उदासीनीकरण
नही हो सकता
कोई शत प्रतिशत अच्छा
या बुरा बिलकुल ही …
मौजूद होती है मनुष्य में
अच्छाइयाँ और बुराइयाँ
अम्ल और क्षार की तरह।
अधिकता कभी अम्ल की
तो कभी क्षार की।
चलती रहती है,
उदासीनीकरण की क्रिया
शरीर में निरंतर
जहाँ अम्ल और क्षार मिलकर
बनाते रहते हैं
नमक और पानी
जो बह जाता आँखों के रास्ते
कभी गम के
तो कभी खुशी के
आँसू बनकर…
मेरी-तुम्हारी-हमारी
मेरी कुछ कविताएँ
सिर्फ़ मेरे लिए होती हैं
और हाँ!
सिर्फ़ तुम्हारे लिए भी।
तुम्हारे साथ खिलने वाली
मेरी हर उस सुबह की तरह
और हर उस रात की भी तरह
जो तुम्हारे साथ ढ़लती है…
मैं लिख देती हूँ कुछ ऐसा
जिसे पढ़ते सब हैं
लेकिन समझते हो सिर्फ़ तुम
ऐसी कविताएँ,
जो सबके दिमाग पहुँचती हैं
लेकिन दिल तक पहुँचती है
सिर्फ तुम्हारे
मैं क्या लिखती हूँ
ये पता होता है सबको
लेकिन क्यूँ लिखती हूँ
ये जानते हो सिर्फ़ तुम
सब पढते हैं, सबके मुँह से
वाह! निकलता है
तुम पढ़ते हो और
तुम्हारे दिल से आह! निकलता है
मेरे लफ़्ज आवाज बनकर
सबके कानों तक पहुँचते हैं
लेकिन उन लफ़्ज़ों में
छिपे अहसास पहुँचते हैं
सिर्फ़ तुम तक…
क्योंकि,
मेरी कुछ कविताएँ
सिर्फ़ मेरे लिए होती हैं।
और हाँ!
सिर्फ़ तुम्हारे लिए भी
पहली बारिश की बूँदें
बड़ी बेसब्री से इंतज़ार करती हूँ मैं,
पहली बारिश की बूँदों का …
हर बार कुछ नया
अनोखा-सा एहसास लाती है
वो कभी ख़ाली हाथ नहीं आती।…
पहली बारिश की बूँदें …
मेरे बचपन में कागज़ की
कश्तियाँ लेकर आती थी
और मुझे हँसाने के लिए
उन्हें दूर तक बहा ले जाती थी …
पहली बारिश की बूँदें …
अनगिनत रंगबिरंगे फूल लेकर आती थी
इक जादुई खुशबू, मखमल-सी हरियाली
फूलों पर तितलियाँ मंडराती थी …
पहली बारिश की बूँदें…
मुझे भीतर तक भिगो देने वाला
अहसास लेकर आती थी
किसी अनदेखे अनजाने के सपनों का
इन्द्रधनुष सजा जाती थी…
आज पहली बारिश की वही बूंदें
मेरी बचपन की सुहानी यादों का,
कुछ पूरे तो कुछ अधूरे से मेरे ख्वाबों का
पिटारा लेकर आई है…
और साथ लेकर आई है
फिर से जी उठने की आशा,
उम्मीदों की कुछ सुनहरी किरणें …
इसीलिए तो…
बड़ी बेसब्री से इंतजार करती हूँ
मैं पहली बारिश की बूंदों का,
वो कभी ख़ाली हाथ नहीं आती।
मेरी कविता
मेरी कविता
कोई मैगी नही
जो दो मिनट में पक जाए!
ये तो एक स्वादिष्ट पकवान है,
चटपटा…लज़ीज़
समय लगता है इसे बनाने में।
अनुभव की कढाही में,
विचारों की आँच में,
धीरे धीरे पकती है…
चुन कर लाती हूँ
मन की बगिया से
कुछ ताजा अहसास…
कुछ भाव…कुछ शब्द खास
फिर लगती है
रस छंदों की बघार…
कुछ विदेशी शब्दों का तडका
और
लय-तुक स्वादानुसार…
धीमी-धीमी भाँप में सीजती है
सुनहरी होती है
चूल्हे से उतारने के पहले
एक बार फिर सोचती हूँ,
कि कुछ भूली तो नही…
रंग देखती हूँ
महक लेती हूँ…
पूरी तरह से जाँच परखकर
विराम चिन्हों से सजाकर
परोसती हूँ
मेरी कविता…
मेरा आसमान
ना ऐसी हूँ ना वैसी हूँ
मैं बस खुद ही के जैसी हूँ…
है रूप अलग, पहचान अलग
मेरे जीने का अंदाज अलग
मैं क्यूँ तेरी छाया बनूँ
जब है मेरा विस्तृत वितान
मैं क्यों ओढूँ आकाश तेरा
जब है मेरा एक आसमान…
मैं क्यों मानूँ क्या है गलत
और क्या सही तू ही बता
गर मेरी है एक सोच अलग
तो इसमें क्या मेरी ख़ता?
