चिड़िया रानी, किधर चली
चिड़िया रानी
चिड़िया रानी,
किधर चली।
मुन्ने राजा
मुन्ने राजा,
कुंज-गली।
चिड़िया रानी,
चिड़िया रानी,
पर निकले।
मुन्ने राजा
मुन्ने राजा,
नीम के तले।
चिड़िया रानी
चिड़िया रानी,
टी टुट-टुट।
मुन्ने राजा
मुन्ने राजा
चाय-बिस्कुट।
चिड़िया रानी
चिड़िया रानी,
टा-टा-टा।
मुन्ने राजा
मुन्ने राजा,
सैर-सपाटा।
-साभार: साप्ताहिक हिन्दुस्तान, 9 जून, 1974
हुआ सवेरा
हुआ सवेरा, गया अँधेरा,
सूरज रहा निकल
हाँ भई फक्कड़, लाल बुझक्कड़,
तू भी ढंग बदल ।
बुरे काम तज, राम राम भज,
मत रट मरा-मरा
अपने-अपने, देख न सपने,
मन रख हरा-भरा ।
अगर-मगर में, उलझ डगर में,
क्यों तू अड़ा-खड़ा
मस्त उछलता, रह तू चलता,
नाम कमा तगड़ा ।
है बेमानी, सनक पुरानी,
उसको दूर भगा
नई कहानी, सुना जबानी,
पिछले गीत न गा ।
छटंकी
छटंकी बगिया में जो गई
अचानक फूलों में खो गई !
फूल जैसा है उसका रंग
फूल जैसे हैं उसके गाल
फूल जैसा है उसका रूप
फूल-सी हुई छटंकी लाल
छटंकी बगिया में जो गई
फूल अपने जैसे बो गई !
फूल-सी नीली-नीली आँख
फूल जैसा चेहरा सुकुमार
फूल-सी खिली, ताज़गी-भरी
छटंकी पर आता है प्यार
छटंकी बगिया में जो गई
फूल पर, फूल बनी, सो गई !
फूल है या कि छटंकी खड़ी
छटंकी है या कोई फूल
पता कुछ भी तो चलता नहीं
हो रही है यह कैसी भूल
छटंकी बगिया में जो गई
फूल से मिली, फूल हो गई !
डुबक-डुबक, लहरों की रानी
डुबक-डुबक, लहरों की रानी !
बोल री मछली, कित्ता पानी !
गहरे-गहरे सात समन्दर,
सौ-सौ गड्ढे जिनके अन्दर,
जिनका ओर न छोर देखकर,
घबरा गए राम के बन्दर !
समझ गए तुम कितना पानी?
इत्ता पानी! इत्ता पानी !!
डंडा-डोली पालकी
डंडा डोली पालकी
जय कन्हैया लाल की!
आगे-बागे टूल के,
झांझ-मंजीरे कूल के
शंख समंदर-कूल के
ढपली धुर बंगाल की!
जय कन्हैया लाल की
कमर करधनी कांस की
वंशी सूखे बांस की
जिसमें जगह न सांस की,
झांकी बड़े कमाल की
जय कन्हैयालाल की
माखन-मिस्री घोलकर
मन-भर पक्का तोलकर
खाते हैं दिल खोलकर
रबड़ी पूरे थाल की
जय कन्हैयालाल की
तोतली बुढ़िया
एक तोतली बुढ़िया माई
घुमा रही थी तकली
उसके बड़े पोपले मुंह में
दांत लगे थे नकली
‘तोता’ जब कहना होता था
कह जाती थी ‘टोटा’
‘गोता’ का ‘गोटा’ हो जाता
‘सोता’ बनता ‘टोटा’
भोली-भाली शक्ल बनाकर
पहुँचे टुनमुन भाई
काट रही थी जहां बैठकर-
तकली बुढ़िया माई
इम्तिहान से छुट्टी पाई
बौड़मजी ने इम्तिहान में,
खूब अक्ल का जोर लगाया।
अगली-बगली रहे झाँकते,
फिर भी एक सवाल न आया।।
गिनते रहे हॉल की कड़ियाँ,
यों ही घंटे तीन बिताए।
कोरी कापी वहीं छोड़कर,
हँसी-खुशी वापस घर आए।।
आकर खूब कबड्डी खेले,
फिर यारों में गप्प लड़ाई।
मौज-मजे से दिन गुजारकर,
इम्तिहान से छुट्टी पाई।।
जाड़ा लगे
जाड़ा लगे जाड़ा लगे
जड़न पुरी,
ठंडी-ठंडी हवा लगे
बहुत बुरी।
भेड़ नानी, भेड़ नानी
दे दो कुछ ऊन,
मम्मी जी बुनेंगी मेरे-
कोट, पतलून।
मुन्ने राजा मुन्ने राजा
ऊन लोगे,
मम्मी जी से पैसे ला के-
कित्ते दोगे?
