Skip to content

Akbar-allahabadi.jpg

हंगामा है क्यूँ बरपा

हंगामा है क्यूँ बरपा, थोड़ी सी जो पी ली है
डाका तो नहीं डाला, चोरी तो नहीं की है

ना-तजुर्बाकारी से, वाइज़[1] की ये बातें हैं
इस रंग को क्या जाने, पूछो तो कभी पी है

उस मय से नहीं मतलब, दिल जिस से है बेगाना
मक़सूद[2] है उस मय से, दिल ही में जो खिंचती है

वां[3] दिल में कि दो सदमे,यां[4] जी में कि सब सह लो
उन का भी अजब दिल है, मेरा भी अजब जी है

हर ज़र्रा चमकता है, अनवर-ए-इलाही[5] से
हर साँस ये कहती है, कि हम हैं तो ख़ुदा भी है

सूरज में लगे धब्बा, फ़ितरत[6] के करिश्मे हैं
बुत हम को कहें काफ़िर, अल्लाह की मर्ज़ी है

कोई हँस रहा है कोई रो रहा है

कोई हँस रहा है कोई रो रहा है
कोई पा रहा है कोई खो रहा है

कोई ताक में है किसी को है गफ़लत
कोई जागता है कोई सो रहा है

कहीँ नाउम्मीदी ने बिजली गिराई
कोई बीज उम्मीद के बो रहा है

इसी सोच में मैं तो रहता हूँ ‘अकबर’
यह क्या हो रहा है यह क्यों हो रहा है

बहसें फ़ुजूल थीं यह खुला हाल देर से 

बहसें फिजूल थीं यह खुला हाल देर में
अफ्सोस उम्र कट गई लफ़्ज़ों के फेर में

है मुल्क इधर तो कहत जहद, उस तरफ यह वाज़
कुश्ते वह खा के पेट भरे पांच सेर मे

हैं गश में शेख देख के हुस्ने-मिस-फिरंग
बच भी गये तो होश उन्हें आएगा देर में

छूटा अगर मैं गर्दिशे तस्बीह से तो क्या
अब पड़ गया हूँ आपकी बातों के फेर में

दिल मेरा जिस से बहलता

दिल मेरा जिस से बहलता कोई ऐसा न मिला
बुत के बंदे तो मिले अल्लाह का बंदा न मिला

बज़्म-ए-याराँ से फिरी बाद-ए-बहारी मायूस
एक सर भी उसे आमादा-ए-सौदा न मिला

बज़्म-ए-याराँ=मित्रसभा; बाद-ए-बहारी=वासन्ती हवा; मायूस=निराश; आमादा-ए-सौदा=पागल होने को तैयार

गुल के ख्व़ाहाँ तो नज़र आए बहुत इत्रफ़रोश
तालिब-ए-ज़मज़म-ए-बुलबुल-ए-शैदा न मिला

ख्व़ाहाँ=चाहने वाले; इत्रफ़रोश=इत्र बेचने वाले;
तालिब-ए-ज़मज़म-ए-बुलबुल-ए-शैदा=फूलों पर न्योछावर होने वाली बुलबुल के नग्मों का इच्छुक

वाह क्या राह दिखाई हमें मुर्शिद ने
कर दिया काबे को गुम और कलीसा न मिला

मुर्शिद=गु्रू; कलीसा=चर्च,गिरजाघर

सय्यद उठे तो गज़ट ले के तो लाखों लाए
शेख़ क़ुरान दिखाता फिरा पैसा न मिला

दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ

दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार1 नहीं हूँ
बाज़ार से गुज़रा हूँ, ख़रीददार नहीं हूँ

ज़िन्दा हूँ मगर ज़ीस्त2 की लज़्ज़त3 नहीं बाक़ी
हर चंद कि हूँ होश में, होशियार नहीं हूँ

इस ख़ाना-ए-हस्त4 से गुज़र जाऊँगा बेलौस5
साया हूँ फ़क़्त6, नक़्श7 बेदीवार नहीं हूँ

अफ़सुर्दा8 हूँ इबारत9 से, दवा की नहीं हाजित10
गम़ का मुझे ये जो’फ़11 है, बीमार नहीं हूँ

वो गुल12 हूँ ख़िज़ां13 ने जिसे बरबाद किया है
उलझूँ किसी दामन से मैं वो ख़ार14 नहीं हूँ

यारब मुझे महफ़ूज़15 रख उस बुत के सितम से
मैं उस की इनायत16 का तलबगार17 नहीं हूँ

अफ़सुर्दगी-ओ-जौफ़18 की कुछ हद नहीं “अकबर”
क़ाफ़िर19 के मुक़ाबिल में भी दींदार20 नहीं हूँ

शब्दार्थ: 1. तलबगार= इच्छुक, चाहने वाला; 2. ज़ीस्त= जीवन; 3. लज़्ज़त= स्वाद; 4. ख़ाना-ए-हस्त= अस्तित्व का घर; 5. बेलौस= लांछन के बिना; 6. फ़क़्त= केवल; 7. नक़्श= चिन्ह, चित्र; 8. अफ़सुर्दा= निराश; 9. इबारत= शब्द, लेख; 10. हाजित(हाजत)= आवश्यकता; 11. जो’फ़(ज़ौफ़)= कमजोरी, क्षीणता; 12. गुल= फूल; 13. ख़िज़ां= पतझड़; 14. ख़ार= कांटा; 15. महफ़ूज़= सुरक्षित; 16. इनायत= कृपा; 17. तलबगार= इच्छुक; 18. अफ़सुर्दगी-ओ-जौफ़= निराशा और क्षीणता; 19. क़ाफ़िर= नास्तिक; 20. दींदार=आस्तिक,धर्म का पालन करने वाला।

समझे वही इसको जो हो दीवाना किसी का

समझे वही इसको जो हो दीवाना किसी का
‘अकबर’ ये ग़ज़ल मेरी है अफ़साना किसी का

गर शैख़-ओ-बहरमन[1] सुनें अफ़साना किसी का
माबद[2] न रहे काबा-ओ-बुतख़ाना[3] किसी का

अल्लाह ने दी है जो तुम्हे चाँद-सी सूरत
रौशन भी करो जाके सियहख़ाना[4] किसी का

अश्क आँखों में आ जाएँ एवज़[5] नींद के साहब
ऐसा भी किसी शब सुनो अफ़साना किसी का

इशरत[6] जो नहीं आती मेरे दिल में, न आए
हसरत ही से आबाद है वीराना किसी का

करने जो नहीं देते बयां हालत-ए-दिल को
सुनिएगा लब-ए-ग़ौर[7] से अफ़साना किसी का

कोई न हुआ रूह का साथी दम-ए-आख़िर
काम आया न इस वक़्त में याराना किसी का

हम जान से बेज़ार[8] रहा करते हैं ‘अकबर’
जब से दिल-ए-बेताब है दीवाना किसी का

  1.  धर्मोपदेशक
  2. पूजा का स्थान
  3. काबा और मंदिर
  4. अँधेरे भरा कमर
  5. बदले में
  6. धूमधाम
  7. ध्यान से
  8.  ना-खुश

