नाम बड़े, दर्शन छोटे
नाम-रूप के भेद पर कभी किया है गौर ?
नाम मिला कुछ और तो, शक्ल-अक्ल कुछ और
शक्ल-अक्ल कुछ और, नैनसुख देखे काने
बाबू सुंदरलाल बनाए ऐंचकताने
कहँ ‘काका’ कवि, दयाराम जी मारें मच्छर
विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर
मुंशी चंदालाल का तारकोल-सा रूप
श्यामलाल का रंग है जैसे खिलती धूप
जैसे खिलती धूप, सजे बुश्शर्ट पैंट में-
ज्ञानचंद छै बार फेल हो गए टैंथ में
कहँ ‘काका’ ज्वालाप्रसाद जी बिल्कुल ठंडे
पंडित शांतिस्वरूप चलाते देखे डंडे
देख, अशर्फीलाल के घर में टूटी खाट
सेठ भिखारीदास के मील चल रहे आठ
मील चल रहे आठ, कर्म के मिटें न लेखे
धनीराम जी हमने प्राय: निर्धन देखे
कहँ ‘काका’ कवि, दूल्हेराम मर गए क्वाँरे
बिना प्रियतमा तड़पें प्रीतमसिंह बिचारे
दीन श्रमिक भड़का दिए, करवा दी हड़ताल
मिल-मालिक से खा गए रिश्वत दीनदयाल
रिश्वत दीनदयाल, करम को ठोंक रहे हैं
ठाकुर शेरसिंह पर कुत्ते भौंक रहे हैं
‘काका’ छै फिट लंबे छोटूराम बनाए
नाम दिगंबरसिंह वस्त्र ग्यारह लटकाए
पेट न अपना भर सके जीवन-भर जगपाल
बिना सूँड़ के सैकड़ों मिलें गणेशीलाल
मिलें गणेशीलाल, पैंट की क्रीज सम्हारी-
बैग कुली को दिया चले मिस्टर गिरिधारी
कहँ ‘काका’ कविराय, करें लाखों का सट्टा
नाम हवेलीराम किराए का है अट्टा
दूर युद्ध से भागते, नाम रखा रणधीर
भागचंद की आज तक सोई है तकदीर
सोई है तकदीर, बहुत-से देखे-भाले
निकले प्रिय सुखदेव सभी, दुख देने वाले
कहँ ‘काका’ कविराय, आँकड़े बिल्कुल सच्चे
बालकराम ब्रह्मचारी के बारह बच्चे
चतुरसेन बुद्धू मिले,बुद्धसेन निर्बुद्ध
श्री आनंदीलालजी रहें सर्वदा क्रुद्ध
रहें सर्वदा क्रुद्ध, मास्टर चक्कर खाते
इंसानों को मुंशी तोताराम पढ़ाते
कहँ ‘काका’, बलवीरसिंह जी लटे हुए हैं
थानसिंह के सारे कपड़े फटे हुए हैं
बेच रहे हैं कोयला, लाला हीरालाल
सूखे गंगाराम जी, रूखे मक्खनलाल
रूखे मक्खनलाल, झींकते दादा-दादी
निकले बेटा आशाराम निराशावादी
कहँ ‘काका’ कवि, भीमसेन पिद्दी-से दिखते
कविवर ‘दिनकर’ छायावादी कविता लिखते
आकुल-व्याकुल दीखते शर्मा परमानंद
कार्य अधूरा छोड़कर भागे पूरनचंद
भागे पूरनचंद अमरजी मरते देखे
मिश्रीबाबू कड़वी बातें करते देखे
कहँ ‘काका’, भंडारसिंह जी रीते-थोते
बीत गया जीवन विनोद का रोते-धोते
शीला जीजी लड़ रहीं, सरला करतीं शोर
कुसुम, कमल, पुष्पा, सुमन निकलीं बड़ी कठोर
निकलीं बड़ी कठोर, निर्मला मन की मैली
सुधा सहेली अमृतबाई सुनीं विषैली
कहँ ‘काका’ कवि, बाबूजी क्या देखा तुमने ?
बल्ली जैसी मिस लल्ली देखी है हमने
तेजपाल जी भोथरे मरियल-से मलखान
लाला दानसहाय ने करी न कौड़ी दान
करी न कौड़ी दान, बात अचरज की भाई
वंशीधर ने जीवन-भर वंशी न बजाई
कहँ ‘काका’ कवि, फूलचंदजी इतने भारी
दर्शन करके कुर्सी टूट जाए बेचारी
खट्टे-खारी-खुरखुरे मृदुलाजी के बैन
मृगनैनी के देखिए चिलगोजा-से नैन
चिलगोजा से नैन शांता करती दंगा
नल पर न्हातीं गोदावरी, गोमती, गंगा
कहँ ‘काका’ कवि, लज्जावती दहाड़ रही है
दर्शन देवी लंबा घूँघट काढ़ रही है
कलियुग में कैसे निभे पति-पत्नी का साथ
चपलादेवी को मिले बाबू भोलानाथ
बाबू भोलानाथ, कहाँ तक कहें कहानी
पंडित रामचंद्र की पत्नी राधारानी
‘काका’, लक्ष्मीनारायण की गृहिणी रीता
कृष्णचंद्र की वाइफ बनकर आई सीता
अज्ञानी निकले निरे पंडित ज्ञानीराम
कौशल्या के पुत्र का रक्खा दशरथ नाम
रक्खा दशरथ नाम, मेल क्या खूब मिलाया
दूल्हा संतराम को आई दुलहिन माया
‘काका’ कोई-कोई रिश्ता बड़ा निकम्मा
पार्वतीदेवी हैं शिवशंकर की अम्मा
पूँछ न आधी इंच भी, कहलाते हनुमान
मिले न अर्जुनलाल के घर में तीर-कमान
घर में तीर-कमान बदी करता है नेका
तीर्थराज ने कभी इलाहाबाद न देखा
सत्यपाल ‘काका’ की रकम डकार चुके हैं
विजयसिंह दस बार इलैक्शन हार चुके हैं
सुखीराम जी अति दुखी, दुखीराम अलमस्त
हिकमतराय हकीमजी रहें सदा अस्वस्थ
रहें सदा अस्वस्थ, प्रभू की देखो माया
प्रेमचंद ने रत्ती-भर भी प्रेम न पाया
कहँ ‘काका’, जब व्रत-उपवासों के दिन आते
त्यागी साहब, अन्न त्यागकर रिश्वत खाते
रामराज के घाट पर आता जब भूचाल
लुढ़क जाएँ श्री तख्तमल, बैठें घूरेलाल
बैठें घूरेलाल रंग किस्मत दिखलाती
इतरसिंह के कपड़ों में भी बदबू आती
कहँ ‘काका’ गंभीरसिंह मुँह फाड़ रहे हैं
महाराज लाला की गद्दी झाड़ रहे हैं
दूधनाथ जी पी रे सपरेटा की चाय
गुरु गोपालप्रसाद के घर में मिली न गाय
घर में मिली न गाय, समझ लो असली कारण
मक्खन छोड़ डालडा खाते बृजनारायण
‘काका’, प्यारेलाल सदा गुर्राते देखे
हरिश्चंद्रजी झूठे केस लड़ाते देखे
रूपराम के रूप की निंदा करते मित्र
चकित रह गए देखकर कामराज का चित्र
कामराज का चित्र, थक गए करके विनती
यादराम को याद न होती सौ तक गिनती
कहँ ‘काका’ कविराय, बड़े निकले बेदर्दी
भरतराम ने चरतराम पर नालिश कर दी
नाम-धाम से काम का, क्या है सामंजस्य ?
किसी पार्टी के नहीं झंडाराम सदस्य
झंडाराम सदस्य, भाग्य की मिटे न रेखा
स्वर्णसिंह के हाथ कड़ा लोहे का देखा
कहँ ‘काका’, कंठस्थ करो, यह बड़े काम की
माला पूरी हुई एक सौ आठ नाम की
मसूरी यात्रा
देवी जी कहने लगीं, कर घूँघट की आड़
हमको दिखलाए नहीं, तुमने कभी पहाड़
तुमने कभी पहाड़, हाय तकदीर हमारी
इससे तो अच्छा, मैं नर होती, तुम नारी
कहँ ‘काका’ कविराय, जोश तब हमको आया
मानचित्र भारत का लाकर उन्हें दिखाया
देखो इसमें ध्यान से, हल हो गया सवाल
यह शिमला, यह मसूरी, यह है नैनीताल
यह है नैनीताल, कहो घर बैठे-बैठे-
दिखला दिए पहाड़, बहादुर हैं हम कैसे ?
कहँ ‘काका’ कवि, चाय पिओ औ’ बिस्कुट कुतरो
पहाड़ क्या हैं, उतरो, चढ़ो, चढ़ो, फिर उतरो
यह सुनकर वे हो गईं लड़ने को तैयार
मेरे बटुए में पड़े, तुमसे मर्द हज़ार
तुमसे मर्द हज़ार, मुझे समझा है बच्ची ?
बहका लोगे कविता गढ़कर झूठी-सच्ची ?
