Skip to content

कविता मालवीय की रचनाएँ

Kavita-malviya.jpg

कर्मयोग 

आत्मसाक्षात्कार की लड़ाई है-
इन्द्रिय भोग से निर्वृति!
सारे द्वंदों से मुक्ति!
राग और क्रोध से विरक्ति!
इच्छाओं की तुष्टि में सख्ती!
सिर्फ एक सत्ता से भावाभिव्यक्ति!
पर मैं!
सरसों के खेत और तितली के रंगों में,
इश्क संजीदा होने पर नज़रों के फंदों में,
आसमान में आकार बनाते परिंदों में,
नवजात शिशु के पहले रुदन के छंदों में,
मोहग्रस्त हूँ
भावों की या प्रशासन की अव्यवस्था पर
क्रोध ग्रस्त हूँ
क्योंकि मैं बोधग्रस्त हूँ
हर उस शख्स की आँखों में
वह सत्ता विराजमान है
जहां अगले के लिए कुछ करने का भान है
उसकी इस कायनात पर मेरा दिल
बाकायदा कुर्बान है
पर आत्मसाक्षात्कार!
अभी भी मेरी वहां अटकी जान है
क्योंकि मैं कर्मरत हूँ

कुचक्र 

अक्सर हम
यादों को
पैरों के नीचे
कुचल कर।
मसल कर
मार आते हैं
पर
उनके मरे हुए
चंद मांस के कतरे
अपने साथ ले आते हैं,
जो फलने लगते हैं,
हमारे अंदर
हमारे ऊपर,
आदतन
जब जब हम पलट कर
यादों के
मरे होने की
पुष्टि करने जाते है
तो वोह कुलबुलाते
परजीवी मांस पिंड
कुचली हुई यादों को
जीवन दान दे आते हैं

स्त्री पुरुष

न तो तुम्हारे पास
चातक पक्षी की
चरित्रगत विशेषताओं का निवेश है
न मेरे पास स्वाति बूंद का
कोई ऐसा खाता है
फिर हर युग में
ऐसी अपेक्षाओं के शेयर बाज़ार में
बड़ी बड़ी बोली लगा कर
दिवालिया क्यों बन जाते हैं
हम तुम?

आस

तुम्हारा क्या ख्याल है!
नेपथ्य में काफी संभावनाएं हैं
नेपथ्य में पलने वाले दर्द
जब उघड़ जाते हैं तो

अनसुने, अनदेखे नहीं रह जाते हैं,
उर्मिला के निशब्द दर्द
सीता के कथनीय दुःख से
ज्यादा शोर मचाते हैं,
कर्ण के शांत आक्रोश स्वर
अर्जुन के सस्वर वीर राग पर
ज्यादा भारी पड़ जाते हैं

हम तुम भी नेपथ्य में ही खड़े हैं

सांध्य काल

रात शाम को निगलने को है
अहंकारी सूरज पिघलने को है
पंछी वापस निकलने को है
जमाया हुआ ताम झाम गलने को है
बुझने से पहले शमा तेज़ जलने को है
मंजिल मिलने से पहले दो पल सँभलने को है
थके हुए पथिक ने
गर्व से सालों से कांख में दबी
भारी भरकम
कर्म पोथी पर नज़र दौड़ाई
वहां अध्याय तो थे
और उनके शीर्षक भी
पर बियाबान खाली कफ़न से
सफ़ेद पन्नों को देख
आँसू की बूंद
अपनी मंजिल भूल आई
कि डूबती संध्या
पथिक के कानो में फुसफुसाई
तुम खेले तो बहुत पर
तुम्हारी कोई भी करनी
इबारत न बन पाई

शब्द

अर्थ की नक्काशी पर आँख फोड़ते सुनार शब्द
राजनीति में नीयत की सूनी गोद के बाँझ शब्द
पुरानी लकीरों को पीटते व हाँफते लुहार शब्द
बुढ़ापे में औलाद का मुँह ताकते अनाथ शब्द
रिश्तों की सरहद के घुसपैठिये सेंधमार शब्द
बचपन के अबोध रंगीन जहां के स्याह शब्द
मानसिकता की गंदगी से जूझते बीमार शब्द
परम्पराओं के पिछवाड़े उगते विवाहेतर शब्द
परनिंदा के रससंवेदी चषकों के रसधार शब्द
हर नियमावली के सड़ते नासूर जुगाड़ शब्द

कविता में टूट फूट की मरम्मत करते

मिस्त्री और ठेकेदार शब्द

हे दिवाकर!

हे दिवाकर!
तुममें ऐसा क्या है यार
निखरते हो
तो महफ़िल की वाहवाही समेट लेते हो
डूबते हो
तो आहों से जग को लपेट लेते हो
तुम कभी
उच्चतर भावना से ग्रस्त नहीं होते!
कृष्ण के बचपन में,
दीवानों (कवि) की जमात में
सुबहो शाम शामिल रहने से पस्त नहीं होते
शायर हो क्या?
जो मुश्किलात (चंद्रग्रहण) में भी
दर्द की हर अंगडाई का
फ़साना बना देते हो
दंगाई हो क्या?
जो अच्छे भले
शांत माहौल में आग लगा देते हो?
तुममें ऐसा क्या है यार

नि:शब्द लोग

कुनमुनाते हुए
सिगरेट के अधजले टुकड़े,
गिलास की तलहटी में
अनमने से चंद कतरे मय के,
कुर्सी पर ठाठ से पसरी हुई
कल की ख़ामोशी,
कुशन की सिलवट में
गिर कर अटका
वोह हसीन लम्हा ,
पंखे की आवाज़ में
मूंह छिपाती हाथों की जुम्बिश,
पन्ने पर फडफडाते ज़िंदा अलफ़ाज़,
घड़ी से टपका मेज़ पर फैला रात का नूर,
सुबह सामान उठाते हुए
आया बुदबुदाई
उफ़ आजकल ये बेजान चीज़ें
कितना बोलती हैं

Leave a Reply

Your email address will not be published.