आँखें मुझे तल्वों से वो मलने नहीं देते

आँखें मुझे तल्वों से वो मलने नहीं देते
अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते

ख़ातिर से तेरी याद को टलने नहीं देते
सच है कि हमीं दिल को संभलने नहीं देते

किस नाज़ से कहते हैं वो झुंझला के शब-ए-वस्ल
तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते

परवानों ने फ़ानूस को देखा तो ये बोले
क्यों हम को जलाते हो कि जलने नहीं देते

हैरान हूँ किस तरह करूँ अर्ज़-ए-तमन्ना
दुश्मन को तो पहलू से वो टलने नहीं देते

दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़ है हर वक़्त
हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते

गर्मी-ए-मोहब्बत में वो है आह से माने
पंखा नफ़स-ए-सर्द का झलने नहीं देते

पिंजरे में मुनिया

मुंशी कि क्लर्क या ज़मींदार
लाज़िम है कलेक्टरी का दीदार

हंगामा ये वोट का फ़क़त है
मतलूब हरेक से दस्तख़त है

हर सिम्त मची हुई है हलचल
हर दर पे शोर है कि चल-चल

टमटम हों कि गाड़ियां कि मोटर
जिस पर देको, लदे हैं वोटर

शाही वो है या पयंबरी है
आखिर क्या शै ये मेंबरी है

नेटिव है नमूद ही का मुहताज
कौंसिल तो उनकी हि जिनका है राज

कहते जाते हैं, या इलाही
सोशल हालत की है तबाही

हम लोग जो इसमें फंस रहे हैं
अगियार भी दिल में हंस रहे हैं

दरअसल न दीन है न दुनिया
पिंजरे में फुदक रही है मुनिया

स्कीम का झूलना वो झूलें
लेकिन ये क्यों अपनी राह भूलें

क़ौम के दिल में खोट है पैदा
अच्छे अच्छे हैं वोट के शैदा

क्यो नहीं पड़ता अक्ल का साया
इसको समझें फ़र्जे-किफ़ाया

भाई-भाई में हाथापाई
सेल्फ़ गवर्नमेंट आगे आई

पाँव का होश अब फ़िक्र न सर की
वोट की धुन में बन गए फिरकी

उन्हें शौक़-ए-इबादत भी है

उन्हें शौक़-ए-इबादत भी है और गाने की आदत भी
निकलती हैं दुआऐं उनके मुंह से ठुमरियाँ होकर

तअल्लुक़ आशिक़-ओ-माशूक़ का तो लुत्फ़ रखता था
मज़े अब वो कहाँ बाक़ी रहे बीबी मियाँ होकर

न थी मुतलक़ तव्क़्क़ो बिल बनाकर पेश कर दोगे
मेरी जाँ लुट गया मैं तो तुम्हारा मेहमाँ होकर

हक़ीक़त में मैं एक बुलबुल हूँ मगर चारे की ख़्वाहिश में
बना हूँ मिमबर-ए-कोंसिल यहाँ मिट्ठू मियाँ होकर

निकाला करती है घर से ये कहकर तू तो मजनूं है
सता रक्खा है मुझको सास ने लैला की माँ होकर

एक बूढ़ा नहीफ़-ओ-खस्ता दराज़

एक बूढ़ा नहीफ़-ओ-खस्ता दराज़
इक ज़रूरत से जाता था बाज़ार
ज़ोफ-ए-पीरी से खम हुई थी कमर
राह बेचारा चलता था रुक कर
चन्द लड़कों को उस पे आई हँसी
क़द पे फबती कमान की सूझी
कहा इक लड़के ने ये उससे कि बोल
तूने कितने में ली कमान ये मोल
पीर मर्द-ए-लतीफ़-ओ-दानिश मन्द
हँस के कहने लगा कि ए फ़रज़न्द
पहुँचोगे मेरी उम्र को जिस आन
मुफ़्त में मिल जाएगी तुम्हें ये कमान

अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते

ख़ातिर से तेरी याद को टलने नहीं देते
सच है कि हम ही दिल को संभलने नहीं देते

आँखें मुझे तलवों से वो मलने नहीं देते
अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते

किस नाज़ से कहते हैं वो झुंझला के शब-ए-वस्ल[1]
तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते

परवानों ने फ़ानूस को देखा तो ये बोले
क्यों हम को जलाते हो कि जलने नहीं देते

हैरान हूँ किस तरह करूँ अर्ज़-ए-तमन्ना
दुश्मन को तो पहलू से वो टलने नहीं देते

दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़[2] है हर वक़्त
हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते

गर्मी-ए-मोहब्बत में वो है आह से माअ़ने
पंखा नफ़स-ए-सर्द[3] का झलने नहीं देते

जो यूं ही लहज़ा लहज़ा दाग़-ए-हसरत की तरक़्क़ी है

जो यूं ही लहज़ा-लहज़ा दाग़-ए-हसरत की तरक़्क़ी है
अजब क्या, रफ्ता-रफ्ता मैं सरापा सूरत-ए-दिल हूँ

मदद-ऐ-रहनुमा-ए-गुमरहां इस दश्त-ए-गु़र्बत में
मुसाफ़िर हूँ, परीशाँ हाल हूँ, गु़मकर्दा मंज़िल हूँ

ये मेरे सामने शेख-ओ-बरहमन क्या झगड़ते हैं
अगर मुझ से कोई पूछे, कहूँ दोनों का क़ायल हूँ

अगर दावा-ए-यक रंगीं करूं, नाख़ुश न हो जाना
मैं इस आईनाखा़ने में तेरा अक्स-ए-मुक़ाबिल हूँ

फिर गई आप की दो दिन में तबीयत कैसी

फिर गई आप की दो दिन में तबीयत कैसी
ये वफ़ा कैसी थी साहब ! ये मुरव्वत कैसी

दोस्त अहबाब से हंस बोल के कट जायेगी रात
रिंद-ए-आज़ाद हैं, हमको शब-ए-फुरक़त कैसी

जिस हसीं से हुई उल्फ़त वही माशूक़ अपना
इश्क़ किस चीज़ को कहते हैं, तबीयत कैसी

है जो किस्मत में वही होगा न कुछ कम, न सिवा
आरज़ू कहते हैं किस चीज़ को, हसरत कैसी

हाल खुलता नहीं कुछ दिल के धड़कने का मुझे
आज रह रह के भर आती है तबीयत कैसी

कूचा-ए-यार में जाता तो नज़ारा करता
क़ैस आवारा है जंगल में, ये वहशत कैसी

कहाँ ले जाऊँ दिल दोनों जहाँ में इसकी मुश्किल है

कहाँ ले जाऊँ दिल दोनों जहाँ में इसकी मुश्क़िल है ।
यहाँ परियों का मजमा है, वहाँ हूरों की महफ़िल है ।

