आत्मा
मैं सिर्फ
एक देह नहीं हूँ,
देह के पिंजरे में कैद
एक मुक्ति की कामना में लीन
आत्मा हूँ,
नृत्यरत हूँ निरंतर,
बांधे हुए सलीके के घुँघरू,
लौटा सकती हूँ मैं अब देवदूत को भी
मेरे स्वर्ग की रचना
मैं खुद करुँगी,
मैं बेअसर हूँ
किसी भी परिवर्तन से,
उम्र के साथ कल
पिंजरा तब्दील हो जायेगा
झुर्रियों से भरे
एक जर्जर खंडहर में,
पर मैं उतार कर,
समय की केंचुली,
बन जाऊँगी
चिर-यौवना,
मैं बेअसर हूँ
उन बाजुओं में उभरी नसों
की आकर्षण से,
जो पिंजरे के मोह में बंधी
घेरती हैं उसे,
मैं अछूती हूँ,
श्वांसों के उस स्पंदन से
जो सम्मोहित कर मुझे
कैद करना चाहता है
अपने मोहपाश में,
मैंने बांध लिया है
चाँद और सूरज को
अपने बैंगनी स्कार्फ में,
जो अब नियत नहीं करेंगे
मेरी दिनचर्या,
और आसमान के सिरे खोल
दिए हैं मैंने,
अब मेरी उड़ान में कोई
सीमा की बाधा नहीं है,
विचरती हूँ मैं
निरंतर ब्रह्माण्ड में
ओढ़े हुए मुक्ति का लबादा,
क्योंकि नियमों और अपेक्षाओं
के आवरण टांग दिए हैं मैंने
कल्पवृक्ष पर…….
विलुप्त प्रजाति
ओ नादान स्त्री,
सुन रही हो खामोश, दबी आहट
उस प्रचंड चक्रवात की
बेमिसाल है जिसकी मारक क्षमता,
जो बढ़ रहा तुम्हारी ओर मिटाते हुए तुम्हारे नामोनिशान,
जानती हो गुम हो जाती हैं समूची सभ्यताएं
ओर कैलंडर पर बदलती है सिर्फ तारीख,
क्या बहाए थे आंसू किसी ने मेसोपोटामिया के लिए
या सिसका था कोई बेबिलोनिया के लिए
क्या फर्क पड़ेगा यदि एक दिन
दर्ज हो जाएगी एक ओर विलुप्त प्रजाति
इतिहास के पन्नो में,
तुम्हारे लहू से सिंची गयी इस दुनिया में
यूँ ही गहराता रहेगा लिंग-अनुपात
और इतिहास दर्ज करता रहेगा
दिन, महीने, साल और दशक
सुनो, तुम साफ कर दी जाती रहोगी
सफेदपोशों के कुर्तों पर पड़ी गन्दगी की तरह,
सुनो आधी दुनिया,
तुम्हारे सीने पर ठोकी जाती है सदा
तुम्हारे ही ताबूत की कीलें
और तुम गाती हो सोहर, रखती हो सतिये,
बजाती हो जोर से थाली,
मनाती हो जश्न अपने ही मातम का,
ओर भूल जाती हो कि एक दिन मंद पड़ जायेंगे
वे स्वर क्योंकि बच्चे माँ की कोख से जन्मते हैं,
नहीं बना पाएंगे वे ऐसे कारखाने जहाँ ख़त्म हो जाती है
जरूरत एक औरत की,
क्यों उन आवाज़ों में अनसुनी कर देती हो
दबा दी गयी वे अजन्मी चीखें,
जो कभी गाने वाली थीं
झूले पर तीज के गीत,
महसूस करो उस अजगर की साँसें
जो सुस्ताता है तुम्हारे ही बिस्तर पर
तुम्हारी ही शकल में
और लील लेता है तुम्हारा ही समूचा वजूद धीरे धीरे,
तुम्हारी हर करवट पर घटती है तुम्हारी ही गिनती,
क्यों बन जाती हो संहारक अपने ही लहू की,
दर्ज करो कि कभी भी विलुप्त नहीं होते
भेड़ों की खाल में छिपे भेड़िये ओर लकड़भग्गे,
ओर भेड़ें यदि सीख लेंगी चाल का बदलाव
तो एक दिन गायब हो जायेगा उनके माथे से
सजदे का निशान,
तुम्हारी आत्मा में सेंध लगा,
तुममें समाती ओर तुम्हे मिटाने का ख्वाब पालती
हर आवाज़ बदलनी चाहिए उस उपजाऊ मिटटी में
जिसमें जन्मेंगी वे आवाजें जो गायेंगी हर साल
“अबके बरस भेज, भैया को बाबुल”
बड़े बाबू
बड़े बाबू आज रिटायर हो गए,
सदा अंकों से घिरे रहने वाले बड़े बाबू,
तमाम उम्र गिनती में निकल गयी,
आज भी कुछ गिन रहे हैं……
गिन रहे हैं जवान बेटी के बढ़ते साल,
एक न्यूनतम सुविधाओं पर जीती आई
पत्नी के चेहरे की बढती झुर्रियां,
उसकी मौन शिकायतें,
बेरोजगार बेटे की नाकाम डिग्रियां,
और आने वाली पेंशन के चंद नोट……
यूँ बड़े बाबू सदैव गिनते रहे हैं
रिश्वत दिए बिना ही काम हो जाने की
खुशियों से मुस्कुराते चेहरे,
भरे कंठ और कभी कभी नम ऑंखें,
सहकर्मियों के ताने और घूरती हुई
खा जाने वाली लाल लाल आँखें,
गिने सदा ही उन्होंने मिले हुए प्रशस्तिपत्रों
के ढेर,
लोगों के दिलों में इज्ज़त और सलाम,
साथ ही गिनते रहे बनिए और दूधवाले के
तकाजे,
रिश्तेदारों के व्यंग्य,
दहेज़ की डिमांड पर हाथ जोड़े जाने पर
घर से लौटते ढेरों कदम,
जवान बेटा भी जब मांगता है अपनी नौकरी
के लिए रिश्वत की रकम
तो बढ़ जाती है बड़े बाबू की गिनती,
जुड़ जाती हैं चंद लानतें, कुछ बेबसी,
थोडा सी नाराज़गी,
पर क्या करें, तमाम उम्र ईमानदारी
के सर्टिफिकेट को सीने से लगाये
