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श्याम बिहारी श्यामल की रचनाएँ

नदी-1

नदी ने जब-जब चाहा
गीत गाना
रेत हुई

कंठ रीते
धूल उड़ी
खेत हुई

नदी-2

चट्टानों से खूब लड़ी
बढ़ती चली
बहती गई

मगर वह ठहरी नदी
बाँधी गई
साधी गई

नदी-3 

वह चाहती थी
सूखी धरती को तर करना
मरुथल को हरा-भरा
राह रोकी पर्वतों ने
आड़े आईं चट्टानें
मगर वह रुकी नहीं
मुड़-मुड़कर निकली आगे
वह टूटी नहीं
पराजित झुकी नहीं

सूरज को निगला
चाँद को गले उतारा
आकाश काँप उठा
अब आँखें उसकी भासित थीं
वह बिफ़र रही थीं
निकली थी महासमर में
रणचंडी बनकर

मकान-1 

अचानक टूटा
तिलिस्म चकमक-चकमक
घिर गया मैं

खमखमाए खड़ी है
मेरे इर्द-गिर्द
दैत्यों की जमात
संगठित

मकान-2

बड़े इत्मीनान से
निगलते जा रहे हैं
हमें मकान

हम तान लेते हैं मौत
हर रोज़
उनकी आँत में
हम कैसे तोड़ेंगे
यह लाक्षागृह ?

मकान-3

तिनतरफा पोर्टिको
ड्राइंगरूम से जुड़ा बेडरूम
अटैच्ड लैट्रिन-बाथरूम
बेहतर लान
रिमझिम-रिमझिम नींद
ओस-सी थकान
बहुत निरोग है मेरा मकान

बंद दरवाज़ा
बंद खिड़कियाँ
न दिखती है जनता
जरा भी नहीं चिन्ता
बड़ा इत्मीनान
संसद है यह मेरा मकान

फिर रचूँगा मैं

धार पर ओठँघकर
टेरूँगा ज़िंदगी
हँकाऊँगा बार-बार
परबत पर प्यार
गुनगुनाकर बनाऊँगा निर्धूम
हींड़-हाँड़कर छोड़ा हुआ आकाश

रचूँगा
मैं रचूँगा फिर
सूरज-चाँद से लैस कविता
नई, सुवासित
हरी-भरी और सुन्दर
फिर नए किनारे
फिर नया समुन्दर

पेड़-1

तमाशबीन तो नहीं थे
पेड़ कभी
क्यों बंद हुआ
उनका मुँह ?

क्यों काठ मार गया है ऐन वक़्त
कद्दावर पेड़ों को ?

पेड़-2 

मुखर हैं पेड़ आज
साफ़-साफ़ सुनाई पड़ रही है
उनकी सरसराती हुई असहमति

मचल-मचलकर
धमका रहे हैं पेड़
तनती जा रही हैं
असहमत डालियाँ
चिनगारी फूँक रहे हैं
सूखे पत्ते

अचानक कहाँ से
कैसे आई यह आँधी
कि बाई सरक रही है
आकाश की !
धूल उड़कर घेर रही है आकाश !

क्या होगा तब
बोल फूटेंगे जब
सदियों चुप गवाह पेड़ों के ?

पेड़-3

क़लम से रोपे गए हैं
काग़ज़ पर !
ख़ूब मचल रहे हैं
झूम रहे हैं पेड़
रिपोर्टों में
आँकड़ों में !

पेड़ों की छटा
क्या ख़ूब फब रही है
फ़ाइलों में !

पेड़ आज कितने ख़ुश हैं
काग़ज़ पर होकर सुरक्षित
और बचकर
शीत से
धूप से
आँधियों से
बवंडरों से

पर, क्या इन चुप पेड़ों का
फूटेगा कभी कंठ ?

नीली-पीली लड़कियाँ 

कितनी भली हैं
छतों पर खड़ी
हरी-भरी
नीली-पीली लड़कियाँ

चोंच खोले
पंख पसारे
नन्ही आँखों में
टिमटिम तारे

धमन-भट्ठी में पली हैं
बिल्कुल डब-डब भरी हैं
बूँद-बूँद छिजतीं
नीली-नीली लड़कियाँ

आँधी से वे बेख़बर
पर टूटेगा जब कहर
कैसे-कैसे कुम्हलाएँगी
क्या-कितना कुछ कर पाएँगी
अंगारों-सी दहक-दमक उठीं
लाल-लाल लौह-छड़ियाँ

आग-1 

पानी में
पर्वत में
चट्टान की छाती में

बादल में
हवा में
मौसम की मधुरिम पाती में

वह कौन है छुपा
बेंग बना
साँस दबाए
क्यों डरा-सहमा
इस तरह भयभीत ?