इलाही कैसी-कैसी सूरतें तूने बनाई हैं,
हर सूरत कलेजे से लगा लेने के क़ाबिल है।

ये दिल लेते ही शीशे की तरह पत्थर पे दे मारा,
मैं कहता रह गया ज़ालिम मेरा दिल है, मेरा दिल है ।

जो देखा अक्स आईने में अपना बोले झुँझलाकर,
अरे तू कौन है, हट सामने से क्यों मुक़ाबिल है ।

हज़ारों दिल मसल कर पाँवों से झुँझला के फ़रमाया,
लो पहचानो तुम्हारा इन दिलों में कौन सा दिल है ।

किस किस अदा से तूने जलवा दिखा के मारा

किस-किस अदा से तूने जलवा दिखा के मारा
आज़ाद हो चुके थे, बन्दा बना के मारा

अव्वल[1] बना के पुतला, पुतले में जान डाली
फिर उसको ख़ुद क़ज़ा[2] की सूरत में आके मारा

आँखों में तेरी ज़ालिम छुरियाँ छुपी हुई हैं
देखा जिधर को तूने पलकें उठाके मारा

ग़ुंचों में आके महका, बुलबुल में जाके चहका
इसको हँसा के मारा, उसको रुला के मारा

सोसन[3] की तरह ‘अकबर’, ख़ामोश हैं यहाँ पर
नरगिस में इसने छिप कर आँखें लड़ा के मारा

कट गई झगड़े में सारी रात वस्ल-ए-यार की 

कट गई झगड़े में सारी रात वस्ल-ए-यार की
शाम को बोसा लिया था, सुबह तक तक़रार की

ज़िन्दगी मुमकिन नहीं अब आशिक़-ए-बीमार की
छिद गई हैं बरछियाँ दिल में निगाह-ए-यार की

हम जो कहते थे न जाना बज़्म में अग़यार[1] की
देख लो नीची निगाहें हो गईं सरकार की

ज़हर देता है तो दे, ज़ालिम मगर तसकीन[2] को
इसमें कुछ तो चाशनी हो शरब-ए-दीदार की

बाद मरने के मिली जन्नत ख़ुदा का शुक्र है
मुझको दफ़नाया रफ़ीक़ों[3] ने गली में यार की

लूटते हैं देखने वाले निगाहों से मज़े
आपका जोबन मिठाई बन गया बाज़ार की

थूक दो ग़ुस्सा, फिर ऐसा वक़्त आए या न आए
आओ मिल बैठो के दो-दो बात कर लें प्यार की

हाल-ए-‘अकबर’ देख कर बोले बुरी है दोस्ती
ऐसे रुसवाई, ऐसे रिन्द, ऐसे ख़ुदाई ख़्वार की

शक्ल जब बस गई आँखों में तो छुपना कैसा 

शक्ल जब बस गई आँखों में तो छुपना कैसा
दिल में घर करके मेरी जान ये परदा कैसा

आप मौजूद हैं हाज़िर है ये सामान-ए-निशात
उज़्र सब तै हैं बस अब वादा-ए-फ़रदा कैसा

तेरी आँखों की जो तारीफ़ सुनी है मुझसे
घूरती है मुझे ये नर्गिस-ए-शेहला कैसा

ऐ मसीहा यूँ ही करते हैं मरीज़ों का इलाज
कुछ न पूछा कि है बीमार हमारा कैसा

क्या कहा तुमने, कि हम जाते हैं, दिल अपना संभाल
ये तड़प कर निकल आएगा संभलना कैसा

दम लबों पर था दिलेज़ार के घबराने से

दम लबों पर था दिलेज़ार के घबराने से
आ गई है जाँ में जाँ आपके आ जाने से

तेरा कूचा न छूटेगा तेरे दीवाने से
उस को काबे से न मतलब है न बुतख़ाने से

शेख़ नाफ़ह्म[1] हैं करते जो नहीं क़द्र[2] उसकी
दिल फ़रिश्तों के मिले हैं तेरे दीवानों से

मैं जो कहता हूँ कि मरता हूँ तो फ़रमाते हैं
कारे-दुनिया न रुकेगा तेरे मर जाने से

कौन हमदर्द किसी का है जहाँ में ‘अक़बर’
इक उभरता है यहाँ एक के मिट जाने से

जान ही लेने की हिकमत में तरक़्क़ी देखी 

जान ही लेने की हिकमत[1] में तरक़्क़ी देखी
मौत का रोकने वाला कोई पैदा न हुआ

उसकी बेटी ने उठा रक्खी है दुनिया सर पर
ख़ैरियत गुज़री कि अंगूर के बेटा न हुआ

ज़ब्त से काम लिया दिल ने तो क्या फ़ख़्र करूँ
इसमें क्या इश्क की इज़्ज़त थी कि रुसवा न हुआ

मुझको हैरत है यह किस पेच में आया ज़ाहिद
दामे-हस्ती[2] में फँसा, जुल्फ़ का सौदा[3] न हुआ

ख़ुशी है सब को कि आप्रेशन में ख़ूब नश्तर चल रहा है 

ख़ुशी है सब को कि आप्रेशन में ख़ूब नश्तर[1] चल रहा है
किसी को इसकी ख़बर नहीं है मरीज़ का दम निकल रहा है

फ़ना[2] उसी रंग पर है क़ायम, फ़लक वही चाल चल रहा है
शिकस्ता-ओ-मुन्तशिर[3] है वह कल, जो आज साँचे में ढल रहा है

यह देखते ही जो कासये-सर[4], गुरूरे-ग़फ़लत[5] से कल था ममलू[6]
यही बदन नाज़ से पला था जो आज मिट्टी में गल रहा है

समझ हो जिसकी बलीग़[7] समझे, नज़र हो जिसकी वसीअ[8] देखे
अभी तक ख़ाक भी उड़ेगी जहाँ यह क़ुल्जुम[9] उबल रहा है

कहाँ का शर्क़ी[10] कहाँ का ग़र्बी[11] तमाम दुख-सुख है यह मसावी[12]
यहाँ भी एक बामुराद ख़ुश है, वहाँ भी एक ग़म से जल रहा है