रखने वाले बड़े बाबू जब उसे उलट पलट कर
देखते हैं तो घेर लेते हैं वही अंक
और शुरू हो जाती हैं कुछ और गिनतियाँ,
बड़े बाबू आज रिटायर हो गए
आग और पानी
कहा था किसी ने मुझे
कि आग और पानी का कभी मेल नहीं होता
सुनो मैंने इसे झूठ कर दिखाया है,
तुम्हारे साथ रहने की ये प्रबल उत्कंठा,
परे है सब समीकरणों से,
और अनभिज्ञ है, किसी भी रासायनिक या भौतिक
प्रक्रिया से,
हर बार तुम्हारे मिथ्या दंभ की आग में
बर्फ सी जली हूँ मैं
हर बार मेरी शीतलता ने
छूआ है तुम्हारे अहम् के
तपते अंगारों को
और देखो
भाप बनकर उडी नहीं मैं,
बहे जा रही हूँ युगों से नदी बनकर
और जब सुलग उठती हूँ
तुम्हारे क्रोध के दानावल से,
तो अक्सर फूट पड़ता है कोई
गर्म जल का सोता
हमारी भावनाओं के टकराव के
उद्गम से,
खोती हूँ खुद के कुछ कतरे,
देती हूँ आहुति में
थोडा सा स्वाभिमान,
थोड़ी सी सहनशीलता
बदलती हूँ अपनी सतह के कुछ अंश गर्म छींटों में,
पर मेरे अंतस में सदा बहती है
उल्लास की एक नदी,
जो मनाती है उत्सव हर मिलन का,
नाचती है छन्न छन्न की स्वर लहरी पर,
कभी सुलग उठते हो
अपने पौरुष के अभिमान में
ज्वालामुखी से तुम
तो बदल देती हूँ लावे में अपना अस्तित्व
क्योंकि मेरा बदलाव ही शर्त है
हमारे सम्बन्ध की,
पर फिर से बहती हूँ दुगने वेग से,
भूलकर हर तपन,
मेरा अनुभव है
आग और पानी का मिलन
इतना भी दुष्कर नहीं होता…..
लड़की
एक दिन समटते हुए अपने खालीपन को
मैंने ढूँढा था उस लड़की को,
जो भागती थी तितलियों के पीछे
सँभालते हुए अपने दुपट्टे को
फिर खो जाया करती थी
किताबों के पीछे,
गुनगुनाते हुए ग़ालिब की कोई ग़ज़ल
अक्सर मिल जाती थी वो लाईब्ररी में,
कभी पाई जाती थी घर के बरामदे में
बतियाते हुए प्रेमचंद और शेक्सपियर से,
कभी बारिश में तलते पकौड़ों
को छोड़कर
खुले हाथों से छूती थी आसमान,
और जोर से सांस खींचते हुए
समो लेना चाहती थी पहली बारिश
में महकती सोंधी मिटटी की खुशबू,
उसकी किताबों में रखे
सूखे फूल महका करते थे
उसके अल्फाज़ की महक से,
और शब्द उसके इर्द-गिर्द नाचते
रच देते थे एक तिलिस्म
और भर दिया करते थे
उसकी डायरी के पन्ने,
दोस्तों की महफ़िल छोड़
छत पर निहारती थी वो
बादल और बनाया करती थी
उनमें अनगिनित शक्लें,
तब उसकी उंगलियाँ अक्सर
मुंडेर पर लिखा करती थी कोई नाम,
उसकी चुप्पी को लोग क्यों
नहीं पढ़ पाते थे उसे परवाह नहीं थी,
हाँ, क्योंकि उसे जानते थे
ध्रुव तारा, चाँद और सितारे,
फिर एक दिन वो लड़की कहीं
खो गयी
सोचती हूँ क्या अब भी उसे प्यार
है किताबों से
क्या अब भी लुभाते हैं उसे नाचते अक्षर,
क्या अब भी गुनगुनाती है वो ग़ज़लें,
कभी मिले तो पूछियेगा उससे
और कहियेगा कि उसके झोले में
रखे रंग और ब्रुश अब सूख गए हैं
और पीले पड़ गए हैं गोर्की की
किताब के पन्ने,
देवदास और पारो अक्सर उसे
याद करते हैं
कहते हैं वो मेरी हमशकल थी
चाँद
कभी कभी किसी शाम को,
दिल क्यों इतना तनहा होता है
कि भीड़ का हर ठहाका
कर देता है
कुछ और अकेला,
और चाँद जो देखता है सब
पर चुप रहता है,
क्यों नहीं बन जाता
उस टेबल का पेपरवेट
जहाँ जिंदगी की किताब
के पन्ने उलटती जाती है,
वक़्त की आंधी,
या क्यों नहीं बन जाता
उस नदी में एक संदेशवाहक कश्ती
जिसके दोनों किनारे
कभी नहीं मिलते,
बस ताकते हैं एक टक
एक दूसरे को, सालों तक,
वक़्त के साथ उनकी धुंधलाती आँखों का
चश्मा भी तो बन सकता है
चाँद,
या बन सकता नदी के बीच
रौशनी का एक खम्बा,
और पिघला सकता है
कुछ जमी हुई अनकही बातें,
जो तैर रही है एक मुकाम
की तलाश में,
और जब शर्मिंदा हो
अपनी चुप्पी पे
छुप जाता है किसी बदली
के पीछे
तो क्यों झांकता है धुंध की
चादर के पीछे से,
जिसके हर छेद से गिरती है
सर्द ख़ामोशी,
और ले लेती है वजूद को
आहिस्ता-आहिस्ता
अपनी गिरफ्त में,
तब हर बीता पल फ़ैल कर
होता जाता है
मीलों लम्बा,
उन फासलों को तय करती यादें
जब थक कर आराम करती है
तो क्यों नहीं बन जाता चाँद
बेखुदी का नर्म तकिया,
और क्यों नहीं सुला देता
एक मीठी लम्बी नींद
सुनाकर लल्ला लल्ला लोरी,
यूँ और भी बहुत से काम हैं
चाँद के करने के लिए,
अगर छोड़ दे सपनों की पहरेदारी…..