मैं क्यों बाटूँ छोटा-सा घर
जब मेरा है अपना मकान
मैं क्यों ओढूँ आकाश तेरा
जब है मेरा एक आसमान…!
तू जहाँ कहे उस ओर मुडूँ
हैं पंख मेरे मैं क्यों न उडूँ?
सागर अलग कश्ती अलग
हस्ती अलग बस्ती अलग
मैं क्यों खो जाऊँ भीड़ में
मैं क्यों न भरूँ ऊँची उड़ान?
मैं क्यों ओढूँ आकाश तेरा
जब है मेरा एक आसमान…!
परिधी मेरी मत सीमित कर
मुझमें मिल मुझे असीमित कर
हो एक मंजिल हो एक डगर
तू बन जा मेरा हमसफर
क्यों मैं तेरे पीछे चलूँ
जब हूँ मैं तेरे ही समान
मैं क्यों ओढूँ आकाश तेरा
जब है मेरा एक आसमान…!
तू भी आ चल मेरे संग संग
रंग जा तू भी मेरे रंग रंग
हम साथ बहें हम उड़ें साथ
दे दे मेरे हाथों में हाथ
मेरी दुनिया को मत बदल
बस बन जा तू मेरा जहान
मैं ओढूँगी आकाश तेरा
गर ओढे तू मेरा आसमान…!
मन-एक मूर्तिकार
निश्चित ही
यह आत्मा
कुशल मूर्तिकार है,
जो तराशती रहती है
इस व्यक्तित्व को निरंतर…
तन के भीतर ही रहकर।
ज्ञान, संस्कार और
अनुभव की छैनी से
कोमल प्रहार कर।
कल्पनाओं-भावनाओं
विचारों से
आकार दे सुंदर।
और अंततः
निर्लिप्त-निर्विकार
असंतुष्ट-उत्साहित-सी
वह कलाकार
चल पड़ती है,
स्वयं ही की
कृति त्याग कर
पुनः एक नव रचना हेतु
अथक निरंतर
एक अनंत यात्रा पर……
फसाने
एक पल को लगता है,
तुम बहुत दूर चले गए हो।
इन आँखों ने बरसों से
नही देखा तुम्हें।
ये कान तरस गए
तुम्हारी आवाज़ सुनने के लिए।
अब न बातें होती है,
न मुलाकातें।
लगता है दिल के आसमां पर छाए
यादों के घने काले बादल
अब छट चुके हैं।
ये दिल एक पेड़ है पतझड़ का।
इसपर लगे यादों के हरे पत्ते
पीले पड़ चुके हैं,
उड़ चुके हैं…
धंस चुके हैं जमीन में।
और ढांक लिया है इन्हे धूल मिट्टी ने…
हाँ, मैं भूल चुकी हूँ तुम्हें।
लेकिन…
अगले ही पल …
आसमान घिर जाता है,
काले बादलों से।
घुमड़ घुमड़ के आते हैं बादल
जैसे तुम्हारी यादें!