उरूजे-क़ौमी ज़वाले-क़ौमी, ख़ुदा की कुदरत के हैं करिश्मे
हमेशा रद्द-ओ-बदल के अन्दर यह अम्र पोलिटिकल रहा है

मज़ा है स्पीच का डिनर में, ख़बर यह छपती है पॉनियर में
फ़लक की गर्दिश[13] के साथ ही साथ काम यारों का चल रहा है

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायें चाकू, काँटा
  2. ऊपर जायें लुप्त हो जाना
  3. ऊपर जायें टूटा हुआ और बिखरा हुआ
  4. ऊपर जायें सर का प्याला
  5. ऊपर जायें अज्ञान का घमण्ड
  6. ऊपर जायें भरा हुआ
  7. ऊपर जायें अर्थपूर्ण
  8. ऊपर जायें फैला हुआ
  9. ऊपर जायें समुद्र
  10. ऊपर जायें पूर्वी
  11. ऊपर जायें पश्चिमी
  12. ऊपर जायें बराबर क़ौम का उत्थान और पतन
  13. ऊपर जायें आसमान का चक्कर या फेरा

काम कोई मुझे बाकी नहीं

काम कोई मुझे बाकी नहीं मरने के सिवा
कुछ भी करना नहीं अब कुछ भी न करने के सिवा

हसरतों का भी मेरी तुम कभी करते हो ख़याल
तुमको कुछ और भी आता है सँवरने के सिवा

आपसे बेहद मुहब्बत है मुझे

आपसे बेहद मुहब्बत है मुझे
आप क्यों चुप हैं ये हैरत है मुझे

शायरी मेरे लिए आसाँ नहीं
झूठ से वल्लाह नफ़रत है मुझे

रोज़े-रिन्दी[1] है नसीबे-दीगराँ[2]
शायरी की सिर्फ़ क़ूवत[3] है मुझे

नग़मये-योरप से मैं वाक़िफ़ नहीं
देस ही की याद है बस गत मुझे

दे दिया मैंने बिलाशर्त उन को दिल
मिल रहेगी कुछ न कुछ क़ीमत मुझे

हिन्द में तो मज़हबी हालत है अब नागुफ़्ता बेह

हिन्द में तो मज़हबी हालत है अब नागुफ़्ता बेह
मौलवी की मौलवी से रूबकारी हो गई

एक डिनर में खा गया इतना कि तन से निकली जान
ख़िदमते-क़ौमी में बारे जाँनिसारी हो गई

अपने सैलाने-तबीयत पर जो की मैंने नज़र
आप ही अपनी मुझे बेएतबारी हो गई

नज्द में भी मग़रिबी तालीम जारी हो गई
लैला-ओ-मजनूँ में आख़िर फ़ौजदारी हो गई

शब्दार्थ :
नागुफ़्ता बेह= जिसका ना कहना ही बेहतर हो;
रूबकारी=जान-पहचान
जाँनिसारी= जान क़ुर्बान करना
सैलाने-तबीयत= तबीयत की आवारागर्दी
नज्द= अरब के एक जंगल का नाम जहाँ मजनू मारा-मारा फिरता था।

बिठाई जाएंगी पर्दे में बीबियाँ कब तक

बिठाई जाएंगी परदे में बीबियाँ कब तक
बने रहोगे तुम इस मुल्क में मियाँ कब तक

हरम-सरा की हिफ़ाज़त को तेग़ ही न रही
तो काम देंगी यह चिलमन की तितलियाँ कब तक

मियाँ से बीबी हैं, परदा है उनको फ़र्ज़ मगर
मियाँ का इल्म ही उट्ठा तो फिर मियाँ कब तक

तबीयतों का नमू है हवाए-मग़रिब में
यह ग़ैरतें, यह हरारत, यह गर्मियाँ कब तक

अवाम बांध ले दोहर को थर्ड-वो-इंटर में
सिकण्ड-ओ-फ़र्स्ट की हों बन्द खिड़कियाँ कब तक

जो मुँह दिखाई की रस्मों पे है मुसिर इब्लीस
छुपेंगी हज़रते हव्वा की बेटियाँ कब तक

जनाबे हज़रते ‘अकबर’ हैं हामिए-पर्दा
मगर वह कब तक और उनकी रुबाइयाँ कब तक

शब्दार्थ :
हरम-सरा= भवन का वह भाग जहाँ स्त्रियाँ रहती हैं;
तेग़= तलवार;
नमू=उठान;
मग़रिब=पश्चिम;
ग़ैरत= हयादारी;
हरारत= गर्मी;
अवाम= जनता;
मुसिर= ज़िद्द करना
हामिए-पर्दा= पर्दे का समर्थन करने वाला

हस्ती के शजर में जो यह चाहो कि चमक जाओ 

हस्ती के शज़र में जो यह चाहो कि चमक जाओ
कच्चे न रहो बल्कि किसी रंग मे पक जाओ

मैंने कहा कायल मै तसव्वुफ का नहीं हूँ
कहने लगे इस बज़्म मे जाओ तो थिरक जाओ

मैंने कहा कुछ खौफ कलेक्टर का नहीं है
कहने लगे आ जाएँ अभी वह तो दुबक जाओ

मैंने कहा वर्जिश कि कोई हद भी है आखिर
कहने लगे बस इसकी यही हद कि थक जाओ

मैंने कहा अफ्कार से पीछा नहीं छूटता
कहने लगे तुम जानिबे मयखाना लपक जाओ

मैंने कहा अकबर मे कोई रंग नहीं है
कहने लगे शेर उसके जो सुन लो तो फडक जाओ

तअज्जुब से कहने लगे बाबू साहब 

तअज्जुब से कहने लगे बाबू साहब
गौरमेन्ट[1] सैयद पे क्यों मेहरबाँ है

उसे क्यों हुई इस क़दर कामियाबी
कि हर बज़्म[2] में बस यही दास्ताँ[3] है

कभी लाट साहब हैं मेहमान उसके
कभी लाट साहब का वह मेहमाँ[4] है

नहीं है हमारे बराबर वह हरगिज़
दिया हमने हर सीग़े का इम्तहाँ है

वह अंग्रेज़ी से कुछ भी वाक़िफ़ नहीं है
यहाँ जितनी इंगलिश है सब बरज़बाँ हैं

कहा हँस के ‘अकबर’ ने ऎ बाबू साहब
सुनो मुझसे जो रम्ज़ उसमें निहाँ हैं

नहीं है तुम्हें कुछ भी सैयद से निस्बत
तुम अंग्रेज़ीदाँ हो वह अंग्रेज़दाँ है

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायें गवर्नमेन्ट
  2. ऊपर जायें सभा
  3. ऊपर जायें कथा
  4. ऊपर जायें अतिथि