कहँ ‘काका’ भयभीत हुए हम उनसे ऐसे
अपराधी हो कोतवाल के सम्मुख जैसे
आगा-पीछा देखकर करके सोच-विचार
हमने उनके सामने डाल दिए हथियार
डाल दिए हथियार, आज्ञा सिर पर धारी
चले मसूरी, रात्रि देहरादून गुजारी
कहँ ‘काका’, कविराय, रात-भर पड़ी नहीं कल
चूस गए सब ख़ून देहरादूनी खटमल
सुबह मसूरी के लिए बस में हुए सवार
खाई-खंदक देखकर, चढ़ने लगा बुखार
चढ़ने लगा बुखार, ले रहीं वे उबकाई
नींबू-चूरन-चटनी कुछ भी काम न आई
कहँ ‘काका’, वे बोंली, दिल मेरा बेकल है
हमने कहा कि पति से लड़ने का यह फल है
उनका ‘मूड’ खराब था, चित्त हमारा खिन्न
नगरपालिका का तभी आया सीमा-चिह्न
आया सीमा-चिह्न, रुका मोटर का पहिया
लाओ टैक्स, प्रत्येक सवारी डेढ़ रुपैया
कहँ ‘काका’ कवि, हम दोनों हैं एक सवारी
आधे हम हैं, आधी अर्धांगिनी हमारी
बस के अड्डे पर खड़े कुली पहनकर पैंट
हमें खींचकर ले गए, होटल के एजेंट
होटल के एजेंट, पड़े जीवन के लाले
दोनों बाँहें खींच रहे, दो होटल वाले
एक कहे मेरे होटल का भाड़ा कम है
दूजा बोला, मेरे यहाँ ‘फ्लैश-सिस्टम’ है
हे भगवान ! बचाइए, करो कृपा की छाँह
ये उखाड़ ले जाएँगे, आज हमारी बाँह
आज हमारी बाँह, दौड़कर आओ ऐसे
तुमने रक्षा करी ग्राह से गज की जैसे
कहँ ‘काका’ कवि, पुलिस-रूप धरके प्रभु आए
चक्र-सुदर्शन छोड़, हाथ में हंटर लाए
रख दाढ़ी पर हाथ हम, देख रहे मजदूर
रिक्शेवाले ने कहा, आदावर्ज हुजूर
आदावर्ज हुजूर, रखूँ बिस्तरा-टोकरी ?
मसजिद में दिलवा दूँ तुमको मुफ्त कोठरी ?
कहँ ‘काका’ कवि, क्या बकता है गाड़ीवाले
सभी मियाँ समझे हैं तुमने दाढ़ी वाले ?
चले गए अँगरेज पर, छोड़ गए निज छाप
भारतीय संस्कृति यहाँ सिसक रही चुपचाप
सिसक रही चुपचाप, बीवियां घूम रही हैं
पैंट पहनकर ‘मालरोड’ पर झूम रही हैं
कहँ ‘काका’, जब देखोगे लल्लू के दादा
धोखे में पड़ जाओगे, नर है या मादा
बीवी जी पर हो गया फैसन भूत सवार
संडे को साड़ी बँधी, मंडे को सलवार
मंडे को सलवार, बॉबकट बाल देखिए
देशी घोड़ी, चलती इंगलिश चाल देखिए
कहँ ‘काका’, फिर साहब ही क्यों रहें अछूते
आठ कोट, दस पैंट, अठारह जोड़ी जूते
भूल गए निज सभ्यता, बदल गया परिधान
पाश्चात्य रँग में रँगी, भारतीय संतान
भारतीय संतान रो रही माता हिंदी
आज सुहागिन नारि लगाना भूली बिंदी
कहँ ‘काका’ कवि, बोलो बच्चो डैडी-मम्मी
माता और पिता कहने की प्रथा निकम्मी
मित्र हमारे मिल गए कैप्टिन घोड़ासिंग
खींच ले गए ‘रिंक’ में देखी स्केटिंग
देखी स्केटिंग, हृदय हम मसल रहे थे
चंपो के संग मिस्टर चंपू फिसल रहे थे
काकी बोली-क्यों जी, ये किस तरह लुढ़कते
चाभी भरी हुई है या बिजली से चलते ?
हाथ जोड़ हमने कहा, लालाजी तुम धन्य
जीवन-भर करते रहो, इसी कोटि के पुन्य
इसी कोटि के पुन्य, नाम भारत में पाओ
बिना टिकट, वैकुंठ-धाम को सीधे जाओ
कहँ काकी ललकार-अरे यह क्या ले आए
बुद्धू हो तुम, पानी के पैसे दे आए ?
हलवाई कहने लगा, फेर मूँछ पर हाथ
दूध और जल का रहा आदिकाल से साथ
आदिकाल से साथ, कौन इससे बच सकता ?
मंसूरी में खालिस दूध नहीं पच सकता
सुन ‘काका’, हम आधा पानी नहीं मिलाएँ
पेट फूल दस-बीस यात्री नित मर जाएँ
पानी कहती हो इसे, तुम कैसी नादान ?
यह, मंसूरी ‘मिल्क’ है, जानो अमृत समान
जानो अमृत समान, अगर खालिस ले आते
आज शाम तक हम दोनों निश्चित मर जाते
कहँ ‘काका’, यह सुनकर और चढ़ गया पारा
गर्म हुईं वे, हृदय खौलने लगा हमारा
उनका मुखड़ा क्रोध से हुआ लाल तरबूज
और हमारी बुद्धि का बल्ब हो गया फ्यूज
बल्ब हो गया फ्यूज, दूध है अथवा पानी
यह मसला गंभीर बहुत है, मेरी रानी
कहँ ‘काका’ कवि, राष्ट्रसंघ में ले जाएँगे
अथवा इस पर ‘जनमत-संग्रह’ करवाएँगे
शीतयुद्ध-सा छिड़ गया, बढ़ने लगा तनाव
लालबुझक्कड़ आ गए, करने बीच-बचाव
करने बीच-बचाव, खोल निज मुँह का फाटक
एक साँस में सभी दूध पी गए गटागट
कहँ ‘काका’, यह न्याय देखकर काकी बोली-
चलो हाथरस, मंसूरी को मारो गोली
धमधूसर कव्वाल
मेरठ में हमको मिले धमधूसर कव्वाल
तरबूजे सी खोपड़ी, ख़रबूजे से गाल
ख़रबूजे से गाल, देह हाथी सी पाई
लंबाई से ज़्यादा थी उनकी चौड़ाई
बस से उतरे, इक्कों के अड्डे तक आये
दर्शन कर घोड़ों ने आँसू टपकाये
रिक्शे वाले डर गये, डील-डौल को देख
हिम्मत कर आगे बढ़ा, ताँगे वाला एक
ताँगे वाला एक, चार रुपये मैं लूँगा
दो फ़ेरी कर, हुज़ूर को पहुँचा दूँगा
मँहगाई
जन-गण मन के देवता, अब तो आँखें खोल
महँगाई से हो गया, जीवन डाँवाडोल
जीवन डाँवाडोल, ख़बर लो शीघ्र कृपालू
कलाकंद के भाव बिक रहे बैंगन-आलू
कहँ ‘काका’ कवि, दूध-दही को तरसे बच्चे
आठ रुपये के किलो टमाटर, वह भी कच्चे
राशन की दुकान पर, देख भयंकर भीर
‘क्यू’ में धक्का मारकर, पहुँच गये बलवीर
पहुँच गये बलवीर, ले लिया नंबर पहिला
खड़े रह गये निर्बल, बूढ़े, बच्चे, महिला
कहँ ‘काका’ कवि, करके बंद धरम का काँटा
लाला बोले-भागो, खत्म हो गया आटा
चंद्रयात्रा और नेता का धंधा
ठाकुर ठर्रा सिंह से बोले आलमगीर
पहुँच गये वो चाँद पर, मार लिया क्या तीर?
मार लिया क्या तीर, लौट पृथ्वी पर आये
किये करोड़ों ख़र्च, कंकड़ी मिट्टी लाये
‘काका’, इससे लाख गुना अच्छा नेता का धंधा
बिना चाँद पर चढ़े, हजम कर जाता चंदा
‘ल्यूना-पन्द्रह’ उड़ गया, चन्द्र लोक की ओर ।
पहुँच गया लौटा नहीं मचा विश्व में शोर ॥
मचा विश्व में शोर, सुन्दरी चीनी बाला ।
रहे चँद्रमा पर लेकर खरगोश निराला ॥
उस गुड़िया की चटक-मटक पर भटक गया है ।
अथवा ‘बुढ़िया के चरखे’ में अटक गया है ॥
कहँ काका कवि, गया चाँद पर लेने मिट्टी ।
मिशन हो गया फैल हो गयी गायब सिट्टी ॥
पहुँच गए जब चाँद पर, एल्ड्रिन, आर्मस्ट्रोंग ।
शायर- कवियों की हुई काव्य कल्पना ‘रोंग’ ॥
काव्य कल्पना ‘रोंग’, सुधाकर हमने जाने ।
कंकड़-पत्थर मिले, दूर के ढोल सुहाने ॥
कहँ काका कविराय, खबर यह जिस दिन आई ।
सभी चन्द्रमुखियों पर घोर निरशा छाई ॥
पार्वती कहने लगीं, सुनिए भोलेनाथ !
