अदल-बदल
अगर हम
फिर से शुरू करें
ज़िंदगी,
तो क्या-क्या बदलोगे तुम?
और क्या-क्या बदलूँगी मैं?
मैं अपनी
हर बात में
सावन सी बरसती आँखों
के कुछ बादल,
तुम्हारे सीने के धुँआते
रेगिस्तान में रख दूँगी
कि
तुम्हारी आग तुमको ही न जलाये,
और तुम,
अपनी
चट्टानी सोच में से कुछ मुझे दे देना
कि
सावन के बादल
मुझे न डुबोयें!
तुम,
मुझे अपने सपनों की पिटारी देना
और मैं,
तुम्हें
अपने गीतों की
सड़क दूँगी,
जिस पर
हम वो पोटरी उठाये
चलेंगे
साथ-साथ!
तुम,
अपनी सोच के
कपड़े बदल लेना
और
मैं प्यार का श्रृंगार कर लूँगी
फिर
हम चलेंगे,
जीवन की उस महफिल में
जिसमें
हँसी की लहरों पर तैरेंगे,
विश्वास के पत्थर
जिन पर
हमारा नाम लिखा होगा!
आओ! हम
फिर से शुरू करें
यह ज़िंदगी..
इस मोड़ से
अगले मोड़ तक!
आज की कविता
ऐसी चली हवा कि…
मेरी कविता की कल्पना बेल सूख गई अचानक
छन्दों की नगरी में मची ऐसी भगदड़
कि कोई दोहा और चौपाई तक पीछे नहीं छूटा
और सारा का सारा काव्यशास्त्र नगर खाली हो गया।
ऐसी चली हवा कि…
अफगानिस्तान के पथरीले ढूहों पर,
घर से बहुत दूर एक अजाने देश की अजनबी मिट्टी पर
सम्वेदनाहीन आँखों के बीच
अकेले मरते सैनिक की आह ने
मेरी सम्वेदना के नाचते पैर थाम लिए,
और अपने प्रेमी की मदभरी आँखों मे
मुझे उस बूढे अफ़गानी की आँखें दिखाई देने लगी
जिसने अपने दूसरे पोते को दफ़नाया था कल.
बेटे तो बहुत पहले ही बिछुड गए थे उससे।
ऐसी चली हवा कि…
मेरे सारे रूपक, सारी उपमाएँ
सारे अलंकार फैल गए
काले कपड़ों में लिपटी
हाय-हाय करती उस बेवा के
चारों तरफ़,
जो बुक्का फाड़ रोना चाहती है
और बुरका उतार भाग जाना चाहती है
चारों तरफ़ के खून-खराबे से बहुत दूर।
ऐसी चली हवा कि…
मेरे गीत अचकचा कर
भाग जाना चाहते हैं दीवारों के पीछे,
देख नही पाते हेटी में मरते आदमी
नाइजीरिया – युगांडा मे उठती राइफलें
इथियोपिया की सूखे से दरकती धरती,
चीन के बन्द तहखानों मे पसीना बहाते
बच्चे रोने लगते हैं मेरे कलम उठाते ही
और सुनामी की लहरों से उजड़े लोग
उमड़ आते हैं मेरी चेतना की लहरों में।
मेरी दार्शनिकता,
जीवन के रहस्यों पर विचार करना बन्द कर,
भागती है अपने भारी-भरकम पोथे
उठा जब ६ अरब की
आबादी अपने को दिनरात
असुरक्षित महसूस करती है।
जब प्रवासी होने के कारण
एक देश का विद्यार्थी पिटता है दूसरे देश में,
और एक देश अपने ही लोगों के हाथों से
छीन लेता है निवाला
क्योंकि वह निवाला
बेचा जा सकता है,
सस्ते दामों में दूसरे देशों को!
जब रोटी देने वाली ज़मीन पर
बनाए जाने लगते है संकीर्णता के पिंजरे
और लोग अपनी वफ़ादारी पलट देते हैं।
मेरी कविता के पेट से
स्खलित हो जाता है भविष्य का सपना
जब हम आतंकवादियों के बमों को,
राजनीतिज्ञों की भ्रष्ट करतूत को,
न्यायालय के अन्याय को,
नीतियों की कुरीतियों को,
मान कर अपने जीवन का हिस्सा
बेबसी से देखते हैं कि
“किया ही क्या जा सकता है?”
तब…
तमतमा उठती है मेरी कविता!
उसकी फुँकार से
अलंकार और कल्पना के
इन्द्रधनुषी पँख
जलने लगते हैं
और कविता तैयार होने लगती है
नुकीला पत्थर बनने को
जिस पर
छन्दों और रूपक का,
अलंकार और कल्पना का,
प्रेम और उदासी का मखमली कपड़ा नहीं चढ़ाया जा सकता
बल्कि जो वार करती है
सीधा- सीधा!
सच को सच और झूठ को झूठ कहने की
ताकत पैदा करती है कवि में
और कवि को
कवि से पहले बनाती है
एक मनुष्य!
