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अंजना बख्शी .jpg

गुलाबी रंगों वाली वो देह

मेरे भीतर
कई कमरे हैं
हर कमरे में
अलग-अलग सामान
कहीं कुछ टूटा-फूटा
तो कहीं
सब कुछ नया!
एकदम मुक्तिबोध की
कविता-जैसा

बस ख़ाली है तो
इन कमरों की
दीवारों पर
ये मटमैला रंग
और ख़ाली है
भीतर की
आवाज़ों से टकराती
मेरी आवाज़

नहीं जानती वो
प्रतिकार करना
पर चुप रहना भी
नहीं चाहती
कोई लगातार
दौड़ रहा है
भीतर
और भीतर

इन छिपी
तहों के बीच
लुप्त हो चली है
मेरी हँसी
जैसे लुप्त हो गई
नाना-नानी
और दादा-दादी
की कहानियाँ
परियों के किस्से
वो सूत कातती
बुढ़िया
जो दिख जाया करती
कभी-कभी
चंदा मामा में

मैं अभी भी
ज़िंदा हूँ
क्योंकि मैं
मरना नहीं चाहती
मुर्दों के शहर में
सड़ी-गली
परंपराओं के बीच
जहाँ हर
चीज़ बिकती हो
जैसे बिकते हैं
गीत
बिकती हैं
दलीलें
और बिका करती हैं
गुलाबी रंगों वाली
वो देह
जिसमें बंद हैं
कई कमरे

और हर
कमरे की
चाबी
टूटती बिखरती
जर्जर मनुष्यता-सी
कहीं खो गई!

कविता

कविता मुझे लिखती है
या, मैं कविता को
समझ नहीं पाती
जब भी उमड़ती है
भीतर की सुगबुगाहट
कविता गढ़ती है शब्द
और शब्द गन्धाते हैं कविता
जैसे चौपाल से संसद तक
गढ़ी जाती हैं ज़ुल्म की
अनगिनत कहानियाँ,
वैसे ही,
मुट्ठी भर शब्दों से
गढ़ दी जाती है
काग़ज़ों पर अनगिनत
कविताएँ और कविताओं में
अनगिनत नक़्श, नुकीले,
चपटे और घुमावदार
जो नहीं होते सीधे
सपाट व सहज वर्णमाला
की तरह !!

यादें 

यादें बेहद ख़तरनाक होती हैं
अमीना अक्सर कहा करती थी
आप नहीं जानती आपा
उन लम्हों को, जो अब अम्मी
के लिए यादें हैं…
ईशा की नमाज़ के वक़्त
अक्सर अम्मी रोया करतीं
और माँगतीं ढेरों दुआएँ
बिछड़ गए थे जो सरहद पर,
सैंतालीस के वक़्त उनके कलेजे के
टुकड़े.
उन लम्हों को आज भी
वे जीतीं दो हज़ार दस में,
वैसे ही जैसे था मंज़र
उस वक़्त का ख़ौफनाक
भयानक, जैसा कि अब
हो चला है अम्मी का
झुर्रीदार चेहरा, एकदम
भरा सरहद की रेखाओं
जैसी आड़ी-टेढ़ी कई रेखाओं
से, बोझिल, निस्तेज और
ओजहीन !

क्रॉस

ओह जीसस….
तुम्हरा मनन करते या चर्च की रोशन इमारत
के क़रीब से गुज़रते ही
सबसे पहले रेटिना पर फ्रीज होता हैं
एक क्रॉस
तुम सलीबों पर चढ़ा दिए गए थे
या उठा लिए गए थे सत्य के नाम पर
कीलें ठोक दीं गई थीं
इन सलीबो में

लेकिन सारी कराहों और दर्द को पी गए थे तुम
में अक्सर गुजरती हूँ विचारों के इस क्रॉस से
तब भी जब-जब अम्मी की उँगलियाँ
बुन रही होती हैं एक शाल ,
बिना झोल के लगातार सिलाई दर सिलाई
फंदे चढ़ते और उतरते जाते
एक दूसरे को क्रास करते हुए…

ओह जीसस …..
यहाँ भी क्रॉस ,
माँ के बुनते हाथों या शाल की सिलाइयो के
बीच और वह भी ,
जहाँ माँ की शून्यहीन गहरी आखें
अतीत के मजहबी दंगों में उलझ जाती हैं
वहाँ देखतीं हैं ८४ के दंगों का सन्नाटा और क्रॉस

ओह जीसस….
कब तुम होंगे इस सलीब से मुक्त
या कब मुक्त होउँगी इस सलीब से में !!

