दीमकों के नाम हैं वंसीवटों की डालियाँ
दीमकों के नाम हैं वंसीवटों की डालियाँ,
नागफनियों की क़नीजें हैं यहाँ शेफालियाँ।
छोड़कर सर के दुपट्टे को किसी दरगाह में,
आ गई हैं बदचलन बाज़ार में कव्वालियाँ।
गाँठ की पूँजी निछावर विश्व पे कर गीत ने,
भाल अपने हाथ से अपनी लिखीं कंगालियाँ।
पूज्य हैं पठनीय हैं पर आज प्रासंगिक नहीं,
सोरठे सिद्धान्त के आदर्श की अर्धालियाँ।
इस मोहल्ले में महीनों से रही फ़ाक़ाक़शी,
इस मोहल्ले को मल्हारें लग रही हैं गालियाँ।
बेहतर आहत रही ये अक्षरों वाली गली
बेहतर आहत रही ये अक्षरों वाली गली,
पर सदा अक्षत रखी है गीत की गंगाजली।
सूर कह लो, मीर कह लो या निराला या जिगर,
हर जुबाँ में जी रही है दर्द की वंशावली।
इस नगर में कौन बाँचे सतसई सौन्दर्य की,
ये नगर हल कर रहा है भूख की प्रश्नावली।
राम जाने क्या भविष्यत् है हमारे बाग का,
चम्बली हर फूल है तो नक्सली है हर कली।
कि अगले ही कदम पे खाइयाँ हैं
कि अगले ही कदम पे खाइयाँ हैं,
बहुत अभिशप्त ये ऊँचाइयाँ हैं।
यहाँ से है शुरू सीमा नगर की,
यहाँ से हमसफर तनहाइयाँ हैं।
हुई किलकारियाँ जबसे सयानी,
बहुत सहमी हुई अँगनाइयाँ हैं।
हमारी हर बिवाई एक साखी,
बदन की झुर्रियाँ चौपाइयाँ हैं।
नियति में आपकी विषपान होगा,
जुबां पे आपकी सच्चाइयाँ हैं।
लेखनी के पास हस्ताक्षर नहीं है
लेखनी के पास हस्ताक्षर नहीं है,
यक्ष-प्रश्नों के लिये उत्तर नहीं है।
अग्निगर्भा कोख बंध्या लग रही है,
अक्षरों के वंश में दिनकर नहीं है।
ये न पूछें काफिला है किस जगह पे,
इस डगर पे मील का पत्थर नहीं है।
राजधानी में छिड़ी है बीन जबसे,
बाँबियों में एक भी विषधर नहीं है।
जय-पराजय-खुशी और ग़म
जय-पराजय-खुशी और ग़म
दृष्टिभ्रम दृष्टिभ्रम दृष्टिभ्रम
बिजलियो, आशियाँ पे मेरे,
हर तरफ़ दर्ज है स्वागतम्
वेदनाओं की वेदत्रयी,
ये जुबाँ ये ज़िगर ये क़लम।
विज्ञ है पर ज़िन्दगी को कम समझता है
विज्ञ है पर ज़िन्दगी को कम समझता है,
मैं विवश हूँ वो मुझे निर्मम समझता है।
है अमावस्या यहाँ हर कामना खुद में,
चित्त का विभ्रम उसे पूनम समझता है।
पढ़ नहीं पाता हृदय की धड़कनों को वो,
शेष सारे शास्त्र निगमागम समझता है।
वेदना की वर्तिका बनकर जली है
वेदना की वर्तिका बनकर जली है,
ज़िन्दगी यूँ चन्द ग़ज़लों में ढली है।
देह में उसकी अजन्ता की कला तो,
दृष्टि में उसकी बसी कवितावली है।
बढ़ गई है धड़कनें दिल की अचानक,
ये गली ही, हो न हो उसकी गली है।
हाथ पे मेरे हथेली है किसी की,
हाथ पे मेरे रखी गंगाजली है।
