गुरु-महिमा
गुरु सो ज्ञान जु लीजिये, सीस दीजये दान।
बहुतक भोंदू बहि गये, सखि जीव अभिमान॥१॥
व्याख्या: अपने सिर की भेंट देकर गुरु से ज्ञान प्राप्त करो | परन्तु यह सीख न मानकर और तन, धनादि का अभिमान धारण कर कितने ही मूर्ख संसार से बह गये, गुरुपद – पोत में न लगे।
गुरु की आज्ञा आवै, गुरु की आज्ञा जाय।
कहैं कबीर सो संत हैं, आवागमन नशाय॥२॥
व्याख्या: व्यवहार में भी साधु को गुरु की आज्ञानुसार ही आना – जाना चाहिए | सद् गुरु कहते हैं कि संत वही है जो जन्म – मरण से पार होने के लिए साधना करता है |
गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब सन्त।
वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महन्त॥३॥
व्याख्या: गुरु में और पारस – पत्थर में अन्तर है, यह सब सन्त जानते हैं। पारस तो लोहे को सोना ही बनाता है, परन्तु गुरु शिष्य को अपने समान महान बना लेता है।
कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय।
जनम – जनम का मोरचा, पल में डारे धोया॥४॥
व्याख्या: कुबुद्धि रूपी कीचड़ से शिष्य भरा है, उसे धोने के लिए गुरु का ज्ञान जल है। जन्म – जन्मान्तरो की बुराई गुरुदेव क्षण ही में नष्ट कर देते हैं।
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि – गढ़ि काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट॥५॥
व्याख्या: गुरु कुम्हार है और शिष्य घड़ा है, भीतर से हाथ का सहार देकर, बाहर से चोट मार – मारकर और गढ़ – गढ़ कर शिष्य की बुराई को निकलते हैं।
गुरु समान दाता नहीं, याचक शीष समान।
तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दीन्ही दान॥६॥
व्याख्या: गुरु के समान कोई दाता नहीं, और शिष्य के सदृश याचक नहीं। त्रिलोक की सम्पत्ति से भी बढकर ज्ञान – दान गुरु ने दे दिया।
जो गुरु बसै बनारसी, शीष समुन्दर तीर।
एक पलक बिखरे नहीं, जो गुण होय शारीर॥७॥
व्याख्या: यदि गुरु वाराणसी में निवास करे और शिष्य समुद्र के निकट हो, परन्तु शिष्ये के शारीर में गुरु का गुण होगा, जो गुरु लो एक क्षड भी नहीं भूलेगा।
गुरु को सिर राखिये, चलिये आज्ञा माहिं।
कहैं कबीर ता दास को, तीन लोकों भय नाहिं॥८॥
व्याख्या: गुरु को अपना सिर मुकुट मानकर, उसकी आज्ञा मैं चलो | कबीर साहिब कहते हैं, ऐसे शिष्य – सेवक को तनों लोकों से भय नहीं है |
गुरु सो प्रीतिनिवाहिये, जेहि तत निबहै संत।
प्रेम बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरु कंत॥९॥
व्याख्या: जैसे बने वैसे गुरु – सन्तो को प्रेम का निर्वाह करो। निकट होते हुआ भी प्रेम बिना वो दूर हैं, और यदि प्रेम है, तो गुरु – स्वामी पास ही हैं।
गुरु मूरति गति चन्द्रमा, सेवक नैन चकोर।
आठ पहर निरखत रहे, गुरु मूरति की ओर॥१०॥
व्याख्या: गुरु की मूरति चन्द्रमा के समान है और सेवक के नेत्र चकोर के तुल्य हैं। अतः आठो पहर गुरु – मूरति की ओर ही देखते रहो।
गुरु मूरति आगे खड़ी, दुतिया भेद कुछ नाहिं।
उन्हीं कूं परनाम करि, सकल तिमिर मिटि जाहिं॥११॥
व्याख्या: गुरु की मूर्ति आगे खड़ी है, उसमें दूसरा भेद कुछ मत मानो। उन्हीं की सेवा बंदगी करो, फिर सब अंधकार मिट जायेगा।
ज्ञान समागम प्रेम सुख, दया भक्ति विश्वास।
गुरु सेवा ते पाइए, सद् गुरु चरण निवास॥१२॥
व्याख्या: ज्ञान, सन्त – समागम, सबके प्रति प्रेम, निर्वासनिक सुख, दया, भक्ति सत्य – स्वरुप और सद् गुरु की शरण में निवास – ये सब गुरु की सेवा से निलते हैं।
सब धरती कागज करूँ, लिखनी सब बनराय।
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय॥१३॥
व्याख्या: सब पृथ्वी को कागज, सब जंगल को कलम, सातों समुद्रों को स्याही बनाकर लिखने पर भी गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते।
पंडित यदि पढि गुनि मुये, गुरु बिना मिलै न ज्ञान।
ज्ञान बिना नहिं मुक्ति है, सत्त शब्द परमान॥१४॥
व्याख्या: बड़े – बड़े विद्व।न शास्त्रों को पढ – गुनकर ज्ञानी होने का दम भरते हैं, परन्तु गुरु के बिना उन्हें ज्ञान नही मिलता। ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिलती।
कहै कबीर तजि भरत को, नन्हा है कर पीव।
तजि अहं गुरु चरण गहु, जमसों बाचै जीव॥१५॥
व्याख्या: कबीर साहेब कहते हैं कि भ्रम को छोडो, छोटा बच्चा बनकर गुरु – वचनरूपी दूध को पियो। इस प्रकार अहंकार त्याग कर गुरु के चरणों की शरण ग्रहण करो, तभी जीव से बचेगा।
सोई सोई नाच नचाइये, जेहि निबहे गुरु प्रेम।
कहै कबीर गुरु प्रेम बिन, कितहुं कुशल नहिं क्षेम॥१६॥
व्याख्या: अपने मन – इन्द्रियों को उसी चाल में चलाओ, जिससे गुरु के प्रति प्रेम बढता जये। कबीर साहिब कहते हैं कि गुरु के प्रेम बिन, कहीं कुशलक्षेम नहीं है।
तबही गुरु प्रिय बैन कहि, शीष बढ़ी चित प्रीत।
ते कहिये गुरु सनमुखां, कबहूँ न दीजै पीठ॥१७॥
व्याख्या: शिष्य के मन में बढ़ी हुई प्रीति देखकर ही गुरु मोक्षोपदेश करते हैं। अतः गुरु के समुख रहो, कभी विमुख मत बनो।
अबुध सुबुध सुत मातु पितु, सबहिं करै प्रतिपाल।
अपनी ओर निबाहिये, सिख सुत गहि निज चाल॥१८॥
व्याख्या: मात – पिता निर्बुधि – बुद्धिमान सभी पुत्रों का प्रतिपाल करते हैं। पुत्र कि भांति ही शिष्य को गुरुदेव अपनी मर्यादा की चाल से मिभाते हैं।
करै दूरी अज्ञानता, अंजन ज्ञान सुदये।
बलिहारी वे गुरु की हँस उबारि जु लेय॥१९॥
व्याख्या: ज्ञान का अंजन लगाकर शिष्य के अज्ञान दोष को दूर कर देते हैं। उन गुरुजनों की प्रशंसा है, जो जीवो को भव से बचा लेते हैं।
साबुन बिचारा क्या करे, गाँठे वाखे मोय।
जल सो अरक्षा परस नहिं, क्यों कर ऊजल होय॥२०॥
व्याख्या: साबुन बेचारा क्या करे,जब उसे गांठ में बांध रखा है। जल से स्पर्श करता ही नहीं फिर कपडा कैसे उज्जवल हो। भाव – ज्ञान की वाणी तो कंठ कर ली, परन्तु विचार नहीं करता, तो मन कैसे शुद्ध हो।
राजा की चोरी करे, रहै रंक की ओट।
कहै कबीर क्यों उबरै, काल कठिन की चोट॥२१॥
व्याख्या: कोई राजा के घर से चोरी करके दरिद्र की शरण लेकर बचना चाहे तो कैसे बचेगा| इसी प्रकार सद् गुरु से मुख छिपाकर, और कल्पित देवी – देवतओं की शरण लेकर कल्पना की कठिन चोट से जीव कैसे बचेगा|
सतगुरु सम कोई नहीं, सात दीप नौ खण्ड।
तीन लोक न पाइये, अरु इकइस ब्रह्मणड॥२२॥
व्याख्या: सात द्वीप, नौ खण्ड, तीन लोक, इक्कीस ब्रह्मणडो में सद् गुरु के समान हितकारी आप किसी को नहीं पायेंगे |
सतगुरु तो सतभाव है, जो अस भेद बताय।
धन्य शिष धन भाग तिहि, जो ऐसी सुधि पाय॥२३॥
व्याख्या: सद् गुरु सत्ये – भाव का भेद बताने वाला है| वह शिष्य धन्य है तथा उसका भाग्य भी धन्य है जो गुरु के द्वारा अपने स्वरुप की सुधि पा गया है|
सतगुरु मिला जु जानिये, ज्ञान उजाला होय।
भ्रम का भाँडा तोड़ी करि, रहै निराला होय॥२४॥
व्याख्या: सद् गुरु मिल गये – यह बात तब जाने जानो, जब तुम्हारे हिर्दे में ज्ञान का प्रकाश हो जाये, भ्रम का भंडा फोडकर निराले स्वरूपज्ञान को प्राप्त हो जाये|
मनहिं दिया निज सब दिया, मन से संग शरीर।
अब देवे को क्या रहा, यो कथि कहहिं कबीर॥२५॥
व्याख्या: यदि अपना मन तूने गुरु को दे दिया तो जानो सब दे दिया, क्योंकि मन के साथ ही शरीर है, वह अपने आप समर्पित हो गया| अब देने को रहा ही क्या है|
जेही खोजत ब्रह्मा थके, सुर नर मुनि अरु देव।
कहैं कबीर सुन साधवा, करू सतगुरु की सेवा॥२६॥
व्याख्या: जिस मुक्ति को खोजते ब्रह्मा, सुर – नर मुनि और देवता सब थक गये| ऐ सन्तो, उसकी प्राप्ति के लिए सद् गुरु की सेवा करो|
जग में युक्ति अनूप है, साधु संग गुरु ज्ञान।
तामें निपट अनूप है, सतगुरु लगा कान॥२७॥
व्याख्या: दुखों से छूटने के लिए संसार में उपमारहित युक्ति संतों की संगत और गुरु का ज्ञान है| उसमे अत्यंत उत्तम बात यह है कि सतगुरु के वचनों पार कान दो|
डूबा औधर न तरै, मोहिं अंदेशा होय।
लोभ नदी की धार में, कहा पड़ा नर सोय॥२८॥
व्याख्या: कुधर में डूबा हुआ मनुष्य बचता नहीं| मुझे तो यह अंदेशा है कि लोभ की नदी – धारा में ऐ मनुष्यों – तुम कहां पड़े सोते हो|
केते पढी गुनि पचि मुए, योग यज्ञ तप लाय।
बिन सतगुरु पावै नहीं, कोटिन करे उपाय॥२९॥
व्याख्या: कितने लोग शास्त्रों को पढ – गुन और योग व्रत करके ज्ञानी बनने का ढोंग करते हैं, परन्तु बिना सतगुरु के ज्ञान एवं शांति नहीं मिलती, चाहे कोई करोडों उपाय करे|
सतगुरु खोजे संत, जीव काज को चाहहु।
मेटो भव के अंक, आवा गवन निवारहु॥३०॥
व्याख्या: ऐ संतों – यदि अपने जीवन का कल्याण चाहो, तो सतगुरु की खोज करो और भव के अंक अर्थात छाप, दाग या पाप मिटाकर, जन्म – मरण से रहित हो जाओ|
यह सतगुरु उपदेश है, जो माने परतीत।
करम भरम सब त्यागि के, चलै सो भव जलजीत॥३१॥
व्याख्या: यही सतगुरु का यथार्थ उपदेश है, यदि मन विश्वास करे, सतगुरु उपदेशानुसार चलने वाला करम भ्रम त्याग कर, संसार सागर से तर जाता है|
जाका गुरु है आँधरा, चेला खरा निरंध।
अन्धे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फन्द॥३२॥
व्याख्या: जिसका गुरु ही अविवेकी है उसका शिष्य स्वय महा अविवेकी होगा| अविवेकी शिष्य को अविवेकी गुरु मिल गया, फलतः दोनों कल्पना के हाथ में पड़ गये|
जनीता बुझा नहीं बुझि, लिया नहीं गौन।
अंधे को अंधा मिला, राह बतावे कौन॥३३॥
व्याख्या: विवेकी गुरु से जान – बुझ – समझकर परमार्थ – पथ पर नहीं चला| अंधे को अंधा मिल गया तो मार्ग बताये कौन|
साधु-महिमा
कबीर सोई दिन भला, जा दिन साधु मिलाय |
अंक भरे भरि भेरिये, पाप शरीर जाय ||
वो दिन बहुत अच्छा है जिस दिन सन्त मिले | सन्तो से दिल खोलकर मिलो , मन के दोष दूर होंगे |
दरशन कीजै साधु का, दिन में कइ कइ बार |
आसोजा का भेह ज्यों, बहुत करे उपकार ||
सन्तो के दरशन दिन में बार – बार करो | यहे आश्विन महीने की वृष्टि के समान बहुत उपकारी है |
दोय बखत नहिं करि सके, दिन में करू इकबार |
कबीर साधु दरश ते, उतरैं भव जल पार ||
सन्तो के दरशन दिन में दो बार ना कर सके तो एक बार ही कर ले | सन्तो के दरशन से जीव संसार – सागर से पार उतर जाता है |
दूजे दिन नहीं करि सके, तीजे दिन करू जाय |
कबीर साधु दरश ते, मोक्ष मुक्ति फन पाय ||
सन्त दर्शन दूसरे दिन ना कर सके तो तीसरे दिन करे | सन्तो के दर्शन से जीव मोक्ष व मुक्तिरुपी महान फल पता है |
बार – बार नहिं करि सकै, पाख – पाख करि लेय |
कहैं कबीर सों भक्त जन, जन्म सुफल करि लेय ||
यदि सन्तो के दर्शन साप्ताहिक न कर सके, तो पन्द्रह दिन में कर लिया करे | कबीर जी कहते है ऐसे भक्त भी अपना जन्म सफल बना सकते हैं |
मास – मास नहिं करि सकै, छठे मास अलबत |
थामें ढ़ील न कीजिये, कहैं कबीर अविगत ||