तस्लीमा के नाम एक कविता

टूटते हुए अक्सर तुम्हें पा लेने का एहसास
कभी-कभी ख़ुद से लड़ते हुए
अक्सर तुम्हें खो देने का एहसास
या रिसते हुये ज़ख़्मों में
अक्सर तुम्हे खोजने का एहसास
तुम मुझ में अक्सर जीवित हो जाती हो तस्लीमा
बचपन से तुम भी देखती रही मेरी तरह,
अपनी ही काँटेदार सलीबो पर चढ़ने का दुख
बचपन से अपने ही बेहद क़रीबी लोगो के
बीच तुम गुज़रती रही अनाम संघर्ष–यात्राओं से
बचपन से अब तक की उड़ानों में,
ज़ख़्मों और अनगिनत काँटों से सना
खींचती रही तुम
अपना शरीर या अपनी आत्मा को

शरीर की गंद से लज्जा की सड़कों तक
कई बार मेरी तरह प्रताड़ित होती रही
तुम भी वक़्त के हाथों, लेकिन अपनी पीड़ा ,
अपनी इस यात्रा से हो बोर
नए रूप में जन्म लेती रही तुम
मेरे ज़ख़्म मेरी तरह एस्ट्राग नही
ना ही क़द में छोटे हैं, अब सुंदर लगने लगे हैं
मुझे तुम्हरी तरह !

रिसते-रिसते इन ज़ख़्मों से आकाश तक जाने
वाली एक सीढ़ी बुनी हैं मैंने
तुम्हारे ही विचारों की उड़ान से
और यह देखो तस्लीमा
मैं यह उड़ी
दूर… चली
अपने सुंदर ज़ख़्मों के साथ

कही दूर क्षितिज में
अपने होने की जिज्ञासा को नाम देने
या अपने सम्पूर्ण अस्तित्व की पहचान के लिए

तसलीमा,
उड़ना नही भूली मैं….
अभी उड़ रही हूँ मैं…
अपने कटे पाँवों और
रिसते ज़ख़्मों के साथ

अम्मा का सूप

अक्सर याद आता है
अम्मा का सूप
फटकती रहती घर के
आँगन में बैठी
कभी जौ, कभी धान
बीनती ना जाने
क्या-क्या उन गोल-गोल
राई के दानों के भीतर से
लगातार लुढ़कते जाते वे
अपने बीच के अंतराल को कम करते
अम्मा तन्मय रहती
उन्हें फटकने और बीनने में।

भीतर की आवाज़ों को
अम्मा अक्सर
अनसुना ही किया करती
चाय के कप पड़े-पड़े
ठंडे हो जाते
पर अम्मा का भारी-भरकम शरीर
भट्टी की आँच-सा तपता रहता
जाड़े में भी नहीं थकती
अम्मा निरंतर अपना काम करते-करते।

कभी बुदबुदाती
तो कभी ज़ोर-ज़ोर से
कल्लू को पुकारती
गाय भी रंभाना
शुरू कर देती अम्मा की
पुकार सुनकर।

अब अम्मा नहीं रही
रह गई है शेष
उनकी स्मृतियाँ और
अम्मा का वो आँगन
जहाँ अब न गायों का
रंभाना सुनाई देता है
ना ही अम्मा की वो
ठस्सेदार आवाज़।

औरतें 

औरतें –
मनाती हैं उत्सव
दीवाली, होली और छठ का
करती हैं घर भर में रोशनी
और बिखेर देती हैं कई रंगों में रंगी
खुशियों की मुस्कान
फिर, सूर्य देव से करती हैं
कामना पुत्र की लम्बी आयु के लिए।
औरतें –
मुस्कराती हैं
सास के ताने सुनकर
पति की डाँट खाकर
और पड़ोसियों के उलाहनों में भी।

औरतें –
अपनी गोल-गोल
आँखों में छिपा लेती हैं
दर्द के आँसू
हृदय में तारों-सी वेदना
और जिस्म पर पड़े
निशानों की लकीरें।

औरतें –
बना लेती हैं
अपने को गाय-सा
बँध जाने को किसी खूँटे से।

औरतें –
मनाती है उत्सव
मुर्हरम का हर रोज़
खाकर कोड़े
जीवन में अपने।

औरतें –
मनाती हैं उत्सव
रखकर करवाचौथ का व्रत
पति की लम्बी उम्र के लिए
और छटपटाती हैं रात भर
अपनी ही मुक्ति के लिए।