आक्षितिज जो भी प्रत्यक्ष है
आक्षितिज जो भी प्रत्यक्ष है,
इन्द्रधनुषों के समकक्ष है।
इष्ट है द्रोह शिव का उसे,
दर्प ही दिग्भ्रमित दक्ष है।
राग है रामगिरि का शिखर,
गीत प्रतिपल विकल यक्ष है।
पक्ष प्रतिपक्ष, के पोषको,
सत्य निरपेक्ष निष्पक्ष है।
दर्द हर रंग का है यहाँ,
मेरा दिल इक सभाकक्ष है।
सत्यता की सनद कीजिये
सत्यता की सनद कीजिये,
शब्द को उपनिषद् कीजिये।
सृष्टि ये नित्य साकेत है,
दृष्टि अपनी विशद कीजिये।
रह सकें मित्र भी, शत्रु भी,
हद हृदय की वृहद् कीजिये।
आचरण की संहिताओं की तरह
आचरण की संहिताओं की तरह,
हम जिये जातक-कथाओं की तरह।
वेदनाएँ वक्ष से लिपटी रहीं,
वृक्ष से लिपटी लताओं की तरह।
मौन के निस्सीम नीलाकाश में,
शब्द हैं नीहारिकाओं की तरह।
आपके संस्पर्श चित्रित हैं अभी,
चेतना पे अल्पनाओं की तरह।
प्राण ये तिल-तिल तमिस्रा में दहे,
आत्मयाजी वर्तिकाओं की तरह।
चन्द ग़ज़लें भर रहीं आँचल दिये,
वृद्ध जननी की दुआओं की तरह।
सियासत का षड्यन्त्र अपनी जगह है
सियासत का षड्यन्त्र अपनी जगह है,
मोहब्बत का ऋक्मन्त्र अपनी जगह है।
हैं अपनी जगह क़हक़हें कुर्सियों के,
सिसकता प्रजातन्त्र अपनी जगह है।
प्रखर बुद्धि ने सारी दुनिया बदल दी,
मगर दिल का संयन्त्र अपनी जगह है।
अभी तक है अम्बर का स्वर ज्योतिवाही,
अभी तक ये श्री-यन्त्र अपनी जगह है।
शीश पे ढो रही हैं शिलाएँ
शीश पे ढो रही हैं शिलाएँ,
इन दिनों दुधमुँही गीतिकाएँ।
दीमकों के बिलों पे पड़ी हैं,
आचरण की सभी संहिताएँ।
वर्तनी सीख ली धृष्टता की,
पूर्ण हैं आपकी अर्हताएँ।
हैं उधर दर्पनों की दुकानें,
भद्रजन उस दिशा में न जाएँ।
शब्द को शंख की भूमिका दें,
शब्द को मत मजीरा बनाएँ।
गुनगुनाना हमारी प्रकृति है,
आप कसते रहें शृंखलाएँ।
कुछ नहीं आज करता द्रवित
कुछ नहीं आज करता द्रवित,
हम बने हैं ग़ज़ल से गणित।
दृष्टि में हों शिखर शैल के,
शब्द के पाँव हैं शृंखलित।
है रुदन भी प्रतीक्षानिरत,
हर हँसी कर रही है ध्वनित।
भाल पे होंठ किसने रखे,
ताप होने लगे हैं शमित।
तेज़ गति में बहुत है मगर,
है हमारी सदी दिग्भ्रमित।
दर्प विध्वस्त जिस पल हुआ,
प्रार्थना हो उठी पल्लवित।
भाल पे होंठ किसने रखे
भाल पे होंठ किसने रखे,
ज़िन्दगी में महावर घुली।
दृष्टि वो बाँसुरी बन गई,
देह ये हो चली गोकुली।
लौटकर फिर वहीं आ गये,
राह थी प्यास की वर्तुली।
निष्कलुष हो गई है नज़र,
आँख क्या आँसुओं से धुली।
ज़ख़्म छिलने लगे वक्ष के,
गीत की जन्मपत्री खुली।
उन प्रतिमानों में करें संशोधन श्रीमान
