ को करना अच्छा
एक लड़की है
जो पढ़ना चाहती है और साथ ही यह भी
कि भाई की ही तरह मिले
आज़ादी उसे भी
घूमने-फिरने की
जिससे मन चाहे दोस्ती करने की
कभी रात घर आए
तो मां बरजने और पिता बरसने को
तैयार न मिलें
बाहर कितनी भी गलाज़त हो
कितने ही लगते हों अफ़वाहों के झोंके
कम से कम
घर के दरवाज़े तो न हिलें
एक बहुत घरेलू औरत है
इतनी घरेलू कि एक बार में दिखती ही नहीं
कभी ख़त्म नहीं होते उसके काम
कोई कुछ भी कह कर पुकार सकता है उसे
वह शायद खुद भी भूल चुकी है
अपना नाम
सास उसे अलग नाम से पुकारती है
पति अलग
खुशी में उसका नाम अलग होता है और गुस्से में अलग
कोई बीस बरस पहले का ज़माना था जब ब्याह कर आयी
और काले ही थे उसके केश
जिस ताने-बाने में रहती थी वह
लोग
संयुक्त परिवार कहते थे उसे
मैं कहता हूं सामंती अवशेष
कुछ औरतें हैं छोटे-मोटे काम-धंधे वाली
इधर-उधर बरतन मांजतीं
कपड़े धोतीं
घास काटतीं
लकड़ी लातीं
सब्ज़ी की दुकान वगैरह लगातीं
ये सुबह सबसे पहले दृश्य में आती है
चोरों से लेकर
सिपाहियों तक की निगाह उन्हीं पर जाती है
मालिक और गाहक भी
पैसे-पैसे को झगड़ते हैं
बहुत दुख हैं उनके दृश्य और अदृश्य
जो उनकी दुनिया में पांव रखते ही
तलुवों में गड़ते हैं
जिन रास्तों पर नंगे पांव गुज़ार देती हैं
वे अपनी ज़िंदगी
अपने-अपने हिस्से के पर्व और शोक मनाती
उन्हीं पर
हमारे साफ-सुथरे शरीर
सुख की
कामना में सड़ते है
वे पहचानती है हमारी सडांध
कभी-कभार नाक को पल्लू से दबाये
अपने चेहरे छुपाए
हमारे बीच से गुज़र जाती हैं
मानो उन्हें खुद के नहीं
हमारे वहाँ होने पर शर्म आती हैं
आलोक धन्वा से उधार लेकर कहूँ तो वे दुनिया की सबसे सुंदर औरतें थीं
लुटेरों बटमारों
और हमारे समय के कोतवालों से पिटतीं
हर सुबह
सूरज की तरह काम पर निकलतीं
वे दुनिया की सबसे सुंदर औरतें हैं
आज भी
उनमें बहुत सारी हिम्मत और ग़ैरत बाक़ी है अभी
और हर युग में
पुरुषों को बदस्तूर मुंह चिढ़ाती
उनकी वही चिर-परिचित
लाज भी!
कुछ औरतें हैं जो अपने हिसाब से
अध्यापिका होने जैसी किसी निरापद नौकरी पर जाती हैं
इसके लिए घरों की इजाज़त मिली है उन्हें
एक जैसे कपड़े पहनती
और हर घड़ी साथ खोजती हैं किसी दूसरी औरत का
वे घर से बाहर निकल कर भी
घर में ही होती हैं
सुबह काम पर जाने से पहले
पतियों के अधोवस्त्र तक धोती हैं
हर समय घरेलू ज़रूरतों का हिसाब करतीं
खाने-पकाने की चिंता में गुम
पति की दरियादिली को सराहतीं हैं कि बड़े अच्छे हैं वो
जो करने दी हमको भी
इस तरह से नौकरी
आधी खाली है उनके जीवन की गागर
पर उन्हें दिखती है
आधी भरी
कुछ बच्चियां भी हैं दस-बारह बरस की
हालांकि बच्चों की तो होती है एक अलग ही दुनिया
पर वे वहाँ उतनी नहीं हैं
जितनी कि यहाँ
उन्हें अपने औरत होने का पूरा-पूरा बोध है
वह नहीं देखना चाहता था
उन्हें जहाँ
उसकी सदाशयता पर कोड़े बरसातीं
वे हर बार
ठीक वहीं हैं
वे भांति-भांति की हैं
उनके नैन-नक्श रंग-रूप अनंत हैं
उनके जीवन में अलग-अलग
उजाड़ पतझड़
और उतने ही बीते हुए बसंत हैं
उनके भीतर भी मौसम बदलते हैं
शरीर के राजमार्ग से दूर कई पगडंडियां हैं
अनदेखी-अनजानी
ज़िदगी की घास में छुपी हुई
बहुत सुंदर
मगर कितने लोग हैं
जो उन पर चलते हैं?
फिलहाल तो
विलाप कर सकती हैं वे
इसलिए
रोती हैं टूटकर
मनाती हैं उत्सव
क्योंकि उनका होना ही इस पृथ्वी पर
एक उत्सव है
दरअसल
आख़िर
कितनी बातें हैं जो हम कर सकते हैं उनके बारे में
बिना उन्हें ठीक से जाने
क्या वे खुद को जानने की इज़ाजत देंगी
कभी?
अभी
उन्हें समझ पाना आसान नहीं है
अपने अंत पर हर बार
वे उस लावारिस लाश की तरह है
जिसके पास शिनाख्त के लिए कोई
सामान नहीं है
इस वीभत्स अंत के लिए यह आदमी बेहद शर्मिन्दा है
पर क्या करे
आख़िर इस दुनिया में किस तरह कहे
किस तरह कि अभी बाक़ी है लहू उसमें
अभी कुछ है
जो उसमें जिन्दा है !
मैग्नेटिक रेज़ोनेंस इमेजिंग – मुक्तिबोध को याद करते हुए
वहाँ कोई नहीं है
मैं भी नहीं
वह जो पड़ी है देह
हाथ बांधे
दांत भींचे
बाहर से निस्पन्द
भीतर से रह-रहकर सहमती
थूक निगलती
वह मेरी है
लेकिन वहाँ कोई नहीं है
तो फिर मैं कहाँ हूँ ?
क्या वहाँ, जहाँ से आ रही है
नलकूप खोदने वाली मशीन की आवाज़?
अफ़सोस
पानी भी दरअसल यहाँ नहीं है
रक्त है लेकिन बहुत सारा खुदबुदाता-खौलता
लाल रक्त कणिकाओं में सबसे ज़्यादा खलबली है
मेरे शरीर में सिर्फ वही हैं जो लोहे से बनी हैं
होते-होते बीच में अचानक थम जाती है खुदाई
शायद दम लेने और बीड़ी सुलगाने को रुकते हों मजदूर
ठक!
ठक!
ठक!
दरवाज़ा खटखटाता है कोई
मेरे भीतर
सबसे पहले एक खिड़की खुलती है
धीरे से झाँककर देखता हूँ
बाहर
कोई भी नहीं है
सृष्टि में मूलाधार से लेकर ब्रह्मचक्र तक
कोई हलचल नहीं है
मैं दूर ……….
बहुत दूर…
मालवा के मैदानों में भटक रहा हूँ कहीं
अपने हाथों में मेरा लुढ़कता सिर सम्भाले
दो बेहद कोमल
और कांपते हुए हाथ हैं *
पुराने ज़माने के किसी घंटाघर से
पुकारती आती रात है
कच्चे धूल भरे रस्ते पर अब भी एक बैलगाड़ी है
तीसरी सहस्त्राब्दी की शुरूआत में भी
झाड़ियों से लटकते हैं
मेहनती
बुनकर
बयाओं के घोसले
तालों में धीरे-धीरे काँपता
सड़ता है
दुर्गन्धित जल
कोई घुग्घू रह-रहकर बोलता है
दूर तक फैले अन्धेरे में एक चिंगारी-सी फूटती है
वह हड़ीला चेहरा कौन है
इतने सन्नाटे में
जो अपनी कविताओं के पन्ने खोलता है
गूंजता है खेतों में
गेंहूँ की बालियों के पककर चटखने का
स्वरहीन
कोलाहल
तभी
न जाने कहाँ से चली आती है दोपहर
आंखों को चुंधियाती
अपार रोशनी में थ्रेशर से निकलते भूसे का
ग़ुबार-सा उमड़ता है
न जाने कैसे
पर
मेरे भीतर का भूगोल बदलता है
सुदूर उत्तर के पहाड़ों में कहीं
निर्जन में छुपे हुए धन-सा एक छलकता हुआ सोता है
पानी भर रही हैं कुछ औरतें
वहाँ
उनमें से एक का पति फ़ौज से छुट्टी पर आया है
नम्बर तोड़कर
सबसे पहले अपनी गागर लगाने को उद्धत
वही तो संसार की सुन्दरतम
स्वकीया
विकल हृदया है
मैं भी खड़ा हूँ वहीं
उसी दृश्य के आसपास आंखों से ओझल
मुझमें से आर-पार जाती हैं
तरंगे
मगर हवाओं का घुसना मना है
सोचता हूँ
अभी कुछ दिन पहले ही खिले थे बुरुंश यहाँ ढाढ़स बंधाते
सुर्ख़ रंगत वाले
सुगंध और रस से भरे
अब वो जगह कितनी ख़ाली है
इन ढेर सारी आख़िरी
अबूझ ध्वनियों
और बेहद अस्थिर ऋतुचक्रों के बीच
टूट गया है एक भ्रम
एक संशय
मगर अभी जारी है !
