अब मेरी दो-गाना को मिरा ध्यान है क्या ख़ाक
अब मेरी दो-गाना को मिरा ध्यान है क्या ख़ाक
इंसान की अन्ना उसे पहचान है क्या ख़ाक
मिलती नहीं वो मुझ को तुम्हीं अब तो बता दो
इस बात में उस का अजी नुक़सान है क्या ख़ाक
हैं याद बहाने तो उसे ऐसे बहुत से
आने को यहाँ चाहिए सामान है क्या ख़ाक
उल्फ़त मिरी उस की तो हुई है कई दिन से
दिल का मिरे निकला कोई अरमान है क्या ख़ाक
रंगीं से जो पैग़ाम-सलाम उस ने किया है
सोचो तो ज़रा जी में वो इंसान है क्या ख़ाक
करूँ मैं कहाँ तक मुदारात रोज़
करूँ मैं कहाँ तक मुदारात रोज़
तुम्हें चाहिए है वही बात रोज़
मुझे घर के लोगों का डर है कमाल
करूँ किस तरह से मुलाक़ात रोज़
मिरा तेरा चर्चा है सब शहर में
भला आऊँ क्यूँकर मैं हर रात रोज़
कहाँ तक सुनूँ कान तो उड़ गए
तिरी सुनते सुनते हिकायात रोज़
गए हैं मिरे घर में सब तुझ को ताड़
किया कर न रंगीं इशारात रोज़
कश्ती में कुप्पी तेल की अन्ना उंडेल डाल
कश्ती में कुप्पी तेल की अन्ना उंडेल डाल
सूखे हैं बाल आ के मिरे सर में तेल डाल
या रब शब-ए-जुदाई तो हरगिज़ न हो नसीब
बंदी को यूँ जो चाहे तो कोल्हू में पेल डाल
बाजी न कर नसीहत-ए-बे-जा जले है दिल
है आग सी जो सीने में उस को कुड़ेल डाल
होगा जो उस का वस्ल तो थल बैठियो रे जी
ये हिज्र के जो दिन हैं तो अब इन को झेल डाल
चढ़-मस्त है ददा कहीं उस की ये चुल बुझे
रंगीं ख़ुदा के वास्ते तू इस को खेल डाल
किस से गर्मी का रखा जाए ये भारी रोज़ा
किस से गर्मी का रखा जाए ये भारी रोज़ा
सर्दी होवे तो रखे मुझ सी बेचारी रोज़ा
देख पंसूरे में तारीख़ बता दे मुझ को
अब के आ तो जी रखूँगी मैं हज़ारी रोज़ा
मुँह पे कुछ रखती नहीं अपने वो पन-भत्ति में
खोलती जब है ददा मेरी दुलारी रोज़ा
आज से फ़िर्नी ओ फ़ालूदा की तय्यारी कर
कल है नौ-चंदी रखेगी मेरी प्यारी रोज़ा
मेरा मुँह उतरा हुआ देख के कहती है जिया
आज तू कर के न रख मिन्नत-ओ-ज़ारी रोज़ा
टीस पेड़ू में उठी ऊही मिरी जान गई
टीस पेड़ू में उठी ऊही मिरी जान गई
मत सता मुझ को दो-गाना तिरे क़ुर्बान गई
तुझ से जब तक न मिली थी मुझे कुछ दुख ही न था
हाथ मलती हूँ बुरी बात को क्यूँ मान गई
जूँ जूँ पहुँची है चमक बंदी का दम रुकता है
अब मिरी जान गई जान ये मैं जान गई
मैं तिरे पास दो-गाना अभी आई थी चली
मेरे घर में तू अबस करने को तूफ़ान गई
ज़हर लगती है मुझे ये तिरी चित्थल-बाज़ी
याँ तिरे आने से बाजी तुझे पहचान गई
तेरी रंगीं से कहीं आँख लड़ी सच कह दे
कुछ तो घबराई हुई फिरती है औसान गई
नींद आती नहीं कम-बख़्त दिवानी आ जा
नींद आती नहीं कम-बख़्त दिवानी आ जा
अपनी बीती कोई कह आज कहानी आ जा
हाथ पर तेरे मूए किस के है छल्ले का दाग़
दी है ये किस ने तुझे अपनी निशानी आ जा
जब वो रूठा था तभी तू ने मिला मुझ से दिया
मैं ने कुछ क़द्र तिरी हाए न जानी आ जा
सब्ज़-रंग अब के है नौ-रोज़ का इस सर की क़सम
जोड़ा ला कर तू पिन्हावे मुझे धानी आ जा
बाल माथे के जो डोरे से सिए हैं तू ने
शक्ल लगती है तिरी आज डरानी आ जा
ग़म है रंगीं को न मेरा यूँही उस के पीछे
