दोहा / भाग 1
‘ब्रज चन्द विनोद’ से
सेवक गिरिजा नाथ का, मेरे मन यह आश।
चींटी जैसे चाहती, उड़ जाऊँ आकाश।।1।।
वैसे ही यह दास तव, सुनिये भोला नाथ।
चाहत है लिखना रुचिर, कृष्ण चन्द्र की गाथ।।2।।
होनी टलती ही नहीं, हरि माया बलवान।
जो चहो करते वही, मायापति भगवान।।3।।
सोहर होते गेह में, बाजे बजते द्वार।
घर घर गोकुल ग्राम में, आज मंगलाचार।।4।।
बाल वृद्ध नर नारि सब, हर्षित अमित अपार।
आज छठी है श्याम की, घर घर मची गुहार।।5।।
वर्ष गाँठ उत्सव निरखि, हर्षित देव समाज।
नभ से जय जय कर रहा, जय-जय-जय ब्रजराज।।6।।
गाय दुहत नित निरखहीं, नन्द बबा को श्याम।
मन में आया श्याम के, सीख लेउँ काम।।7।।
धन्य-धन्य वह गाय है, दुह्यो जाहि घनश्याम।
धनि-धनि गोपी ग्वाल है, देख्यो दृश्य ललाम।।8।।
नील नलिन से नयन है, मन्द मन्द मुसकात।
दमकत हरि के दाँत यों, जिनसे मोती मात।।9।।
लिये सखा खेलत फिरे, इत उत मदन गोपाल।
प्रेम मगन ब्रज जन सबै, निरखत होत निहाल।।10।।
दोहा / भाग 2
राधा को मुख चन्द लखि, फीको परतो चन्द।
देखत ही वह रूप को, मन में होत अनन्द।।11।।
जो मोहत है जगत को, राधा मोह्यो वाहि।
धनि राधा को रूप है, कैसे जाय सराहि।।12।।
धन्य प्रेम है राधिका, धन्य प्रेम गोपाल।
धन्य धन्य राधा कहो, धन्य धन्य नँदलाल।।13।।
मोर मुकुट अरु पीत पट, धारे मुरली हाथ।
उर ‘किशोर’ के बसहु अब, हे त्रिभुवन के नाथ।।14।।
माया से बचता नहीं, निर्धन अरु धनवान।
साधु सन्त छूटत नहीं, माया बड़ी महान।।15।।
यह माया भगवान की, जान सका नहिं कोय।
जो चाहत घनश्याम हैं, वही बात सब होय।।16।।
मेरे घट में भी बसो, पनघट के घटवार।
है ‘किशोर’ की कामना, सुनिये नन्दकुमार।।17।।
ऐसे छूटी बान यह, गोपिन की इक साथ।
ज्ञान सिखाया कृष्ण ने, धन्य धन्य ब्रजनाथ।।18।।
धनि वृन्दाबन धाम है, लता वृक्ष अरुबाग।
जिससे करते ध्याम हैं, नित नूतन अनुराग।।19।।
हरि ने सब से यह कहा, सब मिलकर तुम ग्वाल।
निज-निज लकुटी दो लगा, पकड़ो खूब सम्हाल।।20।।
दोहा / भाग 3
हरि जिसके नयनों बसे, सुरपुर से क्या काम।
है ‘किशोर’ की कामना, हृदय बसो घनश्याम।।21।।
तनिक दही देकर उसे, ठगती थी ब्रजबाम।
मुग्ध प्रेम में था हुआ, जो है पूरण काम।।22।।
वेद ऋचाएँ गोपिका, वेद रुप भगवान।
ब्रह्मचारिणी गोपियाँ, ब्रह्म श्याम निष्काम।।23।।
प्रेम प्रशंसा क्या लिखूँ, कोउ न पावत पार।
इसको समझीं गोपियाँ, समझे नन्द कुमार।।24।।
प्रेम मनुज का तत्व है, भक्ति रूप है प्रान।
प्रेम-भक्ति जिनको मिले, मिल जावें भगवान।।25।।
त्रिभुवन वश में जाहि के, वह डरपत है मात।