चलो मीत
चलो मीत,
चलें दिन और रात की सरहद के पार,
जहाँ तुम रात को दिन कहो
तो मैं मुस्कुरा दूं,
जहाँ सूरज से तुम्हारी दोस्ती
बरक़रार रहे
और चाँद से मेरी नाराज़गी
बदल जाये ओस की बूंदों में,
चलो मीत,
चलें उम्र की उस सीमा के परे
जहाँ दिन, महीने, साल
वाष्पित हो बदल जाएँ
उड़ते हुए साइबेरियन पंछियों में
और लौट जाएँ सदा के लिए
अपने देश,
चलो मीत,
चलें भावनाओं के उस परबत पर
जहाँ हर बढ़ते कदम पर
पीछे छूट जाये मेरा ऐतराज़ और
संकोच,
और जब प्रेम शिखर नज़र आने लगे
तो मैं कसके पकड़ लूं तुम्हारा हाथ
मेरे डगमगाते कदम सध जाएँ
तुम्हारे सहारे पर,
चलो मीत,
कि बंधन अब सुख की परिधि
में बदल चुका है
और उम्मीद की बाहें हर क्षण
बढ़ रही है तुम्हारी ओर,
आओ समेट लें हर सीप को
कि आज सालों बाद स्वाति नक्षत्र
आने को है,
चलो मीत,
कि मिट जाये फर्क
मिलन और जुदाई का,
इंतजार के पन्नों पर बिखरी
प्रेम की स्याही सूखने से पहले,
बदल दे उसे मुलाकात की
तस्वीरों में,
चलो मीत,
हर गुजरते पल में
हलके हो जाते हैं समय के पाँव,
और लम्बे हो जाते हैं उसके पंख,
चलो मीत आज बांध लें समय को
सदा के लिए,
अभी, इसी पल…………..
ड्राईंग
उसकी नन्ही सी दो आँखे
चमक उठती है देखकर
तस्वीरों की किताब,
लाल पीले हर नीले
सभी रंग लुभाते हैं उसे
पर माँ क्यों थमा देती है
अक्सर काला तवा
जब लौट कर आती है
बड़ी कोठी के काम
से थककर,
और वो निर्विकार बनाती है
नन्हे हाथों से
कच्ची रोटी पर ड्राईंग
माँ से नज़र बचाकर
मैं अहिल्या नहीं बनूंगी
हाँ मेरा मन
आकर्षित है
उस दृष्टि के लिए,
जो उत्पन्न करती है
मेरे मन में
एक लुभावना कम्पन,
किन्तु
शापित नहीं होना है मुझे,
क्योंकि मैं नकारती हूँ
उस विवशता को
जहाँ सदियाँ गुजर जाती हैं
एक राम की प्रतीक्षा में,
इस बार मुझे सीखना है
फर्क
इन्द्र और गौतम की दृष्टि का
वाकिफ हूँ मैं शाप के दंश से
पाषाण से स्त्री बनने
की पीड़ा से,
लहू-लुहान हुए अस्तित्व को
सतर करने की प्रक्रिया से,
किसी दृष्टि में
सदानीरा सा बहता रस प्लावन
अदृश्य अनकहा नहीं है
मेरे लिए,
और मन जो भाग रहा है
बेलगाम घोड़े सा,
निहारता है उस
मृग मरीचिका को,
उसे थामती हूँ मैं
किसी हठी बालक सा
मांगता है चंद्रखिलौना,
क्यों नहीं मानता
कि आज किसी शाप की कामना
नहीं है मुझे
कामनाओं के पैराहन के
कोने को
गांठ लगा ली है
समझदारी की
जगा लिया है अपनी चेतना को
हाँ ये तय है
मैं अहिल्या नहीं बनूंगी!
ओ शिखर पुरुष
ओ शिखर पुरुष,
हिमालय से भी ऊंचे हो तुम
और मैं दूर से निहारती, सराहती
क्या कभी छू पाऊँगी तुम्हे,
तुम गर्वित मस्तक उठाये
देखते हो सिर्फ आकाश को,
जहाँ तुम्हारे साथी हैं दिनकर और शशि,
और मैं धरा के एक कण की तरह,
तुम तक पहुँच पाने की आस में
उठती हूँ और गिर जाती हूँ बार बार,
उलझी हैं मेरे पावों में
कई बेलें मापदंडों की,
तय करनी हैं कई पगडंडियाँ मानकों की,
अवधारणाओं के जंगलों से गुजरकर,
मान्यताओं की सीढ़ी चढ़कर,
क्या कभी पहुँच पाऊंगी तुम तक,
या तब तक तुम हो जाओगे
आकाश से भी ऊँचे
यदि गिर गयी मैं किसी
गहरी खाई में
क्या दोगे अपना हाथ मुझे सँभालने को
या मेरे मुख पर लगी कालिख
लौटा देगी तुम्हे,
फिर उन्ही ऊंचाइयों पर
जहाँ तुम देवता हो और मैं दासी,
क्या तुम्हारे चरण बनेंगे कभी हस्त,
जो छुएंगे मेरी देह को
केवल एक संगिनी की तरह
और मिट जायेगा देवता और दासी का फर्क,
तब तुम और मैं एक धरातल पर,
रचेंगे नयी सृष्टि बिना किसी सेब के,
और मानको और मान्यताओं की
राह पर संग विचरेंगे हम तुम,
और तुम मेरे एक हाथ को थामे,
हटाओगे उन मापदंडों की बेलों को
जो आज तक सिर्फ मेरे पावों के लिए थीं
मुआवजा
कविता के बदले
मुआवज़े का अगर चलन हो तो
संभव है मैं मांग बैठूं
मधुमक्खियों से
ताज़ा शहद
कि भिगो सकूँ
कुछ शब्दों को इसमें,
ताकि विदा कर सकूँ कविताओं से
कम-से -कम थोड़ी सी तो तल्खी,
या मैं मांग सकती हूँ कुछ नए शब्द भी
जिन्हें मैं प्रयोग कर सकूँ,
अपनी कविताओं में
दुःख,
छलावे,
प्रतिकार
या प्रतिरोध के बदले,
आपके लिए यह हैरत का सबब होगा
अगर मैं मांग रख दूँ कुछ डिब्बों की
जिनमें कैद कर सकूँ उन स्त्रियों के आंसू
जो गाहे-बगाहे
सुबक उठती हैं मेरी कविताओं में
हाँ, मुझे उनकी खामोश,
घुटी चीखों वाले डिब्बे को
दफ़्न करने के लिए एक माकूल
जगह की दरकार है.