औरतें –
मनाती हैं उत्सव
बेटों के परदेस से
लौट आने पर
और खुद भेज दी जाती हैं
वृद्धाश्रम के किसी कोने में।

मैं

मैं क़ैद हूँ
औरत की परिभाषा में

मैं क़ैद हूँ
अपने ही बनाए रिश्तों और
संबंधों के मकड़जाल में।

मैं क़ैद हूँ
कोख की बंद क्यारी में।

मैं क़ैद हूँ
माँ के अपनत्व में।

मैं क़ैद हूँ
पति के निजत्व में

और
मैं क़ैद हूँ
अपने ही स्वामित्व में।

मैं क़ैद हूँ
अपने ही में।

इन्तज़ार

पौ फटते ही
उठ जाती हैं स्त्रियाँ
बुहारती हैं झाड़ू
और फिर पानी के
बर्तनों की खनकती
हैं आवाज़ें

पायल की झंकार और
चूड़ियों की खनक से
गूँज जाता है गली-मुहल्ले
का नुक्कड़
जहाँ करती हैं स्त्रियाँ
इंतज़ार कतारबद्ध हो
पाने के आने का।

होती हैं चिंता पति के
ऑफिस जाने की और
बच्चों के लंच बाक्स
तैयार करने की,

देखते ही देखते
हो जाती है दोपहर
अब स्त्री को इंतज़ार
होता है बच्चों के
स्कूल से लौटने का

और फिर धीरे-धीरे
ढल जाती है शाम भी
उसके माथे की बिंदी
अब चमकने लगती है
पति के इंतज़ार में

और फिर होता
उसे पौ फटने का
अगला इंतज़ार!!

मुनिया

‘मुनिया धीरे बोलो
इधर-उधर मत मटको
चौका-बर्तन जल्दी करो
समेटो सारा घर’

मुनिया चुप थी
समेट लेना चाहती थी वह अपने
बिखरे सपने
अपनी बिखरी बालों की लट
जिसे गूंथ मां ने कर दिया था सुव्यवस्थित
‘अब तुम रस्सी मत कूदना
शुरू होने को है तुम्हारी माहवारी
तुम बड़ी हो गई हो
”मुनिया“
सच मां
क्या मैं तुम्हारे जितनी बड़ी हो गई हूं
क्या अब मेरी भी हो जाएगी शादी

”मेरे जैसे ही मेरी भी मुनिया…?
और उसकी भी यही जिन्दगी…
नहीं मां
मैं बड़ी नहीं होना चाहती“
कहते-कहते टूट गई
मुनिया की नींद

उस वृक्ष की पत्तियां
आज उदास हैं
और उदास हैं उस पर बैठी
वह काली चिड़िया
आज मुनिया नहीं आयी खेलने
अब वह बड़ी हो गई है न
उसका ब्याह होगा
गुड्डे-गुड्डी खेल खिलौनों की दुनिया छोड़
मुनिया हो जायेगी उस वृक्ष की जड़-सी स्तब्ध
हो जायेगी उसकी जिन्दगी
उस काली चिड़िया-सी
जो फुदकना छोड़
बैठी है
उदास
उस वृक्ष की टहनी पर!

बल्ली बाई

दाल भात और पोदीने की चटनी से
भरी थाली आती हैं जब याद
तो हो उठता है ताज़ा
बल्ली बाई के घर का वो आँगन
और चूल्हे पर हमारे लिए
पकता दाल–भात !

दादा अक्सर जाली-बुना करते थे
मछली पकड़ने के लिए पूरी तन्मयता से,
रेडियों के साथ चलती रहती थी
उनकी उँगलियाँ
और झाडू बुहारकर सावित्री दी
हमारे लिए बिछा दिया करती दरी से बनी गुदड़ी और
सामने रख देती बल्ली बाई
चुरे हुए[1] भात और उबली दाल के
साथ पोदीने की चटनी

एक-एक निवाला अपने
खुरदरे हाथो से खिलाती
जिन हाथों से
वो घरों में माँजती थी बर्तन
कितना ममत्व था उन हाथों के
स्पर्श में,
नही मिलता जो अब कभी
राजधानी में !