यदि सन्तो के दर्शन महीने – महीने न कर सके, तो छठे महीने में अवश्य करे | अविनाशी वोधदाता गुरु कबीर कहते हैं कि इसमें शिथिलता मत करो |
बरस – बरस नहिं करि सकैं, ताको लगे दोष |
कहैं कबीर वा जीव सों, कबहु न पावै मोष ||
यदि सन्तो के दर्शन बरस – बरस में भी न कर सके, तो उस भक्त को दोष लगता है | सन्त कबीर जी कहते हैं, ऐसा जीव इस तरह के आचरण से कभी मोक्ष नहीं पा सकता |
इन अटकाया न रुके, साधु दरश को जाय |कहैं कबीर सोई संतजन, मोक्ष मुक्ति फल पाय ||
किसी के रोडे डालने से न रुक कर, सन्त – दर्शन के लिए अवश्य जाना चहिये | सन्त कबीर जी कहते हैं, ऐसे ही सन्त भक्तजन मोक्ष फल को पा सकते हैं |
खाली साधु न बिदा करूँ, सुन लीजै सब कोय |
कहैं कबीर कछु भेंट धरूँ, जो तेरे घर होय ||
सब कोई कान लगाकर सुन लो | सन्तों लो खाली हाथ मत विदा करो | कबीर जी कहते हैं, तम्हारे घर में जो देने योग्य हो, जरूर भेट करो |
सुनिये पार जो पाइया, छाजिन भोजन आनि |
कहैं कबीर संतन को, देत न कीजै कानि ||
सुनिये ! यदि संसार – सागर से पार पाना चाहते हैं, भोजन – वस्त्र लाकर संतों को समर्पित करने में आगा – पीछा या अहंकार न करिये |
आचरण की महिमा
चाल बकुल की चलत है, बहुरि कहावै हंस |
ते मुक्ता कैसे चुगे, पड़े काल के फंस ||
जो बगुले के आचरण में चलकर, पुनः हंस कहलाते हैं वे ज्ञान – मोती कैसे चुगेगे ? वे तो कल्पना काल में पड़े हैं |
बाना पहिरे सिंह का, चलै भेड़ की चाल |
बोली बोले सियार की, कुत्ता खावै फाल ||
सिंह का वेष पहनकर, जो भेड़ की चाल चलता तथा सियार की बोली बोलता है, उसे कुत्ता जरूर फाड़ खायेगा |
जौ मानुष ग्रह धर्म युत, राखै शील विचार |
गुरुमुख बानी साधु संग, मन वच सेवा सार ||
जो ग्रहस्थ – मनुष्य गृहस्थी धर्म – युक्त रहता, शील विचार रखता, गुरुमुख वाणियों का विवेक करता, साधु का संग करता और मन, वचन, कर्म से सेवा करता है उसी को जीवन में लाभ मिलता है |
शब्द विचारे पथ चलै, ज्ञान गली दे पाँव |
क्या रमता क्या बैठता, क्या ग्रह कांदला छाँव ||
निर्णय शब्द का विचार करे, ज्ञान मार्ग में पांव रखकर सत्पथ में चले, फिर चाहे रमता रहे, चाहे बैठा रहे, चाहे आश्रम में रहे, चाहे गिरि – कन्दरा में रहे और चाहे पेड की छाया में रहे – उसका कल्याण है |
गुरु के सनमुख जो रहै, सहै कसौटी दूख |
कहैं कबीर ता दुःख पर वारों, कोटिक सूख ||
विवेक – वैराग्य – सम्पन्न सतगुरु के समुख रहकर जो उनकी कसौटी और सेवा करने तथा आज्ञा – पालन करने का कष्ट सहता है, उस कष्ट पर करोडों सुख न्योछावर हैं |
कवि तो कोटि कोटि हैं, सिर के मूड़े कोट |
मन के मूड़े देखि करि, ता संग लिजै ओट ||
करोडों – करोडों हैं कविता करने वाले, और करोडों है सिर मुड़ाकर घूमने वाले वेषधारी, परन्तु ऐ जिज्ञासु! जिसने अपने मन को मूंड लिया हो, ऐसा विवेकी सतगुरु देखकर तू उसकी शरण ले |
बोली ठोली मस्खरी, हँसी खेल हराम |
मद माया और इस्तरी, नहि सन्त के काम ||
बोली – ठोली, मस्खरी, हँसी, खेल, मद, माया एवं स्त्री संगत – ये संतों को त्यागने योग्य हैं |
भेष देख मत भूलये, बुझि लीजिये ज्ञान |
बिना कसौटी होत नहिं, कंचन की पहिचान ||
केवल उत्तम साधु वेष देखकर मत भूल जाओ, उनसे ज्ञान की बातें पूछो! बिना कसौटी के सोने की पहचान नहीं होती |
बैरागी बिरकात भला, गिरही चित्त उदार |
दोऊ चूकि खाली पड़े, ताके वार न पार ||
साधु में विरक्तता और ग्रस्थ में उदार्तापूर्वक सेवा उत्तम है | यदि दोनों अपने – अपने गुणों से चूक गये, तो वे छुछे रह जाते हैं, फिर दोनों का उद्धार नहीं होता |
घर में रहै तो भक्ति करू, नातरू करू बैराग |
बैरागी बन्धन करै, ताका बड़ा अभागा ||
साधु घर में रहे तो गुरु की भक्ति करनी चहिये, अन्येथा घर त्याग कर वेराग्ये करना चहिये | यदि विरक्त पुनः बंधनों का काम करे, तो उसका महान सुर्भाग्य है |
धारा तो दोनों भली, विरही के बैराग |
गिरही दासातन करे बैरागी अनुराग ||
धारा तो दोनों अच्छी हैं, क्या ग्रास्थी क्या वैराग्याश्रम! ग्रस्थ सन्त को गुरु की सेवकाई करनी चहिये और विरक्त को वैराग्यनिष्ट होना चहिये |
सद्आचरण की महिमा
माँगन गै सो मर रहै, मरै जु माँगन जाहिं |
तिनते पहिले वे मरे, होत करत हैं नहिं ||
जो किसी के यहाँ मांगने गया, जानो वह मर गया | उससे पहले वो मरगया जिसने होते हुए मना कर दिया |
अजहूँ तेरा सब मिटै, जो मानै गुरु सीख |
जब लग तू घर में रहैं, मति कहुँ माँगे भीख ||
आज भी तेरे सब दोष – दुःख मिट जाये, यदि तू सतगुरु की शिक्षा को सुने और माने | जब तक तू ग्रस्थ में है, कहीं भिक्षा मत माँग |
अनमाँगा तो अति भला, माँगि लिया नहीं दोष |
उदर समाता माँगि ले, निश्चै पावै मोष ||
बिना माँगे मिला हुआ सर्वोतम है, साधु को दोष नहीं है यदि पेट के लिए माँग लिया | उदर पूर्ति के लिए माँग लेने में मोक्ष साधन में निश्चय ही कोई बाधा नहीं पड़ेगी |
सहत मिले तो दूध है, माँगि मिलै सौ पानि |
कहैं कबीर वह रक्त है, जामे ऐंचातानि ||
वह दूध के समान उत्तम है, जो बिना माँगे सहज रूप से मिल जाये | मांगने से मिले वह पानी के समान मध्यम है | गुरु कबीर जी कहते हैं जिसमे ऐचातान (अडंगा डालकर मांगना और कष्टपूर्वक देना) है, वह रक्त के समान त्यागने योग्य है |
माँगन मरण समान है, तेहि दई मैं सीख |
कहैं कबीर समझाय को, मति कोई माँगै भीख ||
माँगन मरने के समान है येही गुरु कबीर सीख देते है और समझाते हुए कहते हैं की मैं तुम्हे शिक्षा देता हूँ, कोई भीख मत मांगो |
अनमांगा उत्तम कहा, मध्यम माँगि जोलेय |
कहैं कबीर निकृष्टि सो, पर घर धरना देय ||
उपयुक्त बिना माँगे मिला हुआ उत्तम कहा, माँगा लेना मध्यम कहा पराये – द्वारे पर धरना देकर हठपूर्वक माँगना तो महापाप है |
संगति की महिमा
कबीर संगत साधु की, नित प्रति कीजै जाय |
दुरमति दूर बहावासी, देशी सुमति बताय ||
गुरु कबीर जी कहते हैं कि प्रतिदिन जाकर संतों की संगत करो | इससे तुम्हारी दुबुद्धि दूर हो जायेगी और सन्त सुबुद्धि बतला देंगे |
कबीर संगत साधु की, जौ की भूसी खाय |
खीर खांड़ भोजन मिलै, साकत संग न जाय ||
सन्त कबीर जी कहते हैं, सतों की संगत मैं, जौं की भूसी खाना अच्छा है | खीर और मिष्ठान आदि का भोजन मिले, तो भी साकत के संग मैं नहीं जाना चहिये |
कबीर संगति साधु की, निष्फल कभी न होय |
ऐसी चंदन वासना, नीम न कहसी कोय ||
संतों की संगत कभी निष्फल नहीं होती | मलयगिर की सुगंधी उड़कर लगने से नीम भी चन्दन हो जाता है, फिर उसे कभी कोई नीम नहीं कहता |
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध |
कबीर संगत साधु की, कटै कोटि अपराध ||
एक पल आधा पल या आधे का भी आधा पल ही संतों की संगत करने से मन के करोडों दोष मिट जाते हैं |
कोयला भी हो ऊजला, जरि बरि हो जो सेत |
मूरख होय न अजला, ज्यों कालम का खेत ||
कोयला भी उजला हो जाता है जब अच्छी तरह से जलकर उसमे सफेदी आ जाती है | लकिन मुर्ख का सुधरना उसी प्रकार नहीं होता जैसे ऊसर खेत में बीज नहीं उगते |
ऊँचे कुल की जनमिया, करनी ऊँच न होय |
कनक कलश मद सों भरा, साधु निन्दा कोय ||
जैसे किसी का आचरण ऊँचे कुल में जन्म लेने से,ऊँचा नहीं हो जाता | इसी तरह सोने का घड़ा यदि मदिरा से भरा है, तो वह महापुरषों द्वारा निन्दित ही है |
जीवन जोवत राज मद, अविचल रहै न कोय |
जु दिन जाय सत्संग में, जीवन का फल सोय ||
जीवन, जवानी तथा राज्य का भेद से कोई भी स्थिर नहीं रहते | जिस दिन सत्संग में जाइये, उसी दिन जीवन का फल मिलता है |
साखी शब्द बहुतक सुना, मिटा न मन का मोह |
पारस तक पहुँचा नहीं, रहा लोह का लोह ||
ज्ञान से पूर्ण बहुतक साखी शब्द सुनकर भी यदि मन का अज्ञान नहीं मिटा, तो समझ लो पारस – पत्थर तक न पहुँचने से, लोहे का लोहा ही रह गया |
सज्जन सो सज्जन मिले, होवे दो दो बात |
गदहा सो गदहा मिले, खावे दो दो लात ||
सज्जन व्यक्ति किसी सज्जन व्यक्ति से मिलता है तो दो दो अच्छी बातें होती हैं | लकिन गधा गधा जो मिलते हैं, परस्पर दो दो लात खाते हैं |
कबीर विषधर बहु मिले, मणिधर मिला न कोय |
विषधर को मणिधर मिले, विष तजि अमृत होय ||
सन्त कबीर जी कहते हैं कि विषधर सर्प बहुत मिलते है, मणिधर सर्प नहीं मिलता | यदि विषधर को मणिधर मिल जाये, तो विष मिटकर अमृत हो जाता है |
सेवक की महिमा
सवेक – स्वामी एक मत, मत में मत मिली जाय |
चतुराई रीझै नहीं, रीझै मन के भाय ||
सवेक और स्वामी की पारस्परिक मत मिलकर एक सिद्धांत होना चहिये | चालाकी करने से सच्चे स्वामी नहीं प्रसन्न होते, बल्कि उनके प्रसन्न होने का कारण हार्दिक भक्ति – भाव होता है |
सतगुरु शब्द उलंघ के, जो सेवक कहुँ जाय |
जहाँ जाय तहँ काल है, कहैं कबीर समझाय ||
सन्त कबीर जी समझाते हुए कहते हैं कि अपने सतगुरु के न्यायपूर्ण वचनों का उल्लंघन कर जो सेवक अन्ये ओर जाता है, वह जहाँ जाता है वहाँ उसके लिए काल है |
आशा करै बैकुंठ की, दुरमति तीनों काल |
शुक्र कही बलि ना करीं, ताते गयो पताल ||
आशा तो स्वर्ग की करता है, लकिन तीनों काल में दुर्बुद्धि से रहित नहीं होता | बलि ने गुरु शुक्राचार्य जी की आज्ञा अनुसार नहीं किया, तो राज्य से वंचित होकर पाताल भेजा गया |
यह मन ताको दीजिये, साँचा सेवक होय |
सिर ऊपर आरा सहै, तऊ न दूजा होय ||
गुरुजनों को अपना हार्दिक उपदेश सच्चे सवेक को ही देना चहिये | सेवक ऐसा जो सिर पर आरा सहकर भी, दूसरा भाव न लाये |
शीलवन्त सुरज्ञान मत, अति उदार चित होय |
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ||
शीलवान ही देवता है, उसका विवेक का मत रहता है, उसका चित्त अत्यंत उदार होता है | बुराईयों से लज्जाशील सबसे अत्यंत निष्कपट और कोमल ह्रदय के होते हैं |
ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहू सो हेत |
सत्यवान परमारथी, आदर भाव सहेत ||
ज्ञान से पूर्ण, अभिमान से रहित, सबसे हिल मिलकर रहने वाले, सत्येनिष्ठ परमार्थ – प्रेमी एवं प्रेमरहित सबका आदर – भाव करने वाले |
गुरुमुख गुरु चितवत रहे, जैसे मणिहि भुवंग |
कहैं कबीर बिसरै नहीं, यह गुरुमुख को अंग ||
गुरुमुख सेवक व शिष्य को चहिये कि वह सतगुरु के उपदेश की ओर देखता रहे जैसे सर्प मणि की ओर देखता रहता है | गुरु कबीर जी कहते है कभी भूले नहीं येही गुरुमुख का लक्षण है |
गुरु आज्ञा लै आवहीं, गुरु आज्ञा लै जाय |
कहैं कबीर सो सन्त प्रिये, बहु विधि अमृत पाय ||
जो शिष्य गुरु की आज्ञा से आये और गुरु की आज्ञा से जाये| गुरु कबीर जी कहते हैं कि ऐसे शिष्य गुरु – सन्तो को प्रिये होते हैं और अनेक प्रकार से अमृत प्राप्त करते हैं |