उन प्रतिमानों में करें संशोधन श्रीमान,
इस बस्ती में अब कहाँ आदमकद इन्सान।
अप्रासंगिक हो गये हैं जीवन के मूल्य,
हर घर आज मकान है हर मकान दुकान।
उद्धरणों के संकलन की संज्ञा है शोध,
खुद को मौलिक कह रहे अनुवादित आख्यान।
आरक्षण करने लगा प्रतिभा का आखेट,
भ्रष्ट व्यवस्था गा रही – मेरा देश महान।
सुविधाओं के व्याकरण की कक्षा में बैठ,
खद्योतों की बन्दगी करता है दिनमान।
बेशक सच बोलें मगर ध्यान रहे हर वक़्त,
सुकरातों के भाग्य में अंकित है विषपान।
प्रश्नों को हैं सूलियाँ मूल्यों को वनवास
प्रश्नों को हैं सूलियाँ मूल्यों को वनवास,
प्रतिभाओं के भाग्य में है निर्जल उपवास।
बस्ती की हर आँख में है अश्कों की भीड़,
मुस्कानों से शून्य हैं अधरों के आवास।
बिखरे हैं कालिख सने वर्तमान के पृष्ठ,
संग्राहलयों में सजा है स्वर्णिम इतिहास।
शापग्रस्त हैं इन दिनो शाकुन्तल के श्लोक,
निःश्वासें भर शेष हैं कालिदास के पास।
अथक अविराम अक्षर-साधना है
अथक अविराम अक्षर-साधना है,
हमारी ज़िन्दगी नीराजना है।
सियासत सर्जना है शूलवन की,
कला विग्रहवती शुभकामना है।
अधर पर काँपती वो मुस्कराहट,
प्रणय के ग्रन्थ की प्रस्तावना है।
उसे उपलब्धि में परिणत करेंगे,
हमारे पास इक संभावना है।
विचारें सूक्ष्मता से तो लगेगा,
अभीप्सा मुक्ति की भी वासना है।
कभी थी चाँदनी की रूपगाथा,
ग़ज़ल अब अग्नि की आराधना है।
कि जिस दिल में व्यथा का वास होगा
कि जिस दिल में व्यथा का वास होगा,
वहीं काशी वहीं कैलास होगा।
जुड़ी हैं चाटुकारों की सभाएँ
यहाँ हर मूल्य का उपहास होगा।
प्रकृति में आपकी शालीनता है,
नियति में आपकी निःश्वास होगा।
दिया वो आँधियों से है मुखातिब,
उसे खुद पे बहुत विश्वास होगा।
अनिर्वचनीय को गाने चला हूँ,
मेरे स्वर में विरोधाभास होगा।
चेतना का तल बदलते ही
चेतना का तल बदलते ही,
अर्थ शब्दों के बदलते हैं।
गर्जना कर मेघ देते जल,
हिमशिखर चुपचाप गलते हैं।
शेष हैं इनमें अभी शैशव,
इन दृगों में स्वप्न पलते हैं।
इस अहद की ख़ासियत है ये,
होम करते हाथ जलते हैं।
हम सुसंस्कृत हो गये जबसे,
रोज़ इक चेहरा बदलते हैं।
बर्फ़ ग़म की हो अहम् की हो
बर्फ़ ग़म की हो अहम् की हो,
बर्फ़ आखि़रकार गलती है।
धूप कह लो चाँदनी कह लो,
रोशनी चूनर बदलती है।
है मदालस ज़िन्दगी कवि की,
लड़खड़ाती है सम्हलती है।
दर्द के शिव की जटा से ही,
गीत की गंगा निकलती है।
सुविधा से परिणय मत करना
सुविधा से परिणय मत करना,
अपना क्रय विक्रय मत करना।
भटकायेंगी मृगतृष्णाएँ,
स्वप्नों का संचय मत करना।