आँखें बंद करते ही बन जाती है,
तस्वीर तुम्हारी बोलती-सी…
यादों की किताब का एक-एक पन्ना
फड़फड़ाने लगता है।
खुलने लगता है…
मैं जी लेती हूँ
वो सारे पल फिर से,
जो जिये थे साथ तुम्हारे…
या वह पल जो जीना चाहती थी।
कानों में गूँजने लगती हैं,
वो सारी बातें जो तुमने कही थीं।
या वह जो सुनना चाहती थी तुमसे…
यादों और सपनों का एक तूफां उठता है,
अचानक आँखें खुलती हैं…
और बरस जातें हैं सारे बादल
उन आँखों से मूसलाधार।
मैं दोनों हाथों से
बंद कर लेती हूँअपने कान,
कि सुन न सकूँ
तुम्हारी गूँजती हुई हँसी…
लेकिन न आँखों में न कानों में
तुम तो बस चुके हो दिलोदिमाग में
मौसम बदलेंगे दिन बीतेंगे
लेकिन हमारी बातों मुलाकातों के
फसाने यूँ ही बरसते रहेंगे
हर सावन की बरसात में…
बरकत
वो शौक नही, ज़रूरत नही,
आदत हुआ करते थे…
घर-आंगन की बरकत हुआ करते थे…
आँगन के बीचोंबीच
पावन तुलसी वृंदावन
जैसे दादी का स्नेह, माँ की ममता
बुआ-चाची का दुलार,
पड़ौस वाली ताईजी का अपनापन…
रसोई से लगी वह नाजुक सुकोमल
मेथी-धनिया-पुदीने की क्यारियाँ
जैसे गूंज उठती हों
घर में नवजात की किलकारियाँ…
अहाते में गेंदा-मोगरा-गुलाब
सेवंती-कन्हेर मुस्काते से
जैसे घर के नन्हे-मुन्ने
खेलते-कूदते-उछलते-गाते से…
वो बेला चमेली-रातरानी की कलियाँ
सीढियों से लिपटी, मुंडेर को छूती
खुशबू बिखेरती महकती सी…
जैसे घर की सुंदर-सलोनी बेटियाँ
खिलखिलाकर हँसती चहकती-सी…
शान से तने खड़े फलों से लदे हुए,
अमरूद-जामुन-सीताफल-आम
जैसे घर के भाई-बेटे कांधो पर लिये
घर की सारी जिम्मेदारी… सारा इंतजाम…
पीपल-नीम-बरगद
तपती गर्मी में शीतल छाया देते
आँगन में मजबूती से पैर जमाए
भीतर तर जड़ें गड़ाए
जैसे बुजुर्गों का आशीष,
तजुर्बा और बलाएँ-दुआएँ…
वो सुख-दुःख की संगत, त्यौहारों की रंगत
खुदा की इबादत हुआ करते थे…
वो शौक नही, ज़रूरत नही…
आदत हुआ करते थे…
सक्षम
काँटों भरी थी हर डगर
कठिनाइयाँ थी मार्ग पर
हारी नहीं थी मैं मगर
है तय किया हँसकर सफर
आगे को बस बढती हूँ मैं
अक्षम नहीं सक्षम हूँ मैं!
पैरों में थी मेरे बेडियाँ
ऊँचा शिखर और सीढियाँ
आशा के पर से उड चली
आखिर मुझे मंजिल मिली
आकाश में उडती हूँ मैं…
अक्षम नहीं सक्षम हूँ मैं!
माना मेरी धरती अलग
है भिन्न कुछ मेरा फलक
धीमी मेरी रफ्तार है
मंजिल मेरी उस पार है
इक पल नहीं थकती हूँ मैं
अक्षम नहीं सक्षम हूँ मैं
परिवार ने मुझे बल दिया
कठिनाई में सम्बल दिया
ईश्वर मेरा मेरे साथ है
किस्मत मेरी मेरे हाथ है
उत्साह से परिपूर्ण मैं
अक्षम नहीं सक्षम हूँ मैं।
एक ज्ञान का सागर मिला
मुझे वाणि का है वर मिला
साहित्य की सरिता बही
मेरे मन ने भी कविता कही
ऋग्वेद की ऋचा हूँ मैं
अक्षम नहीं सक्षम हूँ मैं
अक्षम नहीं सक्षम हूँ मैं।
चंद्रयान
मैं मीलों दूर से निहारती रहती थी तुम्हें… अपलक…एकटक…!
लगता था आगे बढकर छू लूँ तुम्हें…
तुम उजले उजले-से…धवल…श्वेत!
रोशनी की चकाचौंध से घिरे हुए…
मुझे नित नया रूप दिखाते।
कभी नज़र ही न आते तुम
तो कभी अपनी संपूर्णता के साथ
मुझे आकर्षित करते
और उस दिन मैं अपनी बाहें फैलाए
तुम तक पहुँचने की निराधार चेष्टा करती…
कभी मैं खुद में ही तुम्हारा सुंदर प्रतिबिंब देखती…
लेकिन यह समझ न पाती
कि भला क्या है मुझ में ऐसी बात,
क्या ऐसा नज़र आता है तुम्हें मुझमे,
जो मेरे ही चारों ओर मंडराते रहते हो, निरंतर…अविरत…!