बेटी के लिए
दर्द के तपते माथे पर शीतल ठंडक सी
मेरी बेटी
मैं ओढा देना चाहती हूँ तुम्हे
अपने अनुभवों की चादर
माथे पर देते हुए एक स्नेहिल बोसा
मैं चुपके से थमा देती हूँ
तुम्हारे हाथ में
कुछ चेतावनियों भरी पर्चियां,
साथ ही कर देना चाहती हूँ
आगाह गिरगिटों की आहट से
तुम जानती हो मेरे सारे राज,
बक्से में छिपाए गहने,
चाय के डिब्बे में
रखे घर खर्च से बचाए चंद नोट,
अलमारी के अंदर के खाने में रखी
लाल कवर वाली डायरी,
और डोरमेट के नीचे दबाई गयी चाबियां
पर नहीं जानती हो कि सीने की गहराइयों में
तुम्हारे लिए अथाह प्यार के साथ साथ
पल रही हैं
कितनी ही चिंताएँ,
मैं सौंप देती हूँ तुम्हे पसंदीदा गहने कपडे,
भर देती हूँ संस्कारों से तुम्हारी झोली,
पर बचा लेती हूँ चुपके से सारे दुःख और संताप
तब मैं खुद बदल जाना चाहती हूँ एक चरखड़ी में
और अपने अनुभव के मांजे को तराशकर
उड़ा देना चाहती हूँ
तुम्हारे सभी दुखों को बनाकर पतंग
कि कट कर गिर जाएँ ये
काली पतंगे सुदूर किसी लोक में,
चुरा लेना चाहती हूँ
ख़ामोशी से सभी दु:स्वप्न
तुम्हारी सुकून भरी गाढ़ी नींद से
ताकि करा सकूँ उनका रिजर्वेशन
ब्रहमांड के अंतिम छोर का,
इस निश्चिंतता के साथ
कि वापसी की कोई टिकट न हो,
वर्तमान से भयाक्रांत मैं बचा लेना चाहती हूँ
तुम्हे भविष्य की परेशानियों से,
उलट पलट करते मन्नतों के सारे ताबीज़
मेरी चाहत हैं कि सभी परीकथाओं से विलुप्त हो जाएँ
डरावने राक्षस,
और भेजने की कामना है तुम्हारी सभी चिंताओं को,
बनाकर हरकारा, किसी ऐसे पते का
जो दुनिया में कहीं मौजूद ही नहीं है,
पल पल बढ़ती तुम्हारी लंबाई के
मेरे कंधों को छूने की इस बेला में,
आज बिना किसी हिचक कहना चाहती हूँ
संस्कार और रुढियों के छाते तले
जब भी घुटने लगे तुम्हारी सांस
मैं मुक्त कर दूंगी तुम्हे उन बेड़ियों से
फेंक देना उस छाते को जिसके नीचे
रह पाओगी सिर्फ तुम या तुम्हारा सुकून
मेरी बेटी ………..
प्रेम कविता
ये सच है
तमाम कोशिशों के बावजूद
कि मैंने नहीं लिखी है
एक भी प्रेम कविता
बस लिखा है
राशन के बिल के साथ
साथ बिताये
लम्हों का हिसाब,
लिखी हैं डायरी में
दवाइयों के साथ,
तमाम असहमतियों की
भी एक्सपायरी डेट
लिखे हैं कुछ मासूम झूठ
और कुछ सहमे हुए सच
एकाध बेईमानी
और बहुत सारे समझौते,
कब से कोशिश मैं हूँ
कि आंख बंद होते ही
सामने आये तुम्हारे चेहरे
से ध्यान हटा
लिख पाऊँ
मैं भी
एक अदद प्रेम कविता…
बड़े लोग
वे बड़े थे,
बहुत बड़े,
वे बहुत ज्ञानी थे,
बड़े होने के लिए जरूरी हैं
कितनी सीढियाँ
वे गिनती जानते थे,
वे केवल बड़े बनने से
संतुष्ट नहीं थे,
उन्हें बखूबी आता था
बड़े बने रहने का भी हुनर,
वे सिद्धहस्त थे
आंकने में
अनुमानित मूल्य
इस समीकरण का,
कि कितना नीचे गिरने पर
कोई बन सकता है
कितना अधिक बड़ा…
मुक्ति
जाओ…
मैं सौंपती हूँ तुम्हें
उन बंजारन हवाओं को
जो छूती हैं मेरी दहलीज
और चल देती हैं तुम्हारे शहर की ओर
बनने संगिनी एक रफ़्तार के सौदागर
मैं सौंपती हूँ तुम्हे
उस छत को जिसकी मुंडेर भीगी है
तुम्हारे आंसुओं से, जो कभी तुमने
मेरी याद में बहाए थे,
तुम्हारे आँगन में उग रहे हैं
मोगरे के फूल और हंस दोगे यदि देखोगे
मेरे आंगन के फूल सजे हैं
देवता की थाली में,
मैं सौंपती हूँ तुम्हे
तुम्हारी उन कविताओं को
जो आइना हैं शहर भर का
जो सजी हैं सपनीले इन्द्रधनुष से
पर जिनमें रंग नहीं है मेरे पैरहन का,
तुम्हारा घर ढँक चुका है
किस्म किस्म के बादलों से
और बारिश की बूँदें बदल रही हैं
प्रेम पत्रों में,
जिनके ढेर में खो चुकी है
मेरी पहली चिट्ठी,
मैं सौंपती हूँ तुम्हे उन रास्तों को
जो गुम हो जाते हैं कुछ दूर जाकर,
शायद ढून्ढ रहे हैं उस बस को
जो तुम्हे मुझ तक लाया करती थी,
और लौटते समय जिसकी आखिरी खिड़की
अलविदा कहती थी मेरे घर की खिड़की को,
को
की,
जिस पर आज भी पर्दा नहीं है,
उन रास्तों पर उग रही हैं
रोज़ नयी चट्टानें जिनकी तलहटी पर
सिसक रहे हैं भावनाओं के कैक्टस,
मैं सौंपती हूँ तुम्हे
रोशनियों के उस शहर को
जिसके लिए उजाले चुराए हैं तुमने
मेरी आँखों से,
मेरे शहर में अब अँधेरा है और
सारे जुगनू चमक रहे हैं मेरी
पलकों के कोरों पर,
मैं सौंपती हूँ तुम्हे उस अहसास को
जो देता है रोज़ तुम्हे एक नयी मुस्कराहट
और जीने की एक नयी वजह,
और मेरा एक और दिन कट जाता है
साल के कैलेंडर से,
जाओ और पा लो खुदको,
कर लो
वरण
और मैं अर्जुन के सहस्त्र बाणों से बिंधी
प्रतीक्षा करूंगी अपनी मुक्ति की…
