शम-ए-उम्मीद जला बैठे थे
वो हसरत-ए-बहार न तूफ़ान-ए-ज़िंदगी
आता है फिर रूलाने का अब्र बहार क्यूँ
आलाम-ओ-ग़म की तुंद हवादिस के वास्ते
इतना लतीफ़ दिल मिरे परवरदिगार क्यूँ
जब ज़िंदगी का मौत से रिश्ता है मुंसलिक
फिर हम-नशीं है ख़तरा-ए-लैल-हो-नहार क्यूँ
जब रब्त-ओ-ज़ब्त हुस्न-ए-मोहब्बत नहीं रहा
है बार-ए-दोश हस्ती-ए-ना-पाएदार क्यूँ
रोना मुझे ख़िज़ाँ का नहीं कुछ मरग ‘शमीम’
इस का गिला है आई चमन में बहार क्यूँ
वो हसरत-ए-बहार न तूफ़ान-ए-ज़िंदगी
शम-ए-उम्मीद जला बैठे थे
दिल में खुद आग लगा बैठे थे
होश आया तो कहीं कुछ भी न था
हम भी किसी बज़्म में जा बैठे था
दश्त गुलज़ार हुआ जाता है
क्या यहाँ अहल-ए-वफ़ा बैठे थे
अब वहाँ हश्र उठा करते हैं
कल जहाँ अहल-ए-वफ़ा बैठे थे