सूप का शायक़ हूँ यख़नी होगी क्या

सूप का शायक़[1] हूँ, यख़नी[2] होगी क्या
चाहिए कटलेट, यह कीमा क्या करूँ

लैथरिज[3] की चाहिए, रीडर मुझे
शेख़ सादी की करीमा,[4] क्या करूँ

खींचते हैं हर तरफ़, तानें हरीफ़[5]
फिर मैं अपने सुर को, धीमा क्यों करूँ

डाक्टर से दोस्ती, लड़ने से बैर
फिर मैं अपनी जान, बीमा क्या करूँ

चांद में आया नज़र, ग़ारे-मोहीब[6]
हाये अब ऐ, माहे-सीमा[7] क्या करूँ

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायें शौक़ीन
  2. ऊपर जायें एक किस्म का शोरबा जो पुलाव पर डाला जाता है
  3. ऊपर जायें एक लेखक
  4. ऊपर जायें शेख़ सादी की एक क़िताब जिसमें ईश्वर का गुणगान किया गया है
  5. ऊपर जायें दुश्मन या विरोधी
  6. ऊपर जायें गहरी गुफ़ा
  7. ऊपर जायें चन्द्रमुखी

चश्मे-जहाँ से हालते अस्ली छिपी नहीं

चश्मे जहाँ से हालते असली नहीं छुपती
अख्बार में जो चाहिए वह छाप दीजिए

दावा बहुत बड़ा है रियाजी मे आपको
तूले शबे फिराक को तो नाप दीजिए

सुनते नहीं हैं शेख नई रोशनी की बात
इंजन कि उनके कान में अब भाप दीजिए

जिस बुत के दर पे गौर से अकबर ने कह दिया
जार ही मैं देने लाया हूँ जान आप दीजिए

हास्य-रस -एक

दिल लिया है हमसे जिसने दिल्लगी के वास्ते
क्या तआज्जुब है जो तफ़रीहन हमारी जान ले

शेख़ जी घर से न निकले और लिख कर दे दिया
आप बी०ए० पास हैं तो बन्दा बीवी पास है

तमाशा देखिये बिजली का मग़रिब और मशरिक़ में
कलों में है वहाँ दाख़िल, यहाँ मज़हब पे गिरती है.

तिफ़्ल में बू आए क्या माँ -बाप के अतवार की
दूध तो डिब्बे का है, तालीम है सरकार की

कर दिया कर्ज़न ने ज़न मर्दों की सूरत देखिये
आबरू चेहरों की सब, फ़ैशन बना कर पोंछ ली

मग़रबी ज़ौक़ है और वज़ह की पाबन्दी भी
ऊँट पे चढ़ के थियेटर को चले हैं हज़रत

जो जिसको मुनासिब था गर्दूं ने किया पैदा
यारों के लिए ओहदे, चिड़ियों के लिए फन्दे

हास्य-रस -दो 

 *
पाकर ख़िताब नाच का भी ज़ौक़ हो गया
‘सर’ हो गये, तो ‘बाल’ का भी शौक़ हो गया
*
बोला चपरासी जो मैं पहुँचा ब-उम्मीदे-सलाम-
“फाँकिये ख़ाक़ आप भी साहब हवा खाने गये”
*
ख़ुदा की राह में अब रेल चल गई ‘अकबर’!
जो जान देना हो अंजन से कट मरो इक दिन.
*
क्या ग़नीमत नहीं ये आज़ादी
साँस लेते हैं बात करते हैं!
*
तंग इस दुनिया से दिल दौरे-फ़लक़ में आ गया
जिस जगह मैंने बनाया घर, सड़क में आ गया

हास्य-रस -तीन

पुरानी रोशनी में और नई में फ़र्क़ है इतना
उसे कश्ती नहीं मिलती इसे साहिल नहीं मिलता

दिल में अब नूरे-ख़ुदा के दिन गए
हड्डियों में फॉसफ़ोरस देखिए

मेरी नसीहतों को सुन कर वो शोख़ बोला-
“नेटिव की क्या सनद है साहब कहे तो मानूँ”

नूरे इस्लाम ने समझा था मुनासिब पर्दा
शमा -ए -ख़ामोश को फ़ानूस की हाजत क्या है

बेपर्दा नज़र आईं जो चन्द बीवियाँ
‘अकबर’ ज़मीं में ग़ैरते क़ौमी से गड़ गया
पूछा जो उनसे -‘आपका पर्दा कहाँ गया?’
कहने लगीं कि अक़्ल पे मर्दों की पड़ गया.

हास्य-रस -चार

तालीम लड़कियों की ज़रूरी तो है मगर
ख़ातूने-ख़ाना हों, वे सभा की परी न हों
जो इल्मों-मुत्तकी हों, जो हों उनके मुन्तज़िम
उस्ताद अच्छे हों, मगर ‘उस्ताद जी’ न हों

तालीमे-दुख़तराँ से ये उम्मीद है ज़रूर
नाचे दुल्हन ख़ुशी से ख़ुद अपनी बारात में

हम ऐसी कुल किताबें क़ाबिले-ज़ब्ती समझते हैं
कि जिनको पढ़ के बच्चे बापको ख़ब्ती समझते हैं

क़द्रदानों की तबीयत का अजब रंग है आज
बुलबुलों को ये हसरत, कि वो उल्लू न हुए.

हास्य-रस -पाँच 

फ़िरगी से कहा, पेंशन भी ले कर बस यहाँ रहिये
कहा-जीने को आए हैं,यहाँ मरने नहीं आये

बर्क़ के लैम्प से आँखों को बचाए अल्लाह
रौशनी आती है, और नूर चला जाता है

काँउंसिल में सवाल होने लगे
क़ौमी ताक़त ने जब जवाब दिता

हरमसरा की हिफ़ाज़त को तेग़ ही न रही
तो काम देंगी ये चिलमन की तीलियाँ कब तक ?

ख़ुदा के फ़ज़्ल से बीवी-मियाँ दोनों मुहज़्ज़ब हैं
हिजाब उनको नहीं आता इन्हें ग़ुसा नहीं आता

माल गाड़ी पे भरोशा है जिन्हें ऐ अकबर
उनको क्या ग़म है गुनाहों की गिराँबारी का?

ख़ुदा की राह में बेशर्त करते थे सफ़र पहले
मगर अब पूछते हैं रेलवे इसमें कहाँ तक है?