अब अच्छा लगता नहीं ‘चन्द्र’ आपके माथ ॥
‘चन्द्र’ आपके माथ, दया हमको आती है ।
बुद्धि आपकी तभी ‘ठस्स’ होती जाती है ॥
धन्य अपोलो ! तुमने पोल खोल कर रख दी ।
काकीजी ने ‘करवाचौथ’ कैंसिल कर दी ॥
सुघड़ सुरीली सुन्दरी दिल पर मारे चोट ।
चमक चाँद से भी अधिक कर दे लोटम पोट ॥
कर दे लोटम पोट, इसी से दिल बहलाएँ ।
चंदा जैसी चमकें, चन्द्रमुखी कहलाएँ ॥
मेकप करते-करते आगे बढ़ जाती है ।
अधिक प्रशंसा करो चाँद पर चढ़ जाती है ॥
प्रथम बार जब चाँद पर पहुँचे दो इंसान ।
कंकड़ पत्थर देखकर लौट आए श्रीमान ॥
लौट आए श्रीमान, खबर यह जिस दिन आई ।
सभी चन्द्रमुखियों पर घोर निरशा छाई ॥
पोल खुली चन्दा की, परिचित हुआ ज़माना ।
कोई नहीं चाहती अब चन्द्रमुखी कहलाना ॥
वित्तमंत्री से मिले, काका कवि अनजान ।
प्रश्न किया क्या चाँद पर रहते हैं इंसान ॥
रहते हैं इंसान, मारकर एक ठहाका ।
कहने लगे कि तुम बिलकुल बुद्धू हो काका ॥
अगर वहाँ मानव रहते, हम चुप रह जाते ।
अब तक सौ दो सौ करोड़ कर्जा ले आते ॥
हास्याष्टक
‘काका’ से कहने लगे, शिवानंद आचार्य
रोना-धोना पाप है, हास्य पुण्य का कार्य
हास्य पुण्य का कार्य, उदासी दूर भगाओ
रोग-शोक हों दूर, हास्यरस पियो-पिलाओ
क्षणभंगुर मानव जीवन, मस्ती से काटो
मनहूसों से बचो, हास्य का हलवा चाटो
आमंत्रित हैं, सब बूढ़े-बच्चे, नर-नारी
‘काका की चौपाल’ प्रतीक्षा करे तुम्हारी
कौन क्या-क्या खाता है ?
कौन क्या-क्या खाता है ?
खान-पान की कृपा से, तोंद हो गई गोल,
रोगी खाते औषधी, लड्डू खाएँ किलोल।
लड्डू खाएँ किलोल, जपें खाने की माला,
ऊँची रिश्वत खाते, ऊँचे अफसर आला।
दादा टाइप छात्र, मास्टरों का सर खाते,
लेखक की रायल्टी, चतुर पब्लिशर खाते।
दर्प खाय इंसान को, खाय सर्प को मोर,
हवा जेल की खा रहे, कातिल-डाकू-चोर।
कातिल-डाकू-चोर, ब्लैक खाएँ भ्रष्टाजी,
बैंक-बौहरे-वणिक, ब्याज खाने में राजी।
दीन-दुखी-दुर्बल, बेचारे गम खाते हैं,
न्यायालय में बेईमान कसम खाते हैं।
सास खा रही बहू को, घास खा रही गाय,
चली बिलाई हज्ज को, नौ सौ चूहे खाय।
नौ सौ चूहे खाय, मार अपराधी खाएँ,
पिटते-पिटते कोतवाल की हा-हा खाएँ।
उत्पाती बच्चे, चच्चे के थप्पड़ खाते,
छेड़छाड़ में नकली मजनूँ, चप्पल खाते।
सूरदास जी मार्ग में, ठोकर-टक्कर खायं,
राजीव जी के सामने मंत्री चक्कर खायं।
मंत्री चक्कर खायं, टिकिट तिकड़म से लाएँ,
एलेक्शन में हार जायं तो मुँह की खाएँ।
जीजाजी खाते देखे साली की गाली,
पति के कान खा रही झगड़ालू घरवाली।
मंदिर जाकर भक्तगण खाते प्रभू प्रसाद,
चुगली खाकर आ रहा चुगलखोर को स्वाद।
चुगलखोर को स्वाद, देंय साहब परमीशन,
कंट्रैक्टर से इंजीनियर जी खायं कमीशन।
अनुभवहीन व्यक्ति दर-दर की ठोकर खाते,
बच्चों की फटकारें, बूढ़े होकर खाते।
दद्दा खाएँ दहेज में, दो नंबर के नोट,
पाखंडी मेवा चरें, पंडित चाटें होट।
पंडित चाटें होट, वोट खाते हैं नेता,
खायं मुनाफा उच्च, निच्च राशन विक्रेता।
काकी मैके गई, रेल में खाकर धक्का,
कक्का स्वयं बनाकर खाते कच्चा-पक्का।
काका दोहावली
मेरी भाव बाधा हरो, पूज्य बिहारीलाल
दोहा बनकर सामने, दर्शन दो तत्काल।
अँग्रेजी से प्यार है, हिंदी से परहेज,
ऊपर से हैं इंडियन, भीतर से अँगरेज।
अँखियाँ मादक रस-भरी, गज़ब गुलाबी होंठ,
ऐसी तिय अति प्रिय लगे, ज्यों दावत में सोंठ।
अंतरपट में खोजिए, छिपा हुआ है खोट,
मिल जाएगी आपको, बिल्कुल सत्य रिपोट।
अंदर काला हृदय है, ऊपर गोरा मुक्ख,
ऐसे लोगों को मिले, परनिंदा में सुक्ख।
अंधकार में फेंक दी, इच्छा तोड़-मरोड़
निष्कामी काका बने, कामकाज को छोड़।
अंध धर्म विश्वास में, फँस जाता इंसान,
निर्दोषों को मारकर, बन जाता हैवान।
अंधा प्रेमी अक्ल से, काम नहीं कुछ लेय,
प्रेम-नशे में गधी भी, परी दिखाई देय।
अक्लमंद से कह रहे, मिस्टर मूर्खानंद,
देश-धर्म में क्या धरा, पैसे में आनंद।
अगर चुनावी वायदे, पूर्ण करे सरकार,
इंतज़ार के मज़े सब, हो जाएँ बेकार।
अगर फूल के साथ में, लगे न होते शूल,
बिना बात ही छेड़ते, उनको नामाकूल।
अगर मिले दुर्भाग्य से, भौंदू पति बेमेल,
पत्नी का कर्त्तव्य है, डाले नाक नकेल।
अगर ले लिया कर्ज कुछ, क्या है इसमें हर्ज़,
यदि पहचानोगे उसे, माँगे पिछला क़र्ज़।
अग्नि निकलती रगड़ से, जानत हैं सब कोय,
दिल टकराए, इश्क की बिजली पैदा होय।
अच्छी लगती दूर से मटकाती जब नैन,
बाँहों में आ जाए तब बोले कड़वे बैन।
अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम,
चाचा मेरे कह गए, कर बेटा आराम।
अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम,
भाग्यवाद का स्वाद ले, धंधा काम हराम।
अति की बुरी कुरूपता, अति का भला न रूप,
अति का भला न बरसना अति भली न धूप।
अति की भली न दुश्मनी, अति का भला न प्यार
तू तू मैं मैं जब हुई प्यार हुआ बेकार।
अति की भली न बेरुखी, अति का भला न प्यार
अति की भली न मिठाई, अति का भला न खार।
अति की वर्षा भी बुरी, अति की भली न धूप,
अति की बुरी कूरुपता, अति का भला न रूप।
अधिक समय तक चल नहीं, सकता वह व्यापार,
जिसमें साझीदार हों, लल्लू-पंजू यार।
अधिकारी के आप तब, बन सकते प्रिय पात्र
काम छोड़ नित नियम से, पढ़िए, चमचा-शास्त्र।
अपना स्वारथ साधकर, जनता को दे कष्ट,
भ्रष्ट आचरण करे जो वह नेता हो भ्रष्ट।
अपनी आँख तरेर कर, जब बेलन दिखलाय,
अंडा-डंडा गिर पड़ें, घर ठंडा हो जाय।
अपनी गलती नहिं दिखे, समझे खुद को ठीक,
मोटे-मोटे झूठ को, पीस रहा बारीक।
अपनी ही करता रहे, सुने न दूजे तर्क,
सभी तर्क हों व्यर्थ जब, मूरख करे कुतर्क|
खिल-खिल खिल-खिल हो रही
खिल-खिल खिल-खिल हो रही, श्री यमुना के कूल
अलि अवगुंठन खिल गए, कली बन गईं फूल
कली बन गईं फूल, हास्य की अद्भुत माया
रंजोग़म हो ध्वस्त, मस्त हो जाती काया
संगृहीत कवि मीत, मंच पर जब-जब गाएँ
हाथ मिलाने स्वयं दूर-दर्शन जी आएँ
सहनशीलता
साहब हो गए 58 पर रिटायर
क्योंकि, कानून की दृष्टि में
उनकी बुद्धि हो गई थी ऐक्सपायर
लेकिन हमारे सिर पर सवार हैं-
साठोत्तर प्रधानमंत्री और 81 वर्षीय राष्ट्रपति
वे क्यों नहीं होते रिटायर ?
चुप रहो, तुम नहीं जानते इसका कारण,
यह है हमारी सहनशीलता का प्रत्यक्ष उदाहरण
नेताओं की भाँति कवि और शायर भी कभी नहीं होते रिटायर।
अपन 85 में चल रहे हैं, फिर भी कविता लिख रहे हैं।
इस उम्र में भी काका पर फिदा हैं आकाशवाणी और दूरदर्शन।
कार के करिश्मे
रोजाना हम बंबा पर ही घूमा करते
उस दिन पहुँचे नहर किनारे
वहाँ मिल गए बर्मन बाबू
बाँह गले में डाल कर लिया दिल पर काबू
कहने लगे-
क्यों भई काका, तुम इतने मशहूर हो गए
फिर भी अब तक कार नहीं ली ?
ट्रेनों में धक्के खाते हो, तुमको शोभा देता ऐसा,
कहाँ धरोगे जोड़-जोड़कर इतना पैसा ?
बेच रहे हैं अपनी (पुरानी) गाड़ी-
साँवलराम सूतली वाले
दस हजार वे माँग रहे हैं
पट जाएँगे, आठ-सात में
हिम्मत हो तो करूँ बात मैं ?
हमने कहा-
नहीं मित्रवर, तुमको शायद पता नहीं है
छोटी कारें बना रहा है, हमारे दोस्त का बेटा संजय
जय हो उसकी,
सर्वप्रथम अपना न्यू मॉडल
काका कवि को भेंट करेगा।
हमने भी तो जगह-जगह कविसम्मेलन में कविता गाई
एलेक्शन में जीत कराई।
हँसकर बोले बर्मन भाई-
वाह, वाह जी,
जब तक कार बनेगी उनकी,
तब तक आप रहेंगे जिंदा ?