भेड़ नानी, भेड़ नानी
खूब करारे,
मम्मी जी के बटुए के
नोट सारे।
चूहे राजा भूले पाठ
चूहे राजा भूल गए फिर रटा-रटाया पाठ,
घबराकर उलटी पट्टी पर लिखा आठ को साठ।
पूसी जी ने बेंत उठाई, बोली नामाकूल,
ऐसी छेाटी बात गया तू कितनी जल्दी भूल।
डर के मारे चूहे जी का लगा काँपने गात,
जान बचाकर ऐसे भागे, छूटी कलम-दवात।
चाँद का सफर
चूहे राजा चले चाँद पर,
लेकर रॉकेट एक।
मक्खन के डब्बे, बिस्कुट के,
पैकेट लिए अनेक।
बोतल भूल गए पानी की,
हुआ बड़ा अफसोस।
चाँद वहाँ से बहुत दूर था,
धरती थी दो कोस।
रॉकेट की खिड़की से फौरन
मारी एक छलाँग।
मक्खन-बिस्कुट छोड़-छाड़कर
नीचे गिरे धड़ाम।।
नया गुड्डा, नई गुड़िया
नया गुड्डा, नई गुड़िया,
हुई शादी खुली पुड़िया।
बड़ा मूढ़ा, बड़ी मूढ़िया,
ससुर बूढ़ा, सास बुढ़िया।
नई दुल्हन, नया दूल्हा,
नई चक्की, नया चूल्हा।
चली चक्की, पिसा आटा,
जला चूल्हा, भुना आटा।
-साभार: धर्मयुग, 3 फरवरी, 1980
आटे-बाटे
आटे-बाटे दही पटाके,
सोलह-सोलह सबने डाटे।
डाट-डूटकर चले बजार,
पहुँचे सात समन्दर पार।
सात समन्दर भारी-भारी,
धूमधाम से चली सवारी।
चलते-चलते रस्ता भूली,
हँसते-हँसते सरसों फूली
फूल-फालकर गाए गीत,
बन्दर आए लंका जीत।
जीत-जात की मिली बधाई,
भर-भर पेट मिठाई खाई।
हाऊ और बिलाऊ
मिस्टर हाऊ और बिलाऊ,
थे बिल्कुल बछिया के ताऊ।
लाए एक कहीं से घोड़ा,
लगे जमाने उस पर कोड़ा।
उसे न डाला दाना-पानी,
मुफ्त सैर करने की ठानी।
भूखा घोड़ा यूँ घबराया,
ऐसा भागा हाथ न आया।
चल भई काके
उल्टे-सीधे बना न ख़ाके,
खेल जमाएँ-चल भइ काके!
एक फिरंगी, तीन तिलंगे,
पहन मुंडासे रंग बिरंगे,
बोले खुलकर हर-हर गंगे,
गूँजे नभ में हँसी, ठहाके,
खेल जमाएँ-चल भइ काके!
माल बेचकर औने पौने,
लिल्लीपुर से निकलें बौने,
पंपापुर में बाँध बिछौने,
कलकत्तते से पहुँचे ढाके,
खेल जमाएँ-चल भइ काके!
पाँच पराँठे तीन पकौड़ी,
कुलचे, छोले, बड़ी मँगौड़ी,
आलू भरवाँ, गरम कचौड़ी,
दही सौंठ के उड़े पटाके,
खेल जमाएँ-चल भइ काके!
