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फ़सलें 

दाने तो इच्छा के बोए थे
ज़हरीली फ़सलें क्यों उग आईं

पढ़े-लिखे लोगों ने सोचा था
ख़ुशहाली इस रस्ते आएगी
नई रोशनी में यह साफ़ दिखा
सब कुछ मशीने खा जाएँगी

जब कोई भी नहीं बचेगा तो
विस्फोटक नीति क्यों बनाई ।

देश बेचकर खाने वाले
नेता बनकर आगे आए
नौटंकीबाज़ कुछ मदारी
सेवा का ईनाम पाए

पेशेवर भुक्खड़ जननायक है
सत्ता की रबड़ी मलाई ।

भोगवाद की अंधी खाई
सुख और सुविधा के दल-दल
लाइलाज कई महामारी
बरसे फिर प्रगतिशील बादल

मन की गुलामी में जकड़ी है
कैसे विज्ञान की रूलाई ।

उदासी

  मन ऐसी कौन उदासी रे
सपने ही तो टूटे हैं ना
यह तो बात ज़रा-सी रे ।

तू ही एक नहीं दुखिया
तू ही ना एक अकेला है
काहे फिर इतना अधीर है
सबने ही दुख झेला है
सारी दुनिया प्यासी रे
मन ऐसी कौन उदासी रे ।

कोई छोड़ गया जाने दो
ख़ुद से प्रीत लगाले रे
भीतर-बाहर बड़ा अंधेरा
मन का दीप जला ले रे
सब ही तो यहाँ प्रवासी रे
मन ऐसी कौन उदासी रे ।

जग माया है, माया ने तो
सब को ही भरमाया है
ठेस लगी पर तू बड़भागी
सार समझ तो पाया है
यह माया है किसकी दासी रे
मन ऐसी कौन उदासी रे ।

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