दुष्यंत की अंगूठी
प्रिय,
हर संबोधन जाने क्यूँ
बासी सा लगता है मुझे,
सदा मौन से ही
संबोधित किया है तुम्हे,
किन्तु मेरे मौन और
तुम्हारी प्रतिक्रिया के बीच
ये जो व्यस्तता के पर्वत है
बढती जाती है रोज़
इनकी ऊंचाई,
जिन्हें मैं रोज़ पोंछती हूँ
इस उम्मीद के साथ कि किसी रोज़
इनके किसी अरण्य में शकुंतला मिलेगी दुष्यंत से ,
क्यों नहीं सुन पाते हो तुम अब
नैनों की भाषा
जिनमे पढ़ लेते थे
मेरा
अघोषित आमंत्रण,
मेरी बाँहों से अधिक घेरते हैं तुम्हे
दुनिया भर के सरोकार,
और प्रेम के बोल ढल गए हैं
इन वाक्यों में
‘शाम को क्या बना रही हो तुम”
तुम्हारे प्रेम पत्र
रखा है मैंने,
क्यों पीले पड़ते जा रहे हैं दिनोदिन,
और लम्बी होती जा रही है
राशन की वो लिस्ट,
ऑफिस जाते समय भूल जाते हो कुछ
और मैं बच्चों के टिफिन की
भूलभुलैया में उलझी बस मुस्कुरा
देती हूँ,
फिर किसी दिन फ़ोन पर
इतराकर पूछते हो,
“याद आ रही है मेरी”
और मैं अचकचा कर फ़ोन को
देखती हूँ ये तुम्ही हो
जो कल दुर्वासा बने लौटे थे,
और शकुन्तला झुकी थी श्राप की
प्रतीक्षा में,
फिर खो जाती हूँ मैं
रात के खाने और सुबह की
तैयारियों के घने जंगल में
सोते हुए एक छोटे बालक
से लगते हो तुम,
और तुम्हारी लटों को संवारते हुए
तुम्हे चादर ओढ़ते हुए,
अचानक पा लेती हूँ मैं
दुष्यंत की अंगूठी…
चांदनी
ये शाम ये तन्हाई,
हो रही है गगन में
दिवस की विदाई,
जैसे ही शाम आई,
मुझे याद आ गए तुम
हवा में तैरती
खुशबू अनजानी सी,
कभी लगती पहचानी सी,
कभी कहती एक कहानी सी,
मैं सुनने का प्रयत्न करती हूँ
और मुझे याद आ गए तुम…
उतर आया है चाँद गगन में,
मानो ढूँढ रहा है किसी को चाँद गगन में,
मैं
भी सोचती हूँ,
पूछूं चाँद से किसी के बारे में,
याद करने का प्रयत्न करती हूँ,
और मुझे याद आ गए तुम…
महकती फिजा में
बहकती सी मैं,
धीरे से पुकारता है कोई
कहके मुझे ‘चांदनी’,
छिटकती चांदनी में जैसे
बन गयी हैं सीढ़िया,
मैं चढ़ने का प्रयत्न करती हूँ
और मुझे याद आ गए सिर्फ तुम…
तुम हो ना
यादों के झरोखे से
सिमट आया है चाँद मेरे आँचल में,
दुलराता सहेजता अपनी चांदनी को,
एक श्वेत कण बिखेरता
अनगिनित रश्मियाँ
दूधिया उजाला दूर कर रहा है
हृदय के समस्त कोनो का अँधेरा,
देख पा रही हूँ मैं खुदको,
एक नयी रौशनी से नहाई
मेरी आत्मा सिंगर रही है,
महकती बयार में,
बंद आँखों से गिन रही हूँ तारे,
एक एक कर एकाकार हो रहे हैं मुझमें
लम्हे जो संग बांटे थे तुम्हारे,
सूनी सड़क पे,
टहलते कदम,
रुक गए, ठहरे, फिर चले,
चल पड़े मंजिल की और,
और पा लिया मैंने तुम्हे,
सदा के लिए,
महसूस कर रही हूँ मैं,
तुम्हारी दृष्टि की तपिश,
और हिम सी पिघलती मेरी देह,
जो अब नहीं है,
कहीं नहीं है,
समा गयी है नदी
अपने सागर के आगोश में,
क्योंकि मेरा अस्तित्व भी तुम हो,
पहचान भी तुम हो,
मैं जानती हूँ तुम
कहीं नहीं हो,
जाने क्यों हमेशा लगता है
तुम यहीं हो, यहीं कहीं हो, हो ना
अच्छे दिन आने वाले हैं
बेमौसम बरसात का असर है
या आँधी के थपेड़ों की दहशत
उसकी उदासी के मंजर दिल कचोटते हैं
मेरे घर के सामने का वह पेड़
जिसकी उम्र और इस देश के संविधान की
उम्र में कोई फर्क नहीं है
आज खौफजदा है
मायूसी से देखता है लगातार
झड़ते पत्तों को
छाँट दी गई उन बाँहों को जो एक पड़ोसी
की बालकनी में जबरन घुसपैठ की
दोषी पाई गईं
नहीं यह महज खब्त नहीं है
कि मैं इस पेड़ की आँखों में छिपे डर को
कुछ कुछ पहचानने लगी हूँ
उसका अनकहा सुनने लगी हूँ
कुल्हाड़ियों से निकली उसकी कराह से सिहरने लगी हूँ
कुल्हाड़ियों का होना
उसके लिए जीवन में भय का होना है
तलवार की धार पर टँगे समय की चीत्कार
का होना है
नाशुक्रे लोगों की मेहरबानियों का होना है
मैं उसकी आँखों में देखना चाहती हूँ
नए पत्तों का सपना
सुनना चाहती हूँ बचे पत्तों की
सरसराहट से निकला स्वागत गान
मैं उसके कानों में फूँक देना चाहती हूँ
अच्छे दिनों के आने का संदेश
ये कवायद है खून सने हाथों से बचते हुए
आशाओं के सिरे तलाशने की
उम्मीदों से भरी छलनी के रीत जाने पर भी
मंगल गीत गाने की
परोसे गए छप्पनभोग के स्वाद को
कंकड़ के साथ महसूसने की
मुखौटा ओढ़े काल की आहट को अनसुना करने की
बेघर परिंदो और बदहवास गिलहरियों की चिचियाहट
पर कान बंद कर लेने की
कैसा समय है
कि वह एक मुस्कान के आने पर
घिर जाता है अपराधबोध में
मान क्यों नहीं लेता
कि अच्छे दिन बस आने ही वाले हैं…
एक स्त्री आज जाग गई है
1 .