भज गोविंदा, भज गोविंदा।
तो बर्मन जी,
हम तो केवल पाँच हजार लगा सकते हैं,
इतने में करवा दो काम,
जय रघुनंदन, जय सियाराम।
तोड़ फैसला हुआ कार का छह हजार में,
घर्र-घर्र का शोर मचाती कार हमारे घर पर आई
भीड़ लग गई, मच गया हल्ला,
हुए इकट्ठे लोग-लुगाई, लल्ली-लल्ला।
हमने पूछा-
‘क्यों बर्मन जी, शोर बहुत करती है गाड़ी ?’
‘शोर बहुत करती है गाड़ी ? कभी खरीदी भी है मोटर,
जितना ज्यादा शोर करेगी, उतनी कम दुर्घटना होगी
भीड़ स्वयं ही हटती जाए,
काई-जैसी फटती जाए,
बहरा भी भागे आगे से,
बिना हॉर्न के चले जाइए सर्राटे से।
‘बिना हॉर्न के ? तो क्या इसमें हॉर्न नहीं है ?’
‘हॉर्न बिचारा कैसे बोले,
काम नहीं कर रही बैटरी’
‘काम नहीं कर रही बैटरी ?
लाइट कैसे जलती होगी ?’
‘लाइट से क्या मतलब तुमको,
यह तो क्लासीकल गाड़ी है,
देखो कक्कू,
सफर आजकल दिन का ही अच्छा रहता है
कभी रात में नहीं निकलना।
डाकू गोली मार दिया करते टायर में
गाड़ी का गोबर हो जाए इक फायर में
रही हॉर्न की बात,
पाँच रुपए में लग जाएगा
पौं-पौं वाला (रबड़ का)
लेकिन नहीं जरूरत उसकी
बड़े-बड़े शहरों में होते,
साइलैंस एरिया ऐसे
वहाँ बजा दे कोई हौरन,
गिरफ्तार हो जाए फौरन
नाम गिरफ्तारी का सुनकर बात मान ली।
‘एक प्रश्न और है भाई,
उसकी भी हो जाए सफाई।’
‘बोलो-बोलो, जल्दी बोलो ?’
ड्राइवर बाबूसिंह कह रहा-
तेल अधिक खाती है गाड़ी ?’
‘काका जी तुम बूढ़े हो गए,
फिर भी बातें किए जा रहे बच्चों जैसी।
जितना ज्यादा खाएगा वह उतना ज्यादा काम करेगा’
तार-तार हो गए तर्क सब, रख ली गाड़ी।
उस दिन घर में लहर खुशी की ऐसी दौड़ी
जैसे हमको सीट मिल गई लोकसभा की
कूद रहे थे चकला-बेलन,
उछल रहे थे चूल्हे-चाकी
खुश थे बालक, खुश थी काकी
हुआ सवेरा-
चलो बालको तुम्हें घुमा लाएँ बाजार में
धक्के चार लगाते ही स्टार्ट हो गई।
वाह-वाह,
कितनी अच्छी है यह गाड़ी
धक्कों से ही चल देती है
हमने तो कुछ मोटरकारें
रस्सों से खिंचती देखी हैं
नएगंज से घंटाघर तक,
घंटाघर से नएगंज तक
चक्कर चार लगाए हमने।
खिड़की से बाहर निकाल ली अपनी दाढ़ी,
मालुम हो जाए जनता को,
काका ने ले ली है गाड़ी
खबर दूसरे दिन की सुनिए-
अखबारों में न्यूज आ गई-
नए बजट में पैट्रोल पर टैक्स बढ़ गया।
जय बमभोले, मूंड मुड़ाते पड़ गए ओले।
फिर भी साहस रक्खा हमने-
सोचा, तेल मिला लेंगे मिट्टी का पैट्रोल में
धूआँ तो कुछ बढ़ जाएगा,
औसत वह ही पड़ जाएगा।
दोपहर के तीन बजे थे-
खट-खट की आवाज सुनी, दरवाजा खोला-
खड़ा हुआ था एक सिपाही वर्दीधारी,
हमने पूछा,
कहिए मिस्टर
क्या सेवा की जाए तुम्हारी ?
बाएँ हाथ से दाई मूँछ ऐंठ कर बोला-
कार आपकी इंस्पेक्टर साहब को चाहिए,
मेमसाहब को आज आगरा ले जाएँगे फिल्म दिखाने,
पैट्रोल डलवाकर गाड़ी,
जल्दी से भिजवा दो थाने।
हमने सोचा-
वाह वाह यह देश हमारा
गाड़ी तो पीछे आती है, खबर पुलिस को
पहले से ही लग जाती है।
कितने सैंसिटिव हैं भारत के सी.आई.डी.
तभी ‘तरुण’ कवि बोले हमसे-
बड़े भाग्यशाली हो काका !
कोतवाल ने गाड़ी माँगी, फौरन दे दो
क्यों पड़ते हो पसोपेश में ?
मना करो तो फँस जाओगे किसी केस में।
एक कनस्तर तेल पिलाकर
कार रवाना कर दी थाने
चले गए हम खाना खाने।
आधा घंटा बाद सिपाही फिर से आया, बोला-
‘स्टैपनी दीजिए।’
हमने आँख फाड़कर पूछा-
स्टैपनी क्या ?
‘क्यों बनते हो,
गाड़ी के मालिक होकर भी नहीं जानते
हमने कहा-
सिपाही भइया
अपनी गाड़ी सिर्फ चार पहियों से चलती
कोई नहीं पाँचवा पहिया,
लौट गया तत्काल सिपहिया।
मोटर वापस आ जानी थी, अर्धरात्रि तक,
घर्र-घर्र की उत्कंठा में कान लगाए रहे रातभर ऐसे
अपना पूत लौटकर आता हो विदेश से जैसे
सुबह 10 बजे गाड़ी आई
इंस्पेक्टर झल्लाकर बोला-
शर्म नहीं आती है तुमको-
ऐसी रद्दी गाड़ी दे दी
इतना धूआँ छोड़ा इसने,
मेमसाहब को उल्टी हो गई।
हमने कहा-
उल्टी हो गई, तो हम क्या करें हुजूर
थाने को भेजी थी तब बिल्कुल सीधी थी।
क्षमा प्रार्थना
मिला निमंत्रण आपका, धन्यवाद श्रीमान,
किंतु हमारे हाल पर कुछ तो दीजे ध्यान।
कुछ तो दीजे ध्यान, हुक्म काकी का ऐसा,
बहुत कर चुके प्राप्त, प्रतिष्ठा-पदवी-पैसा।
खबरदार, अब कविसम्मेलन में मत जाओ,
लिखो पुस्तकें, हास्य-व्यंग्य के फूल खिलाओ।
काका के हँसगुल्ले
अंग-अंग फड़कन लगे, देखा ‘रंग-तरंग’
स्वस्थ-मस्त दर्शक हुए, तन-मन उठी उमंग
तन-मन उठी उमंग, अधूरी रही पिपासा
बंद सीरियल किया, नहीं थी ऐसी आशा
हास्य-व्यंग्य के रसिक समर्थक कहाँ खो गए
मुँह पर लागी सील, बंद कहकहे हो गए
जिन मनहूसों को नहीं आती हँसी पसंद
हुए उन्हीं की कृपा से, हास्य-सीरियल बंद
हास्य-सीरियल बंद, लोकप्रिय थे यह ऐसे
श्री रामायण और महाभारत थे जैसे
भूल जाउ, लड्डू पेड़ा चमचम रसगुल्ले
अब टी.वी.पर आएँ काका के हँसगुल्ले
बनारसी साड़ी
कवि-सम्मेलन के लए बन्यौ अचानक प्लान । काकी के बिछुआ बजे, खड़े है गए कान ॥
खड़े है गए कान, ‘रहस्य छुपाय रहे हो’ । सब जानूँ मैं, आज बनारस जाय रहे हो ॥
‘काका’ बनिके व्यर्थ थुकायो जग में तुमने । कबहु बनारस की साड़ी नहिं बांधी हमने ॥
हे भगवन, सौगन्ध मैं आज दिवाऊं तोहि । कवि-पत्नी मत बनइयो, काहु जनम में मोहि ॥
काहु जनम में मोहि, रखें मतलब की यारी । छोटी-छोटी मांग न पूरी भई हमारी ॥
श्वास खींच के, आँख मीच आँसू ढरकाए । असली गालन पै नकली मोती लुढ़काए ॥
शांत ह्वे गयो क्रोध तब, मारी हमने चोट । ‘साड़िन में खरचूं सबहि, सम्मेलन के नोट’ ॥
सम्मेलन के नोट? हाय ऐसों मत करियों । ख़बरदार द्वै साड़ी सों ज़्यादा मत लइयों ॥
हैं बनारसी ठग प्रसिद्ध तुम सूधे साधे । जितनें माँगें दाम लगइयों बासों आधे ॥
गाँठ बांध उनके वचन, पहुँचे बीच बज़ार । देख्यो एक दुकान पै, साड़िन कौ अंबार ॥
साड़िन कौ अंबार, डिज़ाइन बीस दिखाए । छाँटी साड़ी एक, दाम अस्सी बतलाए ॥
घरवारी की चेतावनी ध्यान में आई | कर आधी कीमत, हमने चालीस लगाई ||
दुकनदार कह्बे लग्यो, “लेनी हो तो लेओ” । “मोल-तोल कूं छोड़ के साठ रुपैय्या देओ” ॥
साठ रुपैय्या देओ? जंची नहिं हमकूं भैय्या । स्वीकारो तो देदें तुमकूं तीस रुपैय्या ?