कनाडा में बसंत
हवा,
अपनी बासंती अँगुलियाँ
डैफोडिल्स और ट्यूलिप की खुश्बुओं में डुबो,
लिख रही है धूप को निमंत्रण,
अप्रैल के आखिरी पन्नों पर…
धूप बेखबर खेल रही है,
आँख मिचौली बादलों के संग।
उधर हवा,
पेड़ों को जगाती हिमनिद्रा से,
घास को मुस्कुराने का आदेश देती,
कलियों का मस्तक सूँघती,
पाँव दबा, महकती, छलकती,
फिर रही है यहाँ से वहाँ,
पाहुन धूप के आने की तैयारी में जुटी.
अप्रैल के आखिरी पन्नों पर…
गाँठ में बाँध लाई थोड़ी सी कविता
आँचल की गाँठ में,
हल्दी-सुहाग में,
साथ-साथ बाँध लायी अम्माँ की कविता!
चावल-अनाज में,
खील की बरसात से,
थोड़ी सी चुरा लायी जीवन की सविता!
मढ़िया की भीत पे,
सगुन थाप प्रीत से,
सीने से लगाय लायी थोड़ी सी कविता।
मैया ने अक्षर दिये,
बापू ने भाषा दी,
भैया के जोश से उठान लाई कविता।
सासू जो बोलेगी,
ताने जो गूँजेगे,
तकिया बनाय, आँसू पौंछेगी कविता!
रौब कोई झाड़ेगा,
शेर सा दहाड़ेगा,
खरगोश सी सीने में दुबकेगी कविता।
पेट भले भूखा हो,
जीवन चाहे रूखा हो,
जीवन को जीवन बनाय देगी कविता।
ए मैया, उपकार किया,
मुझ को पढ़ाय दिया,
मुश्किल की घड़ियों में साथ देगी कविता।
आँसू में गीत पलें,
लोरी में नींद जले,
जीवन को नदिया बनाय देगी कविता।
खुशफहमियाँ
बहुत सी खुशफहमियाँ पाली थीं मैंने,
जब कभी भीड़ से गुजरी
स्वयँ को अलग पाया,
जैसे मेरी हो कुछ विशेष विशिष्टतायें
जिन्होंने मेरे चेहरे को
रंग दे दिया हो कुछ अलग ही!
मेरे संघर्ष,
मेरी उपलब्धियाँ,
मेरी उदासियाँ,
मेरी हँसी जैसे कुछ अद्वतीय हो,
जैसे मैं कुछ अधिक मनु्ष्य हूँ
शेष सब से,
अधिक संघर्षशील,
अधिक प्रसन्न,
अधिक गहरे उतरी हुई,
जैसे आकाशगंगा मे
चमकता एक तारा
इतरा उठे अपनी अनोखी दिपदिपाहट पर,
जैसे कोई फूल उठे फूल
अपनी अतिरिक्त महक पर,
घास का तिनका झूम उठे
अपने गहरे हरे रंग पर
ठीक वैसे…
पर समय ने आँख खोल
दिखाया,
समाज ने
अनेको उदाहरणों से समझाया
कि अद्वितीय है हर व्यक्ति भीड़ मे,
विशिष्ट है अपनी सामान्यताओं मे,
पैठा हुआ है गहरे,
अपने मन और तन की अनुभूतियों मे,
समझ मे बड़ा है,
संघर्ष की दौड़ मे
सबके साथ बराबर से खड़ा है!
प्रसन्न हूँ कि
मैं इन अद्वितीयों की भीड़ का एक हिस्सा हूँ
और हजारों कहानियों के बीच
एक मामूली सा किस्सा हूँ
तुम्हारी आवाज़
कमरे में
गूँजती है सिर्फ तुम्हारी आवाज़,
तुम्हारे निर्णय,
तुम्हारी सोच,
तुम्हारी इच्छायें…
अँधेरे कोनों में
सहमते हैं,
मेरे सपने,
मेरे विचार,
मेरे भाव…
डर के मारे पीला पड़ जाता है मेरा वर्तमान,
सिर चकराता है मेरे भविष्य का,
क्या प्रेम, एकतरफा समझौतों का नाम है
तुम-सी न हो पाई
मैं,
उलटती-पलटती रही इस अनुभूति को
बहुत देर,
दिल और दिमाग के बीच की रेखा पर
तौलती रही इसे,
शब्दों को पकाती रही सम्वेदना के भगौने में,
तब सोचा
कि स्वीकार किये बिना अब कोई चारा नहीं है,
कि माँ,
मैं तुम सी न हो पाई।
मैं तुम सी न हो पाई!!
तुम,
अपनी नींद,
टुकड़ा-टुकड़ा हमारी किताबों में रख,
भोर की किरणों को
परीक्षा पत्र सा बांचती आई
मैं, न कर पाई!
तुम,
हमारे स्वाद,
थालियों में सजा,
अपनी पसंद सिकोड़ती आई
मैं, न कर पाई!
तुम्हारी,
प्रार्थनाओं की फैली चूनर में
केवल हमारे सुखों की आस थी
तुम कहीं नहीं थीं उसमें!
मैं,
न कर पाई!
तुमने बोलना सिखाया हमें
और खुद चुप होती चली गई!
तुमने कभी कहा नहीं परेशानियों में भी
कि “अब तुम से होता नहीं”
और तुम्हारी हिम्मत
मुक्त करती रही हमें अपराध बोध से!
तुमने कभी यह भी कहा नहीं कि
“यह मैं ही करूँगी”
और चुपचाप हमारे भीतर
कर्म की अनेक सँभावनायें बो दीं!
