वो कहाँ चश्मे-तर में रहते हैं
वो कहाँ चश्मे-तर में रहते हैं
ख़्वाब ख़ुशबू के घर में रहते हैं
शहर का हाल जा के उनसे पूछ
हम तो अक्सर सफ़र में रहते हैं
मौसमों के मकान सूने हैं
लोग दीवारो-दर में रहते हैं
अक्स हैं उनके आस्मानों पर
चाँद तारे तो घर में रहते हैं
हमने देखा है दोस्तों को ‘निज़ाम’
दुश्मनों के असर में रहते हैं
तुम्हें देखे ज़माने हो गए हैं
भरी है धूप ही धूप
आँखों में
लगता है
सब कुछ उजला उजला
तुम्हें देखे ज़माने हो गए हैं
जाड़े की दोपहर
बैठे बैठे ही सो गयी है
आराम कुर्सी
सर्दियों की ज़र्द धूप में
खुली पड़ी है
किताब
जिस के औराक़
उलट पलट रही है
हवा
अलगनी पर अलसा रहे हैं कपड़े
पिछली सर्दियों के
कपूर की खुशबू में लिपटे
आँखों में रात ख्वाब का खंज़र उतर गया
आँखों में रात ख्वाब का खंज़र उतर गया
यानी सहर से पहले चिराग़े-सहर गया
इस फ़िक्र में ही अपनी तो गुजरी तमाम उम्र
मैं उसकी था पसंद तो क्यों छोड़ के गया
आँसू मिरे तो मेरे ही दामन में आए थे
आकाश कैसे इतने सितारों से भर गया
कोई दुआ हमारी कभी तो कुबूल कर
वर्ना कहेंगे लोग दुआ से असर गया
पिछले बरस हवेली हमारी खँडर हुई
बरसा जो अबके अब्र तो समझो खँडर गया
मैं पूछता हूँ तुझको ज़रूरत थी क्या ‘निजाम’
तू क्यूँ चिराग़ ले के अँधेरे के घर गया.
छत लिखते हैं दर दरवाज़े लिखते हैं
छत लिखते हैं दर दरवाज़े लिखते हैं
हम भी किस्से कैसे-कैसे लिखते हैं
पेशानी पर, बैठे सजदे लिखते हैं
सारे रस्ते तेरे घर के लिखते हैं
जब से तुमको देखा हमने ख़्वाबों में
अक्षर तुमसे मिलते-जुलते लिखते हैं
कोई इनको समझे तो कैसे समझे
हम लफ्जों में तेरे लहजे लिखते हैं
छोटी-सी ख्वाहिश है पूरी कब होगी
वैसे लिक्खें जैसे बच्चे लिखते हैं
फुर्सत किसको है जों परखे इनको भी
मानी हम ज़ख़्मों से गहरे लिखते हैं
फिर आश्ना अजनबी सा कोई
फिर आशना अजनबी-सा कोई उदास लम्हा ठहर गया क्या
जो उसके हाथों से छूटा तिनका वो पानी सर से गुज़र गया क्या
अगर हवा का उदास झोंका गली में बैठा हो तो ये पूछो
बहुत दिनों से नज़र न आया किस हाल में है उधर गया क्या
हमें जो पीता था जुरआ-जुरआ जिसे कि साँसों से हमने सींचा
था जिसका साया घना-घना सा वो पेड़ अब के बिखर गया क्या
न शब को कोई सँवारता है न दिन को कोई उजालता है
वो आखिरी शहरे-आरज़ू भी समुन्दरों में उतर गया क्या
बुझे दियों को जलाने वाला मरे हुओं को जिलाने वाला
कहीं से कोई सदा नहीं क्यूँ वो अपने साए से डर गया क्या
सियाही ओढ़े खड़ी है अब के कगार पर क्यूँ फ़सीले-शब के
उदास आँखों से देखती है वो ज़ख्म यादों से भर गया क्या
मैं औराक़े-हैरानी में
मैं औराक़े-हैरानी में
इक साया गँदले पानी में
मुश्किल आई आसानी में
हैं सारे मंज़र पानी में
ढूँढ़ें फिर होने का मतलब
अब आयाते-इम्कानी में
सुबहे-अज़ल से मैं बैठा हूँ
इक बेनाम परेशानी में
देखो कितनी आबादी है
मेरी ख़ानावीरानी में
कौन बताए क्या कैसा है
है सब कुछ बहते पानी में
पानी में पानी होता है
प्यास नहीं होती पानी में
मैं उस के दिल में रहता था
अब तो हूँ बस पेशानी में
मौजे-हवा तो अबके अजब काम कर गई
मौजे-हवा तो अबके अजब काम कर गई
उड़ते हुए परिंदों के पर भी कतर गई
निकले कभी न घर से मगर इसके बावजूद
अपनी तमाम उम्र सफर में निकल गई
आँखें कहीं, दिमाग कहीं, दस्तो-पा कहीं
रस्तों की भीड़-भाड़ में दुनिया बिखर गई
कुछ लोग धूप पीते हैं साहिल पे लेटकर
तूफ़ान तक अगर कभी इसकी खबर गई
देखा उन्हें तो देखने से जी नहीं भरा
और आँख है कि कितने ही ख़्वाबों से भर गई
मौजे-हवा ने चुपके से कानों में क्या कहा
कुछ तो है क्यूँ पहाड़ से नद्दी उतर गई