सवेक सेवा में रहै, सेवक कहिये सोय |
कहैं कबीर सेवा बिना, सवेक कभी न होय ||
जो सवेक सेवा करता रहता है वही सेवक कहलाता है, गुरु कबीर कहते हैं कि सेवा किये बिना कोई सेवक नहीं हो सकता |
अनराते सुख सोवना, राते नींद न आय |
ज्यों जल छूटी माछरी, तलफत रैन बिछाय ||
जिन्हें स्वरूपस्तिथि (कल्याण)में प्रेम नहीं है, वे विषय – मोह में सुख से सोते हैं परन्तु कल्याण प्रेमी को विषय मोह में नींद नहीं लगती | उनको तो कल्याण की प्राप्ति के लिए वैसी ही छटपटाहट रहती है, जैसे जल से बिछुड़ी मछली तडपते हुए रात बिताती है |
सुख-दुःख की महिमा
सुख – दुःख सिर ऊपर सहै, कबहु न छाडै संग |
रंग न लागै और का, व्यापै सतगुरु रंग ||
सभी सुख – दुःख अपने सिर ऊपर सह ले, सतगुरु – सन्तो की संगर कभी न छोड़े | किसी ओर विषये या कुसंगति में मन न लगने दे, सतगुरु के चरणों में या उनके ज्ञान – आचरण के प्रेम में ही दुबे रहें |
कबीर गुरु कै भावते, दुरहि ते दीसन्त |
तन छीना मन अनमना, जग से रूठि फिरंत ||
गुरु कबीर कहते हैं कि सतगुरु ज्ञान के बिरही के लक्षण दूर ही से दीखते हैं | उनका शरीर कृश एवं मन व्याकुल रहता है, वे जगत में उदास होकर विचरण करते हैं |
दासातन हरदै बसै, साधुन सो अधिन |
कहैं कबीर सो दास है, प्रेम भक्ति लवलीन ||
जिसके ह्रदे में सेवा एवं प्रेम भाव बसता है और सन्तो कि अधीनता लिये रहता है | वह प्रेम – भक्ति में लवलीन पुरुष ही सच्चा दास है |
दास कहावन कठिन है, मैं दासन का दास |
अब तो ऐसा होय रहूँ, पाँव तले कि घास ||
ऐसा दास होना कठिन है कि – “मैं दासो का दास हूँ | अब तो इतना नर्म बन कर के रहूँगा, जैसे पाँव के नीचे की घास ” |
लगा रहै सतज्ञान सो सबही बन्धन तोड़ |
कहैं कबीर वा दास को, काल रहै हथजोड़ ||
जो सभी विषय – बंधनों को तोड़कर सदैव सत्य स्वरुप ज्ञान की स्तिति में लगा रहे | गुरु कबीर कहते हैं कि उस गुरु – भक्त के सामने काल भी हाथ जोड़कर सिर झुकायेगा |
भक्ति की महिमा
भक्ति बीज पलटै नहीं, जो जुग जाय अनन्त |
ऊँच नीच घर अवतरै, होय सन्त का सन्त ||
की हुई भक्ति के बीज निष्फल नहीं होते चाहे अनंतो युग बीत जाये | भक्तिमान जीव सन्त का सन्त ही रहता है चाहे वह ऊँच – नीच माने गये किसी भी वर्ण – जाती में जन्म ले |
भक्ति पदारथ तब मिलै, तब गुरु होय सहाय |
प्रेम प्रीति की भक्ति जो, पूरण भाग मिलाय ||
भक्तिरूपी अमोलक वस्तु तब मिलती है जब यथार्थ सतगुरु मिलें और उनका उपदेश प्राप्त हो | जो प्रेम – प्रीति से पूर्ण भक्ति है, वह पुरुषार्थरुपी पूर्ण भाग्योदय से मिलती है |
भक्ति जो सीढ़ी मुक्ति की, चढ़ै भक्त हरषाय |
और न कोई चढ़ि सकै, निज मन समझो आय ||
भक्ति मुक्ति की सीडी है, इसलिए भक्तजन खुशी – खुशी उसपर चदते हैं | आकर अपने मन में समझो, दूसरा कोई इस भक्ति सीडी पर नहीं चढ़ सकता | (सत्य की खोज ही भक्ति है)
भक्ति बिन नहिं निस्तरे, लाख करे जो कोय |
शब्द सनेही होय रहे, घर को पहुँचे सोय ||
कोई भक्ति को बिना मुक्ति नहीं पा सकता चाहे लाखो लाखो यत्न कर ले | जो गुरु के निर्णय वचनों का प्रेमी होता है, वही सत्संग द्वरा अपनी स्थिति को प्राप्त करता है |
भक्ति गेंद चौगान की, भावै कोइ लै लाय |
कहैं कबीर कुछ भेद नहिं, कहाँ रंक कहँ राय ||
भक्ति तो मैदान में गेंद के समान सार्वजनिक है, जिसे अच्छी लगे, ले जाये | गुरु कबीर जी कहते हैं कि, इसमें धनी – गरीब, ऊँच – नीच का भेदभाव नहीं है |
कबीर गुरु की भक्ति बिन, अधिक जीवन संसार |
धुँवा का सा धौरहरा, बिनसत लगै न बार ||
कबीर जी कहते हैं कि बिना गुरु भक्ति संसार में जीना धिक्कार है | यह माया तो धुएं के महल के समान है, इसके खतम होने में समय नहीं लगता |
जब लग नाता जाति का, तब लग भक्ति न होय |
नाता तोड़े गुरु बजै, भक्त कहावै सोय ||
जब तक जाति – भांति का अभिमान है तब तक कोई भक्ति नहीं कर सकता | सब अहंकार को त्याग कर गुरु की सेवा करने से गुरु – भक्त कहला सकता है |
भाव बिना नहिं भक्ति जग, भक्ति बिना नहीं भाव |
भक्ति भाव एक रूप हैं, दोऊ एक सुभाव ||
भाव (प्रेम) बिना भक्ति नहीं होती, भक्ति बिना भाव (प्रेम) नहीं होते | भाव और भक्ति एक ही रूप के दो नाम हैं, क्योंकि दोनों का स्वभाव एक ही है |
जाति बरन कुल खोय के, भक्ति करै चितलाय |
कहैं कबीर सतगुरु मिलै, आवागमन नशाय ||
जाति, कुल और वर्ण का अभिमान मिटाकर एवं मन लगाकर भक्ति करे | यथार्थ सतगुरु के मिलने पर आवागमन का दुःख अवश्य मिटेगा |
कामी क्रोधी लालची, इतने भक्ति न होय |
भक्ति करे कोई सुरमा, जाति बरन कुल खोय ||
कामी, क्रोधी और लालची लोगो से भक्ति नहीं हो सकती | जाति, वर्ण और कुल का मद मिटाकर, भक्ति तो कोई शूरवीर करता है |
व्यवहार की महिमा
कबीर गर्ब न कीजिये, इस जीवन की आस |
टेसू फूला दिवस दस, खंखर भया पलास ||
कबीर जी कहते हैं कि इस जवानी कि आशा में पड़कर मद न करो | दस दिनों में फूलो से पलाश लद जाता है, फिर फूल झड़ जाने पर वह उखड़ जाता है, वैसे ही जवानी को समझो |
कबीर गर्ब न कीजिये, इस जीवन कि आस |
इस दिन तेरा छत्र सिर, देगा काल उखाड़ ||
गुरु कबीर जी कहते हैं कि मद न करो चर्ममय हड्डी कि देह का | इक दिन तुम्हारे सिर के छत्र को काल उखाड़ देगा |
कबीर थोड़ा जीवना, माढ़ै बहुत मढ़ान |
सबही ऊभा पन्थसिर, राव रंक सुल्तान ||
जीना तो थोड़ा है, और ठाट – बाट बहुत रचता है| राजा रंक महाराजा — आने जाने का मार्ग सबके सिर पर है, सब बारम्बार जन्म – मरण में नाच रहे हैं |
कबीर यह संसार है, जैसा सेमल फूल |
दिन दस के व्येवहार में, झूठे रंग न भूले ||
गुरु कबीर जी कहते हैं कि इस संसार की सभी माया सेमल के फूल के भांति केवल दिखावा है | अतः झूठे रंगों को जीवन के दस दिनों के व्यवहार एवं चहल – पहल में मत भूलो |
कबीर खेत किसान का, मिरगन खाया झारि |
खेत बिचारा क्या करे, धनी करे नहिं बारि ||
गुरु कबीर जी कहते हैं कि जीव – किसान के सत्संग – भक्तिरूपी खेत को इन्द्रिय – मन एवं कामादिरुपी पशुओं ने एकदम खा लिया | खेत बेचारे का क्या दोष है, जब स्वामी – जीव रक्षा नहीं करता |
कबीर रस्सी पाँव में, कहँ सोवै सुख चैन |
साँस नगारा कुंच का, है कोइ राखै फेरी ||
अपने शासनकाल में ढोल, नगाडा, ताश, शहनाई तथा भेरी भले बजवा लो | अन्त में यहाँ से अवश्य चलना पड़ेगा, क्या कोई घुमाकर रखने वाला है |
आज काल के बीच में, जंगल होगा वास |
ऊपर ऊपर हल फिरै, ढोर चरेंगे घास ||
आज – कल के बीच में यह शहर जंगल में जला या गाड़ दिया जायेगा | फिर इसके ऊपर ऊपर हल चलेंगे और पशु घास चरेंगे |
रात गँवाई सोयेकर, दिवस गँवाये खाये |
हीरा जनम अमोल था, कौड़ी बदले जाय ||
मनुष्य ने रात गवाई सो कर और दिन गवाया खा कर, हीरे से भी अनमोल मनुष्य योनी थी परन्तु विषयरुपी कौड़ी के बदले में जा रहा है |
ऊँचा महल चुनाइया, सुबरन कली दुलाय |
वे मंदिर खाली पड़े रहै मसाना जाय ||
स्वर्णमय बेलबूटे ढल्वाकर, ऊँचा मंदिर चुनवाया | वे मंदिर भी एक दिन खाली पड़ गये, और मंदिर बनवाने वाले श्मशान में जा बसे |
कहा चुनावै भेड़िया, चूना माटी लाय |
मीच सुनेगी पापिनी, दौरी के लेगी आप ||
चूना मिट्ठी मँगवाकर कहाँ मंदिर चुनवा रहा है ? पापिनी मृत्यु सुनेगी, तो आकर धर – दबोचेगी |
काल की महिमा
कबीर टुक टुक चोंगता, पल पल गयी बिहाय |
जिन जंजाले पड़ि रहा, दियरा यमामा आय ||
ऐ जीव ! तू क्या टुकुर टुकुर देखता है ? पल पल बीताता जाता है, जीव जंजाल में ही पड़ रहा है, इतने में मौत ने आकर कूच का नगाड़ा बजा दिया |
जो उगै सो आथवै, फूले सो कुम्हिलाय |
जो चुने सो ढ़हि पड़ै, जनमें सो मरि जाय ||
उगने वाला डूबता है, खिलने वाला सूखता है | बनायी हुई वस्तु बिगड़ती है, जन्मा हुआ प्राणी मरता है |
कबीर मन्दिर आपने, नित उठि करता आल |
मरहट देखी डरपता, चौड़े दीया डाल ||
नित्ये उठकर जो आपने मन्दिर में आनंद करते थे, और श्मशान देखकर डरते थे, वे आज मैदान में उत्तर – दक्षिण करके डाल दिये गये |
कबीर गाफिल क्यों फिरै क्या सोता घनघोर |
तेरे सिराने जम खड़ा, ज्यूँ अँधियारे चोर ||
ऐ मनुष्य ! क्यों असावधानी में भटकते और मोर की घनघोर निद्रा में सोते हो ? तेरे सिराहने मृत्यु उसी प्रकार खड़ी है जैसे अँधेरी रात में चोर |
आस – पास जोधा खड़े, सबै बजावै गाल |
मंझ महल सेले चला, ऐसा परबल काल ||
आस – पास में शूरवीर खड़े सब डींगे मारते रह गये | बीच मन्दिर से पकड़कर ले चला, काल ऐसा प्रबल है |
बेटा जाये क्या हुआ, कहा बजावे थाल |
आवन जावन होय रहा, ज्यों कीड़ी का नाल ||
तेरे पुत्र का जन्म हुआ है, तो क्या बहुत अच्छा हुआ है ? और प्रसंता में तू क्या थाली बजा रहा है ? ये तो चींटियों को पंक्ति के समान जीवों का आना जाना लगा है |
बालपन भोले गया, और जुवा महमंत |
वृद्धपने आलस गयो, चला जरन्ते अन्त ||
बालपन तो भोलेपन में बीत गया, और जवानी मदमस्ती में बीत गयी | बुढ़ापा आलस्य में खो गया, अब अन्त में चिता पर जलने के लिये चला |
घाट जगाती धर्मराय, गुरुमुख ले पहिचान |
छाप बिना गुरु नाम के, साकट रहा निदान ||
घाट की चुंगी लेने वाला धर्मराज (वासना) है, वह गुरुमुख को पहचान लेता है | गुरु – ज्ञानरूपी चिन्ह बिना, अन्त के साकट लोग यम के हाथ में पड़ गये |
सब जग डरपै काल सों, ब्रह्मा विष्णु महेश |
सुर नर मुनि औ लोक सब, सात रसातल सेस ||
ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सुर, नर, मुनि और सब लोक, साल रसातल तथा शेष तक जगत के सरे लोग काल के डरते हैं |
काल फिरै सिर ऊपरै, हाथों धरी कमान |
कहैं कबीर घु ज्ञान को, छोड़ सकल अभिमान ||
हाथों में धनुष बांड लेकर काल तुम्हारे सिर ऊपर घूमता है, गुरु कबीर जी कहते है कि सम्पूर्ण अभिमान त्यागकर, स्वरुप ज्ञान ग्रहण करो |
जाय झरोखे सोवता, फूलन सेज बिछाय |
सो अब कहँ दीसै नहीं, छिन में गये बिलाय ||
ऊँची अटारी की खिड़कियों पर फूलों की शैया बिछाकर जो सोते थे वे देखते देखते विनिष्ट हो गये | अब सपने में भी नहीं दिखते |
उपदेश की महिमा
काल काल तत्काल है, बुरा न करिये कोय |
अन्बोवे लुनता नहीं, बोवे तुनता होय ||
काल का विकराल गाल तुमको तत्काल ही निगलना चाहता है, इसीलिए किसी प्रकार भी बुराई न करो | जो नहीं बोया गया है, वह काटने को नहीं मिलता, बोया ही कटा जाता है |
या दुनिया में आय के, छाड़ि दे तू ऐंठ |
लेना होय सो लेइ ले, उठी जात है पैंठ ||
इस संसार में आकर तुम सब प्रकार के अभिमान को छोड़ दो, जो खरीदना हो खरीद लो, बाजार उठा जाता है |
खाय पकाय लुटाय के, करि ले अपना काम |
चलती बिरिया रे नरा, संग न चले छदाम ||