तुम्हारा मौन, तुम्हारी शांति है और तुम्हारी ढाल भी!
तुम्हारा श्रम, तुम्हारी काँति है और तुम्हारा हथियार भी।
तुम्हारा प्रेम, हमारे लिये हवा है, पानी है,
हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।
तुम अपनी इच्छाओं को,
खाद बना हमें फलने-फूलने देती रही
हमें सोचने की न ज़रूरत हुई, न फुर्सत!
आज,
जब तुम्हारी भूमिका में हूँ मैं
और उलट-पलट कर देखती हूँ तुम्हारा जीवन,
तो जानती हूँ
तुम्हारी तरह मौन, अपने को देते चले जाने की साधना
नहीं है मुझ में..!!
मेरा मन देकर भी बचा लेना चाहता है,
अपना निजी एक कोना!
अपने को पूरा दे देना
संस्कृति नहीं है अब हमारी,
अब हमारी निजी अस्मितायें हैं
जो तौलती हैं हर संबंध से मिलने और देने को,
और अक्सर पैदा करती हैं कटुताओं का उलझाव
जो तुममें नहीं था।
तुम साफ नीला आकाश थी
हमें ढ़के हुये,
एक कोमल घास वाली धरती,
जिस पर खॆलते थे हम निश्चिन्त
तुम्हारे आशीर्वादी सूरज की गुनगुनी धूप से ढँके!!…
माँ, सच,
मैं होकर भी माँ,
पूरी तरह
आकाश, घास, सूरज न हो पायी!
मैं,
तुम सी न हो पायी,
तुम सी ना हो पायी…
दृश्य: वर्षा
आज धूप की मुठ्ठी बाँधे
सूरज बादल पीछे दुबका,
और हवा की बन आई है
घर-घर जा कर चुगली करती।
सूरज व्याकुल देख रहा है
पर बादल का परदा भारी,
उस पर बरखा बरस-बरस कर,
तड़-तड़ धरती से बतियाती।
रामू झुग्गी भीतर भीगे,
मुनिया थर-थर काँप रही है
ताप चढ़ा मुनिया की माँ को
चूल्हा तक जलना भारी है।
मुन्ना बुड़-बुड़ बोल रहा है
सूरज ताप दिखाने आओ,
आसमान में जगमग हो कर,
तकिया-बिस्तर आन सुखाओ॥
दो लड़कियाँ
दो–दो लड़कियाँ रहती हैं मेरे भीतर,
एक वो, जो पैदा हुई थी
गली के कोने वाले घर में,
जहाँ सौर के बाहर बैठे लोग
आँचल में छुपा,
बचा लेना चाहते थे उसे ज़माने की हवाओं से,
फिर उसे बचाने के डर में घटते रहे थे खुद!
वो लड़की,
उनके घटने को देख-देख बँटती रही भीतर ही
और अपने बढ़ते कद को छुपाने के लिये
होती रही दोहरी…..
फिर उस दोहरी हुई लड़की के भीतर से ही
पैदा हुई एक और लड़की
जो चाहती नहीं होना दोहरी,
चाहती नहीं छुपाना अपना कद,
चाहती नहीं बँटना अपने ही भीतर….
ये दोनों ही लड़कियाँ रहती हैं
मेरे भीतर…
बहसती-झगड़ती….,
हर बात पर राय है दोनों की अलग-अलग,
कभी जीतती है दोहरी हुई लड़की…..
कभी सीधी खड़ी लड़की….
और मैं,
उनकी बराबर जारी बहस से थक कर अब
इंतज़ार में हूँ,
एक की स्थायी जीत में…..।
धूप लेते आना
बहुत ठंड है
और गायब है धूप..
तुम्हारी आँखों के कोर
जो पकड़ लेते थे गायब होती धूप को,
आँगन के उन तारों की तरह दिखते हैं आज खाली
जिनपर खोल, फैला देती थी
मैं, अपनी संवेदना के कपड़े…!
आज रोष के बादल छाये हैं
और रह-रह कर
टपकती है
मेरी आँखों से बर्फ…
सुनो,
जल्दी लौटो
और लौटते हुये भूलना न,
धूप लाना..!
हो सकता है
उसकी उजास में
फिर बोलने लगें
हमारी आँखें!
बच्चा पिटता है
बच्चा पिटता है !!
अमरूद चुराता है?
पीटता है माली, बच्चे को,
बस! बच्चा पिटता है।
माली को कोई नहीं पीटता
जो रोज़ लेता है भर कर अमरूद,
अपने बच्चों के लिये,
बस! बच्चा पिटता है ॥
माली के मालिक को कोई नहीं पीटता
जो लेता है हज़ारों, एक फाइल आगे बढ़ाने के,
मालिक के मालिक को कोई नहीं पीटता
जो लेता है लाखों, इधर का उधर करने के,
बस! बच्चा पिटता है॥
कोई नहीं पीटता गुंडे को,
जो लेता है हफ़्ता लोगों से!
कोई नहीं पीटता विधायक को,
जो लेता है गुंडों से!
कोई नहीं पीटता मंत्री को,
जो लेता है विधायक से!