कवि की कुल पूँजी हैं ये ही
शब्दों का अपव्यय मत करना।
हँसकर सहना आघातों को,
झुकना मत, अनुनय मत करना।
सुकरातों का भाग्य यही है,
विष पीना विस्मय मत करना।
कायदों में न बाँधना उसको
कायदों में न बाँधना उसको,
प्रीति का व्याकरण नहीं होता।
स्वर्णमृग ने लुभा लिया वर्ना,
जानकी का हरण नहीं होता।
वो सदाशिव सहज दिगम्बर है,
सत्य पर आवरण नहीं होता।
हर कथा संस्मरण नहीं बनती,
हर कथन उद्धरण नहीं होता।
कश्तियों के चुनाव में अक्सर,
उम्र भर सन्तरण नहीं होता।
वक्ष पर जब तक बिधे नहीं अम्बर,
गीत का अंकुरण नहीं होता।
स्नेह की संहिता रही है माँ
स्नेह की संहिता रही है माँ,
भागवत की कथा रही है माँ।
इक मुझे चैन से सुलाने को,
मुद्दतों रतजगा रही है माँ।
दाह खुद को प्रकाश जगती को,
वर्तिका की शिखा रही है माँ।
मंजु मुस्कान की लिखावट में,
अश्रुओं का पता रही है माँ।
दृष्टि में ले अनन्त आर्द्राऐं,
उम्र भर मृगशिरा रही है माँ।
औपचारिक भंगिमा कृत्रिम हँसी निष्प्रभ नमन
औपचारिक भंगिमा कृत्रिम हँसी निष्प्रभ नमन,
इस नगर में हर नज़र में आ बसे हैं शूलवन।
उस दरीचे से कभी चिट्ठी गिरी थी धूप की,
उस दरीचे की तरफ़ आँखें उठेंगी आदतन।
हाँ, सुसंस्कृत हो गये हैं लोग मेरे गाँव के,
अब उन्हें विचलित नहीं करता किसी का भी रुदन।
भाग्य भी हमको मिला शिव का महज संज्ञा नहीं,
उम्र भर करना पड़ा फिर फिर गरल का आचमन।
क्रुद्ध झंझावत, उल्कापात, वज्राघात सह,
मुस्कराता ही रहा ये शब्द का संस्कृति सदन।
हो गये निर्वाक् आ कर सत्य की देहरी पे हम,
खो गये पूजन-भजन-याजन-यजन-चिन्तन-मनन।
मानसर के विमल वारि में ही नहीं
मानसर के विमल वारि में ही नहीं,
खिल गया कल्मषित कीच में भी कमल।
अन्ततः हिमशिखर को पिघलना पड़ा,
दर्प का दस्तखत बन गया अश्रुजल।
है जटिल वो जे़हन के लिये आज भी,
आज भी वो हृदय के लिये है सरल।
देखते-देखते खो गई ख़्वाहिशें,
खुद-ब-खुद इक दुआ बन गई हर ग़ज़ल।
तार्किकों को छोड़ उन्मत्तों से अभ्यन्तर मिला
तार्किकों को छोड़ उन्मत्तों से अभ्यन्तर मिला,
तू सरलता में तरलता में न आडम्बर मिला।
हो कठिन कितना मगर जग में असंभव कुछ नहीं,
मरुथली उत्ताप से आश्वस्तिकर पुष्कर मिला।
है विषम कलिकाल माना, तू इसी में शक्ति भर,
निष्कलुष कृतयुग मिला त्रेता मिला द्वापर मिला।
शिष्ट सम्वर्दधन अशिष्टों का दमन युगपत् चले,
वैष्णवी पीताम्बरों में शैव व्याघ्राम्बर मिला।
विकृतियों से विभ्रमों से व्याप्त इस वातास में,
तू प्रणय के कुंजवन की बाँसुरी का स्वर मिला।
सौख्य संत्रास का अश्रु का हास का