पका – खा और लुटाकर, अपना कल्याण कर ले | ऐ मनुष्य ! संसार से कूच करते समय, तेरे साथ एक छदाम भी नहीं जायेगा |
सह ही में सत बाटई, रोटी में ते टूक |
कहै कबीर ता दास को, कबहुँ न आवै चूक ||
जो सत्तू में से सत्तू और रोटी में से टुकड़ा बाँट देता है, वह भक्त अपने धर्म से कभी नहीं चूकता |
देह खेह होय जागती, कौन कहेगा देह |
निश्चय कर उपकार ही, जीवन का फन येह ||
मरने के बाद तुमसे कौन देने को कहेगा ! अतः निश्चयपूर्वक परोपकार करो, येही जीवन का फल है |
धर्म किये धन ना घटे, नदी ना घट्टै नीर |
अपनी आँखों देखिले, यों कथि कहहिं कबीर ||
धर्म (परोपकार, दान, सेवा) करने से धन नहीं घटता, देखो नदी सदैव रहती है, परन्तु उसका जल घटता नहीं | धर्म करके स्वय देख लो |
या दुनिया दो रोज की, मत कर यासो हेत |
गुरु चरनन चित लाइये, जो पूरन सुख हेत ||
इस संसार का झमेला दो दिन का है अतः इससे मोह – संबध न जोड़ो | सतगुरु के चरणों में मन लगाओ, जो पूर्ण सुख देने वाला है |
ऐसी बानी बोलिये, मन का आपा खोय |
औरन को शीतल करै, आपौ शीतल होय ||
मन के अहंकार को मिटाकर, ऐसे और नम्र वचन बोलो, जिससे दूसरे लोग सुखी हों और खुद को भी शान्ति मिले |
कहते को कहि जान दे, गुरु की सीख तू लेय |
साकट जन औ श्वान को, फिरि जवाब न देय ||
उल्टी – पुल्टी बात बोलने वाले लो बोलते जाने दो तू गुरु की ही शिक्षा धारण कर | साकट (दुष्टों) तथा कुत्तों को उलटकर उत्तर न दो |
इष्ट मिले अरु मन मिले, मिले सकल रस रीति |
कहैं कबीर तहँ जाइये, यह सन्तन की प्रीति ||
उपस्य, उपासना – पद्धति, सम्पूर्ण रीति – रिवाज़ और मन जहाँ पर मिलें, वहीं पर जाना सन्तो को प्रियेकर होना चहिये |
बहते को मत बहन दो, कर गहि ऐचहु ठौर |
कहो सुन्यो मानौ नहीं, शब्द कहो दुइ और ||
बहते हुए को मत बहने दो, हाथ पकड़कर उसको मानवता की भूमिका पर निकाल लो | यदि वह कहा – सुना ना माने, तो भी निर्णय के दो वचन और सुना दो |
शब्द की महिमा
शब्द दुरिया न दुरै, कहूँ जो ढोल बजाय |
जो जन होवै जौहोरी, लेहैं सीस चढ़ाय ||
ढोल बजाकर कहता हूँ निर्णय – वचन किसी के छिपाने (निन्दा उपहास करने) से नहीं छिपते | जो विवेकी – पारखी होगा, वह निर्णय – वचनों को शिरोधार्य कर लेगा |
एक शब्द सुख खानि है, एक शब्द दुःखराखि है |
एक शब्द बन्धन कटे, एक शब्द गल फंसि ||
समता के शब्द सुख की खान है, और विषमता के शब्द दुखो की ढेरी है | निर्णय के शब्दो से विषय – बन्धन कटते हैं, और मोह – माया के शब्द गले की फांसी हो जाते हैं |
सीखै सुनै विचार ले, ताहि शब्द सुख देय |
बिना समझै शब्द गहै, कहु न लाहा लेय ||
जो निर्णय शब्दो को सुनता, सीखता और विचारता है, उसको शब्द सुख देते हैं | यदि बिना समझे कोई शब्द रट ले, तो कोई लाभ नहीं पाता |
हरिजन सोई जानिये, जिहा कहैं न मार |
आठ पहर चितवर रहै, गुरु का ज्ञान विचार ||
हरि – जन उसी को जानो जो अपनी जीभ से भी नहीं कहता कि “मारो” | बल्कि आठों पहर गुरु के ज्ञान – विचार ही में मन रखता है |
कुटिल वचन सबते बुरा, जारि करे सब छार |
साधु वचन जल रूप है, बरसै अमृत धार ||
टेड़े वचन सबसे बुरे होते हैं, वे जलाकर राख कर देते हैं | परन्तु सन्तो के वचन शीतल जलमय हैं, जो अमृत की धारा बनकर बरसते हैं |
खोद खाद धरती सहै, काट कूट बनराय |कुटिल वचन साधु सहै, और से सहा न जाय ||
खोद – खाद प्रथ्वी सहती है, काट – कूट जंगल सहता है | कठोर वचन सन्त सहते हैं, किसी और से सहा नहीं जा सकता |
मुख आवै सोई कहै, बोलै नहीं विचार |
हते पराई आत्मा, जीभ बाँधि तरवार ||
कितने ही मनुष्य जो मुख में आया, बिना विचारे बोलते जी जाते हैं | ये लोग परायी आत्मा को दुःख देते रहते है अपने जिव्हा में कठोर वचनरूपी तलवार बांधकर |
जंत्र – मंत्र सब झूठ है, मत भरमो जग कोय |
सार शब्द जानै बिना, कागा हंस न होय |
टोने – टोटके, यंत्र – मंत्र सब झूठ हैं, इनमे कोई मत फंसो | निर्णय – वचनों के ज्ञान बिना, कौवा हंस नहीं होता |
शब्द जु ऐसा बोलिये, मन का आपा खोय |
औरन को शीतल करे, आपन को सुख होय ||
शरीर का अहंकार छोड़कर वचन उच्चारे | इसमें आपको शीतलता मिलेगी, सुनने वाले को भी सुख प्राप्त होगो |
कागा काको धन हरै, कोयल काको देत |
मीठा शब्द सुनाय को, जग अपनो करि लेत ||
कौवा किसका धन हरण करता है, और कोयल किसको क्या देती है ? केवल मीठा शब्द सुनाकर जग को अपना बाना लेती है |
सति की महिमा
साधु सती और सूरमा, इनका मता अगाध |
आशा छाड़े देह की, तिनमें अधिका साध ||
सन्त, सती और शूर – इनका मत अगम्य है| ये तीनों शरीर की आशा छोड़ देते हैं, इनमें सन्त जन अधिक निश्चय वाले होते होते हैं |
साधु सती और सूरमा, कबहु न फेरे पीठ |
तीनों निकासी बाहुरे, तिनका मुख नहीं दीठ ||
सन्त, सती और शूर कभी पीठ नहीं दिखाते | तीनों एक बार निकलकर यदि लौट आयें तो इनका मुख नहीं देखना चाहिए|
सती चमाके अग्नि सूँ, सूरा सीस डुलाय |
साधु जो चूकै टेक सों, तीन लोक अथड़ाय ||
यदि सती चिता पर बैठकर एवं आग की आंच देखकर देह चमकावे, और शूरवीर संग्राम से अपना सिर हिलावे तथा साधु अपनी साधुता की निश्चयता से चूक जये तो ये तीनो इस लोक में डामाडोल कहेलाते हैं|
सती डिगै तो नीच घर, सूर डिगै तो क्रूर |
साधु डिगै तो सिखर ते, गिरिमय चकनाचूर ||
सती अपने पद से यदि गिरती है तो नीच आचरण वालो के घर में जाती है, शूरवीर गिरेगा तो क्रूर आचरण करेगा| यदि साधुता के शिखर से साधु गिरेगा तो गिरकर चकनाचूर हो जायेगा|
साधु, सती और सूरमा, ज्ञानी औ गज दन्त |
ते निकसे नहिं बाहुरे, जो जुग जाहिं अनन्त ||
साधु, सती, शूरवीर, ज्ञानी और हाथी के दाँत – ये एक बार बाहर निकलकर नहीं लौटते, चाहे कितने ही युग बीत जाये|
ये तीनों उलटे बुरे, साधु, सती और सूर |
जग में हँसी होयगी, मुख पर रहै न नूर ||
साधु, सती और शूरवीर – ये तीनों लौट आये तो बुरे कहलाते हैं| जगत में इनकी हँसी होती है, और मुख पर प्रकाश तेज नहीं रहता|
निष्काम की महिमा
संसारी से प्रीतड़ी, सरै न एको काम |
दुविधा में दोनों गये, माया मिली न राम ||
संसारियों से प्रेम जोड़ने से, कल्याण का एक काम भी नहीं होता| दुविधा में तुम्हारे दोनों चले जयेंगे, न माया हाथ लगेगी न स्वस्वरूप स्तिथि होगी, अतः जगत से निराश होकर अखंड वैराग्ये करो|
स्वारथ का सब कोई सगा, सारा ही जग जान |
बिन स्वारथ आदर करे, सो नर चतुर सुजान ||
स्वार्थ के ही सब मित्र हैं, सरे संसार की येही दशा समझलो| बिना स्वार्थ के जो आदर करता है, वही मनुष्य विचारवान – बुद्धिमान है |
परमारथ की महिमा
मरूँ पर माँगू नहीं, अपने तन के काज |
परमारथ के कारने, मोहिं न आवै लाज ||
मर जाऊँ, परन्तु अपने शरीर के स्वार्थ के लिए नहीं माँगूँगा| परन्तु परमार्थ के लिए माँगने में मुझे लज्जा नहीं लगती|
सुख के संगी स्वारथी, दुःख में रहते दूर |
कहैं कबीर परमारथी, दुःख – सुख सदा हजूर ||
संसारी – स्वार्थी लोग सिर्फ सुख के संगी होते हैं, वे दुःख आने पर दूर हो जाते हैं| परन्तु परमार्थी लोग सुख – दुःख सब समय साथ देते हैं|
स्वारथ सुखा लाकड़ा, छाँह बिहूना सूल |
पीपल परमारथ भजो, सुखसागर को मूल ||
स्वार्थ में आसक्ति तो बिना छाया के सूखी लकड़ी है और सदैव संताप देने वाली है और परमार्थ तो पीपल – वृक्ष के समान छायादार सुख का समुन्द्र एवं कल्याण की जड़ है, अतः परमार्थ को अपना कर उसी रस्ते पर चलो|
परमारथ पाको रतन, कबहुँ न दीजै पीठ |
स्वारथ सेमल फूल है, कली अपूठी पीठ ||
परमार्थ सबसे उत्तम रतन है इसकी ओर कभी भी पीठ मत करो| और स्वार्थ तो सेमल फूल के समान है जो कड़वा – सुगंधहीन है, जिसकी कली कच्ची और उलटी अपनी ओर खिलती है|
प्रीति रीति सब अर्थ की, परमारथ की नहिं |
कहैं कबीर परमारथी, बिरला कोई कलि माहिं ||
संसारी प्रेम – व्येवहार केवल धन के लिए हैं, परमार्थ के लिए नहीं| गुरु कबीर जी कहते हैं कि इस मतलबी युग में तो कोई विरला ही परमार्थी होगा|
साँझ पड़ी दिन ढल गया, बधिन घेरी गाय |
गाय बिचारी न मरी, बधि न भूखी जाय ||
जीवनरूपी दिन ढल गया और अंतिम अवस्ता रुपी संध्या आ गयी, मृत्युरूपी सिहंनि ने देहध्यासी जीवरुपी गाय को घेर लिया| अविनाशी होने से जीवरुपी गाय नहीं मरती; मृत्युरूपी सिहंनि भूखी भी नहीं जाती|
सूम सदा ही उद्धरे, दाता जाय नरक्क |
कहैं कबीर यह साखि सुनि, मति कोई जाव सरक्क ||
वीर्य को एकदम न खर्च करने वाला सूम तो उद्धार पाता है, और वीर्य का दान करने वाला दाता नरक में जाता है| इस साखी का अर्थ ठीक से सुनो – समझो, विषय में मत पतित होओ|
ऊनै आई बादरी, बरसन लगा अंगार |
उठि कबीरा धाह दै, दाझत है संसार ||
अज्ञान की बदरी ने जीव को घेर लिया, और काम – कल्पना रुपी अंगार बरसने लगा| ऐ जीवों! चिल्लाकर रोते हुआ पुकार करते रहो कि “संसार जल रहा है “|
भँवरा बारी परिहरा, मेवा बिलमा जाय |
बावन चन्दन धर किया, भूति गया बनराय ||
मनुष्य को ज्ञान होने पर – मन भँवरा विषय बाग लो त्यागकर, सतगुणरुपी मेवे के बाग में जाकर रम गया| स्वरुप – ज्ञानरुपी छोटे चन्दन – वृक्ष में स्थित किया और विस्तृत जगत – जंगल को भूल गया|
झाल उठी झोली जली, खपरा फूटम फूट |
योगी था सो रमि गया, आसन रहि भभूत ||
काल कि आग उठी और शरीर रुपी झोली जल गई, और खोपड़ी हड्डीरुपी खपड़े टूट – फूट गये| जीव योगी था वह रम गया, आसन, चिता पर केवल राख पड़ी है|
मन की महिमा
कबीर मन तो एक है, भावै तहाँ लगाव |
भावै गुरु की भक्ति करू, भावै विषय कमाव ||
गुरु कबीर जी कहते हैं कि मन तो एक ही है, जहाँ अच्छा लगे वहाँ लगाओ| चाहे गुरु की भक्ति करो, चाहे विषय विकार कमाओ|
कबीर मनहिं गयन्द है, अंकुश दै दै राखु |
विष की बेली परिहारो, अमृत का फल चाखू ||
मन मस्ताना हाथी है, इसे ज्ञान अंकुश दे – देकर अपने वश में रखो, और विषय – विष – लता को त्यागकर स्वरुप – ज्ञानामृत का शान्ति फल चखो|
मन के मते न चलिये, मन के मते अनेक |
जो मन पर असवार है, सो साधु कोई एक ||
मन के मत में न चलो, क्योंकि मन के अनेको मत हैं| जो मन को सदैव अपने अधीन रखता है, वह साधु कोई विरला ही होता है|
मन के मारे बन गये, बन तजि बस्ती माहिं |
कहैं कबीर क्या कीजिये, यह मन ठहरै नाहिं ||
मन की चंचलता को रोकने के लिए वन में गये, वहाँ जब मन शांत नहीं हुआ तो फिर से बस्ती में आगये| गुर कबीर जी कहते हैं कि जब तक मन शांत नहीं होयेगा, तब तक तुम क्या आत्म – कल्याण करोगे|
मन को मारूँ पटकि के, टूक टूक है जाय |
विष कि क्यारी बोय के, लुनता क्यों पछिताय ||
जी चाहता है कि मन को पटक कर ऐसा मारूँ, कि वह चकनाचूर हों जाये| विष की क्यारी बोकर, अब उसे भोगने में क्यों पश्चाताप करता है?