धनि मर्यादा नाथ तुम, पालत हो सब बात।।26।।
गर्व रहित लखि राधिका, प्रकटे दीनानाथ।
मोर मुकुट छवि निरखि कै, राधा भई सनाथ।।27।।
बंशी हरि की बज रही, कालिन्दी के पास।
थिर होकर थे सुन रहे, जलचर सहित हुलास।।28।।
यमुना बहती थीं नहीं, सुन बंशी की तान।
प्रेम मग्न सुन रही थी, भूली अपना मान।।29।।
मन्द मन्द चलता पवन, सुन कर बंशी राग।
लता बृक्ष सुनते खड़े, उमड़े उर अनुराग।।30।।
दोहा / भाग 4
नभ तक जाती तान थी, सुरगण चढ़े बिमान।
सुनते थे सुर माधुरी, मौन लगाये कान।।31।।
ताता थेई ताल पर, नाचत सब मिलि साथ।
झूम झूम कर घूम कर, सखियन सँग ब्रजनाथ।।32।।
ताधिन ताधिन मचा है, रचा रास रस-रंग।
ताथेइ ताथेइ होत है, नृत्यकरत सब संग।।33।।
गौर प्रभा से लली की, गौर हुआ सब ठाम।
श्वेत चाँदनी को परस, गौर हुए घनश्याम।।34।।
श्वेत हुए पिक काग सब, श्वेत हुआ बन बाग।
श्वेतरंग यमुना भई, श्वेत कालिया नाग।।35।।
राधा के सौन्दर्य से, श्वेत हुआ संसार।
मानो पारा का धवल, उमड़ा पारावार।।36।।
या आया है क्षीरनिधि, करन श्वेत संसार।
श्री हरि के श्रम हरण हित, परसन चरण उदार।।37।।
उत उद्धव रथ आ गयो, वृन्दाबन के पास।
खग मृग दौड़े रथ निरख, हरिदर्शन की आस।।38।।
कृष्ण कृष्ण रटते हुए, दौड़े रथ की ओर।
आतुर विह्वल जीव सब, शुक पिक बायस मोर।।39।।
गाय बच्छ दौड़े तुरत, बाँय बाँय कर शोर।
मृग केहरि समझे यही, आये नन्दकिशोर।।40।।
दोहा / भाग 5
चोरी की आदत तुम्हें, पड़ी पुरानी यार।
मैं भी तो इस कला में, किन्तु बड़ा हुशियार।।41।।
यह कहकर झट श्याम ने, लई पोटली छीन।
तकते ही मुख रह गये, विप्र सुदामा दीन।।42।।
खोली हरि ने पोटली, जगे विप्र के भाग।
मुट्ठी भर तन्दुल तुरत, खाये सह अनुराग।।43।।
एक लोक की सम्पदा, गई सुदामा धाम।
खाकर मुट्ठी दूसरी, नट नागर घनश्याम।।44।।
सम्पत्ति दूजे लोक की, अर्पित की तत्काल।
देख रही थीं रुक्मिणी, हरि का सारा हाल।।45।।
मुट्ठी ज्योंही श्याम ने, भरी तीसरी बार।
बोली उठकर रुक्मिणी, सुनिये प्राणाधार।।46।।
आप अकेले ही भला, लेते हैं क्यों स्वाद।
सबको मिलना चाहिये, द्विज का दिव्य प्रसाद।।47।।
धन्य द्वारिकापुरी है, धन्य वहाँ के लोग।
बसे संग भगवान के, रहे स्वर्ग सुख भोग।।48।।
नित नव मंगल होत हैं, जहाँ बसत भगवान।
मनोकामना पूर्ण हो, जो गावे गुन गान।।49।।
गोपद धूल कोल मुख, पीत पटी तन धार।
बैठो हिये ‘किशोर’ के, नागर नन्द कुमार।।50।।
दोहा / भाग 6
‘गीता दोहावली’ से
बड़े शोक का विषय है, तुच्छ भोग हित आज।
पड़ैं लोभ में लड़ें हम, है अनर्थ का काज।।1।।