घटते-घटते जब पचास पै लाला आए । हमने फिर आधे करके पच्चीस लगाए ॥
लाला को जरि-बजरि के ज्ञान है गयो लुप्त । मारी साड़ी फेंक के, लैजा मामा मुफ्त |
लैजा मामा मुफ्त, कहे काका सों मामा | लाला तू दुकनदार है कै पैजामा ||
अपने सिद्धांतन पै काका अडिग रहेंगे । मुफ्त देओ तो एक नहीं द्वै साड़ी लेंगे ॥
भागे जान बचाय के, दाब जेब के नोट । आगे एक दुकान पै देख्यो साइनबोट ॥
देख्यो साइनबोट, नज़र वा पै दौड़ाई । ‘सूती साड़ी द्वै रुपया, रेशमी अढ़ाई’ ॥
कहं काका कवि, यह दुकान है सस्ती कितनी । बेचेंगे हाथरस, लै चलें दैदे जितनी ॥
भीतर घुसे दुकान में, बाबू आर्डर लेओ । सौ सूती सौ रेशमी साड़ी हमकूं देओ ॥
साड़ी हमकूं देओ, क्षणिक सन्नाटो छायो । डारी हमपे नज़र और लाला मुस्कायो ॥
भांग छानिके आयो है का दाढ़ी वारे ? लिखे बोर्ड पै ‘ड्राइ-क्लीन’ के रेट हमारे ॥
सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा
सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा
हम भेड़-बकरी इसके यह ग्वारिया हमारा
सत्ता की खुमारी में, आज़ादी सो रही है
हड़ताल क्यों है इसकी पड़ताल हो रही है
लेकर के कर्ज़ खाओ यह फर्ज़ है तुम्हारा
सारे जहाँ से अच्छा…
चोरों व घूसखोरों पर नोट बरसते हैं
ईमान के मुसाफिर राशन को तरशते हैं
वोटर से वोट लेकर वे कर गए किनारा
सारे जहाँ से अच्छा…
जब अंतरात्मा का मिलता है हुक्म काका
तब राष्ट्रीय पूँजी पर वे डालते हैं डाका
इनकम बहुत ही कम है होता नहीं गुज़ारा
सारे जहाँ से अच्छा…
हिन्दी के भक्त हैं हम, जनता को यह जताते
लेकिन सुपुत्र अपना कांवेंट में पढ़ाते
बन जाएगा कलक्टर देगा हमें सहारा
सारे जहाँ से अच्छा…
फ़िल्मों पे फिदा लड़के, फैशन पे फिदा लड़की
मज़बूर मम्मी-पापा, पॉकिट में भारी कड़की
बॉबी को देखा जबसे बाबू हुए अवारा
सारे जहाँ से अच्छा…
जेवर उड़ा के बेटा, मुम्बई को भागता है
ज़ीरो है किंतु खुद को हीरो से नापता है
स्टूडियो में घुसने पर गोरखा ने मारा
सारे जहाँ से अच्छा…
नाम-रूप का भेद / नाम बड़े और दर्शन छोटे
नाम-रूप के भेद पर कभी किया है ग़ौर ?
नाम मिला कुछ और तो शक्ल-अक्ल कुछ और।।
शक्ल-अक्ल कुछ और नयनसुख देखे काने ।
बाबू सुंदरलाल बनाये ऐंचकताने ।।
कहँ ‘काका’ कवि, दयाराम जी मारें मच्छर ।
विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर ।।
मुंशी चंदालाल का तारकोल सा रूप ।
श्यामलाल का रंग है जैसे खिलती धूप ।।
जैसे खिलती धूप, सजे बुश्शर्ट पैंट में-
ज्ञानचंद छै बार फ़ेल हो गये टैंथ में ।।
कहँ ‘काका’ ज्वालाप्रसाद जी बिल्कुल ठंडे ।
पंडित शांतिस्वरूप चलाते देखे डंडे ।।
देख अशर्फ़ीलाल के घर में टूटी खाट ।
सेठ भिखारीदास के मील चल रहे आठ ।।
मील चल रहे आठ, करम के मिटें न लेखे ।
धनीराम जी हमने प्रायः निर्धन देखे ।।
कहँ ‘काका’ कवि, दूल्हेराम मर गये कुँवारे ।
बिना प्रियतमा तड़पें प्रीतमसिंह बेचारे ।।
पेट न अपना भर सके जीवन भर जगपाल ।
बिना सूँड़ के सैकड़ों मिलें गणेशीलाल ।।
मिलें गणेशीलाल, पैंट की क्रीज़ सम्हारी ।
बैग कुली को दिया, चले मिस्टर गिरधारी ।।
कहँ ‘काका’ कविराय, करें लाखों का सट्टा ।
नाम हवेलीराम किराये का है अट्टा ।।
चतुरसेन बुद्धू मिले, बुद्धसेन निर्बुद्ध ।
श्री आनंदीलाल जी रहें सर्वदा क्रुद्ध ।।
रहें सर्वदा क्रुद्ध , मास्टर चक्कर खाते ।
इंसानों को मुंशी तोताराम पढ़ाते ।।
कहँ ‘काका’, बलवीर सिंह जी लटे हुए हैं ।
थानसिंह के सारे कपड़े फटे हुए हैं ।।
बेच रहे हैं कोयला, लाला हीरालाल ।
सूखे गंगाराम जी, रूखे मक्खनलाल ।।
रूखे मक्खनलाल, झींकते दादा-दादी ।
निकले बेटा आशाराम निराशावादी ।।
कहँ ‘काका’ कवि, भीमसेन पिद्दी से दिखते ।
कविवर ‘दिनकर’ छायावादी कविता लिखते ।।
तेजपाल जी भोथरे, मरियल से मलखान ।
लाला दानसहाय ने करी न कौड़ी दान ।।
करी न कौड़ी दान, बात अचरज की भाई ।
वंशीधर ने जीवन-भर वंशी न बजाई ।।
कहँ ‘काका’ कवि, फूलचंद जी इतने भारी ।
दर्शन करते ही टूट जाये कुर्सी बेचारी ।।
खट्टे-खारी-खुरखुरे मृदुलाजी के बैन ।
मृगनयनी के देखिये चिलगोजा से नैन ।।
चिलगोजा से नैन, शांता करतीं दंगा ।
नल पर न्हाती देखीं हमने यमुना, गंगा ।।
कहँ ‘काका’ कवि, लज्जावती दहाड़ रही हैं ।
दर्शन देवी लंबा घूँघट काढ़ रही हैं ।।
अज्ञानी निकले निरे पंडित ज्ञानीराम ।
कौशल्या के पुत्र का रक्खा दशरथ नाम ।।
रक्खा दशरथ नाम, मेल क्या खूब मिलाया ।
दूल्हा संतराम को आई दुल्हन माया ।।
‘काका’ कोई-कोई रिश्ता बड़ा निकम्मा ।
पार्वती देवी हैं शिवशंकर की अम्मा ।।
दूर युद्ध से भागते नाम रखा रणधीर ।
भागचन्द की आज तक सोई है तकदीर ।।
सोई है तकदीर, बहुत से देखे भाले ।
निकले प्रिय सुखदेव सभी दुःख देने वाले ।।
कह काका कविराय आँकड़े बिलकुल सच्चे ।
बालकराम ब्रह्मचारी के बारह बच्चे ।।
आकुल व्याकुल दीखते शर्मा परमानन्द ।
कार्य अधूरे छोड़कर भागे पूरनचँद ।।
भागे पूरनचँद, अमर जी मरते देखे ।
मिश्रीबाबू कड़वी बातें करते देखे ।।
कह काका भण्डारासिंह जी रीते-थोथे ।
बीत गया जीवन विनोद का रोते-धोते ।।
शीला जीजी लड़ रही, सरला करती शोर ।
कुसुम, कमल, पुष्पा, सुमन, निकली बड़ी कठोर ।।
निकली बड़ी कठोर, निर्मला मन की मैली ।
सुधा सहेली अमृताबाई सुनी विषैली ।।
कह काका कवि बाबूजी क्या देखा तुमने ?
बल्ली जैसी मिस लल्ली देखीं हैं हमने ।।
कलयुग में कैसे निभे पति-पत्नी का साथ ।
चपलादेवी को मिले बाबू भोलेनाथ ।।
बाबू भोलेनाथ कहाँ तक कहें कहानी ।
पंडित रामचंद्र की पत्नी राधारानी ।।
काका लक्ष्मीनारायन की गृहणी रीता ।
कृष्णचंद्र की वाइफ़ बन कर आई सीता ।।
पूँछ न आधी इंच भी कहलाते हनुमान ।
मिले न अर्जुनलाल के घर में तीर कमान ।।
घर में तीर कमान, बदी करता है नेका ।
तीर्थराज ने कभी न इलाहाबाद देखा ।।
सत्यपाल काका की रक़म डकार चुके हैं ।
विजयसिंह दस बार इलेक्शन हार चुके हैं ।।
सुखीरामजी अति दुःखी दुःखीराम अलमस्त ।
हिकमतराय हकीमजी रहे सदा अस्वस्थ ।।
रहे सदा अस्वस्थ, प्रभु की देखो माया ।
प्रेमचन्द में रत्तीभर भी प्रेम न पाया ।।
कह काका जब वृत-उपवासों के दिन आते ।
त्यागी साहब अन्न त्याग कर रिश्वत खाते ।।
रामराज के घाट पर आता जब भूचाल ।
लुढ़क जाएँ श्रीतख्तमल बैठे घूरेलाल ।।
बैठे घूरेलाल रंग क़िस्मत दिखलाती ।
इत्रसिंह के कपड़ों में से बदबू आती ।।
कह काका गम्भीरसिंह मुँह फाड़ रहे हैं ।
महाराज लाला की गद्दी झाड़ रहे हैं ।।
दूधनाथ जी पी रहे सपरेटा की चाय ।
गुरु गोपालप्रसाद के घर में मिली न गाय ।।
घर में मिली न गाय, समझ लो असली कारण ।
माखन छोड़ डालडा खाते बृजनारायण ।।
काका प्यारेलाल सदा गुर्राते देखे ।
हरिश्चन्द्र जी झूठे केस लड़ाते देखे ।।
रूपराम के रूप की निन्दा करते मित्र ।
चकित रह गए देख कर कामराज का चित्र ।।
कामराज का चित्र थक गए करके विनती ।
यादराम को याद न होती सौ तक गिनती ।।
कह काका कविराय बड़े निकले बेदर्दी ।
भरतराम ने चरतराम पर नालिश कर दी ।।
नाम-धाम से काम का क्या है सामञ्जस्य ?