कोई नहीं पीटता इतने सारे लोगों को,
बस! बच्चा पिटता है॥
बर्तनों पर कविता
आज मेरे हाथों ने लिखी
चमकते हुये बर्तनों पर एक कविता,
साफ़ फर्श ने गाये कुछ गीत,
झाड़न, पौंछा, झाडू गुनगुनाने लगे कुछ नज़्में,
पर्दों और खिड़कियों ने की वाह-वाह!
कविता रचने का अहसास बहा
हथेलियों और कंधों की नसों के बीच से
घर के कोने-कोने तक…
कौन कहता है कि कविता
केवल कागज़ पर रची जाती हैं?
बर्फ ने कही तेरी मेरी कहानी
सुबह उठी तो देखा,
छोटे-छोटे बर्फ के टुकड़ों की एक भीड़
आसमान से उतरी चली आ रही है…
बहुत से जा बैठे हैं घरों की छतों पर,
बहुत से पेड़ों. घास..लैंप पोस्टों पर,
बहुतों को मिली सड़क और नाली,
ड्राइव-वे और कारें,
ठसाठस बैठ गये हैं सब एक साथ….
एकसाथ उतरे ये बर्फ के टुकड़े
एकसाथ बने नहीं पानी..
छतों, लैंप पोस्टों वाले सुरक्षित हैं अभी भी
और सड़क पर गिरे थे जो
बन गये कीचड़, हो गये पानी-पानी!
सब जगह वही एक कहानी….
इस बात का बहुत महत्व होता है
कि आदमी किस जगह पैदा होता है!
कम ही होते हैं जो निचली जगह से ऊपर को खिसक आते हैं
और इतिहास के पन्नों में अपनी जगह बनाते हैं,
बाकी तो
पानी से बनते हैं और पानी में मिल जाते हैं॥
भाषा मेरी माँ
मेरी भाषा ढूँढती है
मुझ में मनुष्यता के तत्त्व!
माँ कही जाती है भाषा,
तो हज़ारों आँखें हैं उसकी!
यह मेरी माँ ने कहा था
कि वह सब जानती है
मेरी नस नस पहचानती है,
मुझे लगता है,
हमारी भाषा माँ भी
पहचानती है हमारी नस-नस।
वह जानती है
कि
कब हम उसमें उल्लास से फूटते हैं
कब
गालियों में रूठते हैं
कब
उगने लगते हैं भोर से,
कब रात से डूबते हैं।
माँ पहचानती है,
कब हमारे गान
आत्मा से निकले हैं
कब
शरीर की वासना से,
कि हमारी कविताओं में
कितना प्रेम का पारदर्शी पानी है,
कितनी चमत्कार की कहानी है,
माँ जानती है
कब हम उसे ॠचाओं सा गाते हैं
और कब उसे
तोड़ मरोड़ कर अपने खाँचे में
ज़बरदस्ती बिठाते हैं,
माँ जानती है
जब बढ़ जाते हैं हम, उसकी छाती पर पाँव रख कर
जब हम झुकते हैं उसके आगे
अपने अपराध स्वीकार कर।
माँ जानती है
जब हम उसे सजाते हैं
अपने छंदों, अलंकारों से,
गीत गाते हैं,
उसके पवित्र रूप के कल्पना की तारों से।
माँ सब जानती है,
हम उसी में साँस लेते हैं
रोते हैं, हँसते हैं
वो हम को समेटती है, सँभालती है
और हर युग में दो कदम आगे बढ़ाती है।
सच ही है,
उसकी हज़ारों आँखें होती है,
वह हमें देखना सिखाती है
और अपने को पाना,
उसी में हमने अपने को जाना।
सच ही वो माँ है,
जिसमें हम पलते हैं, बढ़ते हैं,
उस से हो कर, उस में,
अपने तक चलते हैं!!
तलाश औज़ार की
मुझे तलाश है एक औज़ार की
जिस से बदल सकूँ मैं चेहरे,
त्वचा का रंग,
अपने बच्चों का,
अपने पति का,
अपना और अपने जैसे और बहुत से भूरे लोगों का!
मुझे चाहिये ही वह औज़ार
जो मेरी सोच को मेरे शरीर पर गोद दे
मेरे इरादे को मेरे चेहरे पर लिख दे साफ़-साफ़!!
मुझे चाहिये ही वह औज़ार
क्योंकि वो शख़्स जब लेकर आयेगा बंदूक
हमें मारने, हमारे भूरे रंग के कारण,
जानता नहीं होगा हमारा देश, हमारा धर्म
हमारे नेक इरादे, इस मिट्टी में जड़ें बना चुकी हमारी सोच को..
वो सिर्फ़ पहचानेगा हमारी चमड़ी,
वो सिर्फ़ देखेगा हमारी शक़्ल,
और तय कर लेगा
कि हम उसी जमात के हैं
जिनका जीना खतरनाक है उसके और उसकी जमात के लिये!
वक़्त नहीं देगा वो हमें
अपना नाम या आखिरी इच्छा बताने की,
उसका डर तैरेगा हमारे खून पर!
क्या है तुम्हारे पास कोई औज़ार?
कोई विज्ञान ऐसा,
जिससे बदल लें हम अपनी शक्लें, अपनी त्वचा के रंग?
या गुदवा लें अपने इरादे अपने माथे पर?