टीकाराम पोखरियाल की वसन्तकथा
उस दूरस्थ पहाड़ी इलाके में कँपकँपाती सर्दियों के बाद
आते वसन्त में खुलते थे स्कूल
जब धरती पर साफ सुनाई दे जाती थी
क़ुदरत के क़दमों की आवाज़
गाँव-गाँव से उमड़ते आते
संगी
साथी
यार
सुदीर्घ शीतावकाश से उकताए
अपनी उसी छोटी-सी व्यस्त दुनिया को तलाशते
9 किलोमीटर दूर से आता था टीकाराम पोखरियाल
आया जब इस बार तो हर बार से अलग उसकी आँखों में
जैसे पहली बार जागने का प्रकाश था
सत्रह की उमर में
अपनी असम्भव-सी तीस वर्षीया प्रेयसी के वैभव में डूबा-डूबा
वह किसी और ही लोक की कहानियाँ लेकर आया था
हमारे खेलकूद
और स्थानीय स्तर पर दादागिरी स्थापित करने के उन थोड़े से
अनमोल दिनों में
यह हमारे संसार में सपनों की आमद थी
हमारी दुबली-पतली देहों में उफनती दूसरी किसी ज़्यादा मजबूत और पकी हुई देह के
हमलावर सपनों की आमद
घेरकर सुनते उसे हम जैसे आपे में नहीं थे
उन्हीं दिनों हममें से ज़्यादातर ने पहली बार घुटवाई थी
अपनी वह पहली-पहली सुकोमल
भूरी रोयेंदार दाढ़ी
बारहवीं में पढ़ता
हमारा पूरा गिरोह अचानक ही कतराने लगा था
बड़े-बुज़ुर्गों के राह में मिल जाने से
जब एक बेलगाम छिछोरेपन
और ढेर सारी खिलखिलाहट के बीच
जबरदस्ती ओढ़नी पड़ जाती थी विद्यार्थीनुमा गम्भीरता
सबसे ज़्यादा उपेक्षित थीं तो हमारी कक्षा की वे दो अनमोल लड़कियाँ
जिनके हाथों से अचानक ही निकल गया था
हमारी लालसाओं का वह ककड़ी-सा कच्चा आलम्बन
जिसके सहारे वे आतीं थीं हर रोज़
अपनी नई-नई खूबसूरत दुनिया पर सान चढ़ातीं
अब हमें उनमें कोई दिलचस्पी नहीं थी
टीका हमें दूसरी ही राह दिखाता था जो ज़्यादा प्रशस्त
और रोमांच से भरी थी
हम आकुल थे जानने को उस स्त्री के बारे में जो दिव्य थी
दुनियावी तिलिस्म से भरी
बहुत खुली हुई लगभग नग्न भाषा में भी रह जाता था
जिसके बारे में कुछ न कुछ अनबूझा – अनजाना
टीका के जीवन में पहली बार आया था वसन्त इतने सारे फूलों के साथ
और हम सब भी सुन सकते थे उसके इस आगमन की
उन्मादित पदचाप
लेकिन
अपने पूरे उभार तक आकर भी आने वाले मौसमों के लिए
धरती की भीतरी परतों में कुछ न कुछ सहेजकर
एक दिन उतर ही जाता है वसन्त
उस बरस भी वह उतरा
हमारे आगे एक नया आकाश खोलते हुए
जिसमें तैरते रुई जैसे सम्मोहक बादलों के पार
हमारे जीवन का सूर्य अपनी पूरी आग के साथ तमतमाता था
अब हमें उन्हीं धूप भरी राहों पर जाना था
टीका भी गया एक दिन ऐसे ही
उस उतरते वसन्त में
लैंसडाउन छावनी की भरती में अपनी क़िस्मत आजमाने
कड़क पहाड़ी हाथ-पाँव वाला वह नौजवान
लौटा एक अजीब-सी अपरिचित प्रौढ़ मुस्कान के साथ
हम सबमें सबसे पहले उसी ने विदा ली
उसकी वह वसन्तकथा मँडरायी कुछ समय तक
बाद के मौसमों पर भी
किसी रहस्यमय साए -सी फिर धूमिल होती गई
हम सोचने लगे
फिर से उन्हीं दो लड़कियों के बारे में
और सच कहें तो अब हमारे पास उतना भी वक़्त नहीं था
हम दाख़िल हो रहे थे एक के बाद एक
अपने जीवन की निजता में
छूट रहे थे हमारे गाँव
आगे की पढ़ाई-लिखाई के वास्ते हमें दूर-दूर तक जाना था
और कई तो टीका की ही तरह
फ़ौज में जाने को आतुर थे
यों हम दूर होते गए
आपस में खोज-ख़बर लेना भी धीरे-धीरे कम होता गया
अपने जीवन में पन्द्रह साल और जुड़ जाने के बाद
आज सोचता हूँ मैं
कि उस वसन्तकथा में हमने जो जाना वह तो हमारा पक्ष था
दरअसल वही तो हम जानना चाहते थे
उस समय और उस उमर में
हमने कभी नहीं जाना उस औरत का पक्ष जो हमारे लिए
एक नया संसार बनकर आयी थी
क्या टीकाराम पोखरियाल की वसन्तकथा का
कोई समानान्तर पक्ष भी था ?
उस औरत के वसन्त को किसने देखा ?
क्या वह कभी आया भी
उस परित्यक्ता के जीवन में
जो कुलटा कहलाती लौट आयी थी
अपने पुंसत्वहीन पति के घर से
देह की खोज में लगे बटमारों और घाघ कोतवालों से
किसी तरह बचते हुए उसने
खुद को
एक अनुभवहीन साफदिल किशोर के आगे
समर्पित किया
क्या टीका सचमुच उसके जीवन में पहला वसन्त था
जो टिक सका बस कुछ ही देर
पहाड़ी ढलानों पर लगातार फिसलते पाँवों-सा ?
पन्द्रह बरस बाद अभी गाँव जाने पर
जाना मैंने कि टीका ने बसाया हम सबकी ही तरह
अपना घरबार
बच्चे हुए चार
दो मर गए प्रसूति के दौरान
बचे हुए दो दस और बारह के हैं
कुछ ही समय में वह लौट आयेगा
पेंशन पर
फ़ौज में अपनी तयशुदा न्यूनतम सेवा के बाद
कहलायेगा
रिटायर्ड सूबेदार
वह स्त्री भी बाद तक रही टीका के गाँव में
कुछ साल उसने भी उसका बसता घरबार देखा
फिर चली गई दिल्ली
गाँव की किसी नवविवाहिता नौकरीपेशा वधू के साथ
चौका-बरतन-कपड़े निबटाने
उसका बसता घरबार निभाने
यह क्या कर रहा हूँ मैं ?
अपराध है भंग करना उस परम गोपनीयता को
जिसकी कसम टीका ने हम सबसे उस कथा को कहने से पहले ली थी
उससे भी ली थी उसकी प्रेयसी ने पर वह निभा नहीं पाया
और न मैं
इस नई सहस्त्राब्दी और नए समय के पतझड़ में करता हूँ याद
पन्द्रह बरस पुराना जीवन की पहली हरी कोंपलों वाला
वह छोटा-सा वसन्तकाल
जिसमें उतना ही छोटा वह सहजीवन टीका और उसकी दुस्साहसी प्रेयसी का
आपस में बाँटता कुछ दुर्लभ और आदिम पल
उसी प्रेम के
जिसके बारे में अभी पढ़ा अपने प्रिय कवि वीरेन डंगवाल का
यह कथन कि “वह तुझे खुश और तबाह करेगा! “
स्मृतियों के कोलाहल में घिरा लगभग बुदबुदाते हुए
मैं बस इतना ही कहूँगा
बड़े भाई !
जीवन अगर फला तो इसी तबाही के बीच ही कहीं फलेगा !
जब रात के दो बजते हैं
जब रात के दो बजते हैं
प्रेम सो चुका होता है श्लथ होकर
मेरे आसपास आती है
उसके खर्राटों की हल्की-सी आवाज़
जब रात के दो बजते हैं
मैं देखता हूँ बन्द दरवाज़ों के बाहर नैनीताल का तारों भरा सुशीतल आसमान
जब रात के दो बजते हैं
मैं हैरान रह जाता हूँ
यह जानकर
कि इस वक़्त सिर्फ़ मेरा है ककड़ी के आकार वाला
घर के ठीक नीचे का वह हरा ताल
और उसमें दिखाई नहीं दे रही कोई भी नाव
जब रात के दो बजते हैं
सात की उम्र का मेरा बच्चा कुनमुनाता है
कभी मुस्कुराता-हँसता
तो कभी बिसूरता है
दरअसल
अजीब-से सपनों भरी उसकी इस सबसे गहरी नींद में ही
उसका भविष्य छुपा है
जब रात के दो बजते हैं
और जाहिर है असफल हो जाती है नींद की गोलियों की आख़िरी खुराक भी
तो मैं सोचता हूँ कि मेरी रात के बाहर भी कोई रात है और वहाँ भी
शायद दो बज गए होंगे
जब रात के दो बजते हैं
मैं थोड़ा और लड़ाकू हो जाता हूँ
देखता हूँ
बाथरूम के आईने में अपना ख़ामोश पथरीला चेहरा
जब रात के दो बजते हैं
मेरे भीतर जागता है कवि जैसा कोई एक शख़्स
लगातार
और खुद के होने पर रोता है चुपचाप
अपनी आँखों में अगले दिन सबके बीच
हँस पाने लायक
मनुष्यता इकट्ठी करता हुआ !