गीता से उत्तम नहीं, कोई ग्रन्थ महान।
सदगति देता ज्ञान भी, और शक्ति भगवान।।2।।
अमर आत्मा नित्य है, कभी न होता नाश।
फिर क्यों करता शोच तू, पड़ा मोह के पाश।।3।।
सुख दुख को सम मानते, वे हैं परम सुजान।
विषयों में पड़ते नहीं, जिनको है कुछ ज्ञान।।4।।
नित्य अजन्मा आत्मा, सत्य सनातन रूप।
होता नष्ट शरीर पर, इसका अमर स्वरूप।।5।।
नहीं शस्त्र काटे इसे, अग्नि न कसै जलाय।
जल में भी भीगै नहीं, पवन न सकै सुखाय।।6।।
धर्मयुद्ध है युद्ध ही, सबसे धर्म महान।
और न कोई मार्ग है, जिससे तव कल्यान।।7।।
बिना शान्ति के सुख कहाँ, सुन अर्जुन बलवान।
सत्य ज्ञान यह जान लो, बोले श्री भगवान।।8।।
फल इच्छा को त्याग कर, ईश्वर को ही मान।
कर्म करे समबुद्धि से, जो नर पार्थ सुजान।।9।।
पार्थ त्याग आसक्ति को, हो ईश्वर में लीन।
हरि निमित्त ही कर्म कर, बोले कृष्ण प्रवीन।।10।।
दोहा / भाग 7
इससे अर्जुन करो तुम, ज्ञानी जन सत्संग।
भक्ति भाव उनसे करो, समझो ज्ञान प्रसंग।।11।।
उत्तम समझो पार्थ तुम, कर्म योग निष्काम।
कर्म योग निष्काम ही, है सुन्दर सुखधाम।।12।।
अस्तु चाहिये पुरुष को, सभी कामना त्याग।
वश में करके इन्द्रियाँ, कर मुझसे अनुराग।।13।।
शनैः शनैः अभ्यास कर, करै शान्ति को प्राप्त।
ईश्वर का चिन्तन करै, करके मोह समाप्त।।14।।
जो मुझको है देखता, सभी जगह ऐ पार्थ।
मुझमें देखे जगत को, समझे मर्म यथार्थ।।15।।
मुझसे अलग न और कुछ, समझो पार्थ सुजान।
तागे में मणियों सदृश, मुझमें गुथा जहान।।16।।
सत रज तम गुण से प्रकट, होते हैं जो भाव।
मुझसे ही उत्पन्न वे, मेरा पूर्ण प्रभाव।।17।।
जो मुझमें तल्लीन हो, भजता मुझको पार्थ।
उस योगी को सुलभ मैं, मानो वचन यथार्थ।।18।।
प्रेमभक्ति से प्राप्त हो, सत्य सच्चिदानन्द।
और मार्ग कोई नहीं, बोले श्री ब्रजचन्द।।19।।
यज्ञपुण्य अरुदान जो, करो पार्थ तुम तात।
अरपो मुझको ही सदा, है पुनीत यह बात।।20।।
दोहा / भाग 8
माया के इक अंश से, प्रगटाता संसार।
तत्व रूप समझो मुझे, बोले नन्दकुमार।।21।।
करता जग को तापमय, तेजोमय यह रूप।
परम प्रकाशित विश्व है, जिससे अखिल अनूप।।22।।
ब्रह्म रचयिता आपही, परब्रह्म भगवान।
सत्य सच्चिदानन्द घन, महिमा अगम महान।।23।।
पुरुष सनातन आप हैं, आदि देव सर्वज्ञ।
आश्रय सारे जगत के, परमधाम मर्मज्ञ।।24।।
कर्म करे मम हेतु जो, सब कुछ मुझको मान।
त्याग बैर आसक्ति को, सुन पाण्डव बलवान।।25।।
करता मुझको प्राप्त वह, ऐसा जो अनुरक्त
परम तत्व यह जान ले, तू है मेरा भक्त।।26।।