रात की कालिमा कुछ अधिक गहरी थी,
डूबी थी सारी दिशाएँ आर्तनाद में,
चक्कर लगा रही थी सब उलटबाँसियाँ,
चिंता में होने लगी थी तानाशाहों की बैठकें,
बढ़ने लगा था व्यवस्था का रक्तचाप,
घोषित कर दिया जाना था कर्फ्यू,
एक स्त्री आज जाग गई है…
2 .
कोने में सर जोड़े खड़े थे
साम-दाम-दंड-भेद,
ऊँची उठने को आतुर थी हर दीवार
जर्द होते सूखे पत्तों सी काँपने लगी रूढ़ियाँ,
सुगबुगाहटें बदलने लगीं साजिशों में
क्योंकि वह सहेजना चाहती है थोड़ा सा प्रेम
खुद के लिए,
सीख रही है आटे में नमक जितनी खुदगर्जी,
कितना अनुचित है ना,
एक स्त्री आज जाग गई है…
3 .
घूँघट से कलम तक के सफर पर निकली
चरित्र के सर्टिफिकेट को नकारती
पाप और पुण्य की नई परिभाषा की तलाश में
घूम आती है उस बंजारन की तरह
जिसे हर कबीला पराया लगता है,
तथाकथित अतिक्रमणों की भाषा सीखती वह
आजमा लेना चाहती है सारे पराक्रम
एक स्त्री आज जाग गई है…
4 .
आँचल से लिपटे शिशु से लेकर
लैपटॉप तक को साधती औरत के संग,
जी उठती है कायनात
अपनी समस्त संभावनाओं के साथ,
बेड़ियों का आकर्षण,
बंधनों का प्रलोभन
बदलती हुई मान्यताओं के घर्षण में
बहा ले जाता है अपनी धार में न जाने
कितनी ही शताब्दियाँ,
तब उभर आते हैं कितने ही नए मानचित्र
संसार के पटल पर,
एक स्त्री आज जाग गई है…
5 .
खुली आँखों से देखते हुए अतीत को
मुक्त कर देना चाहती है मिथकों की कैद से
सभी दिव्य व्यक्तित्वों को,
जो जबरन ही कैद कर लिए गए
सौपते हुए जाने कितनी ही अनामंत्रित
अग्निपरीक्षाएँ,
हल्का हो जाना चाहती हैं छिटककर
वे सभी पाश
जो सदियों से लपेट कर रखे गए थे
उसके इर्द-गिर्द
अलंकरणों के मानिंद
एक स्त्री आज जाग गई है…
चुनाव से ठीक एक रात पहले
क्या आपकी कलम भी ठिठकी है
मेरे समय के कवियों, कहानीकारों और लेखकों
क्या आपको भी ये लगता है
इस विरोधाभासी समय में
कलम की नोंक पर
टँगे हुए कुछ शब्द जम गए हैं
जबकि रक्तचाप सामान्य से कुछ बिंदु ऊपर है,
ये कविताएँ लिखे जाने का समय तो बिल्कुल नहीं है
और तब जबकि अतिवाद के पक्ष में
गगनचुंबी नारे काबिज हों कविताओं पर,
ये दरअसल खीज कर, घरघराते गले से
उबल पड़ने को आतुर चीख को
लगभग अनसुना कर
जबरन खुद को
अखबार में खो जाने देने के दिन है
इन दिनों अनुमान लगाना कठिन है
कि ये पानी का स्वाद कड़वा है
या आपके अवसादग्रस्त मन की कड़वाहट
घुल गई है गिलास में
और तब विचारों को धकियाती कविताएँ
जगह बनाना चाहते हुए भी अक्सर
न्यूज चैनल की सुर्खियों पर लगभग
चौंकते हुए
जा बैठती है सोच के आखिरी छोर पर,
उन्हे मनाने की कवायदें भी
दम तोड़ने लगती हैं
घूरते हुए समाचारवादक के गले की उभरी नसें,
देखते हुए कोई ताजा स्टिंग ऑपरेशन
ये कहानियों के नायकों के कोपभवन में
चले जाने के दिन हैं
जब विचारों की तानाशाही हर कदम पर
आपको छूकर गुजरती है
और सोच अक्सर किसी अनचाहे चेहरे
के हावी होने से ग्रस्त है
ये दिन अनुवाद के तो हरगिज नहीं है
तब जब सारी व्यवस्था माँग करती है
सबसे सरलतम, निम्नतम मूकभाषी व्यक्ति की
सूनी, आँखों की भाषा का सटीक अनुवाद
ये कलमकारों के लगभग
युद्ध की विभीषिका से गुजरने के दिन हैं
जहाँ हर रोज मुठभेड़ में सामने आईना होता है
यह दरअसल अक्सर प्रत्याशियों के
‘सुयोग्य’ चुने जाने
‘ठीकठाक’ समझे जाने और
अंततः ‘अयोग्य’ पाए जाने के दिन हैं
इसे बीत जाने दो, पतझड़ की तरह कलमकारों
तब मिलकर साफ करने होंगे हमें
लोकतंत्र के खून के धब्बे,
व्यवस्था की चीखों की कालिख
और
मजलूमों को रौंदते महत्वाकांक्षाओं के
आगे ही बढ़ते पैरों के निशान
जागते रहो आज पूरी रात कि कल चुनी जानी है सरकार…
चालीस साला औरतें
इन अलसाई आँखों ने
रात भर जाग कर खरीदे हैं
कुछ बंजारा सपने
सालों से पोस्टपोन की गई
उम्मीदें उफान पर हैं
कि पूरे होने का यही वक्त
तय हुआ होगा शायद
अभी नन्हीं उँगलियों से जरा ढीली ही हुई है
इन हाथों की पकड़
कि थिरक रहे हैं वे कीबोर्ड पर
उड़ाने लगे हैं उमंगों की पतंगे
लिखने लगे हैं बगावतों की नित नई दास्तान,
सँभालो उन्हे कि घी-तेल लगा आँचल