मैं नैनीताल में लखनऊ के पड़ोस मे रहता हूँ
मैं उसे
एक बूढ़ी विधवा पड़ोसन भी कह सकता था
लेकिन मैं उसे सत्तर साल पुरानी देह में बसा एक पुरातन विचार कहूँगा
जो व्यक्त होता रहता है
गाहे-बगाहे
एक साफ़-सुथरी, कोमल और शीरीं ज़बान में
जिसे मैं लखनउआ अवधी कहता हूँ
इस तरह
मैं नैनीताल में लखनऊ के पड़ोस में रहता हूँ
मैं उसे देखता हूँ पूरे लखनऊ की तरह और वो बरसों पहले खप चुकी अपनी माँ को विलापती
रक़ाबगंज से दुगउआँ चली जाती है
और अपनी घोषित पीड़ा से भरी
मोतियाबिंदित
धुँधली आँखों में
एक गन्दली झील का उजला अक्स बनाती है
अचानक
किंग्स इंग्लिश बोलने का फ़र्राटेदार अभ्यास करने लगता है
बग़ल के मकान में
शेरवुड से छुट्टी पर आया बारहवीं का एक होनहार छात्र
तो मुझे
फोर्ट विलियम कालेज
जार्ज ग्रियर्सन
और वर्नाक्यूलर जैसे शब्द याद आने लगते हैं
और भला हो भी क्या सकता है
विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ानेवाले एक अध्यापक के लगातार सूखते दिमाग़ में ?
पहाड़ी चौमासे के दौरान
रसोई में खड़ी रोटी पकाती वह लगातार गाती है
विरहगीत
तो उसका बेहद साँवला दाग़दार चेहरा मुझे जायसी की तरह लगता है
और मैं खुद को बैठा पाता हूँ
लखनऊ से चली एक लद्धड़ ट्रेन की खुली हवादार खिड़की पर
इलाहाबाद पहुँचने की उम्मीद में
पीछे छूटता जाता है एक छोटा-सा स्टेशन
… अमेठी
झरते पत्तों वाले पेड़ के साये में मूर्च्छित-सी पड़ी दीखती है
एक उजड़ती मज़ार
उसके पड़ोस में होने से लगातार प्रभावित होता है मेरा देशकाल
हर मंगलवार
ज़माने भर को पुकारती और कुछ अदेखे शत्रुओं को धिक्कारती हुई
वह पढ़ती है सुन्दरकाण्ड
और मैं बिठाता हूँ
बनारसी विद्व जनों के सताए तुलसी को अपने अनगढ़ घर की सबसे आरामदेह कुर्सी पर
पिलाता हूँ नींबू की चाय
जैसे पिलाता था पन्द्रह बरस पहले नागार्जुन को किसी और शहर में
जब तक ख़त्म हो पड़ोस में चलता उनका कर्मकाण्ड
मैं गपियाता हूँ तुलसी बाबा से
जिनकी आँखों में दुनिया-जहान से ठुकराये जाने का ग़म है
और आवाज़ में
एक अजब-सी कड़क विनम्रता
ठीक वही
त्रिलोचन वाली
चौंककर देखता हूँ मैं
कहीं ये दाढ़ी-मूँछ मुँडाए त्रिलोचन ही तो नहीं !
क्यों?
क्यों इस तरह एक आदमी बदल जाता है दूसरे ‘आदमी’ में ?
एक काल बदल जाता है दूसरे ‘काल’ में?
एक लोक बदल जाता है दूसरे ‘लोक’ में?
यहाँ तक कि नैनीताल की इस ढलवाँ पहाड़ी पर बहुत तेज़ी से अपने अन्त की तरफ़ बढ़ती
वह औरत भी बदल जाती है
एक
समूचे
सुन्दर
अनोखे
और अड़ियल अवध में
उसके इस कायान्तरण को जब-तब अपनी ठेठ कुमाऊँनी में दर्ज करती रहती है
मेरी पत्नी
और मैं भी पहचान ही जाता हूँ जिसे
अपने मूल इलाक़े को जानने-समझने के
आधे-अधूरे
सद्यःविकसित
होशंगाबादी किंवा बुन्देली जोश में !
इसी को हिन्दी पट्टी कहते हैं शायद
जिसमें रहते हुए हम इतनी आसानी से
नैनीताल में रहकर भी
रह सकते हैं
दूर किसी लखनऊ के पड़ोस में !
चाँदनी डीलक्स
नैनीताल के शांत सजल सूर्योदय में
मशहूर महाशीर मछली का मरना सब देखते हैं
चिंतित होते हैं
करते हुए
सरकारी और गैरसरकारी पर्यावरणीय विमर्श
मगर
एक नाव का मरना कोई नहीं देखता
पर्यटक बसों के-से नाम वाली यह नाव बँधी मिलती है आजकल
तल्लीताल
अरविन्दो मार्ग के मुहाने पर
हिलती-डुलती
जैसे हत्या के बाद पानी में डूबता-उतराता है कोई शव
कुछ समय पहले तक वह तैरती थी शान से
हज़ारों-लाखों गैलन पानी पर
अपने होने की कई-कई लकीरें बनाती हुई
उस पर विराजते थे
अजनबी पर्यटक बेहिसाब
अपने दिए एक-एक पैसे का हिसाब वसूलते
दरअसल
पेड़ से कटते ही मर गई थी
वह लकड़ी
जिससे इसे बनाया एक पुराने कारीगर ने
जिलाया दुबारा
अपनी थकी हुई साँसों की हवा भरकर
तैराया पानी पर
बूढ़े और बच्चों से भरे एक परिवार को दो वक़्त की रोटी दिला
इसने भी अपना हक़ अदा किया
इसे मेरा अहमक़ होना ही मानें
पर मैं देखता हूँ इसे
किसी रचते-खटते इंसान की तरह
दूसरी कई नावें तैरती हैं
अब भी ताल पर
जगहें ख़ाली होते ही भर दी जाती है
तुरन्त
उसे याद करता है तो बस एक उसे बनाने वाला
और अपनी कोठरी के अंधेरे में
मुस्कुराता है चुपचाप
बाहर
सार्वजनिक अहाते में लगभग तैयार पड़ी है इसी नाम की एक नाव
शायद कल ही दिखाई दे जाए
ताल के पानी में
तुरन्त उगे सूरज का अक्स तलाशती !
समझता जाता हूँ
मैं भी
कि जो मर गई वह महज एक नाव थी
नाव का विचार नहीं
और मुस्कुराता हूँ
अपने हिस्से की उत्तरआधुनिक रात के अंधेरे में
ठीक वही मुस्कान
बूढ़े कारीगर वाली !
एक अविवाहिता का अविस्मरण
जहाँ पशु-पक्षियों में भी जोड़ा बनाने का विधान हो
हमारी उस नर-मादा दुनिया में
उसने
सिर्फ़ मनुष्य बनने और अकेले रहने का
विकट फैसला लिया
अपने चुने हुए एकान्त में
अपने बुने हुए सन्नाटे में
उसने चाहा कि कोई उसे तंग न करे
और यह
एक ऐसी कार्रवाई थी
जिसे उसके अपने घेरे के बाहर
लोगों ने
विवाह विरोधी
परिवार विरोधी
समाज विरोधी
और अंत में चल कर
स्वैराचार करार दिया
अब
उसकी उम्र के पाँचवे दशक में
उसका वह एकान्त अचानक ही घुस पड़ा है
कई-कई विस्फोटों से भरे
मेरे जीवन में
उसका वह ज़बरदस्त सन्नाटा भी
गूँजता है
मुझसे जुड़े दूसरे रिश्तों के आत्मीय
कोलाहल के बीच
उसे पता नहीं
या फिर शायद जानबूझ कर वह चली आई है
एक ऐसी ख़तरनाक़ जगह पर
जो ख़ुद मुझे पाँव देने को तैयार नहीं
और
जिसका
कोई स्मरण
कभी
बाक़ी न रहेगा
मालूम होना चाहिए उसे
कि मुझ जैसा कायर कवि नहीं
उसके इस तरह अविस्मरणीय होने की कथा तो
उस जैसा
कोई मनुष्य ही कहेगा !
एक चश्मदीद का बयान…
(रघुवीर सहाय की स्मृति और चाचा राजेन्दप्रताप्र मौर्य के एक अघोषित गैंगवार से भरे वर्तमान को समर्पित)
मैं किसी हत्या के बारे में कुछ नहीं जानता
सरकार !
मैं उस जगह के बारे में थोड़ा-बहुत ज़रूर जानता हूँ
सूत्रों के मुताबिक
जहाँ हत्या हुई
मैं जानता हूँ
उस रास्ते और उससे जुड़ी एक बंद गली के बारे में
और उन आवारा कुत्तों के बारे में भी
जो भूँकते हैं
वहाँ से गुज़रते ही
लेकिन मैं हत्या के बारे में कुछ नहीं जानता
अलबत्ता मृतक को मैं जानता हूँ
आत्महंता जोश से भरी उस अड़तीस की उम्र को
पत्नी की जवान मजबूरियों
और पीछे छूट गए
दो छोटे बच्चों की बड़ी-बड़ी अनभिज्ञताओं को भी
मैं जानता हूँ
हुज़ूर इस दुनिया में
मैं सिर्फ़ उतना जानता और नहीं जानता हूँ
जितना जानने और नहीं जानने से मैं
बच सकता हूँ
आपकी इस महान न्यायप्रिय अदालत में
अगली किसी
ऐसी ही चश्मदीद गवाही के लिए !