मुटियर मुटियर, लंबे-नाटे,
सबके यदि कनकौए काटे,
धूम जमेगी हाटे-हाटे,
फिर कुछ और करेंगे खाके,
खेल जमाएँ-चल भइ काके!
अक्कड़-बक्कड़
अक्कड़-बक्कड़, लोहा-लक्कड़
उस पर बैठे फंटू-फक्कड़,
फंटू-फक्कड़, बड़े घुमक्कड़
लाल-बुझक्कड़ पूरे नंग,
फंटू-फक्कड़ उनसे तंग।
सो जा, राजदुलारी!
सो जा, मेरी बिटिया रानी,
सो जा, राजदुलारी!
सोया चंदा, सोए तारे,
नील गगन के पंछी सारे,
रंग-बिरंगी तितली सोई-
फूलों की फुलवारी।
सो जा, राजदुलारी!
नभ से उतरा उड़नखटोला
नींद-परी ने घूंघट खोला,
सपनों की शहजादी लाई-
जादू-भरी पिटारी।
सो जा, राजदुलारी!
मीठे-मीठे सपने आए,
अचक-पचक पलकों पर छाए,
मंद हवा के झोंके देते-
थपकी प्यारी-प्यारी।
सो जा, राजदुलारी!
झूले मेरा ललना
कलियों की गलियां, गंध-भरा कोना,
झूले मेरा ललना, सुंदर-सलोना!
रेशम की डोरी, चंदन का पलना,
परियों की लुक-छिप, सपनों की छलना,
चंदा-सा मुखड़ा, काला डिठौना!
झूले मेरा ललना, सुंदर-सलोना!
मलमल की गद्दी, मखमल का तकिया,
चांदी की चादर, सोने की बखिया,
अलकों में जादू, पलकों में टोना!
झूले मेरा ललना, सुंदर-सलोना!
गरीब मां की लोरी
सो जा भैया, सो जा बीर!
चाहे हंसता-हंसता सो जा,
चाहे रोता-रोता सो जा,
सो जा लेकर मेरी पीर!
सो जा भैया, सो जा बीर!
जो तू भूखा है, तो सो जा,
जाड़ा लगता है, तो सो जा,
कैसे तुझे बंधाऊं धीर!
सो जा भैया, सो जा बीर!
लाऊं तुझको दूध कहां से?
गद्दे-तकिए मिलें कहां से?
मिलता नहीं फटा भी चीर!
सो जा भैया, सो जा बीर!
भगवान, मेरा दुःख बंटाओ,
जल्दी आकर इसे सुलाओ,
पड़ी द्रौपदी की-सी भीर!
सो जा भैया, सो जा बीर!
वर्षा ऋतु
काग़ज़ की नाव चली
नगर-नगर, डगर-डगर !
सपनों की झील बनी
बरसाती पानी में
एक गीत और जुड़ा
मौसमी कहानी में
परियों के श्वेत पँख
साहस से फूल गए
आशा की डोरी पर
छन्द नए झूल गए
मस्तूलों को उभार
पाल हुए जगर-मगर !
आए कुछ व्यापारी
सुख-दुख का ले लदान
आंखों में डूब गई
मनुहारों की थकान
केवट की लाचारी
मोल-तोल भाँप गई
अनुभव की वैतरणी
सागर को माप गई
कूलों पर ठिठक रहे
अनबूझे ‘अगर’-‘मगर’ !
चल दिया दिन दुम दबाकर धूप शर्माती चली
चल दिया दिन दुम दबाकर
धूप शरमाती चली
शाम के होते न होते
रह गई सूनी गली !
जल उठा फिर दीप धुन्धला-सा
किसी की याद में
एक बत्ती कण्ठ तक डूबी
फिसलनी गाद में
सामने के मोड़ पर
पथ में घुलीं परछाइयाँ
हैं अभी उलझी
क्षणिक अस्तित्व के प्रतिवाद में
सुबह तक अवकाश ले बैठा
समय का अर्दली !
झिरझिरा घूँघट उठाकर
झाँकती नीलम-परी
दूर कोने में खड़ी
अवधूत की बारादरी
बर्फ़ पर धूनी रमाने को
अपर्णा व्यग्र है
धूसराधर क्षितिज की
मुद्रा हुई बाघम्बरी
सर्जनाओं की हुमक-सी
वर्जनाओं में पली !