मन दाता मन लालची, मन राजा मन रंक |
जो यह मनगुरु सों मिलै, तो गुरु मिलै निसंक ||
यह मन ही शुद्धि – अशुद्धि भेद से दाता – लालची, उदार – कंजूस बनता है| यदि यह मन निष्कपट होकर गुरु से मिले, तो उसे निसंदेह गुरु पद मिल जाय|
मनुवा तो पंछी भया, उड़ि के चला अकास |
ऊपर ही ते गिरि पड़ा, मन माया के पास ||
यह मन तो पक्षी होकर भावना रुपी आकाश में उड़ चला, ऊपर पहुँच जाने पर भी यह मन, पुनः नीचे आकर माया के निकट गिर पड़ा|
मन पंछी तब लग उड़ै, विषय वासना माहिं |
ज्ञान बाज के झपट में, तब लगि आवै नाहिं ||
यह मन रुपी पक्षी विषय – वासनाओं में तभी तक उड़ता है, जब तक ज्ञानरूपी बाज के चंगुल में नहीं आता; अर्थार्त ज्ञान प्राप्त हों जाने पर मन विषयों की तरफ नहीं जाता|
मनवा तो फूला फिरै, कहै जो करूँ धरम |
कोटि करम सिर पै चढ़े, चेति न देखे मरम ||
मन फूला – फूला फिरता है कि में धर्म करता हुँ| करोडों कर्म – जाल इसके सिर पर चढ़े हैं, सावधान होकर अपनी करनी का रहस्य नहीं देखता|
मन की घाली हुँ गयी, मन की घालि जोऊँ |
सँग जो परी कुसंग के, हटै हाट बिकाऊँ ||
मन के द्वारा पतित होके पहले चौरासी में भ्रमा हूँ और मन के द्वारा भ्रम में पड़कर अब भी भ्रम रहा हूँ| कुसंगी मन – इन्द्रियों की संगत में पड़कर, चौरासी बाज़ार में बिक रहा हूँ|
महमंता मन मारि ले, घट ही माहीं घेर |
जबही चालै पीठ दे, आँकुस दै दै फेर ||
अन्तः करण ही में घेर – घेरकर उन्मत्त मन को मार लो| जब भी भागकर चले, तभी ज्ञान अंकुश दे – देकर फेर लो|
सहजता की महिमा
सहज सहज सब कोई कहै, सहज न चीन्हैं कोय |
जिन सहजै विषया तजै, सहज कहावै सोय ||
सहज – सहज सब कहते हैं, परन्तु उसे समझते नहीं जिन्होंने सहजरूप से विषय – वासनाओं का परित्याग कर दिया है, उनकी निर्विश्ये – स्थिति ही सहज कहलाती है|
जो कछु आवै सहज में सोई मीठा जान |
कड़वा लगै नीमसा, जामें ऐचातान ||
ऐ बोधवान! जो कुछ सहज में आ जाये उसे मीठा (उत्तम) समझो| जो छीना – झपटी से मिलता है, वे तो विवेकियों को नीम सा कड़वा लगता है|
सहज सहज सब कोई कहै, सहज न चीन्हैं कोय |
पाँचों राखै पारतों, सहज कहावै साय ||
सहज सहक सब कहते हैं परन्तु सहज क्या है इसको नहीं जानते| विषयों में फैली हुई पाँचो ज्ञान इंद्रियों को जो अपने स्वाधीन रखता है, यह इन्द्रियजित अवस्था ही सहज अवस्था है|
सबही भूमि बनारसी, सब निर गंगा होय |
ज्ञानी आतम राम है, जो निर्मल घट होय ||
उनके लिए काशी की भूमि या अन्ये भूमि व गंगा नदी या अन्ये नदियां सब बराबर हैं जो ह्रदय को पवित्र बनाकर ज्ञानी स्वरुप राम में स्थित हो गया|
अति का भला न बोलना, अति की भली न चुप |
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप ||
बहुत बरसना भी ठीक नहीं होता है, और बहुत धूप होना भी लाभकर नहीं| इसी प्रकार बहुत बोलना अच्छा नहीं, बिलकुल चुप रहना भी अच्छा नहीं|
जीवन की महिमा
जीवन में मरना भला, जो मरि जानै कोय |
मरना पहिले जो मरै, अजय अमर सो होय ||
जीते जी ही मरना अच्छा है, यदि कोई मरना जाने तो| मरने के पहले ही जो मर लेता है, वह अजर – अमर हो जाता है| शरीर रहते -रहते जिसके समस्त अहंकार समाप्त हो गए, वे वासना – विजयी ही जीवनमुक्त होते हैं|
मैं जानूँ मन मरि गया, मरि के हुआ भूत |
मूये पीछे उठि लगा, ऐसा मेरा पूत ||
भूलवश मैंने जाना था कि मेरा मन भर गया, परन्तु वह तो मरकर प्रेत हुआ| मरने के पश्यात भी उठकर मेरे पीछे लग पड़ा, ऐसा यह मेरा मन बालक की तरह है|
भक्त मरे क्या रोइये, जो अपने घर जाय |
रोइये साकट बपुरे, हाटों हाट बिकाय ||
जिसने अपने कल्याणरुपी अविनाशी घर को प्राप्त कर लिया, ऐसे सन्त भक्त के शरीर छोड़ने पर क्यों रोते हैं? बेचारे अभक्त – अज्ञानियों के मरने पर रोओ, जो मरकर चौरासी के बाज़ार मैं बिकने जा रहे हैं|
मैं मेरा घर जालिया, लिया पलीता हाथ |
जो घर जारो आपना, चलो हमारे साथ ||
संसार – शरीर में जो मैं – मेरापन की अहंता – ममता हो रही है – ज्ञान की आग बत्ती हाथ में लेकर इस घर को जला डालो| अपने अहंकार – घर को जला डालता है|
शब्द विचारी जो चले, गुरुमुख होय निहाल |
काम क्रोध व्यापै नहीं, कबूँ न ग्रासै काल ||
गुरुमुख शब्दों का विचार कर जो आचरण करता है, वह कृतार्थ हो जाता है| उसको काम क्रोध नहीं सताते और वह कभी मन कल्पनाओं के मुख में नहीं पड़ता|
जब लग आश शरीर की, मिरतक हुआ न जाय |
काया माया मन तजै, चौड़े रहा बजाय ||
जब तक शरीर की आशा और आसक्ति है, तब तक कोई मन को मिटा नहीं सकता| अतएव शरीर का मोह और मन की वासना को मिटाकर, सत्संग रुपी मैदान में विराजना चाहिए|
मन को मिरतक देखि के, मति माने विश्वास |
साधु तहाँ लौं भय करे, जौ लौं पिंजर साँस ||
मन को मृतक (शांत) देखकर यह विश्वास न करो कि वह अब दोखा नहीं देगा| असावधान होने पर वह पुनः चंचल हों सकता है इसलिए विवेकी सन्त मन में तब तक भय रखते हैं, जब तक शरीर में श्वास चलता है|
कबीर मिरतक देखकर, मति धरो विश्वास |
कबहुँ जागै भूत है करे पिड़का नाश ||
ऐ साधक! मन को शांत देखकर निडर मत हो| अन्यथा वह तुम्हारे परमार्थ में मिलकर जाग्रत होगा और तुम्हें प्रपंच में डालकर पतित करेगा।
अजहुँ तेरा सब मिटै, जो जग मानै हार |
घर में झजरा होत है, सो घर डारो जार ||
आज भी तेरा संकट मिट सकता है यदि संसार से हार मानकर निरभिमानी हो जा| तुम्हारे अंधकाररुपी घर में को काम, क्रोधादि का झगड़ा हो रहा है, उसे ज्ञानाग्नि से जला डालो|
सत्संगति है सूप ज्यों, त्यागै फटकि असार |
कहैं कबीर गुरु नाम ले, परसै नहीँ विकार ||
सत्संग सूप के ही तुल्य है, वह फटक कर असार का त्याग कर देता है| तुम भी गुरु ज्ञान लो, बुराइयों छुओ तक नहीं|
करम गति टारै
करम गति टारै नाहिं टरी॥ टेक॥
मुनि वसिष्ठ से पण्डित ज्ञानी सिधि के लगन धरि।
सीता हरन मरन दसरथ को बनमें बिपति परी॥ १॥
कहँ वह फन्द कहाँ वह पारधि कहॅं वह मिरग चरी।
कोटि गाय नित पुन्य करत नृग गिरगिट-जोन परि॥ २॥
पाण्डव जिनके आप सारथी तिन पर बिपति परी।
कहत कबीर सुनो भै साधो होने होके रही॥ ३॥
रे दिल गाफिल
रे दिल गाफिल गफलत मत कर
एक दिना जम आवेगा॥ टेक॥
सौदा करने या जग आया
पूजी लाया मूल गँवाया
प्रेमनगर का अन्त न पाया
ज्यों आया त्यों जावेगा॥ १॥
सुन मेरे साजन सुन मेरे मीता
या जीवन में क्या क्या कीता
सिर पाहन का बोझा लीता
आगे कौन छुड़ावेगा॥ २॥
परलि पार तेरा मीता खडिया
उस मिलने का ध्यान न धरिया
टूटी नाव उपर जा बैठा
गाफिल गोता खावेगा॥ ३॥
दास कबीर कहै समुझाई
अन्त समय तेरा कौन सहाई
चला अकेला संग न को
किया अपना पावेगा॥ ४॥
झीनी झीनी बीनी चदरिया
झीनी झीनी बीनी चदरिया ॥
काहे कै ताना काहे कै भरनी,
कौन तार से बीनी चदरिया ॥ १॥
इडा पिङ्गला ताना भरनी,
सुखमन तार से बीनी चदरिया ॥ २॥
आठ कँवल दल चरखा डोलै,
पाँच तत्त्व गुन तीनी चदरिया ॥ ३॥
साँ को सियत मास दस लागे,
ठोंक ठोंक कै बीनी चदरिया ॥ ४॥
सो चादर सुर नर मुनि ओढी,
ओढि कै मैली कीनी चदरिया ॥ ५॥
दास कबीर जतन करि ओढी,
ज्यों कीं त्यों धर दीनी चदरिया ॥ ६॥
दिवाने मन
दिवाने मन भजन बिना दुख पैहौ ॥ टेक॥
पहिला जनम भूत का पै हौ सात जनम पछिताहौ।
काँटा पर का पानी पैहौ प्यासन ही मरि जैहौ॥ १॥
दूजा जनम सुवा का पैहौ बाग बसेरा लैहौ।
टूटे पंख मॅंडराने अधफड प्रान गॅंवैहौ॥ २॥
बाजीगर के बानर हो हौ लकडिन नाच नचैहौ।
ऊॅंच नीच से हाय पसरि हौ माँगे भीख न पैहौ॥ ३॥
तेली के घर बैला होहौ आँखिन ढाँपि ढॅंपैहौ।
कोस पचास घरै माँ चलिहौ बाहर होन न पैहौ॥ ४॥
पॅंचवा जनम ऊॅंट का पैहौ बिन तोलन बोझ लदैहौ।
बैठे से तो उठन न पैहौ खुरच खुरच मरि जैहौ॥ ५॥
धोबी घर गदहा होहौ कटी घास नहिं पैंहौ।
लदी लादि आपु चढि बैठे लै घटे पहुँचैंहौ॥ ६॥
पंछिन माँ तो कौवा होहौ करर करर गुहरैहौ।
उडि के जय बैठि मैले थल गहिरे चोंच लगैहौ॥ ७॥
सत्तनाम की हेर न करिहौ मन ही मन पछितैहौ।
कहै कबीर सुनो भै साधो नरक नसेनी पैहौ॥ ८॥
केहि समुझावौ
केहि समुझावौ सब जग अन्धा॥ टेक॥
इक दु होयँ उन्हैं समुझावौं
सबहि भुलाने पेटके धन्धा।
पानी घोड पवन असवरवा
ढरकि परै जस ओसक बुन्दा॥ १॥
गहिरी नदी अगम बहै धरवा
खेवन-हार के पडिगा फन्दा।
घर की वस्तु नजर नहि आवत
दियना बारिके ढूँढत अन्धा॥ २॥
लागी आगि सबै बन जरिगा
बिन गुरुज्ञान भटकिगा बन्दा।
कहै कबीर सुनो भाई साधो
जाय लंगोटी झारि के बन्दा॥ ३॥
बहुरि नहिं
बहुरि नहिं आवना या देस॥ टेक॥
जो जो ग बहुरि नहि आ पठवत नाहिं सँस॥ १॥
सुर नर मुनि अरु पीर औलिया देवी देव गनेस॥ २॥
धरि धरि जनम सबै भरमे हैं ब्रह्मा विष्णु महेस॥ ३॥
जोगी जंगम औ संन्यासी दिगंबर दरवेस॥ ४॥
चुंडित मुंडित पंडित लो सरग रसातल सेस॥ ५॥
ज्ञानी गुनी चतुर अरु कविता राजा रंक नरेस॥ ६॥
को राम को रहिम बखानै को कहै आदेस॥ ७॥
नाना भेष बनाय सबै मिलि ढूंढि फिरें चहुँदेस॥ ८॥
कहै कबीर अंत ना पैहो बिन सतगुरु उपदेश॥ ९॥
मन लाग्यो मेरो यार
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में॥
जो सुख पाऊँ राम भजन में
सो सुख नाहिं अमीरी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में॥
भला बुरा सब का सुनलीजै
कर गुजरान गरीबी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में॥
आखिर यह तन छार मिलेगा
कहाँ फिरत मग़रूरी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में॥
प्रेम नगर में रहनी हमारी
साहिब मिले सबूरी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में॥
कहत कबीर सुनो भयी साधो
साहिब मिले सबूरी में
मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में॥
भजो रे भैया
भजो रे भैया राम गोविंद हरी।
राम गोविंद हरी भजो रे भैया राम गोविंद हरी॥
जप तप साधन नहिं कछु लागत खरचत नहिं गठरी॥
संतत संपत सुख के कारन जासे भूल परी॥
कहत कबीर राम नहीं जा मुख ता मुख धूल भरी॥
बीत गये दिन
बीत गये दिन भजन बिना रे।
भजन बिना रे भजन बिना रे॥
बाल अवस्था खेल गँवायो।