एक मध्यप्रदेशीय सामन्ती क़स्बे के आकाश पर
वहाँ फ़िलहाल कुछ लड़कियों के कपड़े टंगे हैं सूखने को
और सपने भी
जिन्हें वे रात के अंधेरे में देखती और दिन के उजाले में छुपाती हैं
उनके घरों में एक छोटा-सा आँगन होता है जहाँ माँ माँ की तरह पेश आती है
और पिता पिता की तरह
भाई भाई की तरह नज़र आते हैं वहाँ
इस आँगन के बाहर दुनिया बदली हुई होती है
कुछ लड़के होते हैं जो उनमें रुचि रखते हैं जिसे प्रेम कहना जल्दबाजी होगी अभी
वे रुचि रखते हैं कुछ जवान होते शरीरों में
और उनमें अपने जवान होते शरीरों को मिलाते वे कुछ ऐसी रुचि रखते हैं
जिसमें पसीने की गंध और नमक का स्वाद होता है
रुचि का परिष्कार भी हो सकता है कभी
कभी हम कह सकते हैं प्रेम
और जिसे प्रेम कहते ही खलबली मच जाती है उस आँगन में जहाँ माँ माँ की तरह पेश आती थी
और पिता पिता की तरह
भाइयों की दुनिया में चाकू की तरह प्रवेश करता है
बहन का प्रेम
जिसे वे उनके और उनके प्रेमियों के हृदय में गहरे तक उतार
अपने आँगन और उसके ऊपर के टुकड़ा भर आकाश की लाज बचाना चाहते हैं
जबकि
वे खुद झांकते रहते हैं दूसरों के आँगनों में
कुछ जवान
कपड़ों
सपनों
और शरीरों की तलाश में
महीने में एक बार तो गूँज ही उठता है बाज़ार देसी कट्टे से चली गोलियों की
धाँय धाँय से
क़त्ल का मक़सद मालूम ही रहता है
जिसे अमूमन अपने रोज़नामचे में नामालूम लिखती है पुलिस
इस तरह इक्कीसवीं सदी में भी
हमारा इस तथाकथित नागरिक सभ्यता में प्रवेश हर बार कुछ कबीलाई निषेधों के साथ होता है
जैसे कि
जब मैं लिख रहा होता हूँ ऐसी ही कुछ पंक्तियाँ और कविता करने का भरम पालता हूँ
तब कौवो के कुछ झुंड मँडराते आते हैं
उस मध्यप्रदेशीय सामंती कस्बे के आकाश से
और काँव काँव करते उतर जाते हैं
सुदूर उत्तर में मेरे झील वाले पहाड़ी पर्यटक शहर की बेहद साफ़-सुथरी सड़कों पर
अपने हिस्से का कचरा माँगते
लोग कहते हैं –
अशुभ है यों कचरा खंगालते कौवों का आगमन जीवन में
अशुभ है हज़ारों किलोमीटर दूर तक आती उनकी आवाज़
यों शुभ या अशुभ के बारे में नहीं सोचता हुआ मैं गोलियों और चाकुओं के बारे में भी नहीं सोचता
पर सोचता हूँ –
शायद उन्हें चलाने वाले सोचते हों मेरे बारे में कभी !
(यशवंत सिंह जैवार, उनके प्यार और हम तीनों के ‘पिपरिया’ के लिए
गैंगमेट वीरबहादुर थापा
इरावती में प्रकाशित
बहुत शानदार है यह नाम
और थोड़ा अजीब भी
एक ही साथ
जिसमें वीर भी है
और बहादुर भी
यहाँ से आगे तक
22.4 किलोमीटर सड़क
जिन मज़दूरों ने बनायी
उनका उत्साही गैंग लीडर रहा होगा ये
या कोई उम्रदराज़ मुखिया
लो0नि0वि0 की भाषा
बस इतनी ही
समझ आती है मुझे
दूर नेपाल के किन्हीं गाँवों से
आए मज़दूर
उन गाँवों से
जहाँ आज भी मीलों दूर हैं
सड़कें
यों वे बनायी जाती रहेंगी
हमेशा
लिखे जाते रहेगे कहीं-कहीं पर
उन्हें बनाने के बाद
ग़ायब हो जाने वाले कुछ नाम
1984 में कच्ची सड़क पर
डामर बिछाने आए
वे बाँकुरे
अब न जाने कहाँ गए
पर आज तलक धुंधलाया नहीं
उनके अगुआ का ये नाम
बिना यह जाने
कि किसके लिए और क्यों बनायी जाती हैं
सड़कें
वे बनाते रहेंगे उन्हें
बिना उन पर चले
बिना कुछ कहे
उन सरल हृदय अनपढ़-असभ्यों को नहीं
हमारी सभ्यता को होगी
सड़क की ज़रूरत
बर्बरता की तरफ़ जाने के लिए
और बर्बरों को भी
सभ्यताओं तक आने के लिए।
-2004-
गिध्द
हंस में प्रकाशित
किसी के भी प्रति
उनमें कोई दुर्भावना नहीं थी
वे हत्यारे भी नहीं थे
हालाँकि बहुत मज़बूत और नुकीली थी
उनकी चोंच
पंजे बहुत गठीले ताक़तवर
और मीटर भर तक फैले
उनके डैने
वे बहुत ऊँची और शान्त उड़ानें भरते थे
धरती पर मँडराती रहती थी
उनकी अपमार्जक छाया
दुनिया भर के दरिन्दों-परिन्दों में
उनकी छवि
सबसे घिनौनी थी
किसी को भी डरा सकते थे
उनके झुर्रीदार चेहरे
वे रक्त सूँघ सकते थे
नोच सकते थे कितनी ही मोटी खाल
माँस ही नहीं
हड्डियाँ तक तोड़कर वे निगल जाते थे
लेकिन
वे कभी बस्तियों में नहीं घुसते थे
नहीं चुराते थे छत पर और ऑंगन में पड़ी
खाने की चीजें
वे पालतू जानवरों और बच्चों पर
कभी नहीं झपटते थे
फिर भी हमारे बड़े
हमें उनके नाम से डराते थे
बचपन की रातों में
अपने विशाल डैने फैलाये
वे हमारे सपनों में आते थे
बहुत कम समझा गया उन्हें
इस दुनिया में
ठुकराया गया सबसे ज्यादा
ज़िन्दगी का रोना रोते लोगों के बीच
वे चुपचाप अपना काम करते रहे
धीरे-धीरे सिमटती रही उनकी छाया
बिना किसी को मारे
बिना किसी दुर्भावना के
मृत्यु को भी
उत्सव में बदल देने वाली
उनकी वह सहज उपस्थिति
धीरे-धीरे दुर्लभ होती गयी
हालाँकि उनके बिना भी
बढ़ता ही जायेगा ज़िन्दग़ी का ये कारवाँ
लेकिन उसके साथ ही
असहनीय हाती जायेगी
मृत्यु की सड़ाँध
हमारी दुनिया से
यह किसी परिन्दे का नहीं
एक साफ़-सुथरे भविष्य का
विदा हो जाना है।
-2004-
मोमबत्ती की रोशनी में कविता-पाठ
हंस में प्रकाशित
वीरेन दा के साथ
बहुत काली थी रात
हवाएँ बहुत तेज़
बहुत कम चीजें थीं हमारे पास
रौशनी बहुत थोड़ी-सी
थोड़ी-सी कविताएँ
और होश
उनसे भी थोड़ा
हम किसी चक्रवात में फँसकर
लौटे थे
देख आए थे
अपना टूटता-बिखरता जहान
हमारी आवाज़ में
कँपकँपी थी
हमारे हाथों में
और हमारे पूरे वजूद में
हम दे सकते थे
एक-दूसरे को थोड़ा-सा दिलासा
थपथपा सकते थे
एक-दूसरे की काँपती-थरथराती देह
पकड़ सकते थे
एक-दूसरे का हाथ
हम बहुत कायर थे
वीरेन दा
उस एक पल
और बहुत बहादुर भी
मैं थोड़ा जवान था
तुम थोड़े बूढ़े
हमारी काली रात में
गड्ड-मड़ड हो गयी थी
आलोक धन्वा की
सफेद रात
वो पागल कवि
लाजवाब
गड्ड-मड्ड हो गया था
थोड़ा तुममें
थोड़ा मुझमें
अक्सर ही आती है यह रात
हमारे जीवन में
पर हम साथ नहीं होते
या फिर होते हैं
किसी दूसरे के साथ
सचमुच
क्षुद्रताओं से नहीं बनता जीवन
और न ही वह बनता है
महानताओं से
पर कभी-कभी
क्षुद्रताओं से बनती है महानता
और महानताओं से
कोई क्षुद्रता! -2003-
रानीखेत से हिमालय
विपाशा के कवितांक में प्रकाशित
रानीखेत से हिमालय
बेटे से कुछ बात
वे जो दिखते हैं शिखर
नंदघंटा-पंचाचूली-नंदादेवी-त्रिशूल
वगैरह
उन पर धूल राख और पानी नहीं
सिर्फ बर्फ गिरती है
अपनी गरिमा में
निश्छल सोये-से
वे बहुत बड़े और शांत
दिखते हैं
हमेशा ही
बर्फ नहीं गिरती थी उन पर
एक समय था
जब वे थे ही नहीं
जबकि बहुत कठिन है उनके न होने की
कल्पना
अक्षांशों और देशांतरों से भरी
इस दुनिया में
कभी वहां समुद्र था
नमक और मछलियों और एक छँछे उत्साह से भरा
वहांँ समुद्र था
और बहुत दूर थी धरती
पक्षी जाते थे कुछ साहसी
इस ओर से उस ओर
अपना प्रजनन चक्र चलाने
समुद्र
उन्हें रोक नहीं पाता था
फिर एक दौर आया
जब दोनों तरफ की धरती ने
आपस में मिलने का
फैसला किया
समुद्र इस फैसले के ख़िलाफ़ था
वह उबलने लगा
उसके भीतर कुछ ज्वालामुखी फूटे
उसने पूरा प्रतिरोध किया
धरती पर दूर-दूर तक जा पहुंचा
लावा
लेकिन
यह धरती का फैसला था
इस पृथ्वी पर
दो-तिहाई होकर भी रोक नहीं सकता था
जिसे समुद्र
आख़िर वह भी तो एक छुपी हुई
धरती पर था
धरती में भी छुपी हुई कई परतें थीं
प्रेम करते हुए हृदय की तरह
वे हिलने लगीं
दूसरी तरफ़ की धरती की परतों से
भीतर-भीतर मिलने लगीं
उनके हृदय मिलकर बहुत ऊंचे उठे
इस तरह हमारे ये विशाल और अनूठे
पहाड़ बने
यह सिर्फ भूगोल या भूगर्भ-विज्ञान है
या कुछ और?