चान्दनी बिस्तर बिछाकर
सो गई दरगाह में
ढूँढ़ता फिरता पथिक मंज़िल
रतौन्धी राह में
सैर को निकली हिमानी
गुदगुदी करती हवा
दूरियाँ ख़ामोश बैठी हैं
थके उत्साह में
है पड़ी चौपाल पर
दम तोड़ती-सी बुरकली !
हो गई लम्बी निशाएँ दिन बहुत छोटे हुए
हो गई लम्बी निशाएँ
दिन बहुत छोटे हुए !
छिन गया परमिट उषा का
धूप के कोटे हुए !
हैं पड़ीं ख़ामोश सिम्तें
हवा बड़बोला हुई
चाँद बर्फ़ीले कुहन-सा
चाँदनी ओला हुई
बन्द कमलों के कुहर में
गूँजती है षट्पदी
मौन उल्लाला बना
चिर-यातना रोला हुई
श्वास की इफ़रात है
विश्वास के टोटे हुए !
कनखियों से झाँकती-सी
किरण शरमाने लगी
सुबह की लाली कुहासे में
ढली जाने लगी
हाथ-पैरों की हरारत की
बढ़ीं मजबूरियाँ
पोरुओं पर हवा हिमदन्ती
ग़ज़ब ढाने लगी
त्रस्त निर्वसना कली के
भाग फिर खोटे हुए !
मूक है वाचाल पथ अब
मुखर मात्र अलर्क है
इस उलट-अनुपात में
हालात का ही फर्क है
ज़िन्दगी ओढ़े पड़ी है
अलस तूल-रजाइयाँ
सुगबुगाहट की लहर
पिछले पहर का तर्क है
चल दिया धुनिया
कपासी दिन बिना ओटे हुए !
नया वर्ष आने दो
जो बीत गया है
उसे बीत जाने दो
हँसता-मुस्काता
नया वर्ष आने दो !
चल पड़ी सवारी प्राची से
दिनकर की
लो, करो आरती
सद्यजात वत्सर की
मन की वीणा को
सामगान गाने दो !
कह गई किरण कानों में
आज सवेरे—
हैं भूत- भविष्यत्
वर्तमान के चेरे
जो हुआ अस्तमित
उसे शान्ति पाने दो !
श्रम-स्रवित गंध से
शस्त करो युग-पथ को
बढ़ने दो आगे– बंधु,
समय के रथ को
इतिहासों को
परिवर्तन नए लाने दो !
आकण्ठ-मग्न होकर जो
व्यंग्य-विधा में
है देख रहा लक्षणा
सहज अभिधा में
उस छन्दव्रती के
ताने भुगताने दो !
हँसता-मुस्काता
नया वर्ष आने दो !
लौट आए फगुनहट के पाहुने
रुई धुनकर
चल दिए वापस धुने
सर्दियाँ बीतीं
हुए दिन कुनकुने !
फिर हवा की
गर्म हुईं हथेलियाँ
रंग में डूबीं
प्रसँग-पहेलियाँ
पादपों की गोद में
आश्वस्त हैं
कम्र तन्वँगी
नवेली वेलियाँ
कुछ कुहासे
रह गये फिर अधबुने !
भुरभुरे-से
रेत के टीले हुए
अग्नि-पुत्र पलाश
मग़ज़ीले हुए
एक शापित यक्ष
मर्माहत हुआ
फिर वसन्ती गीत-स्वर
गीले हुए
लौट आए
फगुनहट के पाहुने !
बोल री मछली, कित्ता पानी?
(कई स्वर)
डुबक-डुबक, लहरों की रानी !
बोल री मछली, कित्ता पानी?
(एक स्वर)
गहरे-गहरे सात समन्दर,
सौ-सौ गड्ढे जिनके अन्दर,
जिनका ओर न छोर देखकर,
घबरा गए राम के बन्दर !
समझ गए तुम कित्ता पानी?
इत्ता पानी, इत्ता पानी ।।
(कई स्वर)
अभी रही कुछ बात बतानी
बोल री मछली, कित्ता पानी?