लेकिन आज,
जब देखा मैंने खुद को तुम्हारी नज़रों से
तब अहसास हुआ
कि मैं सच में खूबसूरत हूँ…!
बहुत खूबसूरत!
तुम हो
जिंदगी के हर
मुकाम पर
मेरे बदलते अक्स को
आईने के साथ
जिसने बदलते देखा
वो तुम हो…
बचपन की मेरे
मासूम दिनों की बातें
कुछ कडवे किस्से
कुछ मीठी यादें
मेरे साथ मेरा हर अहसास
जिसने जिया
वो तुम हो…
कभी न खत्म
होने वाली बातें
कल भी थी
और आज भी हैं
मुझसे बेहतर
मेरे दिल के हर कोने की
खबर है जिसे
वो तुम हो…
मेरी हर
अनकही बात
मेरी आँखों का
हर एक राज़
मेरी हर मुस्कान
और हर आँसूं की वजह
पूछे बिना
जो मेरे साथ है
वो तुम हो…
बरकत
वो शौक नही, ज़रूरत नही,
आदत हुआ करते थे…
घर-आंगन की बरकत हुआ करते थे…
आँगन के बीचोंबीच
पावन तुलसी वृंदावन
जैसे दादी का स्नेह, माँ की ममता
बुआ-चाची का दुलार,
पड़ौस वाली ताईजी का अपनापन…
रसोई से लगी वह नाजुक सुकोमल
मेथी-धनिया-पुदीने की क्यारियाँ
जैसे गूंज उठती हों
घर में नवजात की किलकारियाँ…
अहाते में गेंदा-मोगरा-गुलाब
सेवंती-कन्हेर मुस्काते से
जैसे घर के नन्हे-मुन्ने
खेलते-कूदते-उछलते-गाते से…
वो बेला चमेली-रातरानी की कलियाँ
सीढियों से लिपटी, मुंडेर को छूती
खुशबू बिखेरती महकती सी…
जैसे घर की सुंदर-सलोनी बेटियाँ
खिलखिलाकर हँसती चहकती-सी…
शान से तने खड़े फलों से लदे हुए,
अमरूद-जामुन-सीताफल-आम
जैसे घर के भाई-बेटे कांधो पर लिये
घर की सारी जिम्मेदारी… सारा इंतजाम…
पीपल-नीम-बरगद
तपती गर्मी में शीतल छाया देते
आँगन में मजबूती से पैर जमाए
भीतर तर जड़ें गड़ाए
जैसे बुजुर्गों का आशीष,
तजुर्बा और बलाएँ-दुआएँ…
वो सुख-दुःख की संगत, त्यौहारों की रंगत
खुदा की इबादत हुआ करते थे…
वो शौक नही, ज़रूरत नही…
आदत हुआ करते थे…
सफर
मैं चलती रही मंज़िल आँखों में लिये
मचलती रही एक हमसफ़र के लिये
हर रास्ता अब मेरा राहगुज़र हो चला है
सफ़र ही अब मेरा हमसफ़र हो चला है…
कभी उगते सूरज को सलाम कर दिया
कभी पलकों के तले चाँद ढल गया
हर ज़र्रा मेरे लिए सितारा हो चला है
सफ़र ही अब मेरा हमसफ़र हो चला है…
पतझड का सूखा दरख़्त मिल गया
कभी गर्द हरा मंज़र गुलशन खिल गया
हर रंग मेरा मनपसंद हो चला है
सफ़र ही अब मेरा हमसफ़र हो चला है…
इक गहरी ठहरी हुई झील मिल गई
इक बलखाती इठलाती नदिया मचल गई
हर आँसू मेरा दरिया हो चला है
सफ़र ही अब मेरा हमसफ़र हो चला है…
कभी बेकरार बेताब मेरे कदम थे
कभी सुस्त अलसाए से हम थे
अब इंतज़ार ही मेरा अंजाम हो चला है
सफ़र ही अब मेरा हमसफ़र हो चला है…
कोई कदम दो कदम साथ चल दिया
कोई अगले मोड़ पर अलविदा कह गया
ज़हन में यादों का काफ़िला हो चला है
सफ़र ही अब मेरा हमसफ़र हो चला है…
जीवन एक पहेली
जीवन एक पहेली
कुछ उलझी-सी कुछ सुलझी सी…
हर पल नई नवेली
कुछ रुकती-सी कुछ चलती सी…
कुछ सवाल कुछ जवाब…
कुछ चेहरे कुछ नक़ाब…
कभी खुद से ही खफा हूँ मैं,
हैं शिकायतें बेहिसाब…
कौन कब अपना है…
कौन कब पराया है?