सौख्य संत्रास का अश्रु का हास का,
ज़िन्दगी जोड़ है तृप्ति का प्यास का।
कामना शान्त हो कर्म विक्रान्त हो,
है यही अर्थ गीतोक्त संन्यास का।
काव्य की कालिदासी कला से जुड़ा,
अपना इतिहास है व्यास का भास का।
है ग़ज़ल इसमें आलोड़िता जाह्नवी,
यह हृदय की कठौता है रैदास का।
पुत्र-पौत्रादि अवकाश में आये घर
लौट आया समय हर्ष-उल्लास का।
अग्नि के गर्भ में पला होगा
अग्नि के गर्भ में पला होगा,
शब्द जो श्लोक में ढला होगा।
दृग मिले कालिदास के उसको,
अश्रु उसका शकुन्तला होगा।
है सियासत विराट-नगरी-सी,
पार्थ इसमें बृहन्नला होगा।
दर्प ही दर्प हो गया है वो,
दर्पनों ने उसे छला होगा।
भाल कर्पूरगौर हो बेशक,
गीत का कंठ साँवला होगा।
अलग है ढंग मेरी अर्चना का
अलग है ढंग मेरी अर्चना का,
व्यथा जीना पराई चाहता हूँ।
नहीं मंजूर है खै़रात मुझको,
पसीने की कमाई चाहता हूँ
अमावस ही अमावस है चतुर्दिक्
जुन्हाई ही जुन्हाई चाहता हूँ।
जुटाने में जिन्हें कुल उम्र बीती,
लुटाना पाई-पाई चाहता हूँ।
सजे जिसपे महादेवी की राखी,
निराला-सी कलाई चाहता हूँ।
आकर्षक अभिराम बन गया
आकर्षक अभिराम बन गया,
जिस पल दर्प प्रणाम बन गया।
संशय के इस दण्डक-वन में,
हर पल इक संग्राम बन गया।
स्वस्तिक रच कृतकृत्य कलाविद्,
विश्रम हो विश्राम बन गया।
निश्छल अन्तस में अनुगुंजित,
अनहद अक्षरधाम बन गया।
चिन्तन अनुचिन्तन संकीर्तन,
क्रन्दन भगवन्नाम बन गया।
बन्धुता ले बिराने मिले
बन्धुता ले बिराने मिले,
बेशकीमत ख़ज़ाने मिले।
गीत के इक अदद वक्ष में,
सौ ग़मों के ठिकाने मिले।
छद्म सन्तत्व ओढ़े यहाँ,
वंचकों के घराने मिले।
पृष्ठ दैनन्दिनी के पढ़े,
आज गुजद्यरे ज़माने मिले।
मित्रगण क्या मिले राह में,
स्वस्तिप्रद शामियाने मिले।
इक ज़रा-सी असावधानी से
इक ज़रा-सी असावधानी से,
आइना टूटकर बिखरता है।
वो दहकते सवाल करती है,
गाँवभर उस नज़र से डरता है।
स्वर्ण हो वो कि आदमी कोई,
अग्नि में स्नान कर निखरता है।
नीति का अर्थ हो नियम-निष्ठा,
प्रीति का अर्थ पक्षधरता है।
मैं भले ही उसे भुला बैठूँ,
वो मेरा इन्तज़ार करता है।
हिन्दुस्तानी सोच पुरानी
हिन्दुस्तानी सोच पुरानी,
कोउ नृप हमहिं का हानी।
लौटेंगी भूखी परवाजें,
पिंजरे में है दाना-पानी।
सबको लगती है अलबेली,
अपनी-अपनी रामकहानी।
बन्धन में मत बाँधों, कवि है-
रमता जोगी बहता पानी।
दीवाने पहुँचे मंज़िल पे,
फिर-फिर भटके ज्ञानी-ध्यानी।
ताक्त-इज़्ज़त-दौलत-शोहरत,
आँखें मुँदते ही बेमानी।
दर्द बना देता है दिल को,
सूफी, ग़ज़लों को रूहानी।