हास्य-रस -छ:

मय भी होटल में पियो,चन्दा भी दो मस्जिद में
शेख़ भी ख़ुश रहे, शैतान भी बेज़ार न हो

ऐश का भी ज़ौक़ दींदारी की शुहरत का भी शौक़
आप म्यूज़िक हाल में क़ुरआन गाया कीजिये

गुले तस्वीर किस ख़ूबी से गुलशन में लगाया है
मेरे सैयाद ने बुलबुल को भी उल्लू बनाया है

मछली ने ढील पाई है लुक़में पे शाद है
सैयद मुतमइन है कि काँटा निगल गई

ज़वाले क़ौम की इन्तिदा वही थी कि जब
तिजारत आपने की तर्क नौकरी कर ली

हास्य-रस -सात

क्योंकर ख़ुदा के अर्श के क़ायल हों ये अज़ीज़
जुगराफ़िये में अर्श का नक़्शा नहीं मिला

क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ
रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ

जान ही लेने की हिकमत में तरक़्क़ी देखी
मौत का रोकने वाला कोई पैदा न हुआ

तालीम का शोर ऐसा, तहज़ीब का ग़ुल इतना
बरकत जो नहीं होती नीयत की ख़राबी है

तुम बीवियों को मेम बनाते हो आजकल
क्या ग़म जो हम ने मेम को बीवी बना लिया?

नौकरों पर जो गुज़रती है, मुझे मालूम है
बस करम कीजे मुझे बेकार रहने दीजिये

ख़ुदा के बाब में 

ख़ुदा के बाब में क्या आप मुझसे बहस करते हैं
ख़ुदा वह है कि जिसके हुक्म से साहब भी मरते हैं
मगर इस शेर को मैं ग़ालिबन क़ायम न रक्खूँगा
मचेगा गुल, ख़ुदा को आप क्यों बदनाम करते हैं

मुस्लिम का मियाँपन सोख़्त करो

मुस्लिम का मियाँपन सोख़्त करो, हिन्दू की भी ठकुराई न रहे!
बन जावो हर इक के बाप यहाँ दावे को कोई भाई न रहे!
हम आपके फ़न के गाहक हों, ख़ुद्दाम हमारे हों ग़ायब
सब काम मशीनों ही से चले, धोबी न रहे नाई न रहे!

जिस बात को मुफ़ीद समझते हो 

जिस बात को मुफ़ीद समझते हो ख़ुद करो
औरों पे उसका बार न इस्रार से धरो
हालात मुख़्तलिफ़ हैं, ज़रा सोच लो यह बात
दुश्मन तो चाहते हैं कि आपस में लड़ मरो

गाँधी तो हमारा भोला है 

गाँधी तो हमारा भोला है, और शेख़ ने बदला चोला है
देखो तो ख़ुदा क्या करता है, साहब ने भी दफ़्तर खोला है

आनर की पहेली बूझी है, हर इक को तअल्ली सूझी है
जो चोकर था वह सूजी है, जो माशा था वह तोला है

यारों में रक़म अब कटती है, इस वक़्त हुकूमत बटती है
कम्पू से तो ज़ुल्मत हटती है, बे-नूर मोहल्ला-टोला है

मुझे भी दीजिए अख़बार

मुझे भी दीजिए अख़बार का वरक़ कोई
मगर वह जिसमें दवाओं का इश्तेहार न हो

जो हैं शुमार में कौड़ी के तीन हैं इस वक़्त
यही है ख़ूब, किसी में मेरा शुमार न हो

गिला यह जब्र क्यों कर रहे हो ऐ ’अकबर’
सुकूत ही है मुनासिब जब अख़्तियार न हो

शेर कहता है 

शेर कहता है बज़्म से न टलो
दाद लो, वाह की हवा में पलो
वक़्त कहता है क़ाफ़िया है तंग
चुप रहो, भाग जाओ, साँस न लो

बहार आई 

बहार आई, मये-गुल्गूँ के फ़व्वारे हुए जारी
यहाँ सावन से बढ़कर साक़िया फागुन बरसता है
फ़रावानी हुई दौलत की सन्नाआने योरप में
यह अब्रे-दौरे-इंजन है कि जिससे हुन बरसता है

आबे ज़मज़म से कहा मैंने

आबे ज़मज़म से कहा मैंने मिला गंगा से क्यों
क्यों तेरी तीनत[1] में इतनी नातवानी[2] आ गई?

वह लगा कहने कि हज़रत! आप देखें तो ज़रा
बन्द था शीशी में, अब मुझमें रवानी आ गई

शेख़ जी अपनी सी बकते ही रहे

शेख़ जी अपनी सी बकते ही रहे
वह थियेटर में थिरकते ही रहे

दफ़ बजाया ही किए मज़्मूंनिगार
वह कमेटी में मटकते ही रहे

सरकशों ने ताअते-हक़ छोड़ दी
अहले-सजदा सर पटकते ही रहे

जो गुबारे थे वह आख़िर गिर गए
जो सितारे थे चमकते ही रहे

हाले दिल सुना नहीं सकता

हाले दिल सुना नहीं सकता
लफ़्ज़ मानी को पा नहीं सकता

इश्क़ नाज़ुक मिज़ाज है बेहद
अक़्ल का बोझ उठा नहीं सकता

होशे-आरिफ़ की है यही पहचान
कि ख़ुदी में समा नहीं सकता

पोंछ सकता है हमनशीं आँसू
दाग़े-दिल को मिटा नहीं सकता

मुझको हैरत है इस कदर उस पर
इल्म उसका घटा नहीं सकता

हो न रंगीन तबीयत

हो न रंगीन तबीयत भी किसी की या रब
आदमी को यह मुसीबत में फँसा देती है

निगहे-लुत्फ़ तेरी बादे-बहारी है मगर
गुंचए-ख़ातिरे-आशिक़ को खिला देती है

मौत आई इश्क़ में 

मौत आई इश्क़ में तो हमें नींद आ गई
निकली बदन से जान तो काँटा निकल गया

बाज़ारे-मग़रिबी की हवा से ख़ुदा बचाए
मैं क्या, महाजनों का दिवाला निकल गया

तहज़ीब के ख़िलाफ़ है

तहज़ीब के ख़िलाफ़ है जो लाये राह पर
अब शायरी वह है जो उभारे गुनाह पर

क्या पूछते हो मुझसे कि मैं खुश हूँ या मलूल
यह बात मुन्हसिर[1] है तुम्हारी निगाह पर

हम कब शरीक होते हैं

हम कब शरीक होते हैं दुनिया की ज़ंग में
वह अपने रंग में हैं, हम अपनी तरंग में

मफ़्तूह[1] हो के भूल गए शेख़ अपनी बहस
मन्तिक़[2] शहीद हो गई मैदाने ज़ंग में

मुँह देखते हैं हज़रत

मुँह देखते हैं हज़रत, अहबाब पी रहे हैं
क्या शेख़ इसलिए अब दुनिया में जी रहे हैं

मैंने कहा जो उससे, ठुकरा के चल न ज़ालिम
हैरत में आके बोला, क्या आप जी रहे हैं?