किसके दिल में कब क्या है
ये कौन जान पाया है?
सामने ढेरों सवाल हैं…
पर जवाब कहाँ है?
कहने को मेरा कुछ भी नही
कहने को सारा जहाँ है…!
चलती जा रही हूँ…
कुछ ठहरी-सी, कुछ सहमी-सी…
जीवन एक पहेली
कुछ उलझी-सी कुछ सुलझी सी…
जादू का पिटारा
बचपन की यादें
जैसे जादू का पिटारा
सब कुछ जादुई अनोखा!
पिटारे से निकलता एक कबूतर
कुछ रंगबिरंगे खुशबूदार फूल
एक लंबा-सा रुमाल…
उस रुमाल का
दूसरा सिरा ढूँढते हुए
मैं पहुँच जाती हूँ
अपने गाँव!
जहाँ आसमां की चाँदनी
और आंगन की चाँदनी
एक हो जाया करती है…!
मेहंदी की बागड़
लीपा हुआ आँगन
मिट्टी की सोंधी खुशबू आती है!
बदल जाती है
आंगन की खटिया
नानाजी के कथालोक में
कभी विक्रम बेताल
तो कभी सिंहासन बत्तीसी
की परियाँ सामने आ जाती हैं!
जब नींद न आती और
मैं चाँद की ओर देखती
टकटकी बाँधे
एक तारा छन-से टूट जाता है
मुझे अचंभित देख
रात हौले से मुस्काती है!
तपती धूप, सूरज की गर्मी
कहर बरसाती जब
मेरे पीछे दौड़ लगाती है
मैं छिप जाती हूँ
नीम की घनी छाँह में
वह मुझे छू भी न पाती है!
उसी पेड़ के नीचे फिर
मेरी सहेलियाँ आ जाती हैं,
कंचे-पाँचे-चींये-निंबौली
टुकड़े काँच की चुड़ियों के
बेमोल से अनमोल खिलौने
घड़ियाँ बीत जातीं हैं!
एक टिन के डिब्बे में से
निकलती है मेरी सारी रसोई
छोटी-सी पतीली, कढाही
कुछ प्याले, डिब्बे, थाली
झूठ मूठ का खाना खाकर भी
नानाजी का पेट भर जाता है!
बरामदे में लगा झूला
मुझे ऊपर तक ले जाता है,
मैं आसमां छू लेती हूँ
एक अरसा बीत जाता है
झूला चलता रहता है
और समय रुक जाता है!
और फिर…
छा जाते हैं बादल
आसमान से मेह बरसता है
सात रंगों का इंद्रधनुष
मेरी यादों में बस जाता है
मैं लौट आती हूँ
एक पोटली हँसी
और डिबिया में बंद
थोडी़ मुस्कुराहट लेकर,
और…
जादू का खेल खत्म हो जाता है…!
पैमाना
आँगन में लगे
ओ चाँदनी के पेड़!
सफेद फूलों से लदे हुए
सदा एक आकर्षक मुस्कान लिये
चेतना और सौंदर्य के प्रतिमान
मुझे सदा से ही सम्मोहित करते तुम…
शीतल पवन से
एक सिहरन-सी उठती है
तुम्हारे भी तन में…
तारों भरी रात में जुगनू को
पा जाने की चाह उठती है
तुम्हारे भी मन में
चाँदनी रात में उस चाँद को
देखते रहते टकटकी बाँधे…
अपने शुभ्र धवल फूलों से
कीट पतंगों को रिझाते तुम…
भोर होते ही
सूरज के स्वागत में
बिछा देते फूलों की चादर
और अपनी टहनियों पर बैठे
पंछियों से मनुहार कर
कि छेड दे भोर का कोई राग
तल्लीन हो उस राग में
संगीत स्वर लहरियों का
आनंद लेते झूमते तुम
बसंत आते ही
नये हरे पत्तों की चादर
ओढ़ इठलाते,
आनंदित हो हर्षाते
नवसृजन को दर्शाते
और पतझड़ में अपने
पीले पत्ते झाड़ बीती बातें भुलाते
कभी सुख तो कभी दु: ख सें
पत्र नयन की कोरें भिगोते तुम
तुम भी स्थिर हो,
वर्षों से एक ही जगह अपनी
जड़ें जमाए।
लेकिन…
विचारों और भावनाओं
में चैतन्य और गहनता लिए…!