जब यौवन तब मान घना रे॥
लाहे कारण मूल गँवायो।
अजहुं न गयी मन की तृष्णा रे॥
कहत कबीर सुनो भई साधो।
पार उतर गये संत जना रे॥
नैया पड़ी मंझधार
नैया पड़ी मंझधार गुरु बिन कैसे लागे पार॥
साहिब तुम मत भूलियो लाख लो भूलग जाये।
हम से तुमरे और हैं तुम सा हमरा नाहिं।
अंतरयामी एक तुम आतम के आधार।
जो तुम छोड़ो हाथ प्रभुजी कौन उतारे पार॥
गुरु बिन कैसे लागे पार॥
मैं अपराधी जन्म को मन में भरा विकार।
तुम दाता दुख भंजन मेरी करो सम्हार।
अवगुन दास कबीर के बहुत गरीब निवाज़।
जो मैं पूत कपूत हूं कहौं पिता की लाज॥
गुरु बिन कैसे लागे पार॥
तूने रात गँवायी
तूने रात गँवायी सोय के, दिवस गँवाया खाय के।
हीरा जनम अमोल था, कौड़ी बदले जाय॥
सुमिरन लगन लगाय के मुख से कछु ना बोल रे।
बाहर का पट बंद कर ले अंतर का पट खोल रे।
माला फेरत जुग हुआ, गया ना मन का फेर रे।
गया ना मन का फेर रे।
हाथ का मनका छाँड़ि दे, मन का मनका फेर॥
दुख में सुमिरन सब करें, सुख में करे न कोय रे।
जो सुख में सुमिरन करे तो दुख काहे को होय रे।
सुख में सुमिरन ना किया दुख में करता याद रे।
दुख में करता याद रे।
कहे कबीर उस दास की कौन सुने फ़रियाद॥
राम बिनु
राम बिनु तन को ताप न जाई।
जल में अगन रही अधिकाई॥
राम बिनु तन को ताप न जाई॥
तुम जलनिधि मैं जलकर मीना।
जल में रहहि जलहि बिनु जीना॥
राम बिनु तन को ताप न जाई॥
तुम पिंजरा मैं सुवना तोरा।
दरसन देहु भाग बड़ मोरा॥
राम बिनु तन को ताप न जाई॥
तुम सद्गुरु मैं प्रीतम चेला।
कहै कबीर राम रमूं अकेला॥
राम बिनु तन को ताप न जाई॥
राजा के जिया डाहें
राजा के जिया डाहें, सजन के जिया डाहें
ईहे दुलहिनिया बलम के जिया डाहें।
चूल्हिया में चाउर डारें हो हँड़िया में गोंइठी
चूल्हिया के पछवा लगावतड़ी लवना।
ईहे दुलहिनिया …
अँखियाँ में सेनुर कइली हो, पिठिया पर टिकुली
धइ धई कजरा एँड़िये में पोतें।
ईहे दुलहिनिया …
सँझवे के सुत्तल भिनहिये के जागें
ठीक दुपहरिया में दियना के बारें।
ईहे दुलहिनिया …
कहेलें कबीर सुनो रे भइया साधो
हड़िया चलाइ के भसुरू के मारें
ईहे दुलहिनिया …
मँड़ये के चारन समधी दीन्हा
मँड़ये के चारन समधी दीन्हा, पुत्र व्यहिल माता॥
दुलहिन लीप चौक बैठारी। निर्भय पद परकासा॥
भाते उलटि बरातिहिं खायो, भली बनी कुशलाता।
पाणिग्रहण भयो भौ मुँडन, सुषमनि सुरति समानी,
कहहिं कबीर सुनो हो सन्तो, बूझो पण्डित ज्ञानी॥
देखि-देखि जिय अचरज होई
देखि-देखि जिय अचरज होई यह पद बूझें बिरला कोई॥
धरती उलटि अकासै जाय, चिउंटी के मुख हस्ति समाय।
बिना पवन सो पर्वत उड़े, जीव जन्तु सब वृक्षा चढ़े।
सूखे सरवर उठे हिलोरा, बिनु जल चकवा करत किलोरा।
बैठा पण्डित पढ़े कुरान, बिन देखे का करत बखान।
कहहि कबीर यह पद को जान, सोई सन्त सदा परबान॥
एकै कुँवा पंच पनिहार
एकै कुँवा पंच पनिहारी। एकै लेजु भरै नो नारी॥
फटि गया कुँआ विनसि गई बारी। विलग गई पाँचों पनिहारी॥
साधो, देखो जग बौराना
साधो, देखो जग बौराना ।
साँची कही तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना ।
हिन्दू कहत,राम हमारा, मुसलमान रहमाना ।
आपस में दौऊ लड़ै मरत हैं, मरम कोई नहिं जाना ।
बहुत मिले मोहि नेमी, धर्मी, प्रात करे असनाना ।
आतम-छाँड़ि पषानै पूजै, तिनका थोथा ज्ञाना ।
आसन मारि डिंभ धरि बैठे, मन में बहुत गुमाना ।
पीपर-पाथर पूजन लागे, तीरथ-बरत भुलाना ।
माला पहिरे, टोपी पहिरे छाप-तिलक अनुमाना ।
साखी सब्दै गावत भूले, आतम खबर न जाना ।
घर-घर मंत्र जो देन फिरत हैं, माया के अभिमाना ।
गुरुवा सहित सिष्य सब बूढ़े, अन्तकाल पछिताना ।
बहुतक देखे पीर-औलिया, पढ़ै किताब-कुराना ।
करै मुरीद, कबर बतलावैं, उनहूँ खुदा न जाना ।
हिन्दू की दया, मेहर तुरकन की, दोनों घर से भागी ।
वह करै जिबह, वो झटका मारे, आग दोऊ घर लागी ।
या विधि हँसत चलत है, हमको आप कहावै स्याना ।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, इनमें कौन दिवाना ।
कबीर के पद
1.
अरे दिल,
प्रेम नगर का अंत न पाया, ज्यों आया त्यों जावैगा।।
सुन मेरे साजन सुन मेरे मीता, या जीवन में क्या क्या बीता।।
सिर पाहन का बोझा लीता, आगे कौन छुड़ावैगा।।
परली पार मेरा मीता खडि़या, उस मिलने का ध्यान न धरिया।।
टूटी नाव, उपर जो बैठा, गाफिल गोता खावैगा।।
दास कबीर कहैं समझाई, अंतकाल तेरा कौन सहाई।।
चला अकेला संग न कोई, किया अपना पावैगा।
2.
रहना नहीं देस बिराना है।
यह संसार कागद की पुड़िया, बूँद पड़े घुल जाना है।
यह संसार काँटे की बाड़ी, उलझ-पुलझ मरि जाना है।
यह संसार झाड़ और झाँखर, आग लगे बरि जाना है।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, सतगुरू नाम ठिकाना है।
नीति के दोहे
प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ ले जाय।।
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं।
प्रेम गली अति साँकरी, तामें दो न समाहिं।।
जिन ढूँढा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ।
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो मन खोजा अपना, मुझ-सा बुरा न कोय।।
साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जाके हिरदै साँच है, ताके हिरदै आप।।
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि।
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।।
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।
काल्ह करै सो आज कर, आज करै सो अब्ब।
पल में परलै होयगी, बहुरि करैगो कब्ब।
निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय।
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।
दोस पराए देखि करि, चला हसंत हसंत।
अपने या न आवई, जिनका आदि न अंत।।
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ग्यान।
मोल करो तलवार के, पड़ा रहन दो म्यान।।
सोना, सज्जन, साधुजन, टूटि जुरै सौ बार।
दुर्जन कुंभ-कुम्हार के, एकै धका दरार।।
पाहन पुजे तो हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहाड़।
ताते या चाकी भली, पीस खाए संसार।।
काँकर पाथर जोरि कै, मस्जिद लई बनाय।
ता चढ़ मुल्ला बांग दे, बहिरा हुआ खुदाए।।
कौन ठगवा नगरिया लूटल हो
कौन ठगवा नगरिया लूटल हो ।।
चंदन काठ के बनल खटोला
ता पर दुलहिन सूतल हो।
उठो सखी री माँग संवारो
दुलहा मो से रूठल हो।
आये जम राजा पलंग चढ़ि बैठा
नैनन अंसुवा टूटल हो
चार जाने मिल खाट उठाइन
चहुँ दिसि धूं धूं उठल हो
कहत कबीर सुनो भाई साधो
जग से नाता छूटल हो
ऋतु फागुन नियरानी हो
ऋतु फागुन नियरानी हो,
कोई पिया से मिलावे।
सोई सुदंर जाकों पिया को ध्यान है,
सोई पिया की मनमानी,
खेलत फाग अंग नहिं मोड़े,
सतगुरु से लिपटानी।
इक इक सखियाँ खेल घर पहुँची,
इक इक कुल अरुझानी।
इक इक नाम बिना बहकानी,
हो रही ऐंचातानी।।
पिय को रूप कहाँ लगि बरनौं,
रूपहि माहिं समानी।
जौ रँगे रँगे सकल छवि छाके,
तन-मन सबहि भुलानी।
यों मत जाने यहि रे फाग है,
यह कछु अकथ-कहानी।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो,
यह गति विरलै जानी।।
मोको कहां ढूँढे रे बन्दे
मोको कहां ढूँढे रे बन्दे
मैं तो तेरे पास में
ना तीरथ मे ना मूरत में
ना एकान्त निवास में
ना मंदिर में ना मस्जिद में
ना काबे कैलास में
मैं तो तेरे पास में बन्दे
मैं तो तेरे पास में
ना मैं जप में ना मैं तप में
ना मैं बरत उपास में
ना मैं किरिया करम में रहता
नहिं जोग सन्यास में
नहिं प्राण में नहिं पिंड में
ना ब्रह्याण्ड आकाश में
ना मैं प्रकुति प्रवार गुफा में
नहिं स्वांसों की स्वांस में
खोजि होए तुरत मिल जाउं
इक पल की तालास में
कहत कबीर सुनो भई साधो
मैं तो हूं विश्वास में
मन ना रँगाए, रँगाए जोगी कपड़ा
मन ना रँगाए, रँगाए जोगी कपड़ा ।।
आसन मारि मंदिर में बैठे, ब्रम्ह-छाँड़ि पूजन लगे पथरा ।।
कनवा फड़ाय जटवा बढ़ौले, दाढ़ी बाढ़ाय जोगी होई गेलें बकरा ।।
जंगल जाये जोगी धुनिया रमौले काम जराए जोगी होए गैले हिजड़ा ।।
मथवा मुड़ाय जोगी कपड़ो रंगौले, गीता बाँच के होय गैले लबरा ।।
कहहिं कबीर सुनो भाई साधो, जम दरवजवा बाँधल जैबे पकड़ा ।।
सूरातन का अंग
गगन दमामा बाजिया, पड्या निसानैं घाव।
खेत बुहार्या सूरिमै, मुझ मरणे का चाव॥1॥
भावार्थ – गगन में युद्ध के नगाड़े बज उठे, और निशान पर चोट पड़ने लगी। शूरवीर ने रणक्षेत्र को झाड़-बुहारकर तैयार कर दिया, तब कहता है कि `अब मुझे कट-मरने का उत्साह चढ़ रहा है।’
`कबीर’ सोई सूरिमा, मन सूं मांडै झूझ।
पंच पयादा पाड़ि ले, दूरि करै सब दूज॥2॥
भावार्थ – कबीर कहते हैं – सच्चा सूरमा वह है, जो अपने वैरी मन से युद्ध ठान लेता है, पाँचों पयादों को जो मार भगाता है, और द्वैत को दूर कर देता है। [ पाँच पयादे, अर्थात काम, क्रोध, लोभ, मोह और मत्सर। द्वैत अर्थात् जीव और ब्रह्म के बीच भेद-भावना।]
`कबीर’ संसा कोउ नहीं, हरि सूं लाग्गा हेत।
काम क्रोध सूं झूझणा, चौड़ै मांड्या खेत॥3॥
भावार्थ – कबीर कहते हैं — मेरे मन में कुछ भी संशय नहीं रहा, और हरि से लगन जुड़ गई। इसीलिए चौड़े में आकर काम और क्रोध से जूझ रहा हूँ रण-क्षेत्र में।
सूरा तबही परषिये, लड़ै धणी के हेत।
पुरिजा-पुरिजा ह्वै पड़ै, तऊ न छांड़ै खेत॥4॥
भावार्थ – शूरवीर की तभी सच्ची परख होती है, जब वह अपने स्वामी के लिए जूझता है। पुर्जा-पुर्जा कट जाने पर भी वह युद्ध के क्षेत्र को नहीं छोड़ता।
अब तौ झूझ्या हीं बणै, मुड़ि चाल्यां घर दूर।
सिर साहिब कौं सौंपतां, सोच न कीजै सूर॥5॥
भावार्थ – अब तो झूझते बनेगा, पीछे पैर क्या रखना ? अगर यहाँ से मुड़ोगे तो घर तो बहुत दूर रह गया है। साईं को सिर सौंपते हुए सूरमा कभी सोचता नहीं, कभी हिचकता नहीं।
जिस मरनैं थैं जग डरै, सो मेरे आनन्द।
कब मरिहूं, कब देखिहूं पूरन परमानंद॥6॥
भावार्थ – जिस मरण से दुनिया डरती है, उससे मुझे तो आनन्द होता है ,कब मरूँगा और कब देखूँगा मैं अपने पूर्ण सच्चिदानन्द को !