मुफ़्त बर्बाद हुई मेरी जवानी आ जा
मैं तो कुछ कहती नहीं शौक़ से सौ-बारी चीख़
मैं तो कुछ कहती नहीं शौक़ से सौ-बारी चीख़
नाम ले कर मिरी दाई का ददा मारी चीख़
उड़ गए मग़्ज़ के कीड़े तू उधर क्यूँ है खड़ी
मेरी चंदिया पे खड़ी हो के इधर आ री चीख़
ले मैं कहती हूँ कि सर पीट के चौंडे को खसूट
नोच नोच अपना तू मुँह शौक़ से कर ज़ारी चीख़
लोग याँ चौंक उठे अपने पराए सारे
मर मिटी तू ने ग़ज़ब ऐसी ही इक मारी चीख़
तिस पे मकराती है मुरदार अरी शाबस-री
तेरे मुँह से अभी निकली ही नहीं सारी चीख़
है ये क़हबा इसे रंगीं के हवाले कर दे
मेरी अन्ना को दो-गाना में तिरे वारी चीख़
मेरे घर में ज़नाख़ी आई कब
मेरे घर में ज़नाख़ी आई कब
मैं निगोड़ी भला नहाई कब
सब्र मेरा समेटती है वो
शब को बोली थी चारपाई कब
कल ज़नाख़ी थी मेरे पास किधर
ओढ़ बैठी थी मैं रज़ाई कब
लड़ के मुद्दत से वो गई है रूठ
मेरी उस की हुई सफ़ाई कब
वो नबख़्ती तो अपने घर में न थी
पास उस के गई थी दाई कब
दौड़ी लेने को मैं उसे किस दम
पाँव में मेरे मोच आई कब
खाना खाया था मैं ने उस ने कहाँ
और मँगवाई थी मलाई कब
की थी शब मैं ने किस जगह कंघी
आरसी उस ने थी दिखाई कब
हरगिज़ आती नहीं है साँच को आँच
पेश जावेगी ये बड़ाई कब
गूँध कर हाथ पाँव में रंगीं
उस ने मेहंदी मिरे लगाई कब
मेरी तरफ़ से कुछ तो तिरे दिल में चोर है
मेरी तरफ़ से कुछ तो तिरे दिल में चोर है ।
मैंने समझ लिया तो दो-गाना घनोर है ।
इतना बड़ा है मूँह इक आतों की नाक पर,
जितनी बड़ी ददा मेरी उँगली की पोर है ।
रोए ज़रा जो दादा तो दाई हो बे-क़रार,
दाई है मोरनी तो मिरा दादा मोर है ।
मुँह ढाँप कर न रो ये छिलौरी नहीं मुई,
ऐ कूका तेरी उँगली की पक्की ये पोर है ।
ऐसी गले में जाली की करती है दाई के,
जैसी बुरी पड़ी मिरी मियानी की तोर है ।
है मेरा चलना-फिरना दो-गाना के इख़्तियार,
ये जान लो कि मैं हूँ चकई वो डोर है ।
सदक़े ज़नाख़ी मेरे मैं कुर्बान उस की हूँ,
हम में चकई एक है और एक डोर है ।
शायद कि तिरा हो गया मीठा बरस शुरू,
कूका कुछ इन दिनों तिरी चाहत का शोर है ।
तेरी क़सम गँवारी उसे जानती हूँ मैं,
लौण्डी को ’रंगी’ जो कोई कहती बन्दूर है ।
ये मेरे यार ने क्या मुझसे बेवफ़ाई
ये मेरे यार ने क्या मुझ से बेवफ़ाई की,
मिले न फिर कभी जिस दिन से आश्नाई की ।
अब उस के इश्क़ ने क्या कम किया था मुझ से सुलूक,
सताया तू ने ख़ुदा हत तिरी ख़ुदाई की ।
मैं तेरे वारी नसीहत न कर मुझे बाजी,
तुझे भी याद है बकवास सब ख़ुदाई की ।
फँसा दिया मुझे ’रंगी’ के दाम में नाहक़,
करे इलाही कटे नाक मेरे दाई की ।
रिश्ता-ए-उल्फ़त को तोड़ूँ किस तरह
रिश्ता-ए-उल्फ़त को तोड़ूँ किस तरह ?
इश्क़ से मैं मुँह को मोड़ूँ किस तरह ?
पोंछने से अश्क के फ़ुर्सत नहीं,
आस्तीं को मैं निचोड़ूँ किस तरह ?
बाद मुद्दत हाथ आया है मिरे,
अब ददा मैं उस को छोड़ूँ किस तरह ?
वो लगाता ही नहीं छाती को हाथ,
अपनी छाती मैं मरोड़ूँ किस तरह ?
शीशा-ए-दिल तोड़ कर ’रंगी’ मिरा,
अब तू कहता है मैं जोड़ूँ किस तरह ?