जब धरती अलग होने का फैसला करती है
तो खाईयां बनती हैं
और जब मिलने का तब बनते हैं पहाड़
बिना किसी से मिले
यों ही
इतना ऊंचा नहीं उठ सकता
कोई
जब ये बने
इन पर भी राख गिरी ज्वालामुखियों की
छाये रहे धूल के बादल
सैकड़ों बरस
फिर गिरा पानी
एक लगातार अनथक
बरसात
एक प्रागैतिहासिक धीरज के साथ
ये ठंडे हुए
आज जो चमकते दीखते हैं
उन्होंने भी भोगे हैं प्रतिशोध
भीतर-भीतर खौले हैं
बर्फ-सा जमा हुआ उन पर
युगों का अवसाद है
पक्षी अब भी जाते हैं यहां से वहाँ
फर्क सिर्फ इतना है
पहले अछोर समुद्र था बीच में
अब
रोककर सहारा देते
पहाड़ हैं! -2005-
शामिल
शामिल
आजकल न मैं किसी उत्सव में शामिल हूँ
न किसी शोक में
न किसी रैली-जुलूस में
किसी सभा में नहीं
न किसी बाहरी ख़ुलूस में
मैं आग में शामिल हूँ आजकल
लाल-पीली-नीली हुई जाती लपटों में नहीं
भीतरी धुएँ में
जलती हुई आँखें मलता मैं सूर्यास्त में शामिल हूँ
जिसके बारे में उम्मीद है
कि कल वह सूर्योदय होगा
मैं तुम्हें याद कर रहा हूँ
मैं तुम्हें याद कर रहा हूँ
मैं तुम्हें याद कर रहा हूँ
जीवन और मृत्यु
और इन दोनों के बीच की ढेर सारी अबूझ ध्वनियों से भरी
मेरी भाषा
रह-रहकर
तुमको पुकारती है
मैं तुम्हें याद कर रहा हूँ
उन सभी चीज़ों के साथ जो तुमसे बहुत गहरे जुड़ी हैं
तुम इसे मेरा बनाया एक भ्रम भी कह सकती हो
या फिर याद करने का एक अधिक गाढ़ा और चिपचिपा तरीका
जो तंग करता है
खीझ उठता है जिससे मन
जिसे कभी छोड़ा नहीं जा सकता
और अपनाया भी नहीं जा सकता
हर किसी के साथ
उसी अद्भुत और आत्मीय तरीके से
मैं तुम्हें याद कर रहा हूँ
और जानता हूँ कि यह सिर्फ मेरा तरीका नहीं है
तुम्हारा भी है
बहुत सारी बर्फ गिरी है यहाँ
लगभग 7000 हज़ार फीट पर
जहाँ मैं रहता हूँ फिलहाल
शब्दहीन यह गिरती ही जाती है पहाड़ों पर
पेड़ों पर
मकानों पर
लोगों पर
विचारों पर
और बेतार इधर से उधर आती-जाती यादों पर
उसके बोझ से चरमराती टूटती हैं डगालें
ज़मीन पर गिरते चटखते हैं बिजली के तार
पाइपों में जम जाता है पानी
रक्त बहता ही रहता है लेकिन नसों में
निर्बाध
चलता रहता है कारोबार
पहुँच ही जाते हैं अपने काम पर काँपते हुए मेहनतकश कामगार
खेलते ही रहते हैं बच्चे
और उतना ही बरजती जाती हैं उन्हें उनकी माँएँ
किसी भी सम्भावित चोट-चपेट के खिलाफ
उमड़ते-घुमड़ते आते हैं
बादल
झाँकता ही रहता है लेकिन रह-रहकर
उन्हें चीरता
सूर्य हमारे इस गोपनतम
दुर्लभ जीवन का
जिससे बिखरती धूप का रंग
हमारे रिश्ते की तरह साफ़ और सुनहरा है
उतना ही गुनगुना और
गर्वीला भी
अभी
मेरे जीवन में वसन्त है पूरे उफान पर और पूछना चाहता हूँ मैं
कि क्या तुम थोड़ा-सा लोगी?
तुम्हारे भीतर की आँधी में लगातार झर रहे हैं पत्ते और माँगना चाहता हूँ मैं
उन में कुछ सबसे नाज़ुक
सबसे पीले
क्या तुम मुझको दोगी?
कुछ दिन में फागुन आएगा
और आएंगी गमकती हवाएँ वे
सिन्दूरी रंगत वाली
गए बरस तुमने जिनके बारे में मुझको बतलाया था
यों यह रंग भी सबको दिखाई कब देगा !
शायद हम मिलेंगे दुबारा
अपने-अपने भीतर एक बियाबान लिए
जहाँ बहुत चुपचाप दौड़ते होगे कुछ खरगोश छोटी-चमकीली आँखों वाले
एक झाड़ी से दूसरी झाड़ी के बीच
शरण्य की खोज में
हम उन्हें एक-दूसरे की ज़मीन पर आसरा देंगे
जीव-जगत में पशु-पक्षियों के लिए तुम्हारा प्यार
और मनुष्य जाति को धिक्कार
मुझसे छुपा नहीं है
अगर कभी मैं बदल पाया तुम्हारे हिस्से की दुनिया
तो सबसे पहले बदल दूँगा
इस धिक्कार को
जो तुम्हें थोड़ा अमानवीय और आवेगहीन बनाता है
कितना आश्चर्यपूर्ण है यह कि तुम्हारे लिए अभी और प्रकट होना है दुनिया को
और मेरे लिए इसे अब बन्द होते जाना है
गो तुम मुझसे 9 बरस पहले आयीं इसमें
तब भी बहुत कुछ है जो तुमसे पोशीदा लेकिन मुझ पर नुमाया है
बहुत दुख है यहाँ
बहुत अपमान
बेक़द्री रिश्तों की
थेथर आँसुओं की धार
बेहद डराता है यह जगह-जगह से टूटता
बिखरता
झूटों और मक्कारों से भरा संसार
लड़ने के नाम पर इस सबके खिलाफ
मैंने सिर्फ प्रेम किया है
क्योंकि इससे ज़्यादा साहस के साथ
और कुछ किया ही नहीं जा सकता
किसी भी समय और काल में
कोई दूसरा तरीका नहीं बदल देने का
दिन-दिन निष्ठुर होती जाती इस दुनिया को
सिवा इसके कि आप वह करें जो कहीं नहीं है
फैल जाने दें उसे
ढाँप लेने दें कम से कम आपके सिर के ऊपर भर का
थोड़ा-सा आसमान
आज
मेरे पास एक सीधी और सच्ची लड़की का
जोश और दिलासा से भरा
जीवन भर का साथ है
जहाँ थकने लगते है कदम
दुखने लगता है हृदय
वहाँ मरहम लगाता हमेशा एक ऊष्मा भरा हाथ है
और तुम वहाँ अकेली हो जीवन की झंझा में
निपट अकेली
अपनी इस सर्वोच्च उपलब्धि और तुमसे जुड़ी एक छोटी-सी हताशा के साथ
मैं तुम्हें याद कर रहा हूँ
बार-बार!
क्या तुम्हे भी अपनी यादों में सुनाई दे रही है
कितनी ही ध्वनियों से भरी
मेरी यह शब्दहीन आवाज़ ?
व्योमेश को चिट्ठी
व्योमेश को चिट्ठी
क्या कर रहे हो प्यारे?
कैसे हैं हाल तुम्हारे?
अपनी तो बस कट रही है यार
और जो कट रही है
उसे हर वक़्त जि़न्दगी कहना ज़रूरी तो नहीं ?
मैं सोचता रहता हूँ
अकसर
कितनी अलग जगहों पर रहते हैं हम
भीतर-भीतर जुड़े हुए लेकिन
मेरे लिए
तुम्हारा दिल रोता हो शायद
जैसे मेरा रोता है तुम्हारे लिए
इन्हीं पहाड़ों से निकलती है गंगा
प्यारे
जहाँ मैं रहता हूँ
जो बलखाती
पछताती
अपनी ही पवित्रता से पिटी हुई
तुम्हारे शहर तक पहुँचती है
कभी झाँक कर देखोगे उसके मटमैले जल में
तो दिख जाएगा
तुमको मेरा साँवला और भारी चेहरा
तुम भटकते हो अपने शहर की गलियों में कहीं
धुँआ छोड़ता पुराना स्कूटर लिए
और मैं बाँज और देवदार और चीड़ के जंगलों में भटकता हूँ
और प्रदूषण के नाम पर
न जाने कितनी आहों से भरी
अपनी साँस भर छोड़ता हूँ
एक जैसी नहीं हैं हमारे रहने की जगहें
और जीवन भी हम शायद अलग तरह का जीते हैं
लेकिन इतना तो तय है
प्यारे
हम ज़हर एक ही पीते हैं
इस जनपदीयता से ऊपर उठ देखें तो
एक ही है हमारा देश
हमारा भेष
एक ही हमारे संकट
हमारा समाज
हमारा ज़बरदस्ती किया जाता
वैश्वीकरण
एक ही हमारी हिन्दी पट्टी
एक ही हमारे मुहावरे
एक ही हमारे डर
जहाँ कहीं भी रहते हों प्यारे
दरअसल
हम एक ही हैं
इस विपुला पृथिवी पर
हमारे सपने शायद अलहदा हों
और मेरे भीतर तो वे बचे भी हैं बहुत कम –
बस कुछ ख़ास चुनिन्दा ही
तड़पते हुए दिल के पर्दे में निहाँ जहाँ से उनकी आवाज़ भी आना
अब मुमकिन नहीं
तुम्हारे भीतर होंगे वे ज़रूर फिलहाल एक भीड़ की शक़्ल में
एक-दूसरे को धकियाते हुए
विचार
लेकिन एक ही है प्यारे हमारे भीतर
बीसियों मोटी-मोटी जड़ों वाले बरगद की तरह
न जाने कब से
नोचते-खसोटते
तोड़ने-उजाड़ने को उसे झूलते-कूदते रहे उस पर
कई-कई शाखामृग
लेकिन वह और भी मज़बूत होता गया
पकता गया
हमारी उम्र के साथ-साथ ही
प्यारे
अब भी उस बरगद की मोटी-मोटी डालियों से
ज़मीन की ओर
लटकती-बढ़ती चली आती हैं
कई-कई सारी पतली और कमसिन जड़ें
धरती में घुसकर
जीवन का रस पीने को आकुल
तुम्हारे पास प्रकृति नहीं है शायद ज़रूरत भर की भी
लेकिन
मेरे पास वह है ज़रूरत से ज़्यादा
किसी विरासत की तरह
जिसे तुम्हारे जैसा छोटा भाई कभी-भी माँग सकता
अपने लिए
हमारे दोस्त एक ही हैं प्यारे
बेखटके हम देख सकते हैं एक-दूसरे की ओर पीठ करके भी
दुनिया को
चारों तरफ़ से
और युवा कविता की इस कोलाहल भरी दुनिया में
अगर मुझे कोई अधिकार दिया जाए
तो अपनी कविता के इस अनाम मंच से घोषणा करना चाहता हूँ मैं
कि हर नये-पुराने लेखक की तरह
व्योमेश के पास हैं
नामवर जी, प्यार करता हूँ जिनसे टूटकर हिंदी की इस असम्भव दुनिया में
और एक अद्भुत आदर से भरा दिल जिनके लिए –
वही पुराने एकछत्र रियासतदार
बरसों से बैठे उसी पुराने जर्जर तख़्त पर जिसे परिभाषा में हम आलोचना कहते हैं
वैसी ही शानो-शौकत के साथ
आज भी वैसे ही बाअदब बामुलाहिजा सलाम बजा लाते हैं उन्हें
दिल्ली
मुम्बई
बनारस
और इलाहाबाद
मेरे पास भी हैं वे
भरे हुए प्यार और दुलार से
कहते हुए
चार बरस पुराने एक मंच पर –
‘‘शिरीष कुमार मौर्य को खोजने का सुख संयोगवश मिला
मेरे लिए यह ऐसी ही उपलब्धि है
जैसे कि चालीस बरस पहले धूमिल को देख सका !’’