किसी पार्टी के नहीं झंडाराम सदस्य ।।
झंडाराम सदस्य, भाग्य की मिले न रेखा ।
स्वर्णसिंह के हाथ कड़ा लोहे का देखा ।।
कह काका कंठस्थ करो ये बड़े काम की ।
माला पूरी हुई एक सौ आठ नाम की ।।
जय बोल बेईमान की
मन, मैला, तन ऊजरा, भाषण लच्छेदार,
ऊपर सत्याचार है, भीतर भ्रष्टाचार।
झूटों के घर पंडित बाँचें, कथा सत्य भगवान की,
जय बोलो बेईमान की !
प्रजातंत्र के पेड़ पर, कौआ करें किलोल,
टेप-रिकार्डर में भरे, चमगादड़ के बोल।
नित्य नई योजना बन रहीं, जन-जन के कल्याण की,
जय बोल बेईमान की !
महँगाई ने कर दिए, राशन-कारड फेस
पंख लगाकर उड़ गए, चीनी-मिट्टी तेल।
‘क्यू’ में धक्का मार किवाड़ें बंद हुई दूकान की,
जय बोल बेईमान की !
डाक-तार संचार का ‘प्रगति’ कर रहा काम,
कछुआ की गति चल रहे, लैटर-टेलीग्राम।
धीरे काम करो, तब होगी उन्नति हिंदुस्तान की,
जय बोलो बेईमान की !
दिन-दिन बढ़ता जा रहा काले घन का जोर,
डार-डार सरकार है, पात-पात करचोर।
नहीं सफल होने दें कोई युक्ति चचा ईमान की,
जय बोलो बेईमान की !
चैक केश कर बैंक से, लाया ठेकेदार,
आज बनाया पुल नया, कल पड़ गई दरार।
बाँकी झाँकी कर लो काकी, फाइव ईयर प्लान की,
जय बोलो बईमान की !
वेतन लेने को खड़े प्रोफेसर जगदीश,
छहसौ पर दस्तखत किए, मिले चार सौ बीस।
मन ही मन कर रहे कल्पना शेष रकम के दान की,
जय बोलो बईमान की !
खड़े ट्रेन में चल रहे, कक्का धक्का खायँ,
दस रुपए की भेंट में, थ्री टायर मिल जायँ।
हर स्टेशन पर हो पूजा श्री टी.टी. भगवान की,
जय बोलो बईमान की !
बेकारी औ’ भुखमरी, महँगाई घनघोर,
घिसे-पिटे ये शब्द हैं, बंद कीजिए शोर।
अभी जरूरत है जनता के त्याग और बलिदान की,
जय बोलो बईमान की !
मिल-मालिक से मिल गए नेता नमकहलाल,
मंत्र पढ़ दिया कान में, खत्म हुई हड़ताल।
पत्र-पुष्प से पाकिट भर दी, श्रमिकों के शैतान की,
जय बोलो बईमान की !
न्याय और अन्याय का, नोट करो जिफरेंस,
जिसकी लाठी बलवती, हाँक ले गया भैंस।
निर्बल धक्के खाएँ, तूती होल रही बलवान की,
जय बोलो बईमान की !
पर-उपकारी भावना, पेशकार से सीख,
दस रुपए के नोट में बदल गई तारीख।
खाल खिंच रही न्यायालय में, सत्य-धर्म-ईमान की,
जय बोलो बईमान की !
नेता जी की कार से, कुचल गया मजदूर,
बीच सड़कर पर मर गया, हुई गरीबी दूर।
गाड़ी को ले गए भगाकर, जय हो कृपानिधान की,
जय बोलो बईमान की!
आरती श्री उल्लूजी की
जय उल्लू पापा ! ओम् जय उल्लू पापा।
सब पक्षिन में श्रेष्ठ, अर्थ के फीते से नापा। ओम्…।
श्याम सलोने मुख पर शोभित अँखियाँ द्वय ऐसे।
चिपक रहीं प्राचीन चवन्नी चाँदी की जैसे। ओम्…।
लक्ष्मी-वाहक दरिद्र-नाशक महिमा जगजानी।
सरस्वती का हंस आपका भरता है पानी। ओम्..।
अर्थवाद ने बुद्धिवाद के दाँत किए खट्टे।
विद्वज्जन हैं दुखी, सुखी हैं सब ‘तुम्हरे पट्ठे’। ओम्…।
जब ‘पक्षी-सरकार’ बने तुम डबल सीट पाओ।
प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री खुद बन जाओ। ओम्…।
सभी लखपती बनें, न हो कोई भूखा-नंगा।
बहे देश के गाँव-गाँव में, नोटों की गंगा। ओम्…।
पूँजीवादी पक्षी तुम सम और नहीं दूजा।
वित्तमंत्री, नित्य आपकी करते हैं पूजा। ओम्…।
उल्लू जी की आरति यदि राजा-रानी गाते।
‘काका’ उनके प्रिवीपर्स छिनने से बच जाते। ओम्…।
मूर्खिस्तान ज़िंदाबाद
स्वतंत्र भारत के बेटे और बेटियो !
माताओ और पिताओ,
आओ, कुछ चमत्कार दिखाओ।
नहीं दिखा सकते ?
तो हमारी हाँ में हाँ ही मिलाओ।
हिंदुस्तान, पाकिस्तान अफगानिस्तान
मिटा देंगे सबका नामो-निशान
बना रहे हैं-नया राष्ट्र ‘मूर्खितान’
आज के बुद्धिवादी राष्ट्रीय मगरमच्छों से
पीड़ित है प्रजातंत्र, भयभीत है गणतंत्र
इनसे सत्ता छीनने के लिए
कामयाब होंगे मूर्खमंत्र-मूर्खयंत्र
कायम करेंगे मूर्खतंत्र।
हमारे मूर्खिस्तान के राष्ट्रपति होंगे-
तानाशाह ढपोलशंख
उनके मंत्री (यानी चमचे) होंगे-
खट्टासिंह, लट्ठासिंह, खाऊलाल, झपट्टासिंह
रक्षामंत्री-मेजर जनरल मच्छरसिंह
राष्ट्रभाषा हिंदी ही रहेगी, लेकिन बोलेंगे अँगरेजी।
अक्षरों की टाँगें ऊपर होंगी, सिर होगा नीचे,
तमाम भाषाएँ दौड़ेंगी, हमारे पीछे-पीछे।
सिख-संप्रदाय में प्रसिद्ध हैं पाँच ‘ककार’-
कड़ा, कृपाण, केश, कंघा, कच्छा।
हमारे होंगे पाँच ‘चकार’-
चाकू, चप्पल, चाबुक, चिमटा और चिलम।
इनको देखते ही भाग जाएँगी सब व्याधियाँ
मूर्खतंत्र-दिवस पर दिल खोलकर लुटाएँगे उपाधियाँ
मूर्खरत्न, मूर्खभूषण, मूर्खश्री और मूर्खानंद।
प्रत्येक राष्ट्र का झंडा है एक, हमारे होंगे दो,
कीजिए नोट-लँगोट एंड पेटीकोट
जो सैनिक हथियार डालकर
जीवित आ जाएगा
उसे ‘परमूर्ख-चक्र’ प्रदान किया जाएगा।
सर्वाधिक बच्चे पैदा करेगा जो जवान
उसे उपाधि दी जाएगी ‘संतान-श्वान’
और सुनिए श्रीमान-
मूर्खिस्तान का राष्ट्रीय पशु होगा गधा,
राष्ट्रीय पक्षी उल्लू या कौआ,
राष्ट्रीय खेल कबड्डी और कनकौआ।
राष्ट्रीय गान मूर्ख-चालीसा,
राजधानी के लिए शिकारपुर, वंडरफुल !
राष्ट्रीय दिवस, होली की आग लगी पड़वा।
प्रशासन में बेईमान को प्रोत्साहन दिया जाएगा,
ईमानदार सुर्त होते हैं, बेईमान चुस्त होते हैं।
वेतन किसी को नहीं मिलेगा,
रिश्वत लीजिए,
सेवा कीजिए !
‘कीलर कांड’ ने रौशन किया था
इंगलैंड का नाम,
करने को ऐसे ही शुभ काम-
खूबसूरत अफसर और अफसराओं को छाँटा जाएगा
अश्लील साहित्य मुफ्त बाँटा जाएगा।
पढ़-लिखकर लड़के सीखते हैं छल-छंद,
डालते हैं डाका,
इसलिए तमाम स्कूल-कालेज
बंद कर दिए जाएँगे ‘काका’।
उन बिल्डिगों में दी जाएगी ‘हिप्पीवाद’ की तालीम
उत्पादन कर से मुक्त होंगे
भंग-चरस-शराब-गंजा-अफीम
जिस कवि की कविताएँ कोई नहीं समझ सकेगा,
उसे पाँच लाख का ‘अज्ञानपीठ-पुरस्कार मिलेगा।
न कोई किसी का दुश्मन होगा न मित्र,
नोटों पर चमकेगा उल्लू का चित्र!