स्थिरता और अचलता
सुख-आनंद-उत्साह-चाह का
पैमाना या सीमा कतई नहीं
यह हरदम मुझे सिखाते तुम…
दिल का कमरा
रंग, रोशनी और महक से भरा
मेरे दिल का एक कमरा,
जिसमें गुज़रती थी
मेरी शामें सुहानी
जहाँ सूरज की पहली किरण
छू जाती थी मेरे गालों को…
वह बंद पड़ा था बरसों से।
डर, दर्द और घुटन का
एक ताला लगा था उस पर।
आज खोल दिया उसे मैंने
उम्मीदों की चाबियों से…
झाड दिया,
कडवी यादों की धूल को,
जो तस्वीरों पर जमी थी।
झटक दिया…
निराशा के जालों को,
जो दरों दीवारों पर लटके थे।
अंधेरे को दूर करने के लिये,
जला दिये अनगिनत दीप।
दीवार पर लगे दर्पण में
मैने निहारा खुद को फिर से!
और श्रृंगारदान में,
मखमल की एक डिबिया में
सहेज कर रखी
सुर्ख लाल शर्म को,
सजा लिया फिर अपने गालों पर…
सूरमेदानी में रखी चमक
फिर से लगा ली आँखों में…
हजार सपनों से जडी
सतरंगी चूनर ओढ ली फिर से।
खनकती हुई मेरी हँसी,
सजा ली अपने होठों पर…
तख़्त के पास रखे सितार का
छेड दिया हर एक तार!
और तभी,
झरोखे से आई एक ठंडी बयार …
वह खेल गई मेरे बालों से
मानो पूछ रही हो,
“कहाँ थी अब तक?”
मैंने खोल दी थी,
वह खिडकी तब तक…
जिसके बाहर लगे
चंपा के पेड पर बैठी मैना
मुझसे बतियाती थी।
वो आज भी वहीं है!
मुझे देख मुसकाई, चहचहाई…
पूछ बैठी, “मेरी याद नहीं आई?”
वहीं ऊपर आसमान में
मेरा साथी चाँद रहता था।
झाँक रहा था मेरे कमरे में
बोला, “आखिर लौट आई?”
“आना ही पड़ा” कह कर ली
मैने एक प्यारी-सी अंगडाई…
मेरा कमरा आज भी वैसा ही है।
और शायद…नही नहीं यक़ीनन…
वैसी ही हूँ मैं भी।
मैं और तुम
तुम शिशिर-से ठंडे
मैं वसंत-सी उत्साहित
तुम्हे चाहिए कैनवास
बर्फ-सा सफेद
जिसमें भर सको तुम
रंग मनपसंद…!
मुझे चाहिए कोयल की कूक
पक्षियों का कलरव
गुनगुनाते भँवरे
गुनने को एक नया छंद!
तुम मकर राशी के उस ओर
कोहरे की चादर में लिपटे
सूर्य ताप से दूरी बनाए
मैं मकर राशी के इस ओर
सूर्य किरणों के लिए
बाहें फैलाए…
तुम बर्फीली हवा
मैं चंचल मस्त पवन
तुम ठिठुरन तुम सिहरन…
मैं मस्ती भरी बसंती बयार
तुम देते मेरी कविता को
आकृति रंग और आकार
और मैं तुम्हारे चित्रों का स्वर
मात्रा, अक्षर और मैं ही अनुस्वार…
तुम्हारी ठंडक से ही
लेती गर्माहट मेरी कलम
मेरी भावनाएँ
मेरे शब्दों के लगा पंख
भरे उड़ान तुम्हारी तुलिका
तुम्हारी कल्पनाएँ…
तुम रंग भरे बादल
मैं शब्दों की झील
तुम हलके मैं गहरी
तुम गतिमान मैं ठहरी
अलग हैं हमारे अंदाज
रास्ते और ठिकाने अनेक हैं
पर तुम्हारे चित्र और मेरी कविताएँ
ठहर जाती है जहाँ आकर,
उजला-सा सफेद…
वह कागज तो एक है!