तो प्यारे इस तरह मैं हूँ चालीस साल पुरानी यादों में बरबस ही ले जाता उन्हें
और तुम्हारे पास फिलहाल नहीं है
उन्हें लुभाने लायक ऐसी कोई भी कविता
कविता की जगह मैं कह सकता था प्रतिभा
लेकिन
प्रतिभा मैंने जानबूझकर नहीं कहा
और क्या कहूँ पहाड़ की छाती पर मौजूद 21 जून 2007 की
इस पटपटाती रात में
इतना ही
कि इस ज़्यादा लिखे को तुम बहुत कम समझना
हो सके तो अपनी चिट्ठी में
तुम भी
एक विपर्यय के साथ
बस इतना ही लिखना
स्थाई होती है नदियों की याददाश्त
कितनी बारिश होगी हर कोई पूछ रहा है
कुछ पता नहीं हर कोई बता रहा है
बारिश तो बारिश की ही तरह होती है
पर लोग लोगों की तरह नहीं रहते
रहना रहने की तरह नहीं रहता
भीगना भीगने की तरह नहीं होता
नदियाँ मटमैले पानी से भरी बहने की तरह बहती हैं
बहने के वर्षों पुराने छूटे रास्ते उन्हें याद आने की तरह याद आते है
वे लौटने की तरह लौटती हैं
पर उनकी आँखें कमज़ोर होती हैं
वे दूर से लहरों की सूँड़ उठा कर सूँघती हैं पुराने रास्ते
और हाथियों की तरह दौड़ पड़ती हैं
बारिश नदियों को हाथियों का बिछुड़ा झुण्ड बना देती है
जो हर ओर से चिंघाड़ती बेलगाम आ मिलना चाहती हैं
किसी पुरानी जगह पर
जहाँ उनके पूर्वजों की अस्थियाँ धूप में सूखती रहीं बरसों-बरस
नदियों के पूर्वज पूर्वर्जों की तरह होते हैं
पुरखों की ज़मीन जिस पर आ बसे नई धज के लोग
नई इमारतें
वहाँ से उधेड़ी गई मिट्टी, काटे गए पेड़ और तोड़ी गई चट्टानें
पहाड़ पानी के थैले में बाँध देते हैं दुबारा
वहीं तक पहुँचाने को
वापिस लौटाने होते हैं रास्ते
बारिश की इसी बन्दोबस्ती में
लोगों की तरह नहीं रहने वाले लोगों को
छोड़नी पड़ती है ज़मीन
जो पीछे नहीं हटता ग़लती या ख़ुशफ़हमी में
मारा जाता है
नदियाँ हत्यारी नहीं होतीं
हत्यारी होती हैं लोगों की इच्छाएँ सब कुछ हथिया लेने की
बारिश तो बारिश की ही तरह होती है
पहाड़ों पर
मैं भी इसी बारिश के बीच रहता हूँ
भीगता हूं भीगने की ही तरह
मेरी त्वचा गल नहीं जाती ढह नहीं जातीं मेरी हड्डियाँ
मैं ज़्यादा साफ़ किसी भूरी मज़बूत चट्टान की तरह दिखता हूँ
उस पर लगे साल भर के धब्बे धुल जाते हैं धुलने की तरह
कुछ अधिक तो नहीं माँगती
मेरे पहाड़ों से निकल सुदूर समन्दर तक जीवन का विस्तार करती नदियाँ
बस लोग लोगों की तरह
रहना रहने की तरह
छोड़ देना कुछ राह जो नदियों की याद में है याद की तरह
नदियों की पूर्वज धाराओं की अस्थियों पर बसी बस्तियाँ
स्थाई नहीं हो सकतीं
पर स्थाई होती है नदियों की याददाश्त
मुश्किल दिन की बात
आज बड़ा मुश्किल दिन है
कल भी बड़ा मुश्किल दिन था
पत्नी ने कहा -–
चिन्ता मत करो कल उतना
मुश्किल दिन नहीं होगा
उसके ढाढ़स में भी उतना भर सन्देह था
मुश्किल दिन मेरे कण्ठ में फँसा है
अटका है मेरी साँस में
मैं कुछ बोलूँ तो मुश्किल की एक तेज़ ध्वनि आती है
मुश्किल दिन से छुटकारा पाना
मुश्किल हो रहा है
माँ उच्च रक्तचाप और पिता शक्कर की
लगातार शिकायत करते हैं
पत्नी ढाढ़स बँधाने के अपने फ़र्ज़ के बाद
पीठ के दर्द से कराहती सोती है
अपनी कुर्सी पर बैठा मैं
घर का दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल जाता हूँ
बच्चे की नींद और भविष्य ख़राब न हो
इसलिए मैं बहुत चुपचाप बाहर निकलता हूँ
बाहर मेरे लोग हैं वे मेरी तरह कुर्सी पर बैठे हुए नहीं हैं
उनमें से एक शराब के नशे में धुत्त
बहुत देर से सड़क पर पड़ा है
मैं उसे धीरे से किनारे खिसकाता हूँ
वह लड़खड़ाते अस्पष्ट स्वर में एक स्पष्ट गाली देता है मुझे
कल बड़ा मुश्किल दिन होगा
एक हज़ार रुपए में रात का सौदा निबटा कर
बहुत तेज़ क़दम घर वापस लौट रही है एक परिचित औरत
एक हज़ार रुपए इसलिए कि दिन में यह आँकड़ा बता देते हैं
उसकी रातों के ज़लील सौदागर
मैं मुँह फेर कर उसे रास्ता देता हूँ
कल सुबह मिलने पर वह मुझे नमस्ते करेगी
कल बड़ा मुश्किल दिन होगा
एक अल्पवयस्क मज़दूर
एक दूकान के आगे बोरा लपेट कर सोया पड़ा है
कल जब मैं अपने काम पर जाऊँगा
वह चौराहे पर मिलेगा अपने हिस्से का काम खोजता हुआ
कल बड़ा मुश्किल दिन होगा
घबरा कर कुर्सी पर बैठे हुए मैं घर का दरवाज़ा खोल वापस आ जाता हूँ
कमरे के 18-20 तापमान पर भी पसीना छूटता है मुझे
कम्प्यूटर खोलकर मैं अपने जाहिलों वाले पढ़ने-लिखने के काम पर लग जाता हूँ
अपने लोगों को बाहर छोड़ता हुआ
कल मुझे उन्हीं के बीच जाना है
कल बड़ा मुश्किल दिन होगा
मेरे स्वर में मुश्किल भर्राती है
मेरी साँस में वह घरघराती है पुराने बलगम की तरह
मैं उसे खखार तो सकता हूं पर थूक नहीं सकता
मुश्किलों को निगलते एक उम्र हुई
कल भी मैं किसी मुश्किल को निगल लूँगा
कल बड़ा मुश्किल दिन होगा
जानता हूँ
एक दिन मुश्किलें समूचा उगल कर फेंक देगी मुझे
मेरी तकलीफ़ों और क्रोध समेत
जैसे मेरे पहाड़ उगल कर फेंक देते हैं अपनी सबसे भारी चट्टानें
बारिश के मुश्किल दिनों में
और उनकी चपेट में आ जाते हैं गाँवों और जंगलों को खा जाने वाले
चौड़े-चौड़े राजमार्ग
दूर तक उनका पता नहीं चलता
कल कोई ज़रूर मेरी चपेट में आ जाएगा
कल बड़ा मुश्किल दिन होगा
लेकिन मेरे लिए नहीं
सुबह हो रही है
सुबह हो रही है मैं कुत्ता घुमाने के अपने ज़रूरी काम से लौट आया
घर वापस
घर में बनती हुई चाय की ख़ुशबू
और पत्नी की इधर से उधर व्यस्त आवाजाही
आश्वस्त करती है मुझे
कि यह सुबह ठीक-ठाक हो रही है
यह इसी तरह होती रही तो घर की सीमित दुनिया में ही सही
एक अरसे बाद मैं कह पाऊँगा अपने सो रहे बेटे से
कि उठो बेटा सुबह हो गई
वरना अब तक तो कहता रहा हूँ उठो बेटा बहुत देर हो गई
रात होती है तो सुबह भी होनी चाहिए
पर वह होती नहीं अचानक लगता है दिन निकल आया है बिना सुबह हुए ही
रात के बाद दिन निकलना खगोल-विज्ञान है
जबकि सुबह होना उससे भिन्न धरती पर एक अलग तरह का ज्ञान है
इन दिनों मेरे हिस्से में यह ज्ञान नहीं है
सुदूर बचपन में कभी देखी थी होती हुई सुबहें
अब उनकी याद धुँधली है
पगली है मेरी पत्नी भी
मुझ तक ही अपनी समूची दुनिया को साधे
कितनी आसानी से कह देती है
मुझे उठाते हुए उठो सुबह हो गई
मैं उसे सुबह के बारे में बताना चाहता हूँ
रेशा-रेशा अपने लोगों की ज़िन्दगी दिखाना चाहता हूँ
जिनकी रातें जाने कब से ख़त्म नहीं हुईं
बस दिन निकल आया
और वे रात में जानबूझ कर छोड़ी रोटी खाकर काम पर निकल गए
जबकि रात ही उन्हें