उस रोज़,
बल्ली बाई चल बसी और
संग में उसकी वो दाल–भात की थाली
और फटे खुरदरे हाथों की महक !!

कराची से आती सदाएँ

रोती हैं मज़ारों पर
लाहौरी माताएँ
बाँट दी गई बेटियाँ
हिन्दुस्तान और पाकिस्तान
की सरहदों पर

अम्मी की निगाहें
टिकी है हिन्दुस्तान की
धरती पर,
बीजी उड़िकती है राह
लाहौर जाने की
उन्मुक्त विचरते
पक्षियों के देख-देख
सरहदें हो जाती है
बाग-बाग।

पर नहीं आता कोई
पैग़ाम काश्मीर की वादियों
से, मिलने हिन्दुस्तान की
सर-ज़मीं पर
सियासी ताक़तों और
नापाक इरादों ने कर दिया
है क़त्ल, अम्मी-अब्बा
के ख़्वाबों का, सलमा की उम्मीदों का
और मचा रही है स्यापा
लाहौरी माताएँ, बेटियों के
लुट-पिट जाने का,

मौन ग़मगीन है
तालिबानी औरतों-मर्दों के
बारूद पे ढेर हो
जाने पर।

लेकिन कराची से
आ रही है सदाएँ
डरो मत….
मत डरो….
उठा ली है
शबनम ने बंदूक !!

बिटिया बड़ी हो गई 

देख रही थी
उस रोज़ बेटी को
सजते-सँवरते
शीशे में अपनी
आकृति घंटों निहारते
नयनों में आस का
काजल लगाते,

उसके दुपट्टे को
बार-बार सरकते
और फिर अपनी उलझी
लटों को सुलझाते
हम उम्र लड़कियों के
साथ हँसते-खिलखिलाते ।

माँ से अपनी हर बात छिपाते
अकेले में ख़ुद से
सवाल करते,
फिर शरमा के,
सर को झुकाते ।

और फिर कभी स्तब्ध
मौंन हो जाते;
कभी-कभी आँखों
से आँसू बहाते
फिर दोनों हाथों से
मुँह को छिपाते ।

देखकर सोचती हूँ उसे
लगता है,
बिटिया अब बड़ी
हो गई है !!

भेलू की स्त्री

सूखी बेजान
हड्डियों में
अब दम नहीं
रहा काका ।
भेलू तो चला
गया,
और छोड़ गया
पीछे एक संसार

क्या जाते वक़्त
उसने सोचा भी
ना होगा
कैसे जीएगी मेरी
घरवाली ?
कौन बचाएगा उसे
भूखे भेड़ियों से ?
कैसे पलेगा, उसके
दर्जन भर बच्चों
का पेट ?

बोलो न काका ?
उसने तनिक भी
ना सोचा होगा
मेरी जवानी के बारे में ?
तरस भी न आया
होगा मुझ पर ?

कल्लू आया था कल
माँगने पैसे,
जो दारू के लिए,
लिये थे….भेलू ने
कहाँ से लाती पैसा ?
सब कुछ तो बेच
दिया था उसने
बस, एक मैं ही बची थी
कि चल बसा वो !!

कौन हो तुम

तंग गलियों से होकर
गुज़रता है कोई
आहिस्ता-आहिस्ता

फटा लिबास ओढ़े
कहता है कोई
आहिस्ता-आहिस्ता

पैरों में नहीं चप्पल उसके
काँटों भरी सेज पर
चलता है कोई
आहिस्ता-आहिस्ता

आँखें हो गई हैं अब
उसकी बूढ़ी
धँसी हुई आँखों से
देखता है कोई
आहिस्ता-आहिस्ता

एक रोज़ पूछा मैंने
उससे,
कौन हो तुम
‘तेरे देश का कानून’
बोला आहिस्ता-आहिस्ता !!

क्यों ?

बच्चों की,
चीख़ों से भरा
निठारी का नाला
चीख़ता है ख़ामोश चीख़

सड़ रहे थे जिसमें
मांस के लोथड़े
गल रही थी जिसमें
हड्डियों की कतारें
और दफ़्न थी जिसमें
मासूमों की ख़ामोश चीख़ें
कर दिया गया था
जिन्हें कई टुकड़ों में
बनाने अपनी हवस का
शिकार,

क्यों है वो भेड़िया
अब भी जिंदा?
कर देनी चाहिए
ज़िस्म की उसके
बोटी-बोटी,
बनने गिद्ध और चीलों
का भोजन !!

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