हम, यानि
मैं, मेरे बच्चे, मेरे पति
और मेरे जैसे बहुत से भूरे भारतीय लोग!!
मुनिया की किस्मत
गली के कोने वाली झोपडी के
दरवाज़े से झाँकती है मुनिया!
आँखों से सड़क पर बिछा लेती है अपने लिये रास्ते
जो दूर वाले बाग तक चले जाते हैं उछलते-कूदते,
पेड़ों पर टाँग आती है वह अपने सपनों की पोटलियाँ,
जो रात में चमकती हैं जुगनुओं जैसे,
फिर चाँद आता उसके सपनों के साथ खेलने
और खेल-खेल में
दबा देता उन्हें आकाश-गंगा के किनारे
रेत के घरौंदों में!
दरवाज़े की देहरी पर बैठे-बैठे ही सोच लेती है मुनिया
कि उसके सपने
उतर आये हैं उसके पास फिर सूरज की किरणों के साथ!
वो धूप के अक्षरों को
अपनी हथेली में भर कर,
मलती है अपने माथे पर,
हर रोज़
ताकि उजली हो जायें सारी रेखायें!
तब शायद माँ नहीं कहेगी
कि काली किस्मत ले कर पैदा हुई है वह!
मूलाधार चक्र
रीढ़ की हड्डी
जहाँ खत्म होती है कमर के नीचे,
कमला को खूब दर्द रहता है वहाँ!
प्रवचन में बताया गया था मूलाधार चक्र है
ठीक वहीं!
साधू बाबा सिखा रहे थे
मूलाधार से त्रिकुटी तक पहुँचने के उपाय
पर कमला कुछ नहीं सीख पाई।
सुबह की चाय से लेकर,
रात बिस्तर पर बिखरने तक,
यही मूल आधार तो सँभाले रहता है सारा घर,
उसे तो यही समझ आया।
बच्चों, बच्चों के पिता और उनके भी पिता के बीच
सेतु सी तनी कमला,
ज़रूरत पर
हो जाती है पानी,
तो कभी चूल्हे की आग,
कभी मीठी तो कभी नमकीन,
घर की ज़रूरत के हिसाब से
बन जाती है वो नौ रसों का कोई रस,
या कभी सब रस घालमेल कर
बिखरते हैं
उसके रोम-रोम से।
मूलाधार है वो इस घर की,
त्रिकुटी की यात्रा,
उस पर से होकर जाती है
और वो घर और इसके लोगों के बीच
मूलाधार की कील बनी घूमती जाती है!
इसी से दर्द रहता है उसे बराबर,
ठीक वहाँ जहाँ रीढ़ की हड्डी खत्म होती है,
जिसे कहते हैं
मूलाधार चक्र!
लड़की की माँ
सो नहीं पाई है माँ ज़माने से!
बेटी के लिये,
एक सही पुरुष की तलाश में,
भटकती रही है सदियों तक
और खोजबीन कर भी
ला नहीं पाई एक ऐसा पुरुष जो
दे सके उसकी बेटी को
एक मज़बूत घर!
ऐसा घर, जिसकी दीवारों पर
वो अपनी प्रतिभा से
खुशियों के बूटे
बना सके!
जो ना लाये बादलों का हिंडोला
पर ज़िंदगी को न झुलाये हिंडोले सा..
जो गीत गाती लाडॊ के सुर सुन
मुस्कुरा सके,
कहे “वाह, बहुत मिठास है तुम्हारी आवाज़ में”
और फिर बनाये रखे उस मिठास को
अपनी मिठास से।
पर हर सदी में मात खाती रही माँ!
कभी ऊँचे बाज़ार भाव,
कभी सही पुरुष का अभाव,
कभी अपने सामान में खोट
बताती आँखों में तोल-मोल!!
चिन्ताग्रस्त ही रही है लड़की की माँ सदियों से..
कि अचानक उस दिन
घनघनाते फोन पर सुना उसने
गुनगुनाती सी बेटी को…
“माँ,
खोज लिया है मैंने अपना वर!
हम मिल कर बनायेंगे,
वही, तुम्हारे सपनों वाला घर!
जहाँ खर्चों पर खर्च होंगे हम दोनों
और सँभालने को भी सँभलेगे हम दोनों।
जहाँ रसोई और टी.वी. रिमोट पर रहेगी बराबर की हिस्सेदारी।
हमारे हाथ गुस्से में नहीं,
केवल सपने पकड़ने को उठेंगे
और आँसू निकलेंगे केवल प्याज़ काटने पर!
मैं बनाऊँगी अपनी खुशियों के फूल घर की दीवारों पर!
तुम्हारी पलकों में थके इंतज़ार को
अब जगना नहीं पड़ेगा, सुबह की ओस तक…
माँ, अब तुम सो सकती हो चैन से!”
लिखने तो दे
वो लिखती चली जाती है कविता
हर रोज़!
हर रोज,
उमड़ता है एक सागर
उसके भीतर,
दीवारों के पलस्तर सी यादों को
साथ ले,
बुहारता चलता है
घर, आँगन, सामने का तुलसी चौरा,
कोने की बँधी गैया,
बाहर का कुआँ…
सब बहते चलते हैं उसकी यादों के सागर में,
यहाँ अम्मा ने बनाये थे
बेसन के गट्टे,
यहाँ टूटा था घड़ा गेंद से..
