कुछ कम नहीं है शम्मा से दिल की
कुछ कम नहीं है शम्मा से दिल की लगन में हम
फ़ानूस में वो जलती है याँ पैरहन में हम
हैं तुफ़्ता-जाँ मुफ़ारक़त-ए-गुल-बदन में हम
ऐसा न हो के आग लगा दें चमन में हम
गुम होंगे बू-ए-ज़ुल्फ़-ए-शिकन-दर-शिकन में हम
क़ब्ज़ा करेंगे चीन को ले कर ख़तन में हम
गर ये ही छेड़ दस्त-ए-जुनूँ की रही तो बस
मर कर भी सीना चाक करेंगे कफ़न में हम
महव-ए-ख़याल-ए-ज़ुल्फ़-ए-बुताँ उम्र भर रहे
मशहूर क्यूँ न हों कहो दीवाना-पन में हम
होंगे अज़ीज़ ख़ल्क़ की नज़रों में देखना
गिर कर भी अपने यार के चाह-ए-ज़क़न में हम
छक्के ही छूट जाएँगे ग़ैरों के देखना
आ निकले हाँ कभी जो तेरी अंजुमन में हम
ऐ अंदलीब दावा-ए-बे-हूदा पर कहीं
एक आध गुल का मुँह न मसल दें चमन में हम
आशिक़ हुए हैं पर्दा-नशीं पर बस इस लिए
रखते हैं सोज़-ए-इश्क़ निहाँ जाँ ओ तन में हम
ज़ालिम की सच मसल है के रस्सी दराज़ है
मिसदाक़ उस का पाते हैं चर्ख़-ए-कोहन में हम
उन्क़ा का ‘ऐश’ नाम तो है गो निशाँ नहीं
याँ वो भी खो चुके हैं तलाश-ए-दहन में हम
क्या हुए आशिक़ उस शकर-लब के
क्या हुए आशिक़ उस शकर-लब के
ताने सहने पड़े हमें सब के
भूलना मत बुतों की यारी पर
हैं ये बद-केश अपने मतलब के
क़ैस ओ फ़रहाद चल बसे अफ़सोस
थे वो कम-बख़्त अपने मशरब के
शैख़ियाँ शैख़ जी की देंगे दिखा
मिल गए वो अगर कहीं अब के
याद रखना कभी न बचिएगा
मिल गए आप वक़्त गर शब के
उस में ख़ुश होवें आप या ना-ख़ुश
यार तो हैं सुना उसी ढब के
यार बिन ‘ऐश’ मय-कशी तौबा
है ये अपने ख़िलाफ़ मज़हब के