अहबाब उठ गए सब, अब कौन हमनशीं हो
वाक़िफ़ नहीं हैं जिनसे, बाकी वही रहे हैं

अफ़्सोस है 

अफ़्सोस है गुल्शन ख़िज़ाँ लूट रही है
शाख़े-गुले-तर सूख के अब टूट रही है

इस क़ौम से वह आदते-देरीनये-ताअत
बिलकुल नहीं छूटी है मगर छूट रही है

ग़म क्या

ग़म क्या जो आसमान है मुझसे फिरा हुआ
मेरी नज़र से ख़ुद है ज़माना घिरा हुआ

मग़रिब ने खुर्दबीं से कमर उनकी देख ली
मशरिक की शायरी का मज़ा किरकिरा हुआ

उससे तो इस सदी में

उससे तो इस सदी में नहीं हम को कुछ ग़रज़
सुक़रात बोले क्या और अरस्तू ने क्या कहा

बहरे ख़ुदा ज़नाब यह दें हम को इत्तेला
साहब का क्या जवाब था, बाबू ने क्या कहा

ख़ैर उनको कुछ न आए

ख़ैर उनको कुछ न आए फाँस लेने के सिवा
मुझको अब करना ही क्या है साँस लेने के सिवा

थी शबे-तारीक, चोर आए, जो कुछ था ले गए
कर ही क्या सकता था बन्दा खाँस लेने के सिवा

जो हस्रते दिल है 

जो हस्रते दिल है, वह निकलने की नहीं
जो बात है काम की, वह चलने की नहीं

यह भी है बहुत कि दिल सँभाले रहिए
क़ौमी हालत यहाँ सँभलने की नहीं

मायूस कर रहा है 

मायूस कर रहा है नई रोशनी का रंग
इसका न कुछ अदब है न एतबार है

तक़दीस मास्टर की न लीडर का फ़ातेहा
यानी न नूरे-दिल है, न शमये मज़ार है

गांधीनामा

१)
इन्क़िलाब आया, नई दुन्याह1, नया हंगामा है
शाहनामा हो चुका, अब दौरे गांधीनामा है।

दीद के क़ाबिल अब उस उल्लू का फ़ख्रो नाज़ है
जिस से मग़रिब2 ने कहा तू ऑनरेरी बाज़ है।

है क्षत्री भी चुप न पट्टा न बांक है
पूरी भी ख़ुश्कच लब है कि घी छ: छटांक है।

गो हर तरफ हैं खेत फलों से भरे हुये
थाली में ख़ुरपुज़:3 की फ़क़त एक फॉंक है।

कपड़ा गिरां4 है सित्र5 है औरत का आश्कार6
कुछ बस नहीं ज़बॉं पे फ़क़त ढांक ढांक है।

भगवान का करम हो सोदेशी7 के बैल पर
लीडर की खींच खांच है, गाँधी की हांक है।

अकबर पे बार है यह तमाशाए दिल शिकन
उसकी तो आख़िरत8 की तरफ ताक-झांक है।

महात्मा जी से मिल के देखो, तरीक़ क्यां है, सोभाव क्या है
पड़ी है चक्कमर में अक़्ल सब की बिगाड़ तो है बनाव क्या है

1 दुनिया
2 पश्चिम, संदर्भ की द़ष्टि से अंग्रेज़ या अंग्रेजी सरकार।
3 ख़रबूज़ा।
4 मंहगा।
5 पर्दा
6 ख़ुला हुआ।
7 स्वलदेशी।
8 परलोक।

वो हवा न रही वो चमन न रहा

वो हवा न रही वो चमन न रहा वो गली न रही वो हसीं न रहे
वो फ़लक न रहा वो समाँ न रहा वो मकाँ न रहे वो मकीं न रहे

वो गुलों में गुलों की सी बू न रही वो अज़ीज़ों में लुत्फ़ की ख़ू न रही
वो हसीनों में रंग-ए-वफ़ा न रहा कहें और की क्या वो हमीं न रहे

न वो आन रही न उमंग रही न वो रिंदी ओ ज़ोह्द की जंग रही
सू-ए-क़िबला निगाहों के रुख़ न रहे और दैर पे नक़्श-ए-जबीं न रहे

न वो जाम रहे न वो मस्त रहे न फ़िदाई-ए-अहद-ए-अलस्त रहे
वो तरीक़ा-ए-कार-ए-जहाँ न रहा वो मशाग़िल-ए-रौनक़-ए-दीं न रहे

हमें लाख ज़माना लुभाए तो क्या नए रंग जो चर्ख़ दिखाए तो क्या
ये मुहाल है अहल-ए-वफ़ा कि लिए ग़म-ए-मिल्लत ओ उल्फ़त-ए-दीं न रहे

तेरे कूचा-ए-ज़ुल्फ़ में दिल है मेरा अब उसे मैं समझता हूँ दाम-ए-बला
ये अजीब सितम है अजीब जफ़ा कि यहाँ न रहे तो कहीं न रहे

ये तुम्हारे ही दम से है बज़्म-ए-तरब अभी जाओ न तुम न करो ये ग़ज़ब
कोई बैठ के लुत्फ़ उठाएगा क्या कि जो रौनक़-ए-बज़्म तुम्हीं न रहे

जो थीं चश्म-ए-फ़लक की भी नूर-ए-नज़र वही जिन पे निसार थे शम्स ओ क़मर
सो अब ऐसी मिटी हैं वो अंजुमनें कि निशान भी उन के कहीं न रहे

वही सूरतें रह गईं पेश-ए-नज़र जो ज़माने को फेरें इधर से उधर
मगर ऐसे जमाल-ए-जहाँ-आरा जो थे रौनक़-ए-रू-ए-ज़मीं न रहे

ग़म ओ रंज में ‘अकबर’ अगर है घिरा तो समझ ले कि रंज को भी है फ़ना
किसी शय को नहीं है जहाँ में बक़ा वो ज़्यादा मलूल ओ हज़ीं न रहे

सदियों फ़िलासफ़ी की चुनाँ

सदियों फ़िलासफ़ी की चुनाँ और चुनीं रही
लेकिन ख़ुदा की बात जहाँ थी वहीं रही

ज़ोर-आज़माइयाँ हुईं साइंस की भी ख़ूब
ताक़त बढ़ी किसी की किसी में नहीं रही

दुनिया कभी न सुल्ह पे माइल हुई मगर
बाहम हमेशा बरसर-ए-पैकार-ओ-कीं रही

पाया अगर फ़रोग़ तो सिर्फ़ उन नुफ़ूस ने
जिन की कि ख़िज़्र-ए-राह फ़क़त शम्मा-ए-दीं रही