यदि मन मुझमें स्थिर नहीं, करो योग अभ्यास।
शनैः शनैः अभ्यास से, होगा परम प्रकाश।।27।।
द्वेष रहित जनमात्र से, प्रेमी सबका होय।
दया करे हर जीव पर, ममता देवे खोय।।28।।
दुख सुख सम समझै सदा, क्षमावान मतिमान।
अपराधी अपराध को, मन से भूले मान।।29।।
खिन्न नहीं जिससे जगत, जो न जगत से खिन्न।
हर्ष डाह से मुक्त जो, समदर्शी नहिं भिन्न।।30।।
दोहा / भाग 9
हिन्दा अस्तुति मान ले, जो नर एक समान।
यथा प्राप्ति सन्तुष्ट रह, त्यागे मोह महान।।31।।
सुन कुन्ती के पुत्र तू, यह शरीर है क्षेत्र।
जो जाने मर्मज्ञ यह, ज्ञानीजन का नेत्र।।32।।
हे अर्जुन जिमि सूर्य से, सकल प्रकाशित लोक।
वैसे आत्मा क्षेत्र में, करता है आलोक।।33।।
सत रज तम गुण से बँधे, जीव देह में पार्थ।
गूढ़ तत्व यह सृष्टि की, समझो बात यथार्थ।।34।।
सत गुण के फल जानिये, सौख्य ज्ञान वैराग।
रज गुण का फल दुःख है, तमो अशान्ति अभाग।।35।।
मिट्टी पत्थर स्वर्ण को, समझै एक समान।
प्रिय अप्रिय निन्दा स्तुति, यही धीर की बात।।36।।
जैसे मारुत संग ही, उड़ जाती है गंध।
वैसे इन्द्रिय आत्मा, का समझो सम्बन्ध।।37।।
काम क्रोध अरु लोभ ही, समझ नरक के द्वार।
तीनो त्यागे पार्थ जो, वह हो भव से पार।।38।।
भाव सत्य निष्काम ही, नियत शास्त्र अनुकूल।
भरे हृदय उत्साह अति, कर्म न जाए भूल।।39।।
ज्ञान कर्म कर्ता सभी, गुण स्वभाव अनुसार।
सांख्य शास्त्र में हैं लिखे, इनके तीन प्रकार।।40।।
दोहा / भाग 10
विष सा लगता है प्रथम, अमृत सा परिणाम।
होता बुद्धि प्रसाद से, सुख सात्विक है नाम।।41।।
विष ही विष परिणाम है, आदि होय या अन्त।
उसे तामसी सुख कहै, बुद्धिमान सब सन्त।।42।।
क्षत्रिय के लो कर्म अब, सभी धनंजय जान।
शूर वीरता तेज अरु, धैर्य चतुर बलवान।।43।।
दानी ईश्वर भक्त हो, रखता स्वामी भाव।
मुख मोड़े नहिं युद्ध से, भरा युद्ध का चाव।।44।।
जन पालक हो हृदय से, प्रजा पुत्र ले जान।
स्वाभाविक ये कर्म हैं, क्षत्रिय के धीमान।।45।।
शुद्ध बुद्धि से युक्त हो, धरि धीरज मतिधीर।
करै निमंत्रित स्वयं को, त्याग विषय सब वीर।।46।।
राग द्वेष को नाश कर, करै बास एकान्त।
अल्पाहारी रह सदा, मन को रक्खे शान्त।।47।।
संयम रखे देह का, वाणी पर अधिकार।
ध्यान योग में निरत जो, रहै विराग विचार।।48।।
अहंकार बल दर्प को, मन से देवै त्याग।
काम क्रोध संग्रह सभी, छोड़ देय सब राग।।49।।
तब कर सकता प्राप्त नर, सत्य सच्चिदानन्द।
प्राप्त ब्रह्म की हो तभी, छूटै माया फन्द।।50।।
जन ‘किशोर’ को कृष्णजी, दे दो गीता ज्ञान।
और भक्ति अन पायिनी, केशव कृपा निधान।।51।।