(एक स्वर)
उत्तर पानी, दक्खिन पानी,
पूरब-पच्छिम पानी-पानी,
अगली-बगली, आगे-पीछे
ऊपर-नीचे यही कहानी !
समझ गए तुम कित्ता पानी ?
इत्ता पानी, इत्ता पानी ।।
लुका-छिपी का खेल
आँख-मिचौनी, कड़ुआ तेल !
लुका-छिपी का खेलें खेल !
चलो किसी को ’टूम’ बनाएँ,
आँखें मीचें, ख़ूब छकाएँ,
फिर सब इर्द-गिर्द छिप जाएँ
दौड़ लगाएँ रेलमपेल !
लुका-छिपी का खेलें खेल !
अगर हाथ कोई आ जाए,
अगला ’टूम’ वही बन जाए,
पकड़-धकड़ का डौल लगाए,
तभी सकेगा झटका झेल !
लुका-छिपी का खेलें खेल !
कच्छू, तेरी गंगा में डुबक-डुबक !
कच्छू, तेरी गंगा में
डुबक-डुबक !
खुलकर नहाएँ,
हाथ नहीं आएँ,
लहरों में लुक-छुप,
तुझको छकाएँ।
तुझको अँगूठा दिखाएँ,
कि दूर किसी ओटक में
दुबक-दुबक !
कच्छू, तेरी गंगा में
डुबक-डुबक !
तू प्यारा कछुआ,
हम माँझी मछुआ,
पूरब की पुरवा,
पच्छिम की पछुआ।
हिल-मिलकर तुझको हँसाएँ,
कि भूल जाए तू नक़ली
सुबक-सुबक !
कच्छू, तेरी गंगा में
डुबक-डुबक !
लट्टू (भौंरा)
मेरा लट्टू घूम रहा है,
मस्ती पीकर झूम रहा है।
झूम-झूमकर गाने गाता,
मन की लहरों पर लहराता।
धुन का पक्का, बड़ा हठीला,
रंग रंगीला,छैल-छबीला।
इसने कभी न रुकना सीखा,
लगता बिल्कुल ग्लोब-सरीखा।
खड़ी कील पर नाच दिखाता,
घूम-घूमकर पेंग बढ़ाता।
चक्कर पर चक्कर खाता है,
पर, यह कभी न घबराता है।
फिरकी
फर-फर-फर-फर फिरकी थिरकी
चक्कर खाती जाती है।
अपनी धुन में मस्त हुई-सी
ख़ूब घूमती जाती है।
सुनती नहीं किसी की कुछ भी,
झूम-झूम इतराती है।
रंग-बिरंगा नाच दिखाकर,
फूली नहीं समाती है।
पल भर अगर ठहर जाए तो
धरती पर गिर जाती है।
रुकने से बेहद घबराती
चलने से हर्षाती है।
गुब्बारा
लगता कितना प्यारा-प्यारा
रंग-बिरंगा यह गुब्बारा !
कभी तैरता, डुबकी खाता,
खुली हवा में नाच दिखाता,
मन बहलाता ख़ूब हमारा,
रंग-बिरंगा यह गुब्बारा !
डोरी के बल ठुमके खाता,
लहर-लहर पर है लहराता,
जगमग करता है नभ सारा,
रंग-बिरंगा यह गुब्बारा !
अगर हाथ से छुट जाएगा,
ऊँचा-ऊँचा उठ जाएगा,
बन जाएगा एक सितारा,
रंग-बिरंगा यह गुब्बारा !
गोली-कंचे का खेल
है खेलों में खेल निराला,
गोली-कंचे वाला।
दस पैसे की तीन गोलियाँ
छह पैसे का कंचा।
टूट पड़ा गोली पर कंचा,
जैसे भरा तमंचा।
लगा ’टीच’ पर ’टीच’ उड़ाने
आफ़त का परकाला !
देखो, खेल निराला।
गोली, गोली से टकराई,
बाज़ी लगा-लगाकर।
लड़े सभी रंगीन लड़ाई,
जेबें खला-खलाकर।
कुछ जीते, कुछ रहे बराबर,
कुछ का पिटा दिवाला !