इसी नीम के नीचे झुकी थीं आँखॆं,
वो रहा आम, जिस के पीछे छुप के खड़ी थी
अपनी साँसों और
पतंग से उड़ते सपनों को साधती…!
वो सब लिख देना चाहती है
भोर का रंग, दोपहर की तपन
साँझ की उम्मीद, रात के आँसू सब
…….
फिर..क्या होगा अम्मा?
लिख देगी तो हो जायेगी हल्की?
छुटकी ने टोहका लगाया, कहानी सुनाती अम्माँ को!
माँ खोयी देखती रही उसकी ओर
जैसे
किसी ने हाथ थाम लिया हो उसका!
बताओ न फिर क्या होगा?
छुटकी जानना चाहती थी
लिखने का भविष्य ?
लड़की का भविष्य ?
लड़की के लिखने का भविष्य..?
माँ
झुँझला गई,
इतनी बक-बक क्यों?
पहले लिखने तो दे,
फिर देखेंगे !
छोटी चुप….!!
माँ की आँखॆं,
कहीं दूर के आसमान पर
फिर कहानी लिखने लगीं !!
वह नींद में बोलती है
वह चुप रही!
छोटी थी जब वह
पतंग सी उड़ने की उमर में,
किसी और के हाथ अपनी डोर दिये,
बस उतना ही उडी,
जितना उडाया उसके माँ-बाप ने,
चिड़िया नहीं बन पाई!
जब थमा दी डोर
किसी और को
वह चुप रही,
उड़ने लगी दूसरे के आँगन में!
फिर उडी उतना, जितना उडाया गया उसे।
सास जब बरसी तेज़ बारिश सी,
वह धरती हो गई
और पी गई अपना ओर उनका क्रोध चुप,
पति बरसा जब ओलों सा
उसने घास सी नुकीली पलकें झुका लीं,
और गोल पत्थर सी हो गई
जिसे सुविधानुसार लुढ़काया जा सकता था,
बिस्तर से चूल्हे तक,
आँगन से ठाकुरद्वारे तक!
जितना वह बनी लुढ़कने योग्य
उतनी ही बिछी प्रशंसाये।
चुप ही रही उम्र के तीन चौथाई हिस्से में,
अब हैरान हैं बच्चे
कि वह नींद में बोलती है,
नींद में रोती है,
नींद में हँसती है!
नींद अब उसके भीतर दिन बन कर आती है
और वह उस दिन को अपनी मर्जी से
पूरा-पूरा जी पाती है।
स्त्री कविता क्या है?
स्त्री कविता क्या है?
पूछते हैं वो,
तो खिलखिला कर हँस पड़ती है यह स्त्री!
कहती है:
स्त्री कविता वही है
“जो लिखी है मैंने
अपने मेहनत में दिन-रात जाग कर,
अपनी डिग्रियों से प्राप्त नौकरी के कागज़ों पर!
लिखी हैं मैंने अपनी कवितायें अपने घर की दीवारों पर,
अपने पसीने से बनाये चित्रों में,
और परिवार की मुस्कान में!”
आँसुओं से गीली कविता पढ़ने का समय नहीं है
इस स्त्री के पास!
अपनी दादी-नानियों से लेकर अपने तक
सारे आँसू दे चुकी है वो समुद्र को..
साफ नीले आसमान सी हो गई हैं
उसकी आँखें अब..!
डर के सारे बादलों और
पैर रोकती आँधियों को, चमकती बिजली से
बाँध, रख दिया है उसने
अपनी अलमारी की आखिरी दराज़ में
बहुत पहले!
वह,
अपने रास्ते खुद बनाती
चलती है ऑफिस के कॉरीडोर में
पद-दर-पद!
मीटिंग पर मीटिंग..
नयी योजनायें उसके दिमाग से निकल कर
फैल जाती हैं कागज़ों पर।
पुरुष चकित हो, सहमति में सिर हिलाते हैं!
वह मेहनत की गहरी थकान लिए,
बिस्तर पर गिर,
रचती है नींद के आसमान पर
सुख के तारे,
इसके दौड़ते पाँवों को कौन पुकारे?
वह पाँवों से, बाँहों से, आँखों से,
शरीर के पोर-पोर से,
समूचे अस्तित्व के
नव-रसों से,
रच रही है
अपने लिये
एक नया परिवेश,
एक नयी स्त्री-कविता!
हमारे हाथ
तुम्हारे हाथ में चुप
पड़ा मेरा हाथ,
जैसे खरगोश छोटा सा
अपने बिल में सुरक्षित!
जैसे बैठी हो चिड़िया अपने घौंसले में!
तुम्हारे हाथ में चुप
पड़ा मेरा हाथ।
तुम्हारे हाथ से मेरा हाथ
ले रहा है तुम्हारी चिंतायें,
तुम्हारी परेशानियाँ,
पिघला रहा है तुम्हें अपनी नरमी से!
तुम्हारा हाथ
मेरे हाथ को
दे रहा है एक मज़बूत भरोसा!
खुरदुरे पोरों से झर रही है
कोमलता!
हथेली की लकीरों से मिलकर बने घर में,
हमारी चुप्पी में,
अचानक बोल उट्ठे
हमारे हाथ॥
हवा खराब है
शहर की हवा,
गंधाती है धूल से, मसालों से, मिठाइयों से, गरीबी से..!