अब बनने को ही है परचम
कंधों को छूने लगी नौनिहालों की लंबाई
और साथ बढ़ने लगा है सुसुप्त उम्मीदों का भी कद
और जिनके जूतों में समाने लगे है नन्हें नन्हें पाँव
वे पाँव नापने को तैयार हैं
यथार्थ के धरातल का नया सफर
बेफिक्र हैं कलमों में घुलती चाँदी से
चश्मे के बदलते नंबर से
हार्मोन्स के असंतुलन से
अवसाद से अक्सर बदलते मूड से
मीनोपाज की आहट के साइड एफेक्ट्स से
किसे परवाह है,
ये मस्ती, ये बेपरवाही,
गवाह है कि बदलने लगी है ख्वाबों की लिपि
वे उठा चुकी हैं दबी हँसी से पहरे
वे मुक्त हैं अब प्रसूतिगृहों से,
मुक्त हैं जागकर कटी नेपी बदलती रातों से,
मुक्त हैं पति और बच्चों की व्यस्तताओं की चिंता से,
ये जो फैली हुई कमर का घेरा है न
ये दरअसल अनुभवों के वलयों का स्थायी पता है
और ये आँखों के इर्द गिर्द लकीरों का जाल है
वह हिसाब है उन सालों का जो अनाज बन
समाते रहे गृहस्थी की चक्की में
ये चर्बी नहीं
ये सेलुलाइड नहीं
ये स्ट्रेच मार्क्स नहीं
ये दरअसल छुपी, दमित इच्छाओं की पोटलियाँ हैं
जिनकी पदचापें अब नई दुनिया का द्वार ठकठकाने लगीं हैं
ये अलमारी के भीतर के चोर-खाने में छुपे प्रेमपत्र हैं
जिसकी तहों में असफल प्रेम की आहें हैं
ये किसी कोने में चुपके से चखी गई शराब की घूँटें है
जिसके कड़वेपन से बँधी हैं कई अकेली रातें,
ये उपवास के दिनों का वक्त गिनता सलाद है
जिसकी निगाहें सिर्फ अब चाँद नहीं सितारों पर है,
ये अंगवस्त्रों की उधड़ी सीवनें हैं
जिनके पास कई खामोश किस्से हैं
ये भगोने में अंत में बची तरकारी है
जिसने मैगी के साथ रतजगा काटा है
अपनी पूर्ववर्तियों से ठीक अलग
वे नहीं ढूँढ़ती हैं देवालयों में
देह की अनसुनी पुकार का समाधान
अपनी कामनाओं के ज्वार पर अब वे हँस देती हैं ठठाकर,
भूल जाती हैं जिंदगी की आपाधापी
कर देती शेयर एक रोमांटिक सा गाना,
मशगूल हो जाती हैं लिखने में एक प्रेम कविता,
पढ़ पाओ तो पढ़ो उन्हें
कि वे औरतें इतनी बार दोहराई गई कहानियाँ हैं
कि उनके चेहरों पर लिखा है उनका सारांश भी,
उनके प्रोफाइल पिक सा रंगीन न भी हो उनका जीवन
तो भी वे भरने को प्रतिबद्ध हैं अपने आभासी जीवन में
इंद्रधनुष के सातों रंग,
जी हाँ, वे फेसबुक पर मौजूद चालीस साला औरतें हैं…
तीलियाँ
रहना ही होता है हमें
अनचाहे भी कुछ लोगों के साथ,
जैसे माचिस की डिबिया में रहती हैं
तीलियाँ सटी हुई एक दूसरे के साथ,
प्रत्यक्षतः शांत
और गंभीर
एक दूसरे से चुराते नज़रें पर
देखते हुए हजारो-हज़ार आँखों से,
तलाश में बस एक रगड़ की
और बदल जाने को आतुर एक दावानल में,
भूल जाते हैं कि
तीलियों का धर्म होता है सुलगाना,
चूल्हा या किसी का घर,
खुद कहाँ जानती हैं तीलियाँ,
होती हैं स्वयं में एक सुसुप्त ज्वालामुखी
हरेक तीली,
कब मिलता है अधिकार उन्हें
चुनने का अपना भविष्य
कभी कोई तीली बदलती है पवित्र अग्नि में तो
कोई बदल जाती है लेडी मेकबेथ में…
महानगर में आज
अक्सर, जब बिटिया होती है साथ
और करती है मनुहार
एक कहानी की,
रचना चाहती हूँ
…सपनीले इन्द्रधनुष,
चुनना चाहती हूँ
…कुछ मखमली किस्से,
यूँ हमारे मध्य तैरती रहती हैं
कई रोचक कहानियां,
किन्तु इनमें
परियों और राजकुमारियों के चेहरे
इतने कातर पहले कभी नहीं थे,
औचक खड़ी सुकुमारियाँ
भूल जाया करती हैं
टूथपेस्ट के विज्ञापन,
और भयावह उकाबों पर सवार मुस्कानें
तब खो जाती हैं
किसी सुदूर लोक की वादियों में,
ऊँची कंक्रीट की बिल्डिंगें,
एकाएक बदल जाती हैं
खौफनाक आदिम गुफाओं में
सींगों वाले राक्षसों के मुक्त अट्टहास
तब उभर आते हैं
“महानगर में आज” के कॉलम में,
छलावा दबे पांव आता है
विश्वास का मुखौटा लगाये
और संवेदनाओं की कब्र के ठीक ऊपर
हर उम्र की मादा बदल जाती है
एक सनसनीखेज सुर्खी में,
सदियों पुरानी सभ्यता जी रही है
अपने आधुनिकतम दौर के
गौरव को
और विकास के सबसे ऊँचे पायदान पर
जब सभी थपथपाते हैं अपनी पीठ
तमाम सावधानियों के बावजूद
यहाँ वहां से झांक ही लेती है ये सच्चाई
कि गुमशुदगी से भरे पन्ने
गायब हैं रोजनामचों से,