उसे खा सकने से कहीं अधिक भूख थी
मेरी सुबह एक भूख है
कब से मिटी नहीं
जाने कब से मै भी रोज़ रात एक रोटी छोड़ देता हूँ
सुबह की इस भूख के लिए
पर यह एक घर है जिसमें रोटी ताज़ी बन जाती है
मैं रात की छोड़ी रोटी खा ही नहीं पाता
और फिर दिन भर भूख से बिलबिलाता हूँ
मेरी सुबह कभी हो ही नहीं पाती
वह होती तो होती थोड़ी अस्त–व्यस्त
बिख़री-बिख़री
किसी मनुष्य के निकलने की तरह मनुष्यों की धरती पर
जबकि मैं नहा-धोकर
लक-दक कपड़ों में
अचानक दिन की तरह निकल जाता हूँ काम पर
किसी ने कल से खाना नहीं खाया है
रात मेरे कण्ठ में अटक रहे हैं कौर
मुझे खाने का मन नहीं है
थाली सरका देता हूं तो पत्नी सोचती है नाराज़ हूँ या खाना मन का नहीं है
यूँ मन का कुछ भी नहीं है इन दिनों
अभी खाने की थाली में जो कुछ भी है मन का है पर मेरा मन ही नहीं है
मन नहीं होना मन का नहीं होने से अलग स्थिति है
मैंने दिन में खाना खाया था अपनी ख़ुराक भर
भरे पेट मैं काम पर गया
शाम लौटते हुए
सड़क किनारे एक बुढिया से लेकर बाँज के कोयलों पर बढिया सिंका हुआ
एक भुट्टा खाया था
वह भी खा रही थी एक कहती हुई -–
बेटा, कल से बस ये भुट्टे ही खाए हैं और कुछ नहीं खाया
तेज़ बारिश में कम गाड़ियाँ निकली यहाँ से
इतने पैसे भी नहीं हुए एक दिन का राशन ला पाऊँ
पर सिंका हुआ भुट्टा भी अच्छा खाना है भूख नहीं लगने देता
मैंने भी वह भुट्टा खाया था और अब मेरा खाने का मन नहीं
अपने लोगों के बीच इतने वर्षों से इसी तरह रहते हुए
अब मैं यह कहने लायक भी नहीं रहा
कि किसी ने कल से खाना नहीं खाया है
इसलिए मेरा भी मन नहीं
कविता के बाहर पत्नी से
और कविता के भीतर पाठकों से भी बस इतना ही कह सकता हूँ
कि मैंने शाम एक भुट्टा खाया था
अब मेरा मन नहीं
और जैसा कि मैंने पहले कहा मन नहीं होना मन का नहीं होने से अलग
एक स्थिति है
सांड़
साँड़ की आँखों को लाल होना चाहिए पर गहरी गेरूआ लगती हैं मुझे
विशाल शरीर उसका
अब भी बढ़ता हुआ ख़ुराक के हिसाब से
उसके सींग जब उसे लगता है कि हथियार के तौर पर उतने पैने नहीं रहे
उन्हें वह मिट्टी-पत्थर पर रगड़ता है पैना करता है
राह पर निकले
तो लोग भक्ति-भाव से देखते हैं
क़स्बे के व्यापारियों ने पूरे कर्मकाण्ड के साथ छोड़ा था उसे शिव के नाम पर
जब वह उद्दण्ड बछेड़ा था
तब से लोगों ने रोटियाँ खिलाईं उसे
उसकी भूख बढ़ती गई
स्वभाव बिगड़ता गया
अब वो बड़ी मुसीबत है पर लोग उसे सह लेते हैं
वह स्कूल जाते बच्चों को दौड़ा लेता है
राह चलते लोगों की ओर सींग फटकारता है कभी मार भी देता है
अस्पताल में घायल कहता है डॉक्टर से
नन्दी नाराज़ था आज पता नहीं कौन-सी भूल हुई
उसे क़स्बे से हटाने की कुछ छुटपुट तार्किक माँगों के उठते ही
खड़े हो जाते हिंदुत्व के अलम्बरदार
इस क़स्बे की ही बात नहीं
देश भर में विचरते हैं साँड़ अकसर उन्हें चराते संगठन ख़ुद बन जाते हैं साँड़
सबको दिख रहा है साफ़
अश्लीलता की हद से भी पार बढ़ते जा रहे हैं इन साँड़ों के अण्डकोश
उनमें वीर्य बढ़ता जा रहा है
धरती पर चूती रहती है घृणित तरल की धार
वे सपना देखते हैं देश पर एक दिन साँड़ों का राज होगा
लेकिन भूल जाते हैं कि जैविक रूप से भी मनुष्यों से बहुत कम होती है साँड़ों की उम्र
ख़तरा बस इतना है
कि आजकल एक साँड़ दूसरे साँड़ को दे रहा है साँड़ होने का विचार
उनका मनुष्यों से अधिक बलशाली होना उतनी चिन्ता की बात नहीं
जितनी कि एक मोटे विचार की विरासत छोड़ जाना
सबसे चिन्ता की बात है
इन साँड़ों का पैने सींगो, मोटी चमड़ी और विशाल शरीर के साथ-साथ
पहले से कुछ अधिक विकसित बुद्धि के साथ
मनुष्यों के इलाक़े में आना
गुरु जी जहां बैठूं वहां छाया जी
प्यास लगने पर मिल जाता है साफ़ पानी
जतन नहीं करना पड़ता
काम से घर लौट आना होता है भटकना नहीं पड़ता
नींद आने पर बिस्तर मिल जाता है
चलने के लिए रास्ता मिल जाता है
निकलने के लिए राह
कुछ लोग हरदम शुभाकांक्षी रहते हैं
हितैषी चिंता करते हैं
हाल पूछ लेते हैं
कोई सहारा दे देता है लड़खड़ाने पर
गिर जाने पर उठा लेता है
ये अलग बात है कि शरीर ही गिरा है
अब तक
मन को कभी गिरने नहीं दिया
किसी के घर जाऊं तो सुविधाजनक आसन मिलता है
और गर्म चाय
जिससे चाहूं मिल सकता हूं
ख़ुशी-ख़ुशी
अपने सामाजिक एकान्त में रह सकता हूं
अकेला अपने आसपास
अपने लोगों से बोलता-बतियाता
अपनी नज़रों से देखता हूं और देखता रह सकता हूं
भरपूर हैरत के साथ
कि यह वैभव सम्भव होता है इसी लोक में
जबकि
परलोक कुछ है ही नहीं
अपने लोक में होना भी
एक सुख है
कविता और जीवन क
चुनाव-काल में एक उलटबांसी
सड़क सुधर रही है
मैं काम पर आते-जाते रोज़ देखता हूँ
उसका बनना
गिट्टी-डामर का काम है यह
भारी मशीनें
गर्म कोलतार की गंध
ये सब स्थूल तथ्य हैं और हेतु भर बताते हैं
प्रयोजन नहीं
मैं जैसे शब्दों के अभिप्रायों के बारे में सोचता हूँ
वैसे ही क्रियाओं के प्रयोजनों के बारे में
अगर कुछ सुधर रहा है तो मैं उत्सुक हो जाता हूँ
सड़क सुधर रही है तो हमारी सहूलियत के लिए
लेकिन यह भी हेतु ही है
प्रयोजन नहीं है
प्रयोजन तो इन सुधरी हुई सड़कों से सन्निकट चुनाव में सधने हैं
राजनेतागण आराम से कर सकेंगे
अपनी यात्रा
यात्रा की समाप्ति पर इसे अपनी उपलब्धि बता पाएंगे
ये सब बहुत सरल बातें हैं पर इनकी सरलता
विकट है
हम सुधरने से पहले की बिगड़ी हुई सड़कों पर चले थे
कुछ गड्ढे तो हमने हारकर ख़ुद भरे थे
तो जटिलता अब यह है
कि बिगड़ी हुई सड़क पर चले लोग
क्या चंद दिनों में सुधरी हुई सड़क पर चलने से
सुधर जाएंगे
इस कवि को छुट्टी दीजिए पाठकों
क्योंकि आप तो समझते ही है
अब राजनेताओं को समझने दीजिए यह उलटबांसी
कि बिगड़ी हुई सड़क पर चले हुए लोग
उनकी सेहत में सुधार लाएंगे
या वहां हुए कुछ चालू सुधारों पर चलते हुए
उसे और बिगाड़ जाएंगे।
मैं पुरानी कविता लिखता हूं
इधर
पुरानी कविताएँ मेरा पीछा करती हैं
मैं भूल जाता हूँ उनके नाम
कई बार तो उनके समूचे वजूद तक को मैं भूल जाता हूँ
कोई कवि-मित्र दिलाता है याद –
मसलन अशोक ने बताया मेरी ही पंक्ति थी यह
कि स्त्री की योनि में गाड़ कर फहराई जाती रहीं
धर्म-ध्वीजाएं
अब मुझे यह कविता ही नहीं मिल रही
शायद चली गई जहां ज़रूरत थी इसकी
उन लोगों के बीच
जिनके लिए लिखी गई
इधर कविता इतना तात्काहलिक मसला बन गई है
कि लगता है कवि इंतज़ार ही कर रहे थे
घटनाओं का