देखो, खेल निराला।
गेंद और बल्ला
गेंद रबर की पोली-पोली,
है लकड़ी का बल्ला।
गेंद उड़न-छू हो जाती है
खा बल्ले का टल्ला !
अगर ज़ोर से टल्ला मारा,
हाथ नहीं आएगी।
किसी पड़ोसी के मकान की,
छत पर चढ़ जाएगी !
छत पर कोई हुआ अगर, तो —
बहुत बुरा मानेगा।
बात तुम्हारी नहीं सुनेगा,
अपनी ही तानेगा !
अतः खेलना है तो खेलो,
खुले फ़ील्ड में डटकर।
भीड़-भरी गलियों से बचकर,
सड़क-वड़क से हटकर।
रेल चली, भई, रेल चली
छुक-छुक-छुक-छुक रेल चली,
रेल चली, भई, रेल चली !
गार्ड बने हैं मिस्टर कल्लू,
इंजन-चालक मियाँ मिटल्लू ।
पहन लँगोट और घुटन्ने,
डिब्बे बने चार छुटकन्ने।
इक्का, ताँगा, रिक्शा, मोटर,
सबको करती फ़ेल चली !
रेल चली, भई, रेल चली !
सिगनल हुआ, बजी फिर सीटी,
गाड़ी चल दी बम्बई वी० टी०।
प्लेटफ़ार्म पर दौड़ लगाते,
लेट-लतीफ़ रहे भिन्नाते।
भीड़-भड़क्का, भागा-दौड़ी,
चें-चें, चिक-चिक झेल चली !
रेल चली, भई, रेल चली !
चुन्नू, मुन्नू, लीना,मीना,
बोले — ’आने लगा पसीना !’
तभीअचानक स्टेशन आया,
सबने भारी हर्ष मनाया।
हँसती-खिलती बाल-मण्डली,
खेल निराला खेल चली !
रेल चली, भई, रेल चली !
झूला
चलो, पार्क में झूला झूलें,
लूटें मौज- बहारें।
धरती से ऊँचे उठ-उठकर,
नभ का रूप निहारें।
लोहे के खम्भों पर लटका,
झूला है बरसाती।
ज़ँजीरों पर लटकी पटरी,
है मन को ललचाती।
ठण्डी-ठण्डी हवा निरन्तर,
लगती प्यारी-प्यारी।
भीनी-भीनी गन्ध लुटाती,
हँसती-सी फुलवारी।
पेंगें अपने-आप बढ़ाकर,
छू लें आज गगन को।
तन को तो उड़ने देना है,
सम्हालना है मन को।
नसें फड़कने-सी लगती हैं,
ख़ून रवानी करता।
नई ताज़गी मिल जाती है,
श्रम भी नहीं अखरता।
गेंद-तड़ी
है कसरत दमदार बड़ी,
गेंद तड़ी, भई, गेंद तड़ी !
भागो-भागो, हाथ न आओ,
जमकर लम्बी दौड़ लगाओ,
पल-भर रुके कि गेंद पड़ी
गेंद तड़ी, भई, गेंद तड़ी !
अन्दर-बाहर आओ-जाओ,
लुका-छिपी का रंग जमाओ,
दाँव-पेच की लगे झड़ी,
गेंद तड़ी, भई, गेंद तड़ी !
खुलकर करो निशानेबाज़ी,
खेल-खेल में क्या नाराज़ी,
जुड़े टूटती हुई कड़ी,
गेंद तड़ी, भई, गेंद तड़ी !
चरखी
इधर पार्क के कोने में है —
चरखी चक्करदार।
चलो, सवारी लेंगे उसकी,
करो न सोच-विचार।
किन्तु सम्हलकर चढ़ना होगा,
है कुछ ऐसा ढंग।
लकड़ी के इस घोड़े की है,
पीठ ज़रा कुछ तंग।
साज नहीं रखता यह घोड़ा,
चलता बिना लगाम।
चढ़ना और उतरना हो, तो —
लो रकाब से काम।
निर्भय होकर मज़बूती से,
पकड़े रहना तार।
कहीं न गिर जाना ज़मीन पर,
समझे, मियाँ सवार !