बे-नकाब उन की जफाओं को किया है मैं ने
बे-नकाब उन की जफाओं को किया है मैं ने
वक्त के हाथ में आईना दिया है मैं ने
ख़ून ख़ुद शौक ओ तमन्ना का किया है मैं ने
अपनी तस्वीर को इक रंग दिया है मैं ने
ये तो सच है के नहीं अपने गिरेबाँ की खबर
तेरा दामन तो कई बार सिया है मैं ने
रस्न ओ दार की तक्दीर जगा दी जिस ने
तेरी दुनिया में वो ऐलान किया है मैं ने
हर्फ आने न दिया इश्क की खुद-दारी पर
काम ना-काम तमन्ना से लिया है मैं ने
जब कभी उन की जफाओं की शिकायत की है
तजज़िया अपनी वफा का भी किया है मैं ने
मुद्दतों बाद जो इस राह से गुजरा हूँ ‘कमर’
अहद-ए-रफ्ता को बहुत याद किया है मैं ने
लज्ज़त-ए-दर्द-जिगर याद आई
लज्ज़त-ए-दर्द-जिगर याद आई
फिर तेरी पहली नज़र याद आई
दर्द ने जब कोई करवट बदली
जिंदगी बार-ए-दिगर याद आई
पड़ गई जब तेरे दामन पर नज़र
अज़मत-ए-दीद-ए-तर याद आई
अपना खोया हुआ दिल याद आया
उन की मख़्मूर नज़र याद आई
दैर ओ काबा से जो हो कर गुज़रे
दोस्त की राह-गुज़र याद आई
देख कर उस रूख-ए-जे़बा पे नकाब
अपनी गुस्ताख नज़र याद आई
जब भी तामीर-ए-नशेमन की ‘कमर’
यूरिश-ए-बर्क-ओ शरर याद आई
मंज़िलों के निशाँ नहीं मिलते
मंज़िलों के निशाँ नहीं मिलते
तुम अगर नागहाँ नहीं मिलते
आशियाने का रंज कौन करे
चार तिनके कहाँ नहीं मिलते
दास्तानें हज़ार मिलती हैं
साहिब-ए-दास्ताँ नहीं मिलते
यूँ न मिलने के सौ बहाने हैं
मिलने वाले कहाँ नहीं मिलते
इंकिलाब-ए-जहाँ अरे तौबा
हम जहाँ थे वहाँ नहीं मिलते
दोस्तों की कमी नहीं हम-दम
ऐसे दुश्मन कहाँ नहीं मिलते
जिन को मंजिल सलाम करती थी
आज वो कारवाँ नहीं मिलते
शाख-ए-गुल पर जो झूमते थे ‘कमर’
आज वो आशियाँ नहीं मिलते
मोहब्बत का जहाँ है और मैं हूँ
मोहब्बत का जहाँ है और मैं हूँ
मेरा दारूल-अमाँ है और मैं हूँ
हयात-ए-गम निशाँ है और मैं हूँ
मुसलसल इम्तिहाँ है और मैं हूँ
निगाह-ए-शौक है और उन के जलवे
शिकस्त-ए-नागहाँ है और मै हूँ
उसी का नाम हो शायद मोहब्बत
कोई बार-ए-गिराँ है और मैं हूँ
मोहब्बत बे-सहारा तो नहीं है
मेरा दर्द-ए-निहाँ है और मैं हूँ
मोहब्बत के फसाने अल्लाह अल्लाह
ज़माने की जबाँ है और मैं हूँ
‘कमर’ तकलीद का काइल नहीं मैं
मेरा तर्ज़-ए-बयाँ है और मैं हूँ
नज़र है जलवा-ए-जानाँ है देखिए क्या हो
नज़र है जलवा-ए-जानाँ है देखिए क्या हो
शिकस्त-ए-इश्क का इम्कान है देखिए क्या हो
अभी बहार-ए-गुज़िश्ता का गम मिटा भी नहीं
फिर एहतमाम बहाराँ है देखिए क्या हो
कदम उठे भी नहीं बज्म-ए-नाज की जानिब
खयाल अभी से परेशाँ है देखिए क्या हो
किसी की राह में काँटे किसी की राह में फूल
हमारी राह में तूफाँ है देखिए क्या हो
खिरद का जोर है आराइश-ए-गुलिस्ताँ पर
जुनूँ हरीफ-ए-बहाराँ है देखिए क्या हो
जिस एक शाख पे बुनियाद है नशेमन की
वो एक शाख भी लर्जां है देखिए क्या हो
है आज बज्म में फिर इज़्न-ए-आम साकी का
‘कमर’ हनोज मुसलमाँ है देखिए क्या हो
नग़मों की जगह दिल से अब आह निकलती है
नग़मों की जगह दिल से अब आह निकलती है,
जब साज़ बदलता है, आवाज़ बदलती है ।
है मेरी मोहब्बत का उन पर भी असर शायद,
बेवजह ख़ामोशी से, इक बात निकलती है ।
ये दिल तो मेरा दिल है, ख़ामोश रहे क्यूँकर,
पत्थर को अगर तोड़ो, आवाज़ निकलती है ।
मैंने तेरी नज़रो को यूँ शौक से देखा है,
इनसे मेरे ख़्वाबों की ताबीर[1] निकलती है ।
है ज़ीस्त[2] की राहो में इक मोड़ मोहब्बत भी,
होश आता है इंसा को जब राह बदलती है ।
अब किससे यहाँ कीजे, उम्मीद वफ़ाओं की,
जब वक़्त बदलता है हर चीज़ बदलती है ।
फ़ितरत[3] के तकाज़ो पर कहता हूँ क़मर गज़लें,
कैफ़ियते-दिल[4] मेरी अशआर में ढलती है ।
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