दंगों का
घोटालों का
बलात्का रों का
कृपया मेरी क्रूरता का बुरा मानें
मेरे कहे को अन्यतथा लें
मेरे भूल जाने के बीच याद रखने का कोलाहल है अगल-बगल
मुझे बुरा लगता है
जब कवि प्रतीक्षा करते हैं अपनी कविताओं के लिए
आन्दोिलनों का
ख़ुद उतर नहीं पड़ते
न उतरें सड़कों पर
पन्नोंं पर ही कुछ लिखें
फिर कविताओं में भी शान से दिखें
हिन्दीि कविता के
इस सुरक्षित उत्त र-काल में
मुझे माफ़ करना दोस्तों
मेरी ऐतिहासिक बेबसी है यह
कि मैं हर बार एक पुरानी कविता लिखता हूँ
और
बहुत जल्द भूल भी जाता हूँ उसे।
मीडिया ने मोदी को पी एम बना दिया है
पटाखे फूट रहे हैं
समय से पहले दीवाली आ गई लोगो
लड्डू बंट रहे हैं गुजरात से यू पी तक
मोदी की मां समझ नहीं पा रही हैं क्या हो रहा है
चैनल वाले उनके पीछे पड़े हैं
आपको कैसा लग रहा है
वो आयुवृद्ध महिला इतना कह पायीं हैं कि नरेन घर छोड़कर भागा
तो फिर सीधे मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही दिखा
महेन्द्रभाई दर्जी मोदी के बालसखा मोदी के व्यक्ति-निर्माण में
रा.स्व.से.सं. और नाटक की भूमिका को रेखांकित करते हैं
जो दरअसल तथ्यपूर्ण बात है
वी आर अवर नेशनहुड डिफाइंड की गीता हाथ में ले छूंछे नाटकीय हाव-भाव से
कोई इस महादेश का नेता बन सकता है यही ओरिएंटलिज़्म है
संघ के जांघों से बेहद ढीले हाफपैंट देख खी-खी करने लगता है मेरा बेटा
जिसे वो रियलिटी में मज़ाक समझता है अपनी अल्पायु में वो मेरी आयु में
एक भयावह हाइपर्रियल कंडीशन है
भाजपा पीछे छूट गई है उसने सिर्फ़ पी एम इन वेटिंग का ऐलान किया है
मीडिया ने मोदी को पी एम बना दिया है
हिन्दी का कवि अब मोदी का विरोध करे कि मीडिया का
मोदी से डरे
कि मीडिया से
साम्प्रदायिकता एक संकट है
उससे बड़ा संकट है एफ आई आई
गुजरात का विकास माडल इसी के ज़रिए आई
आवारा पोर्टफालियो विदेशी पूंजी के दम पर खड़ा है
जिसके गिरने के नियतांक पहले से तय हैं
क्या आपको पता है नागरिको
देश पर जो विदेशी कर्ज़ बताया जाता है उसका दो तिहाई तो
बेलगाम कारपोरेट घरानों ने लिया और वो देश के खाते में गया है
और यह भी कोई इत्तेफ़ाक नहीं है
कि अभी घोषित हमारे इस एक पी एम इन वेटिंग ने हमेशा ही एफ आई आई का
खुले दिल से स्वागत किया है
इसलिए 2014 से पहले सिर्फ़ कविता न लिखें कवि
पाठक सिर्फ़ उनके अंदाज़े-बयां पर वाह-वाह न हो जाएं
अपने हित में कुछ अर्थशास्त्र भी बांचे
इसके पहले कि क़त्ल हो जाएं अपनी विकट उम्मीदों के साथ
समाज और देश के चलने के कुछ गूढ़ार्थ भी जानें
मीडिया ने तो मोदी को सर्वाधिक लोकप्रिय बता पी एम बना दिया है
नागरिको
सोचो कि मीडिया में कारपोरेट घरानों का कितना पैसा लगा है
जो कुछ यहां मैंने लिखा है
उसे कविता समझना व्यर्थ है और अगर इसे कविता समझना है
तो इससे पहले देश के आर्थिक-सामाजिक हालात को समझना
मेरी इकलौती शर्त है।
भाषा और जूते
अपने बनने की शुरूआत से ही
धरती और पांव के बीच बाधा नहीं सम्बन्ध की तरह
विकसित हुए हैं जूते
लेकिन नहाते और सोते वक़्त जूते पहनना समझ से परे है
लोग अब भाषा में भी जूते पहनकर चलने लगे हैं
वे कलम की स्याही जांचने और काग़ज़ के कोरेपन को
महसूस करने की बजाए
जूते चमकाते हैं मनोयोग से
और उन्हें पहन भाषा में उतर जाते हैं
कविता की धरती पर पदचिह्न नहीं जूतों की छाप मिलने लगी हैं
अलग-अलग नम्बरों की
कुछ लोगों के जूतों का आकार बढ़ता जाता है सम्मानों-पुरस्कारों के साथ
वे अधिक जगह घेरने और अधिक आवाज़ करने लगते हैं
कुछ लोग अपने आकार से बड़े जूते पहनने लगते हैं
उन्हें लद्धड़ घसीटते दिख जाते हैं
अधिक बड़ी छाप छोड़ जाने की निर्दयी और मूर्ख आकांक्षा से भरे
अब भाषा कोई मंदिर तो नहीं या फिर दादी की रसोई
कि जूते पहनकर आना मना कर दिया जाए
मैंने देखा एक विकट प्रतिभावान
अचानक कविता में स्थापित हो गया युवा कवि
कविता की भाषा में पतलून पहनना भूल गया था
पर जूते नहीं
वो चमक रहे थे शानदार
उन्हें कविता में पोंछकर वह कविता से बाहर निकल गया
और इसका क्या करें
कि एक बहुत प्रिय अति-वरिष्ठ हमारे बिना फीते के चमरौंधे पहनते हैं
भाषा में झगड़ा कर लेते हैं
–क्या रक्खा है बातों में ले लो जूता हाथों में की तर्ज़ पर
खोल लेते हैं उन्हें
उधर वे जूता लहराते हैं
इधर उनके मोज़े गंधाते हैं
दुहरी मार है यह भाषा बेचारी पर
कुछ कवियों के जूते दिल्ली के तीन बड़े प्रकाशकों की देहरी पर
उतरे हुए पाए जाते हैं
प्रकाशक की देहरी भाषा का मनमर्जी गलियारा नहीं
एक बड़ी और पवित्र जगह है
कवियों के ये जूते कभी आपसी झगड़ों में उतरते हैं
तो कभी अतिशय विनम्रता में
कविता में कभी नहीं उतरते डटे रहते हैं पालिश किए हुए चमचमाते खुर्राट
दूसरों को हीन साबित करते
कुछ कवयित्रियां भी हैं
अल्लाह मुआफ़ करे वे वरिष्ठ कवियों और आलोचकों के समारोहों में
सालियों की भूमिका निभाती दिख जाती हैं
शरारतन जूता चुराती फिर अपना प्राप्य पा पल्लू से उन्हें और भी चमकाती
लौटा जाती हैं
इस बात पर मुझे ख़ुद जूते पड़ सकते हैं पर कहना तो होगा ही इसे
समझदार कवयित्रियां जानती हैं
कि कविता वरिष्ठों के जूतों में नहीं भाषा की धूल में निवास करती है
ग़नीमत है आज भी स्त्रियां पुरुषों से अधिक जानती हैं
युवतर कवियों में इधर खेल के ब्रांडेड जूते पहनने का चलन बढ़ा है
वे दौड़ में हैं और पीछे छूट जाने का भय है
कुछ गंवार तब भी चले आते हैं नंगे पांव
उनके ज़ख़्म सहानुभूति तो जगा सकते हैं पर उन्हें जूता नहीं पहना सकते
मैं बहुत संजीदा हूं जूतों से भरती भाषा और कविता के संसार में
मेरी इस कविता को महज खिलंदड़ापन न मान लिया जाए
मैंने ख़ुद तीन बार जूते पहने पर तुरत उतार भी दिए
वे पांव काटते थे मेरा
और मैं पांव की क़ीमत पर जूते बचा लेने का हामी नहीं था
अब मैं भाषा का एक साधारण पदातिक
जूतों के दुकानदारों को कविता का लालच देता घूम रहा हूं
कि किसी तरह बिक्री बंद हो जूतों की
पर मेरा दिया हुआ लालच कम है भाषा में जूतों का व्यापार
उदारीकरण के दौर में एक बड़ी सम्भावना है
कुछ समय बाद शायद मैं जूताचोर बन जाऊं बल्कि उससे अधिक
भाषा में जूतों का हत्यारा
लानत के पत्थर बांध फेंकने लगूं अपने चुराए जूते
नदियों और झीलों में
क्योंकि अभी आत्मालोचना के एक हठी इलाक़े में प्रवेश किया है मैंने
और वहां करने लायक बचे कामों में यह भी एक बड़ा काम बचा है।