नष्ट कर देंगे-
धड़ेबंदी गुटबंदी, ईर्ष्यावाद, निंदावाद।
मूर्खिस्तान जिंदाबाद!
सिगरेट समीक्षा
मिस्टर भैंसानंद का फूल रहा था पेट,
पीते थे दिन-रात में, दस पैकिट सिगरेट।
दस पैकिट सिगरेट डाक्टर गोयल आए
दिया लैक्चर तंबाकू के दोष बताए।
‘कैंसर हो जाता ज्यादा सिगरेट पीने से,
फिर तो मरना ही अच्छा लगता, जीने से।’
बोले भैंसानंद जी, लेकर एक डकार,
आप व्यर्थ ही हो रहे, परेशान सरकार।
परेशान सरकार, तर्क है रीता-थोता,
सिगरेटों में तंबाकू दस प्रतिशत होता।
बाकी नव्वै प्रतिशत लीद भरी जाती है,
इसीलिए तो जल्दी मौत नहीं आती है।
हथियार रहस्य
अमरीका ने हिंद को, नहीं दिए हथियार,
ऐसी झूठी बात क्यों, कहते हो बेकार ?
कहते हो बेकार, दृश्य देखा जन-जन ने,
मियाँ नियामी की मार्फत भेजे निक्सन ने।
नीची नज़र किए सब सैनिक खड़े अभागे,
ढेर लगा था जनरल मानिकशा के आगे।
अल्हड़ बीकानेरी
अल्हड़ जी का स्वर मधुर, गोरा-चिट्टा चाम।
‘श्यामलाल’ क्यों रख दिया, घरवालों ने नाम।
घर वालों ने नाम, ‘शकीला’ पीटे ताली।
हमको दे दो, मूँगफली वाली कव्वाली।
इसे मंच पर गाने में जो होगी इनकम।
आधी तुम ले लेना, आधी ले लेंगे हम।
व्यंग्य एक नश्तर है
व्यंग्य एक नश्तर है
ऐसा नश्तर, जो समाज के सड़े-गले अंगों की
शल्यक्रिया करता है
और उसे फिर से स्वस्थ बनाने में सहयोग भी।
काका हाथरसी यदि सरल हास्यकवि हैं
तो उन्होंने व्यंग्य के तीखे बाण भी चलाए हैं।
उनकी कलम का कमाल कार से बेकार तक
शिष्टाचार से भ्रष्टाचार तक
विद्वान से गँवार तक
फ़ैशन से राशन तक
परिवार से नियोजन तक
रिश्वत से त्याग तक
और कमाई से महँगाई तक
सर्वत्र देखने को मिलता है।
पक्के गायक
तंबूरा ले मंच पर बैठे प्रेमप्रताप।
साज़ मिले पंद्रह मिनट. घंटाभर आलाप॥
घंटाभर आलाप, राग में मारा गोता ।
धीरे-धीरे खिसक चुके थे सारे श्रोता ॥
कहें ‘काका’, सम्मेलन में सन्नाटा छाया।
श्रोताओं में केवल हमको बैठा पाया ॥
कलाकार जी ने कहा, होकर भाव-विभोर।
काका ! तुम संगीत के प्रेमी हो घनघोर॥
प्रेमी हो घनघोर, न हमने सत्य छिपाया।
अपने बैठे रहने का कारण बतलाया॥
‘कृपा करें’ श्रीमान ! मंच का छोड़ें पीछा।
तो हम घर ले जाएं अपने फर्श-गलीचा॥
सवाल में बवाल
रिंग रोड पर मिल गए नेता जी बलवीर ।
कुत्ता उनके साथ था पकड़ रखी ज़ंजीर ॥
पकड़ रखी जंजीर अल्सेशियन था वह कुत्ता ।
नेता से दो गुना भौंकने का था बुत्ता ॥
हमने पूछा, कहो, आज कैसे हो गुमसुम ।
इस गधे को लेकर कहाँ जा रहे हो तुम ॥
नेता बोले क्रोध से करके टेढ़ी नाक ।
कुत्ता है या गधा है, फूट गईं हैं आँख ॥
फूट गईं हैं आँख, नशा करके आए हो ।
बिना बात सुबह-सुबह लड़ने आए हो ॥
हमने कहा कि कौन आपसे जूझ रहे हैं ।
यह सवाल तो हम कुत्ते से पूछ रहे हैं ॥
मरने से क्या डरना
नियम प्रकृति का अटल, मिटे न भाग्य लकीर।
आया है सो जाएगा राजा रंक फ़कीर॥
राजा रंक फ़कीर चलाओ जीवन नैय्या।
मरना तो निश्चित है फिर क्या डरना भैय्या॥
रोओ पीटो, किंतु मौत को रहम न आए।
नहीं जाय, यमदूत ज़बरदस्ती ले जाए॥
जो सच्चा इंसान है उसे देखिये आप।
मरते दम तक वह कभी करे न पश्चाताप॥
करे न पश्चाताप, ग़रीबी सहन करेगा।
लेकिन अपने सत्यधर्म से नहीं हटेगा॥
अंत समय में ऐसा संत मोक्ष पद पाए।
सत्यम शिवम सुन्दरम में वह लय हो जाए॥
जीवन में और मौत में पल भर का है फ़र्क।
हार गए सब ज्योतिषी फेल हो गए तर्क॥
फेल हो गए तर्क, उम्र लम्बी बतलाई।
हार्ट फेल हो गया दवा कुछ काम न आई॥
जीवन और मौत में इतना फ़र्क जानिए।
साँस चले जीवन, रुक जाए मौत मानिए॥
आत्महत्या
परमात्मा ने आत्मा बख़्शी है श्रीमान
करे आत्महत्या उसे समझो मूर्ख महान
समझो मूर्ख महान बुरे दिन वापस जाएँ
अटल नियम है दु:ख के बाद सुखानन्द आएँ
मिली आत्मा, प्रभु की समझो इसे अमानत
लानत उन्हें अमानत में जो करें खयानत
ईश्वर ने जीवन दिया, किया उसे स्वीकार
भाग्यहीन कुछ सरफिरे, करें मौत से प्यार
करें मौत से प्यार, जवाँ लड़के आते हैं
उग्रवाद आतंकवाद में घुस जाते हैं
करें देश से द्रोह, विदेशी राह पर भटकें
कोई जेल में सड़ें, कोई फाँसी पर लटकें
आधुनिकता
पाश्चात्य संतान है, अधिक आधुनिक ट्रेंड ।
प्रथम फ्रैंडशिप, बाद में, वाइफ या हस्बैंड ॥
वाइफ या हस्बैंड, कहे बेटी से मम्मी ।
बॉयफ्रैंड के बिना लगे तू मुझे निकम्मी ॥
फादर कहते, बेटा तुझ पर क्यों है सुस्ती ।
गर्ल् फ्रैंड कर ले तलाश आ जाए चुस्ती॥
शिक्षा-पद्धति
बाबू सर्विस ढूँढते, थक गए करके खोज ।
अपढ श्रमिक को मिल रहे चालीस रुपये रोज़ ॥
चालीस रुपये रोज़, इल्म को कूट रहे हैं ।
ग्रेजुएट जी रेल और बस लूट रहे हैं ॥
पकड़े जाँए तो शासन को देते गाली ।
देख लाजिए शिक्षा-पद्धति की खुशहाली॥
चोरी की रपट
घूरे खाँ के घर हुई चोरी आधी रात ।
कपड़े-बर्तन ले गए छोड़े तवा-परात ॥
छोड़े तवा-परात, सुबह थाने को धाए ।
क्या-क्या चीज़ गई हैं सबके नाम लिखाए ॥
आँसू भर कर कहा – महरबानी यह कीजै ।
तवा-परात बचे हैं इनको भी लिख लीजै ॥
कोतवाल कहने लगा करके आँखें लाल ।
उसको क्यों लिखवा रहा नहीं गया जो माल ॥
नहीं गया जो माल, मियाँ मिमियाकर बोला ।
मैंने अपना दिल हुज़ूर के आगे खोला ॥
मुंशी जी का इंतजाम किस तरह करूँगा ।
तवा-परात बेचकर ‘रपट लिखाई’ दूँगा ॥
व्यर्थ
काका या संसार में, व्यर्थ भैंस अरु गाय ।
मिल्क पाउडर डालकर पी लिपटन की चाय ॥
पी लिपटन की चाय साहबी ठाठ बनाओ ।
सिंगल रोटी छोड़ डबल रोटी तुम खाओ ॥
कहँ ‘काका’ कविराय, पैंट के घुस जा अंदर ।
देशी बाना छोड़ बनों अँग्रेजी बन्दर ॥
जप-तप-तीरथ व्यर्थ हैं, व्यर्थ यज्ञ औ योग ।
करज़ा लेकर खाइये नितप्रति मोहन भोग ॥
नितप्रति मोहन भोग, करो काया की पूजा ।
आत्मयज्ञ से बढ़कर यज्ञ नहीं है दूजा ॥
कहँ ‘काका’ कविराय, नाम कुछ रोशन कर जा ।
मरना तो निश्चित है करज़ा लेकर मर जा॥
सफल लेखक
दस ग्रंथो से टीपकर पुस्तक की तैय्यार ।
उस पुस्तक पर मिल गया पुरस्कार सरकार ॥
पुरस्कार सरकार लेखनी सरपट रपटे ।
सूझ-बूझ मौलिकता, भय से पास न फटके ॥
जोड़-तोड़ में कुशल पहुँच है ऊँची जिसकी ।
धन्य होय साहित्य बोलती तूती उसकी ॥
सफल नेता
सफल राजनीतिज्ञ वह जो जन गण में व्याप्त ।