चीखती है हज़ारों आवाज़ों में..
ठेलों की, भिखामंगों की, बाबुओं की,
कार, रिक्शा, सायकिल, मंदिर, मस्ज़िद, गुरुद्वारे के भोंपुओं में।
सब होड़ में हैं कि
हवाओं पर किसका अधिकार हो सब से ज़्यादा!
हवा,
घबरा कर छुप जाना चाहती है जंगलों में,
पर…. वे तो कट चुके हैं!
हवा,
घबरा कर छुप जाना चाहती है पहाड़ों और हवेलियों के पीछे,
पर….. वे तो ढ़ह चुके है!
बौराई सी घूमती है हवा आसरे को
पर कट-फट कर रह जाती है हज़ारों आवाज़ों में!
गंधा कर रह जाती है
अनचाही गंधों में..!
और आदमी कहता है
“हवा खराब है आजकल की”॥
कठिन है,माँ बनना
लोग पूछते हैं
कि क्या होना चाहती है बड़े होकर
तो कहती है मुनिया
“माँ!”
“माँ होना” कोई लक्ष्य नहीं”…
कहते हैं लोग
…समझाने से भी नहीं समझती।
माँ,
सालों से गीली चुन्नी
झटकार कर एकाएक डाल देती है सुखाने तार पर!
मुनिया के बाल सँवारती है प्यार से
ज्ञान का तेल खूब ठोंकती है सिर में
और गूँथ देती है ढ़ेरों सीखें बालों में
फिर बाँध देती है उन्हें प्यार और क्षमा के रिबनों से!
’होम-मैनेजमेंट” के अनेक गुण
मुनिया के कपड़ों पर काढ़ देती है माँ!
रसोई की “इन्वेंटोरी” करते हुए
सिखाती है
“कॉस्ट इफैक्टिव” होने के गुर!
“इन्वैस्टमेंट रिसर्च” के सारे पन्ने खोल देती है माँ उसके आगे
और
बताती है “रिलेशन्स मैनेजमेंट” में
आत्मीयता, मुस्कुराहट, धैर्य, और “प्राब्लम सौल्विंग”
की सारी “सॉफ्ट-स्किल्स”।
एक-एक कर सिखाती है अच्छे “कुक” होने की विधा,
उसके “पीपल मैनेजमेंट” से खुश हैं घर के नौकर-चाकर!
माँ,
धीरे-धीरे
बस्ते में किताबों के साथ-साथ रखती जाती है
अपने को हिज्जे-हिज्जे!
….
बहुत दिनों बाद,
दफ्तर जाते हुये सोचती है मुनिया,
वाकई,
पिता बनने से कहीं अधिक कठिन है,
माँ बनना।
एक प्रतिशत
हर दिन लेकर आता है एक नयी चुनौती !
ललकारता है सुबह का सूरज…
कि दिन की सड़क पर
आज कितने कदम चलोगे अपने सपने की दिशा में?
और सच बात तो यह है
कि 90% दिन तो मुँह, पेट और हाथों के नाम ही हो जाता है,
दिमाग और सपनों का नम्बर ही कब आता है?
उस बचे 10% में से 8%
जाता है घर के और परिवार के नाम,
बचे दो प्रतिशत में से एक प्रतिशत
मैं
अपनी थकावट को सहलाते
अपने शरीर के दर्दों की गुफाओं में घूमते
निकाल देती हूँ
और बचे १ प्रतिशत को देती हूँ
अपने सपने को….!
मुस्कुरा कर दिन ख़त्म होने से पहले
दिन को बताती हूँ;
इस तरह मैं हर रोज़ अपने सपनों की
तरफ एक प्रतिशत आती हूँ,
रात, तारों के साथ मिल कर अपनी जीत का
जश्न मनाती हूँ!!
घर-घर
मैंने एक झूठ सजाया
और खेलती रही उसी से बहुत देर,
कमरे सजाए
गुलदान भी
पालने में बच्चे भी सजाए
और निहारा उन सबको ममता से
फिर खॆलती रही उस ममता से बहुत देर,
घर-घर!
फिर सजायी कार
दरवाज़े पर
फिर बगीचा
फिर फर्नीचर
और निहारा उन सब को गर्व से
फिर खॆलती रही उस गर्व से बहुत देर,
घर-घर!