कायर बहुत पमांवहीं, बहकि न बोलै सूर।
काम पड्यां हीं जाणिये, किस मुख परि है नूर॥7॥
भावार्थ – बड़ी-बड़ी डींगे कायर ही हाँका करते हैं, शूरवीर कभी बहकते नहीं। यह तो काम आने पर ही जाना जा सकता है कि शूरवीरता का नूर किस चेहरे पर प्रकट होता है।
`कबीर’ यह घर पेम का, खाला का घर नाहिं।
सीस उतारे हाथि धरि, सो पैसे घर माहिं॥8॥
भावार्थ – कबीर कहते हैं – यह प्रेम का घर है, किसी खाला का नहीं , वही इसके अन्दर पैर रख सकता है, जो अपना सिर उतारकर हाथ पर रखले। [ सीस अर्थात अहंकार। पाठान्तर है `भुइं धरै’। यह पाठ कुछ अधिक सार्थक जचता है। सिर को उतारकर जमीन पर रख देना, यह हाथ पर रख देने से कहीं अधिक शूर-वीरता और निरहंकारिता को व्यक्त करता है।]
`कबीर’ निज घर प्रेम का, मारग अगम अगाध।
सीस उतारि पग तलि धरै, तब निकट प्रेम का स्वाद॥9॥
भावार्थ – कबीर कहते हैं -अपना खुद का घर तो इस जीवात्मा का प्रेम ही है। मगर वहाँ तक पहुँचने का रास्ता बड़ा विकट है, और लम्बा इतना कि उसका कहीं छोर ही नहीं मिल रहा। प्रेम रस का स्वाद तभी सुगम हो सकता है, जब कि अपने सिर को उतारकर उसे पैरों के नीचे रख दिया जाय।
प्रेम न खेतौं नीपजै, प्रेम न हाटि बिकाइ।
राजा परजा जिस रुचै, सिर दे सो ले जाइ॥10॥
भावार्थ – अरे भाई ! प्रेम खेतों में नहीं उपजता, और न हाट-बाजार में बिका करता है यह महँगा है और सस्ता भी – यों कि राजा हो या प्रजा, कोई भी उसे सिर देकर खरीद ले जा सकता है।
`कबीर’ घोड़ा प्रेम का, चेतनि चढ़ि असवार।
ग्यान खड़ग गहि काल सिरि, भली मचाई मार॥11॥
भावार्थ – कबीर कहते हैं – क्या ही मार-धाड़ मचा दी है इस चेतन शूरवीर ने।सवार हो गया है प्रेम के घोड़े पर। तलवार ज्ञान की ले ली है, और काल-जैसे शत्रु के सिर पर वह चोट- पर-चोट कर रहा है।
जेते तारे रैणि के, तेतै बैरी मुझ।
धड़ सूली सिर कंगुरैं, तऊ न बिसारौं तुझ॥12॥
भावार्थ – मेरे अगर उतने भी शत्रु हो जायं, जितने कि रात में तारे दीखते हैं, तब भी मेरा धड़ सूली पर होगा और सिर रखा होगा गढ़ के कंगूरे पर, फिर भी मैं तुझे भूलने का नहीं।
सिरसाटें हरि सेविये, छांड़ि जीव की बाणि।
जे सिर दीया हरि मिलै, तब लगि हाणि न जाणि॥13॥
भावार्थ – सिर सौंपकर ही हरि की सेवा करनी चाहिए। जीव के स्वभाव को बीच में नहीं आना चाहिए। सिर देने पर यदि हरि से मिलन होता है, तो यह न समझा जाय कि वह कोई घाटे का सौदा है।
`कबीर’ हरि सबकूं भजै, हरि कूं भजै न कोइ।
जबलग आस सरीर की, तबलग दास न होइ॥14॥
भावार्थ – कबीर कहते हैं -हरि तो सबका ध्यान रखता है,सबका स्मरण करता है , पर उसका ध्यान-स्मरण कोई नहीं करता। प्रभु का भक्त तबतक कोई हो नहीं सकता, जबतक देह के प्रति आशा और आसक्ति है।
संगति का अंग
हरिजन सेती रूसणा, संसारी सूँ हेत ।
ते नर कदे न नीपजैं, ज्यूं कालर का खेत ॥1॥
भावार्थ – हरिजन से तो रूठना और संसारी लोगों के साथ प्रेम करना – ऐसों के अन्तर में भक्ति-भावना कभी उपज नहीं सकती, जैसे खारवाले खेत में कोई भी बीज उगता नहीं ।
मूरख संग न कीजिए, लोहा जलि न तिराइ ।
कदली-सीप-भूवंग मुख, एक बूंद तिहँ भाइ ॥2॥
भावार्थ – मूर्ख का साथ कभी नहीं करना चाहिए, उससे कुछ भी फलित होने का नहीं । लोहे की नाव पर चढ़कर कौन पार जा सकता है ? वर्षा की बूँद केले पर पड़ी, सीप में पड़ी और सांप के मुख में पड़ी – परिणाम अलग-अलग हुए- कपूर बन गया, मोती बना और विष बना ।
माषी गुड़ मैं गड़ि रही, पंख रही लपटाइ ।
ताली पीटै सिरि धुनैं, मीठैं बोई माइ ॥3॥
भावार्थ – मक्खी बेचारी गुड़ में धंस गई, फंस गई, पंख उसके चेंप से लिपट गये ।मिठाई के लालच में वह मर गई, हाथ मलती और सिर पीटती हुई।
ऊँचे कुल क्या जनमियां, जे करनी ऊँच न होइ ।
सोवरन कलस सुरै भर्या, साधू निंदा सोइ ॥4॥
भावार्थ – ऊँचे कुल में जन्म लेने से क्या होता है, यदि करनी ऊँची न हुई ? साधुजन सोने के उस कलश की निन्दा ही करते हैं, जिसमें कि मदरा भरी हो ।
`कबिरा’ खाई कोट की, पानी पिवै न कोइ ।
जाइ मिलै जब गंग से, तब गंगोदक होइ ॥5॥
भावार्थ – कबीर कहते हैं – किले को घेरे हुए खाई का पानी कोई नहीं पीता, कौन पियेगा वह गंदला पानी ? पर जब वही पानी गंगा में जाकर मिल जाता है, तब वह गंगोदक बन जाता है, परम पवित्र !
`कबीर’ तन पंषो भया, जहाँ मन तहाँ उड़ि जाइ ।
जो जैसी संगति करै, सो तैसे फल खाइ ॥6॥
भावार्थ – कबीर कहते हैं – यह तन मानो पक्षी हो गया है, मन इसे चाहे जहाँ उड़ा ले जाता है । जिसे जैसी भी संगति मिलती है- संग और कुसंग – वह वैसा ही फल भोगता है । [ मतलब यह कि मन ही अच्छी और बुरी संगति मे ले जाकर वैसे ही फल देता है ।]
काजल केरी कोठड़ी, तैसा यहु संसार ।
बलिहारी ता दास की, पैसि र निकसणहार ॥7॥
भावार्थ – यह दुनिया तो काजल की कोठरी है, जो भी इसमें पैठा, उसे कुछ-न-कुछ कालिख लग ही जायगी । धन्य है उस प्रभु-भक्त को, जो इसमें पैठकर बिना कालिख लगे साफ निकल आता है ।
पतिव्रता का अंग
मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर ।
तेरा तुझकौं सौंपता, क्या लागै है मोर ॥1॥
भावार्थ – मेरे साईं, मुझमें मेरा तो कुछ भी नहीं,जो कुछ भी है, वह सब तेरा ही । तब, तेरी ही वस्तु तुझे सौंपते मेरा क्या लगता है, क्या आपत्ति हो सकती है मुझे ?
`कबीर’ रेख स्यंदूर की, काजल दिया न जाइ ।
नैनूं रमैया रमि रह्या, दूजा कहाँ समाइ ॥2॥
भावार्थ – कबीर कहते हैं -आँखों में काजल कैसे लगाया जाय, जबकि उनमें सिन्दूर की जैसी रेख उभर आयी है ?मेरा रमैया नैनों में रम गया है, उनमें अब किसी और को बसा लेने की ठौर नहीं रही। [सिन्दूर की रेख से आशय है विरह-वेदना से रोते-रोते आँखें लाल हो गयी हैं।]
`कबीर’ एक न जाण्यां, तो बहु जांण्या क्या होइ ।
एक तैं सब होत है, सब तैं एक न होइ ॥3॥
भावार्थ – कबीर कहते हैं – यदि उस एक को न जाना, तो इन बहुतों को जानने से क्या हुआ ! क्योंकि एक का ही तो यह सारा पसारा है, अनेक से एक थोड़े ही बना है ।
जबलग भगति सकामता, तबलग निर्फल सेव ।
कहै `कबीर’ वै क्यूं मिलैं, निहकामी निज देव ॥4॥
भावार्थ -भक्ति जबतक सकाम है, भगवान की सारी सेवा तबतक निष्फल ही है । निष्कामी देव से सकामी साधक की भेंट कैसे हो सकती है ?
`कबीर’ कलिजुग आइ करि, कीये बहुत जो मीत ।
जिन दिलबाँध्या एक सूं, ते सुखु सोवै निचींत ॥5॥
भावार्थ – कबीर कहते हैं – कलियुग में आकर हमने बहुतों को मित्र बना लिया, क्योंकि (नकली) मित्रों की कोई कमी नहीं । पर जिन्होंने अपने दिल को एक से ही बाँध लिया, वे ही निश्चिन्त सुख की नींद सो सकते हैं ।
`कबीर’ कूता राम का, मुतिया मेरा नाउं ।
गले राम की जेवड़ी, जित कैंचे तित जाउं ॥6॥
भावार्थ – कबीर कहते हैं–मैं तो राम का कुत्ता हूँ, और नाम मेरा मुतिया (मोती) है गले में राम की जंजीर पड़ी हुई है; उधर ही चला जाता हूँ जिधर वह ले जाता है। [प्रेम के ऐसे बंधन में मौज-ही-मौज है ।]
पतिबरता मैली भली, काली, कुचिल, कुरूप ।
पतिबरता के रूप पर, बारौं कोटि स्वरूप ॥7॥
भावार्थ – पतिव्रता मैली ही अच्छी, काली मैली-फटी साड़ी पहने हुए और कुरूप । तो भी उसके रूप पर मैं करोंड़ों सुन्दरियों को न्यौछावर कर देता हूँ ।
पतिबरता मैली भली, गले काँच को पोत ।
सब सखियन में यों दिपै , ज्यों रवि ससि की जोत ॥8॥
भावार्थ – पतिव्रता मैली ही अच्छी, जिसने सुहाग के नाम पर काँच के कुछ गुरिये पहन रखे हैं । फिर भी अपनी सखी-सहेलियों के बीच वह ऐसी दिप रही है, जैसे आकाश में सूर्य और चन्द्र की ज्योति जगमगा रही हो ।
माया का अंग
`कबीर’ माया पापणी, फंध ले बैठी हाटि ।
सब जग तौ फंधै पड्या,गया कबीरा काटि ॥1॥
भावार्थ – यह पापिन माया फन्दा लेकर फँसाने को बाजार में आ बैठी है । बहुत सारों पर फंन्दा डाल दिया है इसने ।पर कबीर उसे काटकर साफ बाहर निकल आया हरि भक्त पर फंन्दा डालनेवाली माया खुद ही फँस जाती है, और वह सहज ही उसे काट कर निकल आता है ।]
`कबीर’ माया मोहनी, जैसी मीठी खांड ।
सतगुरु की कृपा भई, नहीं तौ करती भांड ॥2॥
भावार्थ – कबीर कहते हैं -यह मोहिनी माया शक्कर-सी स्वाद में मीठी लगती है, मुझ पर भी यह मोहिनी डाल देती पर न डाल सकी । सतगुरु की कृपा ने बचा लिया, नहीं तो यह मुझे भांड़ बना-कर छोड़ती । जहाँ-तहाँ चाहे जिसकी चाटुकारी मैं करता फिरता ।
माया मुई न मन मुवा, मरि-मरि गया सरीर ।
आसा त्रिष्णां ना मुई, यों कहि गया `कबीर’ ॥3॥
भावार्थ – कबीर कहते हैं –न तो यह माया मरी और न मन ही मरा, शरीर ही बार-बार गिरते चले गये ।मैं हाथ उठाकर कहता हूँ । न तो आशा का अंत हुआ और न तृष्णा का ही ।
`कबीर’ सो धन संचिये, जो आगैं कूं होइ ।
सीस चढ़ावें पोटली, ले जात न देख्या कोइ ॥4॥
भावार्थ – कबीर कहते हैं,–उसी धन का संचय करो न, जो आगे काम दे । तुम्हारे इस धन में क्या रखा है ? गठरी सिर पर रखकर किसी को भी आजतक ले जाते नहीं देखा ।
त्रिसणा सींची ना बुझै, दिन दिन बधती जाइ ।
जवासा के रूष ज्यूं, घण मेहां कुमिलाइ ॥5॥
भावार्थ – कैसी आग है यह तृष्णा की !ज्यौं-ज्यौं इसपर पानी डालो, बढ़ती ही जाती है ।
जवासे का पौधा भारी वर्षा होने पर भी कुम्हला तो जाता है, पर मरता नहीं, फिर हरा हो जाता है ।
कबीर जग की को कहै, भौजलि, बुड़ै दास ।
पारब्रह्म पति छाँड़ि करि, करैं मानि की आस ॥6॥
भावार्थ – कबीर कहते हैं– दुनिया के लोगों की बात कौन कहे, भगवान के भक्त भी भवसागर में डूब जाते हैं । इसीलिए परब्रह्म स्वामी को छोड़कर वे दूसरों से मान-सम्मान पाने की आशा करते हैं।
माया तजी तौ क्या भया, मानि तजी नहीं जाइ ।
मानि बड़े मुनियर गिले, मानि सबनि को खाइ ॥7॥
भावार्थ – क्या हुआ जो माया को छोड़ दिया, मान-प्रतिष्ठा तो छोड़ी नहीं जा रही । बड़े-बड़े मुनियों को भी यह मान-सम्मान सहज ही निगल गया । यह सबको चबा जाता है, कोई इससे बचा नहीं ।
`कबीर’ इस संसार का, झूठा माया मोह ।
जिहि घरि जिता बधावणा, तिहिं घरि तिता अंदोह ॥8॥
भावार्थ – कबीर कहते हैं — झूठा है संसार का सारा माया और मोह । सनातन नियम यह है कि – जिस घर में जितनी ही बधाइयाँ बजती हैं, उतनी ही विपदाएँ वहाँ आती हैं ।
बुगली नीर बिटालिया, सायर चढ्या कलंक ।
और पखेरू पी गये , हंस न बोवे चंच ॥9॥
भावार्थ – बगुली ने चोंच डुबोकर सागर का पानी जूठा कर डाला ! सागर सारा ही कलंकित हो गया उससे ।और दूसरे पक्षी तो उसे पी-पीकर उड़ गये, पर हंस ही ऐसा था, जिसने अपनी चोंच उसमें नहीं डुबोई ।
`कबीर’ माया जिनि मिले, सौ बरियाँ दे बाँह ।
नारद से मुनियर मिले, किसो भरोसौ त्याँह ॥10॥
भावार्थ – कबीर कहते हैं -अरे भाई, यह माया तुम्हारे गले में बाहें डालकर भी सौ-सौ बार बुलाये, तो भी इससे मिलना-जुलना अच्छा नहीं । जबकि नारद-सरीखे मुनिवरों को यह समूचा ही निगल गई, तब इसका विश्वास क्या ?
नैया पड़ी मंझधार गुरु बिन कैसे लागे पार
नैया पड़ी मंझधार गुरु बिन कैसे लागे पार ॥
साहिब तुम मत भूलियो लाख लो भूलग जाये ।
हम से तुमरे और हैं तुम सा हमरा नाहिं ।
अंतरयामी एक तुम आतम के आधार ।
जो तुम छोड़ो हाथ प्रभुजी कौन उतारे पार ॥
गुरु बिन कैसे लागे पार ॥
मैं अपराधी जन्म को मन में भरा विकार ।
तुम दाता दुख भंजन मेरी करो सम्हार ।
अवगुन दास कबीर के बहुत गरीब निवाज़ ।
जो मैं पूत कपूत हूं कहौं पिता की लाज ॥
गुरु बिन कैसे लागे पार ॥
रे दिल गाफिल गफलत मत कर
रे दिल गाफिल गफलत मत कर,
एक दिना जम आवेगा ॥
सौदा करने या जग आया,
पूँजी लाया, मूल गॅंवाया,
प्रेमनगर का अन्त न पाया,
ज्यों आया त्यों जावेगा ॥ १॥
सुन मेरे साजन, सुन मेरे मीता,
या जीवन में क्या क्या कीता,
सिर पाहन का बोझा लीता,
आगे कौन छुडावेगा ॥ २॥
परलि पार तेरा मीता खडिया,
उस मिलने का ध्यान न धरिया,
टूटी नाव उपर जा बैठा,
गाफिल गोता खावेगा ॥ ३॥
दास कबीर कहै समुझाई,
अन्त समय तेरा कौन सहाई,
चला अकेला संग न कोई,
कीया अपना पावेगा ॥ ४॥
करम गति टारै नाहिं टरी
करम गति टारै नाहिं टरी ॥
मुनि वसिष्ठ से पण्डित ज्ञानी, सिधि के लगन धरि ।
सीता हरन मरन दसरथ को, बनमें बिपति परी ॥ १॥
कहॅं वह फन्द कहाँ वह पारधि, कहॅं वह मिरग चरी ।
कोटि गाय नित पुन्य करत नृग, गिरगिट-जोन परि ॥ २॥
पाण्डव जिनके आप सारथी, तिन पर बिपति परी ।
कहत कबीर सुनो भै साधो, होने होके रही ॥ ३॥
सुमिरण का अंग
भगति भजन हरि नांव है, दूजा दुक्ख अपार ।
मनसा बाचा क्रमनां, `कबीर’ सुमिरण सार ॥1॥
भावार्थ – हरि का नाम-स्मरण ही भक्ति है और वही भजन सच्चा है ; भक्ति के नाम पर सारी साधनाएं केवल दिखावा है, और अपार दुःख की हेतु भी । पर स्मरण वह होना चाहिए मन से, बचन से और कर्म से, और यही नाम-स्मरण का सार है !