आग-2

मत जलो धू-धू कर
ठूँठ-बाँड़ जंगल में

कुछ कर सको तो
फटो गरज़कर धरती से
साथ लाना लावा
और पानी  !

युद्ध और युद्ध

अभी ज़िंदा है सोता
बची हुई है धार
सलामत है अब भी
भाषा की टकसाल
क़लम जन रही है
कविताएँ उसी तरह
उदार बना बिछा है
अब भी आकाश

तमाम हमलों के बाद भी
यह सलामती
लाएगी ज़रूर रंग
बाक़ी है
अभी बाक़ी है जंग

आती है
बहुत बेहयाई से ढीठ जमात
कायर दरिंदों की तनकर
बड़ी-बड़ी चमकती गाड़ियों में लदकर
गींजती है बेदर्दी से गाँव
बकोटती-खंखोरती है बस्ती को
और लौट जाती है राजधानी
अपनी हिंसा लहराती
सुहावने स्लोगन गाती-सुनाती हुई

आँधी की ज़िंदा है नस्ल
हौसला है क्षितिज का बुलंद
पूरी तरह याद है
पेड़ों को वह सौगंध
मारा नहीं गया
अफ़वाहों के घमासान में परबत
बाल-बाँका भी नहीं हुआ सूरज का, चाँद का
कैसी खिली हैं बाँछें धूप की, चाँदनी की
कुछ सोचते हैं आप !
क्या हालत होगी
सदी की छाती पर दहाड़ती शेरनी की !

सड़क-1

सच निकली यह बात
फिर साबित हुई–
कि काली होती हैं
चीकट काली
कोलतारपुती
शैतान की आंतें !

सड़क-2

फँसे हुए हैं
हम लोग सारे
पूरे वज़ूद के साथ

बिछा हुआ है
हमारी बस्ती में
ज़िन्दा-ज़हरीला
घना सर्प-जाल !

रावण वध

उर्ध्व होकर
सागर तट पर
मैंने मारा चाँटा

टूट गया
टूट गया
सदियों का सन्नाटा

कवि ताक रहा है फूल

अँटा पड़ा है
मटमैला आँचल सदी का
क्षत-विक्षत लाशों से
तब्दील हो रहे हैं
तेज़ी से पंजे
तमाचों में

सवाल बनते जा रहे हैं
एक साथ
पेड़ और बच्चे
कविता में उग रहा हैं
उलाहना
सूरज और हवा के खिलाफ भी

कवि ताक रहा है फूल
और जल रहा है
तेज़ ताप से
पंछी के बज रहे हैं
पंख और ठोर
सिहर रही है भोर

…और तब भी
ज़िंदा हूँ मैं
बचे हुए हैं आप
धड़क रही है धरती
यही क्या कम है !
तख़्त के शैतान को
इसी का बहुत ग़म है !

यह जो हूँ मैं 

शिथिल पड़ जाने से
ठीक एक क्षण पहले भी
धरूँगा धार
लगातार
रोशनी पर

हवा की चोंख जीभ पर
खोलेगी कंठ
युगों-युगों तक
मेरी कविता

जब ख़ूब तपेगी धरती
ताल-तलैया चटकेंगे
आधी रात बीतने पर
झुलसे पेड़ राहत लेंगे
तब हाथ बढ़ा चट्टान कोई
माथा मेरा सहलाएगी
उसके ही अंतस्थल में
सदियों तक
जिएगा मेरा अंश

नहीं लिखूँगा मैं मोर्चेबंदी में
पोथा-भर की वसीयत
या ख़्वाहिशों-भरी कविता कोई
मौत के बारे में नहीं है मेरे पास
कोई धाँसू दार्शनिक पहाड़ा

मैं खिलूँगा कहीं ज़रूर
फैल जाऊँगा यहाँ से वहाँ तक
गूँज उठूँगा समुद्र पर
और परबत-परबत
हज़ार-हज़ार कंठों में बस जाऊँगा

मैं जानता हूँ
अब नहीं रोका जा सकता मुझे
खिलने और गूँजने से
बसने और दिखने से

हवा में कीलें-1

अक्षर-अक्षर हिलते हैं
हिल-हिलकर सटते हैं
और छिटकती है चिनगारी

शब्द दहक रहे हैं
पुट्ठे पर घाव बनकर
जली जा रही है त्वचा
मैं पीड़ा से परेशान हूँ
चिल्ला रहा हूँ
तड़प रहा हूँ