मैली हो उजली हो इक दिन,
चादर पड़ती है लौटानी।
दुष्यन्त नहीं काव्य का प्रतिमान मिला है
दुष्यन्त नहीं काव्य का प्रतिमान मिला है,
फिर अक्षरों के वंश को दिनमान मिला है।
संकल्प सुदृढ़ ले के चले श्रम को अन्ततः,
उत्तप्त मरुस्थल में मरुद्यान मिला है।
अवहेलना के दंश मिले सौम्य-शिष्ट को,
जो धृष्ट था उस शख़्स को सम्मान मिला है।
देवों को अमृत दानवों को वारुणी चषक,
हर युग में महादेव को विषपान मिला है।
परिवेश नया दृष्टि नई देशना नई,
भारत में ग़ज़ल को नया परिधान मिला है।
शुरू हुआ है प्रणय का पुरश्चरण मित्रो
शुरू हुआ है प्रणय का पुरश्चरण मित्रो,
चरण-चरण पे हटेंगे ये आवरण मित्रो।
तुम्हारे पास हों शास्त्रों के उद्धरण अगणित,
हमारे पास है सन्तों के श्रीचरण मित्रो।
किसी भी दिन हो अब लंका-दहन सुनिश्चित है,
कि गुल खिलायेगा सीता का अपहरण मित्रो।
किसी भी कर्म से होता नहीं विलिप्तवही,
जो बन गया है विधाता का उपकरण मित्रो।
जो किसी का बुरा नहीं होता
जो किसी का बुरा नहीं होता,
शख़्स ऐसा भला नहीं होता।
दोस्त से ही शिकायतें होंगी,
दुश्मनों से गिला नहीं होता।
हर परिन्दा स्वयं बनाता है,
अर्श पे रास्ता नहीं होता।
इश्क के क़ायदे नहीं होते,
दर्द का फलसफा नहीं होता।
ख़त लिखोगे हमें कहाँ आखि़र,
जोगियों का पता नहीं होता।
सच्चाई को गायेंगे
सच्चाई को गायेंगे,
सरमद शीश कटायेंगे।
तुम झंझाएँ बुलवा लो,
हम फिर दीप जलायेंगे।
सुख-दुख फेरीवाले हैं,
ये आयेंगे जायेंगे।
वर्जित फल है इश्क़ इसे,
हिम्मतवर ही खायेंगे।
मत छापो अख़बारों में,
हम दिल पे छप जायेंगे।
स्वप्निल शत प्रतिशत होते हैं
स्वप्निल शत प्रतिशत होते हैं,
कवि खुशबू के ख़त होते हैं।
उनसे भी होती है अर्चा,
अक्षर भी अक्षत होते हैं।
सुख के सौ-सौ युग क्षणभंगुर,
दुख के पल शाश्वत होते हैं।
विद्वज्जन उद्धत होते हों,
विद्यावन्त विनत होते हैं।
बनते उत्स महाकाव्यों के,
आँसू सारस्वत होते हैं।
बसी है मेरे भीतर कोई कुब्जा
बसी है मेरे भीतर कोई कुब्जा,
तरन-तारन कन्हाई चाहता हूँ
पड़े थे जो सुदामा के पगों में,
वो छाले वो बिवाई चाहता हूँ।
सभा में गूँजती हों तालियाँ जब,
सभागृह से विदाई चाहता हूँ।
हिंदुस्तानी औरत
हिंदुस्तानी औरत यानी
घर भर की खातिर क़ुर्बानी
गृहलक्ष्मी पद की व्याख्या है
चौका चूल्हा रोटी पानी
रुख़सत करने में रज़िया को
टूट गए चाचा रमजानी
आँचल में अंगारे भरके
पीहर लौटी गुड़िया रानी
क़त्ल हुआ कन्या भ्रूणों का
तहज़ीबें देखी बेमानी
निर्धन को बेटी मत देना
घट घट वासी अवढर दानी