`कबीर कहता जात हूँ, सुणता है सब कोई ।
राम करें भल होइगा, नहिंतर भला न होई ॥2॥
भावार्थ – मैं हमेशा कहता हूँ, रट लगाये रहता हूँ, सब लोग सुनते भी रहते हैं – यही कि राम का स्मरण करने से ही भला होगा, नहीं तो कभी भला होनेवाला नहीं । पर राम का स्मरण ऐसा कि वह रोम-रोम में रम जाय ।
तू तू करता तू भया, मुझ में रही न हूँ ।
वारी फेरी बलि गई ,जित देखौं तित तूं ॥3॥
भावार्थ – तू, ही है, तू ही है’ यह करते-करते मैं तू ही हो गयी, हूँ’ मुझमें कहीं भी नहीं रह गयी । उसपर न्यौछावर होते-होते मैं समर्पित हो गयी हूँ । जिधर भी नजर जाती है उधर तू-ही-तू दीख रहा है ।
`कबीर’ सूता क्या करै, काहे न देखै जागि ।
जाको संग तैं बीछुड्या, ताही के संग लागि ॥4॥
भावार्थ – कबीर अपने आपको चेता रहे हैं, अच्छा हो कि दूसरे भी चेत जायं । अरे, सोया हुआ तू क्या कर रहा है ? जाग जा और अपने साथियों को देख, जो जाग गये हैं । यात्रा लम्बी है, जिनका साथ बिछड़ गया है और तू पिछड़ गया है, उनके साथ तू फिर लग जा ।
जिहि घटि प्रीति न प्रेम-रस, फुनि रसना नहीं राम ।
ते नर इस संसार में, उपजि खये बेकाम ॥5॥
भावार्थ – जिस घट में, जिसके अन्तर में न तो प्रीति है और न प्रेम का रस । और जिसकी रसना पर रामनाम भी नहीं – इस दुनिया में बेकार ही पैदा हुआ वह और बरबाद हो गया ।
`कबीर’ प्रेम न चषिया, चषि न लीया साव ।
सूने घर का पाहुंणां , ज्यूं आया त्यूं जाव ॥6॥
भावार्थ – कबीर धिक्कारते हुए कहते हैं – जिसने प्रेम का रस नहीं चखा, और चखकर उसका स्वाद नहीं लिया, उसे क्या कहा जाय ? वह तो सूने घर का मेहमान है, जैसे आया था वैसे ही चला गया !
राम पियारा छांड़ि करि, करै आन का जाप ।
बेस्यां केरा पूत ज्यूँ, कहै कौन सू बाप ॥7॥
भावार्थ – प्रियतम राम को छोड़कर जो दूसरे देवी-देवताओं को जपता है, उनकी आराधना करता है, उसे क्या कहा जाय ? वेश्या का पुत्र किसे अपना बाप कहे ? अनन्यता के बिना कोई गति नहीं ।
लूटि सकै तौ लूटियौ, राम-नाम है लूटि ।
पीछैं हो पछिताहुगे, यहु तन जैहै छूटि ॥8॥
भावार्थ – अगर लूट सको तो लूट लो, जी भर लूटो–यह राम नाम की लूट है । न लूटोगे तो बुरी तरह पछताओगे, क्योंकि तब यह तन छूट जायगा ।
लंबा मारग, दूरि घर, विकट पंथ, बहु मार ।
कहौ संतो, क्यूं पाइये, दुर्लभ हरि-दीदार ॥ 9॥
भावार्थ – रास्ता लम्बा है, और वह घर दूर है, जहाँ कि पहुँचना है । लम्बा ही नहीं, उबड़-खाबड़ भी है । कितने ही बटमार वहाँ पीछे लग जाते हैं । संत भाइयों, बताओ तो कि हरि का वह दुर्लभ दीदार तब कैसे मिल सकता है ?
`कबीर’ राम रिझाइ लै, मुखि अमृत गुण गाइ ।
फूटा नग ज्यूँ जोड़ि मन, संधे संधि मिलाइ ॥10॥
भावार्थ – कबीर कहते हैं- अमृत-जैसे गुणों को गाकर तू अपने राम को रिझा ले । राम से तेरा मन-बिछुड़ गया है, उससे वैसे ही मिल जा , जैसे कोई फूटा हुआ नग सन्धि-से-सन्धि मिलाकर एक कर लिया जाता है ।
साध का अंग
निरबैरी निहकामता, साईं सेती नेह ।
विषिया सूं न्यारा रहै, संतनि का अंग एह ॥1॥
भावार्थ – कोई पूछ बैठे तो सन्तों के लक्षण ये हैं- किसी से भी बैर नहीं, कोई कामना नहीं, एक प्रभु से ही पूरा प्रेम ।और विषय-वासनाओं में निर्लेपता ।
संत न छांड़ै संतई, जे कोटिक मिलें असंत ।
चंदन भुवंगा बैठिया, तउ सीतलता न तजंत ॥2॥
भावार्थ – करोड़ों ही असन्त आजायं, तोभी सन्त अपना सन्तपना नहीं छोड़ता । चन्दन के वृक्ष पर कितने ही साँप आ बैठें, तोभी वह शीतलता को नहीं छोड़ता ।
गांठी दाम न बांधई, नहिं नारी सों नेह ।
कह `कबीर’ ता साध की, हम चरनन की खेह ॥3॥
भावार्थ – कबीर कहते हैं कि हम ऐसे साधु के पैरों की धूल बन जाना चाहते हैं, जो गाँठ में एक कौड़ी भी नहीं रखता और नारी से जिसका प्रेम नहीं ।
सिहों के लेहँड़ नहीं, हंसों की नहीं पाँत ।
लालों की नहि बोरियाँ, साध न चलैं जमात ॥4॥
भावार्थ – सिंहों के झुण्ड नहीं हुआ करते और न हंसों की कतारें । लाल-रत्न बोरियों में नहीं भरे जाते, और जमात को साथ लेकर साधु नहिं चला करते ।
जाति न पूछौ साध की, पूछ लीजिए ग्यान ।
मोल करौ तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥5॥
भावार्थ -क्या पूछते हो कि साधु किस जाति का है?पूछना हो तो उससे ज्ञान की बात पूछोतलवार खरीदनी है, तो उसकी धार पर चढ़े पानी को देखो, उसके म्यान को फेंक दो, भले ही वह बहुमूल्य हो ।
`कबीर’ हरि का भावता, झीणां पंजर तास ।
रैणि न आवै नींदड़ी, अंगि न चढ़ई मांस ॥6॥
भावार्थ – कबीर कहते हैं -हरि के प्यारे का शरीर तो देखो-पंजर ही रह गया है बाकी । सारी ही रात उसे नींद नहीं आती, और अंग पर मांस नहीं चढ़ रहा ।
राम बियोगी तन बिकल, ताहि न चीन्हे कोइ ।
तंबोली के पान ज्यूं , दिन-दिन पीला होइ ॥7॥
भावार्थ – पूछते हो कि राम का वियोग होता कैसा है ?विरह में वह व्यथित रहता है, देखकर कोई पहचान नहीं पाता कि वह कौन है ?तम्बोली के पान की तरह, बिना सींचे, दिन-दिन वह पीला पड़ता जाता है ।
काम मिलावे राम कूं, जे कोई जाणै राखि ।
`कबीर’ बिचारा क्या कहै, जाकी सुखदेव बोलै साखि ॥8॥
भावार्थ – हाँ,राम से काम भी मिला सकता है -ऐसा काम, जिसे कि नियंत्रण में रखा जाय। यह बात बेचारा कबीर ही नहीं कह रहा है, शुकदेव मुनि भी साक्षी भर रहे हैं । [ आशय `धर्म से अविरुद्ध’ काम से है, अर्थात् भोग के प्रति अनासक्ति और उसपर नियंत्रण ।]
जिहिं हिरदे हरि आइया, सो क्यूं छानां होइ ।
जतन-जतन करि दाबिये, तऊ उजाला सोइ ॥9॥
भावार्थ – जिसके अन्तर में हरि आ बसा, उसके प्रेम को कैसे छिपाया जा सकता है ? दीपक को जतन कर-कर कितना ही छिपाओ, तब भी उसका उजेला तो प्रकट हो ही जायगा।[रामकृष्ण परमहंस के शब्दों में चिमनी के अन्दर से फानुस का प्रकाश छिपा नहीं रह सकता ।]
फाटै दीदै में फिरौं, नजरि न आवै कोइ ।
जिहि घटि मेरा साँईयाँ, सो क्यूं छाना होइ ॥10॥
भावार्थ – कबसे मैं आँखें फाड़-फाड़कर देख रहा हूँ कि ऐसा कोई मिल जाय, जिसे मेरे साईं का दीदार हुआ हो । वह किसी भी तरह छिपा नहीं रह जायगा, नजर पर चढ़े तो !
पावकरूपी राम है, घटि-घटि रह्या समाइ ।
चित चकमक लागै नहीं, ताथै धूवाँ ह्वै-ह्वै जाइ ॥11॥
भावार्थ – मेरा राम तो आग के सदृश है, जो घट-घट में समा रहा है । वह प्रकट तभी होगा, जब कि चित्त उसपर केन्द्रित हो जायगा । चकमक पत्थर की रगड़ बैठ नहीं रही, इससे केवल धुँवा उठ रहा है । तो आग अब कैसे प्रकटे ?
`कबीर’ खालिक जागिया, और न जागै कोइ ।
कै जगै बिषई विष-भर्या, कै दास बंदगी होइ ॥12॥
भावार्थ – कबीर कहते हैं -जाग रहा है, तो मेरा वह खालिक ही, दुनिया तो गहरी नींद में सो रही है, कोई भी नहीं जाग रहा । हाँ, ये दो ही जागते हैं – या तो विषय के जहर में डूबा हुआ कोई, या फिर साईं का बन्दा, जिसकी सारी रात बंदगी करते- करते बीत जाती है ।
पुरपाटण सुवस बसा, आनन्द ठांयैं ठांइ ।
राम-सनेही बाहिरा, उलजंड़ मेरे भाइ ॥13॥
भावार्थ – मेरी समझ में वे पुर और वे नगर वीरान ही हैं, जिनमें राम के स्नेही नहीं बस रहे, यद्यपि उनको बड़े सुन्दर ढंग से बनाया और बसाया गया है और जगह-जगह जहाँ आनन्द-उत्सव हो रहे हैं ।
जिहिं घरि साध न पूजि, हरि की सेवा नाहिं ।
ते घर मड़हट सारंषे, भूत बसै तिन माहिं ॥14॥
भावार्थ – जिस घर में साधु की पूजा नहीं, और हरि की सेवा नहीं होती, वह घर तो मरघट है, उसमें भूत-ही-भूत रहते हैं ।
हैवर गैवर सघन धन, छत्रपति की नारि ।
तास पटंतर ना तूलै, हरिजन की पनिहारि ॥15॥
भावार्थ – हरि-भक्त की पनिहारिन की बराबरी छत्रधारी की रानी भी नहीं कर सकती । ऐसे राजा की रानी,जो अच्छे-से-अच्छे घोड़ों और हाथियों का स्वामी है, और जिसका खजाना अपार धन-सम्पदा से भरा पड़ा है ।
क्यूं नृप-नारी नींदिये, क्यूं पनिहारी कौं मान ।
वा मांग संवारे पीव कौं, या नित उठि सुमिरै राम ॥26॥
भावार्थ – रानी को यह नीचा स्थान क्यों दिया गया, और पनिहारिन को इतना ऊँचा स्थान ? इसलिए कि रानी तो अपने राजा को रिझाने के लिए मांग सँवारती है, सिंगार करती है और वह पनिहारिन नित्य उठकर अपने राम का सुमिरन ।
`कबीर कुल तौ सो भला, जिहि कुल उपजै दास ।
जिहिं कुल दास न ऊपजै, सो कुल आक-पलास ॥27॥
भावार्थ – कबीर कहते हैं– कुल तो वही श्रेष्ठ है, जिसमें हरि-भक्त जन्म लेता है । जिस कुल में हरि-भक्त नहीं जनमता, वह कुल आक और पलास के समान व्यर्थ है ।
माया महा ठगनी हम जानी
माया महा ठगनी हम जानी
तिरगुन फांस लिए कर डोले बोले मधुरे बानी
केसव के कमला वे बैठी शिव के भवन भवानी
पंडा के मूरत वे बैठीं तीरथ में भई पानी
योगी के योगन वे बैठी राजा के घर रानी
काहू के हीरा वे बैठी काहू के कौड़ी कानी
भगतन की भगतिन वे बैठी ब्रह्मा के ब्रह्माणी
कहे कबीर सुनो भई साधो यह सब अकथ कहानी
निरंजन धन तुम्हरो दरबार
निरंजन धन तुम्हरो दरबार ।
जहाँ न तनिक न्याय विचार ।।
रंगमहल में बसें मसखरे, पास तेरे सरदार ।
धूर-धूप में साधो विराजें, होये भवनिधि पार ।।
वेश्या ओढे़ खासा मखमल, गल मोतिन का हार ।
पतिव्रता को मिले न खादी सूखा ग्रास अहार ।।
पाखंडी को जग में आदर, सन्त को कहें लबार ।
अज्ञानी को परम ब्रहम ज्ञानी को मूढ़ गंवार ।।
साँच कहे जग मारन धावे, झूठन को इतबार ।
कहत कबीर फकीर पुकारी, जग उल्टा व्यवहार ।।
निरंजन धन तुम्हरो दरबार ।