अल्लाह ही की याद बहर-हाल ख़ल्क़ में
वजह-ए-सुकून-ए-ख़ातिर-ए-अंदोह-गीं रही

जो तुम्हारे लब-ए-जाँ-बख़्श 

जो तुम्हारे लब-ए-जाँ-बख़्श का शैदा होगा
उठ भी जाएगा जहाँ से तो मसीहा होगा

वो तो मूसा हुआ जो तालिब-ए-दीदार हुआ
फिर वो क्या होगा कि जिस ने तुम्हें देखा होगा

क़ैस का ज़िक्र मेरे शान-ए-जुनूँ के आगे
अगले वक़्तों का कोई बादया-पैमा होगा

आरज़ू है मुझे इक शख़्स से मिलने की बहुत
नाम क्या लूँ कोई अल्लाह का बंदा होगा

लाल-ए-लब का तेरे बोसा तो मैं लेता हूँ मगर
डर ये है ख़ून-ए-जिगर बाद में पीना होगा

जहाँ में हाल मेरा

जहाँ में हाल मेरा इस क़दर ज़बून हुआ
कि मुझ को देख के बिस्मिल को भी सुकून हुआ

ग़रीब दिल ने बहुत आरज़ूएँ पैदा कीं
मगर नसीब का लिक्खा कि सब का ख़ून हुआ

वो अपने हुस्न से वाक़िफ़ मैं अपनी अक़्ल से सैर
उन्हों ने होश सँभाला मुझे जुनून हुआ

उम्मीद-ए-चश्म-ए-मुरव्वत कहाँ रही बाक़ी
ज़रिया बातों का जब सिर्फ़ टेलीफ़ोन हुआ

निगाह-ए-गर्म क्रिसमस में भी रही हम पर
हमारे हक़ में दिसम्बर भी माह-ए-जून हुआ

हूँ मैं परवाना मगर

हूँ मैं परवाना मगर शम्मा तो हो रात तो हो
जान देने को हूँ मौजूद कोई बात तो हो

दिल भी हाज़िर सर-ए-तसलीम भी ख़म को मौजूद
कोई मरकज़ हो कोई क़िबला-ए-हाजात तो हो

दिल तो बे-चैन है इज़्हार-ए-इरादत के लिए
किसी जानिब से कुछ इज़्हार-ए-करामात तो हो

दिल-कुशा बादा-ए-साफ़ी का किसे ज़ौक़ नहीं
बातिन-अफ़रोज़ कोई पीर-ए-ख़राबात तो हो

गुफ़्तनी है दिल-ए-पुर-दर्द का क़िस्सा लेकिन
किस से कहिए कोई मुस्तफ़्सिर-ए-हालात तो हो

दास्तान-ए-ग़म-ए-दिल कौन कहे कौन सुने
बज़्म में मौक़ा-ए-इज़्हार-ए-ख़्यालात तो हो

वादे भी याद दिलाते हैं गिले भी हैं बहुत
वो दिखाई भी तो दें उन से मुलाक़ात तो हो

कोई वाइज़ नहीं फ़ितरत से बलाग़त में सिवा
मगर इंसान में कुछ फ़हम-ए-इशारात तो हो

ग़म्ज़ा नहीं होता के

ग़म्ज़ा नहीं होता के इशारा नहीं होता
आँख उन से जो मिलती है तो क्या क्या नहीं होता

जलवा न हो मानी का तो सूरत का असर क्या
बुलबुल गुल-ए-तस्वीर का शैदा नहीं होता

अल्लाह बचाए मरज़-ए-इश्क़ से दिल को
सुनते हैं कि ये आरिज़ा अच्छा नहीं होता

तश्बीह तेरे चेहरे को क्या दूँ गुल-ए-तर से
होता है शगुफ़्ता मगर इतना नहीं होता

मैं नज़ा में हूँ आएँ तो एहसान है उन का
लेकिन ये समझ लें के तमाशा नहीं होता

हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बद-नाम
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता

चर्ख़ से कुछ उम्मीद थी ही नहीं

चर्ख़ से कुछ उम्मीद थी ही नहीं
आरज़ू मैं ने कोई की ही नहीं

मज़हबी बहस मैं ने की ही नहीं
फ़ालतू अक़्ल मुझ में थी ही नहीं

चाहता था बहुत सी बातों को
मगर अफ़सोस अब वो जी ही नहीं

जुरअत-ए-अर्ज़-ए-हाल क्या होती
नज़र-ए-लुत्फ़ उस ने की ही नहीं

इस मुसीबत में दिल से क्या कहता
कोई ऐसी मिसाल थी ही नहीं

आप क्या जानें क़द्र-ए-‘या-अल्लाह’
जब मुसीबत कोई पड़ी ही नहीं

शिर्क छोड़ा तो सब ने छोड़ दिया
मेरी कोई सोसाइटी ही नहीं

पूछा ‘अकबर’ है आदमी कैसा
हँस के बोले वो आदमी ही नहीं

हर क़दम कहता है तू आया है जाने के लिए

हर क़दम कहता है तू आया है जाने के लिए
मंज़िल-ए-हस्ती नहीं है दिल लगाने के लिए

क्या मुझे ख़ुश आए ये हैरत-सरा-ए-बे-सबात
होश उड़ने के लिए है जान जाने के लिए

दिल ने देखा है बिसात-ए-क़ुव्वत-ए-इदराक को
क्या बढ़े इस बज़्म में आँखें उठाने के लिए

ख़ूब उम्मीदें बंधीं लेकिन हुईं हिरमाँ नसीब
बदलियाँ उट्ठीं मगर बिजली गिराने के लिए

साँस की तरकीब पर मिट्टी को प्यार आ ही गया
ख़ुद हुई क़ैद उस को सीने से लगाने के लिए

जब कहा मैं ने भुला दो ग़ैर को हँस कर कहा
याद फिर मुझ को दिलाना भूल जाने के लिए

दीदा-बाज़ी वो कहाँ आँखें रहा करती हैं बंद
जान ही बाक़ी नहीं अब दिल लगाने के लिए

मुझ को ख़ुश आई है मस्ती शेख़ जी को फ़रबही
मैं हूँ पीने के लिए और वो हैं खाने के लिए

अल्लाह अल्लाह के सिवा आख़िर रहा कुछ भी न याद
जो किया था याद सब था भूल जाने के लिए

सुर कहाँ के साज़ कैसा कैसी बज़्म-ए-सामईन
जोश-ए-दिल काफ़ी है अकबर तान उड़ाने के लिए

Leave a Reply

Your email address will not be published.