जिस पद को वह पकड़ ले कभी न होय समाप्त ॥
कभी न होय समाप्त, घुमाए पहिया ऐसा ।
पैसा से पद मिले, मिले फिर पद से पैसा ॥
कह काका, यह क्रम न कभी जीवन-भर टूटे ।
नेता वही सफल और सब नेता झूठे॥
खटमल-मच्छर-युद्ध
‘काका’ वेटिंग रूम में फँसे देहरादून ।
नींद न आई रात भर, मच्छर चूसें खून ॥
मच्छर चूसें खून, देह घायल कर डाली ।
हमें उड़ा ले ज़ाने की योजना बना ली ॥
किंतु बच गए कैसे, यह बतलाएँ तुमको ।
नीचे खटमल जी ने पकड़ रखा था हमको ॥
हुई विकट रस्साकशी, थके नहीं रणधीर ।
ऊपर मच्छर खींचते नीचे खटमल वीर ॥
नीचे खटमल वीर, जान संकट में आई ।
घिघियाए हम- “जै जै जै हनुमान गुसाईं ॥
पंजाबी सरदार एक बोला चिल्लाके – |
त्व्हाणूँ पजन करना होवे तो करो बाहर जाके ॥
झूठ माहात्म्य
झूठ बराबर तप नहीं, साँच बराबर पाप
जाके हिरदे साँच है, बैठा-बैठा टाप
बैठा-बैठा टाप, देख लो लाला झूठा
‘सत्यमेव जयते’ को दिखला रहा अँगूठा
कहँ ‘काका ‘ कवि, इसके सिवा उपाय न दूजा
जैसा पाओ पात्र, करो वैसी ही पूजा
दार्शनिक दलबदलू
आए जब दल बदल कर नेता नन्दूलाल
पत्रकार करने लगे, ऊल-जलूल सवाल
ऊल-जलूल सवाल, आपने की दल-बदली
राजनीति क्या नहीं हो रही इससे गँदली
नेता बोले व्यर्थ समय मत नष्ट कीजिए
जो बयान हम दें, ज्यों-का-त्यों छाप दीजिए
समझे नेता-नीति को, मिला न ऐसा पात्र
मुझे जानने के लिए, पढ़िए दर्शन-शास्त्र
पढ़िए दर्शन-शास्त्र, चराचर जितने प्राणी
उनमें मैं हूँ, वे मुझमें, ज्ञानी-अज्ञानी
मैं मशीन में, मैं श्रमिकों में, मैं मिल-मालिक
मैं ही संसद, मैं ही मंत्री, मैं ही माइक
हरे रंग के लैंस का चश्मा लिया चढ़ाय
सूखा और अकाल में ‘हरी-क्रांति’ हो जाय
‘हरी-क्रांति’ हो जाय, भावना होगी जैसी
उस प्राणी को प्रभु मूरत दीखेगी वैसी
भेद-भाव के हमें नहीं भावें हथकंडे
अपने लिए समान सभी धर्मों के झंडे
सत्य और सिद्धांत में, क्या रक्खा है तात ?
उधर लुढ़क जाओ जिधर, देखो भरी परात
देखो भरी परात, अर्थ में रक्खो निष्ठा
कर्तव्यों से ऊँचे हैं, पद और प्रतिष्ठा
जो दल हुआ पुराना, उसको बदलो साथी
दल की दलदल में, फँसकर मर जाता हाथी
नर्क का तर्क
स्वर्ग-नर्क के बीच की चटख गई दीवार।
कौन कराए रिपेयर इस पर थी तकरार॥
इस पर थी तकरार, स्वर्गवासी थे सहमत।
आधा-आधा खर्चा दो हो जाए मरम्मत॥
नर्केश्वर ने कहा – गलत है नीति तुम्हारी।
रंचमात्र भी नहीं हमारी जिम्मेदारी॥
जिम्मेदारी से बचें कर्महीन डरपोक।
मान जाउ नहिं कोर्ट में दावा देंगे ठोंक॥
दावा देंगे ठोंक? नरक मेनेजर बोले।
स्वर्गलोक के नर नारी होते हैं भोले॥
मान लिया दावा तो आप ज़रूर करोगे।
सब वकील हैं यहाँ, केस किस तरह लड़ोगे॥
अमंगल आचरण
मात शारदे नतमस्तक हो, काका कवि करता यह प्रेयर
ऐसी भीषण चले चकल्लस, भागें श्रोता टूटें चेयर
वाक् युद्ध के साथ-साथ हो, गुत्थमगुत्था हातापाई
फूट जायें दो चार खोपड़ी, टूट जायें दस बीस कलाई
आज शनिश्चर का शासन है, मंगल चरण नहीं धर सकता
तो फिर तुम्हीं बताओ कैसे, मैं मंगलाचरण कर सकता
इस कलियुग के लिये एक आचार संहिता नई बना दो
कुछ सुझाव लाया हूँ देवी, इनपर अपनी मुहर लगा दो
सर्वोत्तम वह संस्था जिसमें पार्टीबंदी और फूट हो
कुशल राजनीतिज्ञ वही, जिसकी रग–रग में कपट झूठ हो
वह कैसा कवि जिसने अब तक, कोई कविता नहीं चुराई
भोंदू है वह अफसर जिसने, रिश्वत की हाँडी न पकाई
रिश्वत देने में शरमाए, वह सरमाएदार नहीं है
रिश्वत लेने में शरमाए, उसमें शिष्टाचार नहीं है
वह क्या नेता बन सकता है, जो चुनाव में कभी न हारे
क्या डाक्टर वह महीने भर में, पन्द्रह बीस मरीज़ न मारे
कलाकार वह ऊँचा है जो, बना सके हस्ताक्षर जाली
इम्तहान में नकल कर सके, वही छात्र है प्रतिभाशाली
जिसकी मुठ्ठी में सत्ता है, पारब्रह्म साकार वही है
प्रजा पिसे जिसके शासन में, प्रजातंत्र सरकार वही है
मँहगाई से पीड़ित कार्मचारियों को करने दो क्रंदन
बड़े वड़े भ्रष्टाचारी हैं, उनका करवाओ अभिनंदन
करें प्रदर्शन जो हड़ताली, उनपर लाठीचार्ज करा दो
लाठी से भी नहीं मरें तो, चूको मत, गोली चलवा दो
लेखक से लेखक टकराए, कवि को कवि से हूट करा दो
सभापति से आज्ञा लेकर, संयोजक को शूट करा दो
हिंदी की दुर्दशा
बटुकदत्त से कह रहे, लटुकदत्त आचार्य
सुना? रूस में हो गई है हिंदी अनिवार्य
है हिंदी अनिवार्य, राष्ट्रभाषा के चाचा-
बनने वालों के मुँह पर क्या पड़ा तमाचा
कहँ ‘काका’, जो ऐश कर रहे रजधानी में
नहीं डूब सकते क्या चुल्लू भर पानी में
पुत्र छदम्मीलाल से, बोले श्री मनहूस
हिंदी पढ़नी होये तो, जाओ बेटे रूस
जाओ बेटे रूस, भली आई आज़ादी
इंग्लिश रानी हुई हिंद में, हिंदी बाँदी
कहँ ‘काका’ कविराय, ध्येय को भेजो लानत
अवसरवादी बनो, स्वार्थ की करो वक़ालत
स्त्रीलिंग, पुल्लिंग
काका से कहने लगे ठाकुर ठर्रा सिंग,
दाढ़ी स्त्रीलिंग है, ब्लाउज़ है पुल्लिंग।
ब्लाउज़ है पुल्लिंग, भयंकर ग़लती की है,
मर्दों के सिर पर टोपी पगड़ी रख दी है।
कह काका कवि पुरूष वर्ग की क़िस्मत खोटी,
मिसरानी का जूड़ा, मिसरा जी की चोटी।
दुल्हन का सिन्दूर से शोभित हुआ ललाट,
दूल्हा जी के तिलक को रोली हुई अलॉट।
रोली हुई अलॉट, टॉप्स, लॉकेट, दस्ताने,
छल्ला, बिछुआ, हार, नाम सब हैं मर्दाने।
पढ़ी लिखी या अपढ़ देवियाँ पहने बाला,
स्त्रीलिंग ज़ंजीर गले लटकाते लाला।
लाली जी के सामने लाला पकड़ें कान,
उनका घर पुल्लिंग है, स्त्रीलिंग है दुकान।
स्त्रीलिंग दुकान, नाम सब किसने छाँटे,
काजल, पाउडर, हैं पुल्लिंग नाक के काँटे।
कह काका कवि धन्य विधाता भेद न जाना,
मूँछ मर्दों को मिली, किन्तु है नाम जनाना।
ऐसी-ऐसी सैंकड़ों अपने पास मिसाल,
काकी जी का मायका, काका की ससुराल।
काका की ससुराल, बचाओ कृष्णमुरारी,
उनका बेलन देख काँपती छड़ी हमारी।
कैसे जीत सकेंगे उनसे करके झगड़ा,
अपनी चिमटी से उनका चिमटा है तगड़ा।
मन्त्री, सन्तरी, विधायक सभी शब्द पुल्लिंग,
तो भारत सरकार फिर क्यों है स्त्रीलिंग?
क्यों है स्त्रीलिंग, समझ में बात ना आती,
नब्बे प्रतिशत मर्द, किन्तु संसद कहलाती।
काका बस में चढ़े हो गए नर से नारी,
कण्डक्टर ने कहा आ गई एक सवारी।