चिड़िया का होना ज़रूरी है
पेड़ पर फुदकती है चिड़िया
पत्ते हिलते हैं, मुस्कुराते हैं
चिड़िया उनमें भरती है चमकदार हरापन,
डाली कुछ लचक कर समा लेती है
चिड़िया की फुदकन अपनी शिराओं में,
पेड़ खड़े हैं सदियों से,
चिड़िया है क्षणिक
पर चिड़िया का होना ज़रूरी है।
चिड़िया की गान पर गा उठता है पूरा जंगल,
चिड़िया खींच लाती है सूरज की किरणों को
और तान देती है पेड़ों के सिरों परों पर
धँस जाती है उन घनी झाड़ियों में
जो वंचित है सूरज की ममता से,
चिड़िया उन सब तक लाती है जीवन का गान,
जंगल है सदियों से
चिड़िया है क्षणिक
पर चिड़िया का होना ज़रूरी है।
ठीक वैसे,
जैसे,
धान के लिये ज़रूरी है
कमर झुकाए,
कीचड़ में हाथ-पाँव सानें
पसीने और थकावट के बीच
धान रोपती औरतों का फूटता गान,
जैसे दुनिया की कैनवास पर
दिखाई देने वाले बहुत से बदनुमा धब्बों के बीच
खिलता किसी फूल का रंग,
जैसे मनुष्य के दिमाग के
तमाम जालों और कुतर्कों के बीच बची
जीने की इच्छा,
मुठ्ठी भर मनुष्यता,
सदियों से चल रही है दुनिया
क्षणिक है आदमी,
पर आदमी का होना ज़रूरी है,
हाँ, चिडिया का होना ज़रूरी है।
जिसके दुःख को छूकर देखा
जिसके दुख को छू कर देखा
उसका दुख ही गीला लगता।
तेरा दुख है एक बड़ा समन्दर
अपना दुख एक दरिया लगता।
हिम्मत के कंधों पर चढ़कर
तूने पार किया जो-जो कुछ
विकट कँटीली दुख की झाड़ी
तूने काटी अपने दम से
सीता सा विश्वास ढूँढ़कर
लड़ने के फिर-फिर दम साधे
जीते या ना जीते फिर भी
मुझ को राम सरीखा लगता
अपना दुख…..
अजब कहानी उस दुनिया की
सब कीजेब फटी और खाली
सब के दिल में दुख के घेरे
दिन और रातें काली-काली
फिर भी समझ नहीं हम पाते
दूजे के दिल पर क्या बीतू
बेमतलब की बातें करते
उम्र गुज़र गई, कर्मावाली
झूठे सब उपमान पड़ गए
सब कुछ लफ़्फ़ाज़ी लगता
अपना दुख फिर दरिया लगता।
तुम्हारे देश का मातम
तुम्हारे देश का मातम*
रात
सात समंदर पार कर
मेरे सिरहाने आ खड़ा हुआ ।
लान की घास पर ओस से दिखायी दिये
उन माँओं के आँसू
जिनके बच्चे कभी फूल से
खिलते थे !!
पेडों की सूनी शाखों पर
माँ के दूध जलने की गंध
लटकी है आज !!
सामूहिक दफन कैसे करते हैं
टी.वी. दिखाता है
बच्चों के माता-पिता का
इंटर्व्यू करवाता है
“ आपके बच्चे के मरने की खबर आई तो
कैसा लगा आपको?
बच्चा कैसा था,
शैतान या समझदार?”
भावनाएँ इश्तहार हैं
व्यापारी उन्हें बेचता है
समझदार बच्चे के मरने पर
रोने में भारी छूट!!!!
दर्शकों की आँखों में जितने अधिक आँसू
टी.वी चैनल की उतनी ही सफलता !
नेता बदल देता है उन्हें नारों में
फिर वोटों में…
फिर अर्थियों में !!
देश फिर उलझ गया……………
अपराधी हत्यारा
मुस्कुराता है!!!!
……
असमय मरे बच्चों को मैं
बुलाती हूँ….
सुनो, जाओ नहीं अभी
जन्नत को देखने दो अपना रास्ता कुछ देर
पहले इस सामूहिक षड़्यंत्र को तोड़ो
छोडो मत अपने अपराधियों को !
तुम, भविष्य थे हमारा
अब भूत बन कर ही सही
वर्तमान को सँभालो ।
तुम में अब समा गई है
माँ के आँसुओं की शक्ति,
पिता के टूटे कंधों का बल,
समेट कर अपने को
लड़ो !!
लड़ो, कि अब तुम छोटे नहीं रहे !!
मर कर खो चुके हो अपनी उम्र….
बड़े बन कर वो बचा लो
जो दुनिया भर के बड़े नहीं बचा पाए,
उम्मीद की लौ जैसे अपने बाकी भाई बहनों को
बचा लो !!
लड़ो !
लड़ो,
कि फिर यह घटना
कहीं दोहरायी न जाए !!
-०-
*(130 बच्चों के मरने पर)
दामिनी
भैया,
क्या कभी सोचा था
कि ऐसा दिन भी आएगा
कि तुम्हारा नाम आते ही हमारा सिर शर्म से गड़ जाएगा?
तुम्हारा दोष,
केवल तुम्हारा था
पर उम्र कैद मिली हम सबको,
मेरे मेंहदी भरे सपनों को,
माँ की आशीर्वादी आँखों को,
बाबूजी के आशा भरे कंधों को ।
तुम वो,
कोना कटी चिठ्ठी हो हमारे लिए,
जो धुँआती तो है मन में
पर उसकी बात ज़बान पर नहीं लाई जाती ।
वह लड़की रोज़ मेरे सपने में आती है
उसके आँसू बहने लगते हैं मेरी आँखों से,
उसकी चीखें फँस जाती हैं मेरे गले में
उसका शरीर हो जाता है मेरा शरीर।
शायद माँ-बाबूजी को भी यह स्वप्न आता है
तभी तो बहुत रात गए हमारे घर में रोज़
कोई चीख कर रोता है, चिल्लाता है,
क्या तुम को भी कोई सपना आता है?
क्या तुम भी कोई सपना देखते हो, भैया??