और नीली बत्तियों की रखवाली ही
आज प्रथम दृष्टतया है,
समारोह में माल्यार्पण से
गदगद तमगे खुश है
कि आंकड़े बताते हैं
अपराध घट रहे हैं,
विदेशी सुरा, सुन्दरी और गर्म गोश्त
मिलकर रचते हैं नया इतिहास,
इतिहास जो बताता है
कि गर्वोन्मत पदोन्नतियां
अक्सर भारी पड़ती हैं
मूक तबादलों पर…
बिछड़े दोस्त के लिए
अगर मैं कह दूँ कि हम आम दोस्त थे
तो ये वाक्य सच्चाई से उतना ही दूर होगा
जितनी दूरी थी हमारे कदमों के बीच
इस दूरी का कारण कुछ भी हो सकता है
शायद इसलिए कि तुम्हारे और मेरे
सपनों की मंज़िलें कुछ और थीं,
या शायद इसलिए कि तुम तुम थे,
और मैं मैं,
पर ये भी हकीकत है कि
एक अनजान रिश्ते में बंधे होने के बावजूद
किसी अँधेरी सड़क पर लड़खड़ाते हुए
मैंने नहीं हाथ थामा कभी तुम्हारा हाथ
हालांकि तुम्हारे हाथों ने सदा ही थामी थी
मेरी परेशानियाँ, मेरी मुश्किलें
और बेसाख्ता मेरे कंधे से
गिरते शाल को सँभालने
कभी तुमने भी नहीं बढ़ाई अपनी बाजू
इसके बावजूद हम दोनों जानते थे कि
सिर्फ एहतियातन होता था,
यूं मेरे हर कदम के ठीक आगे
मौजूद थी हमेशा
तुम्हारी अदृश्य हथेली,
मैंने कभी स्नेह को शब्द मानकर
नहीं गिने उसके हिज्जे
वरना
ये ठीक तुम्हारे नाम के बराबर होते
और दोस्ती को अगर जिंदगी के
तराज़ू में तोला जाता तो
उसका वजन ठीक तुम्हारी मुक्त हंसी के
बराबर होता
तुम्हारे बैग को गर कभी टटोला जाता
तो आत्मीयता, परवाह और अपनेपन के
खजाने की चाबी का हाथ लगना
तय ही तो था,
पर दोस्ती के इस खुशनुमा सफर
में नहीं था कोई भी ऐसा स्टेशन
जिसका नाम प्रेम होता,
फिर एक दिन दोस्ती और प्यार
समानार्थी शब्द से प्रतीत
होने लगे तुम्हारे और दुनिया के लिए
प्रेम की राह पर आगे बढ़ चुके
जब तुम लिख रहे थे…प्यार…प्यार…
मैंने मुस्कुराते हुये लिखा
अपने रिश्ते की किताब पर
कि दोस्ती का अर्थ सिर्फ दोस्ती होता है
और बढ़ गयी आगे अपनी मंज़िल की ओर…
मुस्कान
मैं हर रोज उसे देखता हूँ
बालकोनी में कपडे सुखाती
या मनीप्लांट संवारती
वह नवविवाहिता हर रोज़ ओढ़े रहती है
किसी विमान परिचारिका-सी मुस्कान
मेरा कलम चलाता हाथ
या चश्में से अख़बार की सुर्खियाँ पीती आँखें
या हाथ में पकड़ा
ठंडी होती कॉफ़ी का उनींदा कप
या कई दिनों बाद दाढ़ी बनाने को
बमुश्किल तैयार रेज़र
अक्सर ठिठक जाते हैं…
कभी-कभी कोफ़्त होने लगती है
इस मुस्कान से
क्या वो तब भी मुस्कुराएगी
जब पायेगी अपने
परले दर्जे के अय्याश पति के कोट पर
एक बाल
जो उसके बालों के रंग और साइज़ से
बेमेल है
जब उसके बेड के साइड टेबल पर रखी
तस्वीरें सिकुड़ने लगेंगी
और फ्रेम बड़ा हो जायेगा
जब शादी का रंगीन एल्बम
‘ब्लैक एंड व्हाइट’ लगने लगेगा
जब वो ऑफिस से लौटते हुए
नहीं लायेगा कोई तोहफा
सच कहूँ तो उसका
छत पर बने उसके कमरे के
कोने में रखे बोनसाई में बदलना
मुझे भी अच्छा नहीं लगेगा
लेकिन मैं जानता हूँ कि ये मुस्कान
एक दिन खामोश सर्द मौसम में घुल जाएगी
आहिस्ता आहिस्ता…
इंकार
वे बड़े थे,
बहुत बड़े,
वे बहुत ज्ञानी थे,
बड़े होने के लिए जरूरी हैं
कितनी सीढियाँ
वे गिनती जानते थे,
वे केवल बड़े बनने से
संतुष्ट नहीं थे,
उन्हें बखूबी आता था
बड़े बने रहने का भी हुनर,
वे सिद्धहस्त थे
आंकने में
अनुमानित मूल्य
इस समीकरण का,
कि कितना नीचे गिरने पर
कोई बन सकता है
कितना अधिक बड़ा…
दोराहा
यह तय था
उन्हें नहीं चाहिए थी
तुम्हारी बेबाकी
तुम्हारी स्वतंत्रता,
तुम्हारा गुरुर,
और तुम्हारा स्वाभिमान,
तुम सीखती रही छाया पकड़ना,
तुम बनाती रही रेत के कमज़ोर घरोंदे,
तुम सजती रही उनकी ही सौंपी बेड़ियों से,
वे मांगते रहे समझौते,
वे चाहते रहे कमिटमेंट,
वे चुराते रहे उपलब्धियां,
वे बनाते रहे दीवारें,
तुम बदलती रही हर पल उस ट्रेन में जिसके
चालक बदलते रहे सुबह, दोपहर और साँझ,
उन्हें चाहिए थे तुम्हारे आँसू
उन्हें चाहिए थी तुम्हारी बेबसी
उन्हें चाहिए थे तुम्हारा झुका सिर
उन्हें चाहिए था तुम्हारा डर,
वहां एक पगडण्डी
कर रही है इंतज़ार नए कदमों का
तय करो स्त्री आगे दोराहा है…