सामने आँखों में गुर्रा रहे हैं
मुलायम ख़ूबसूरत रोएँवाले
जोड़ी भर आँखों में रोमांच भरे भेड़िये
जो गुर्रा रहे हैं
और बैठे हैं घात लगाकर
हमले के लिए

मन सुनसान होकर
बनता जा रहा है
अँधरे में गुम बेहरकत
काला जी.टी. रोड
लम्बा-चौड़ा और निर्जन

चीलों का उत्सव
गिद्धों का पर्व
चीटियों के महाभोज के दिन
मैं अलीगढ़ हूँ
ख़ून उगल रही है मेरी
लहूलुहान देह

मैं हैदराबाद हूँ
जुती हुई है मेरी पीठ
मैं फ़ैजाबाद हूँ
अयोध्या हूँ
देख लो मेरी समूची देह पर
ख़ूनी पंजों के निशान
रक्त से सिक्त

हवा में कीलें-2

हर हत्या के बाद
मैंने दी है दस्तक
हर लूट के वक़्त
लगाई है ज़ोर-ज़ोर से हाँक
हर बलात्कार को देखकर
मैं चीख़ा हूँ

मगर
बेकार
सब बेकार
कोई नहीं सुनता अब
किसी की दस्तक
कोई हाँक
या चीख़

मैंने जब-जब खटखटाया है
ऊँचा दरवाज़ा
मेरी पीठ पर
चला दिया गया है हल
और लहलहाने लगी है
बर्बादी की फ़सल
मेरी कनपटी पर भिड़ गया है तमंचा
और यह सीख दी गई है
कि मैं मुँह न खोला करूँ

मैं जाऊँगा बस्ती-बस्ती
मैं गाँव-गाँव घूमूँगा
मैं दरख़्त-दरख़्त चढ़ूँगा
और चिल्लाऊँगा
ज़ोरों से
कि अब कुछ करना होगा

हवा में कीलें-3

जब कभी भी
चढ़कर दरख़्त पर
मैंने देखा है एक साथ
समूची लम्बी सड़क को
मुझे दिखा है साफ़-साफ़
हर बार
धड़कता हुआ साँप
फैला हुआ
पसरा हुआ
ज़हर से भरा हुआ,
रग-रग ज़हरीला

साँप कि जिसकी
पूँछ है शहर की तरफ़
मुँह वाला हिस्सा
छू रहा है
मेरे गाँव का सिवान

या कि इसके दोनों तरफ मुँह हैं ?
मुझे शंका है भाई
ज़रूर ही यह है दुमुँहा ही

मैं बच्चा था तब
काली नहीं हुई थी
हमारे गाँव की यह सड़क
बाद में जब पक्की हुई
तब लगने लगी ऐसी

मैं कोई भ्रम नहीं
उड़ा रहा हूँ
हर रोज़ सुबह-शाम
चढ़कर दरख़्त पर
तौलता हूँ
बार-बार अपनी नज़र
मैं झटक नहीं पा रहा हूँ
अपनी दहशत

यह सड़क मुझे
दिख रही है हर बार
साफ़-साफ़ साँप

हवा में कीलें-4

सलीब चढ़ाकर मुझे
कीलें ठोंक रहा है कोई
मेरे दोनों हाथों को
पैरों को
सटाकर पीछे

मैं चिल्ला भी कैसे सकता हूँ
मेरे होठों पर
साट दिया गया है
इस बार सैलो-टेप

मैंने विरोध किया है
अब भी करूँगा
मैं आकाश को
ज़मीन को
धिक्कारूँगा
मैं मनुष्य को ललकारूँगा

मुझे प्यार है
मेरे गाँव से
मेरी राजधानी से
मैं सवाल उठाऊँगा
कि क्यों पाट दिया गया है
आकाश मेरी राजधानी का
बगूलों से

मुझी से यह जानकर
मेरा सारा गाँव
खो चुका है आँखों की नींद
लोग तैयार हैं
मेरा साथ देने को

मेरी मौत मुझे नहीं मार सकती
मैं मौत को भी
समझा सकता हूँ
सुना सकता हूं
जुल्म की दास्ताँ
मौत भी हमारे साथ होगी
पीछे-पीछे
झण्डा उठाए

यह कोई मामूली बात नहीं कि
तीन सौ खंभों का
पवित्र घर
बना दिया गया
बूचड़खाना
और काबिज़ हो गए हैं
आकाश पर
पंख फैलाए
बग-बग बगुले

हवा में कीलें-5 

एक ने पकड़े
सटाकर चारों पाँव
एक ने दबोचा पेट
ऐंठते हुए बीत्ते भर की पूँछ
…और होने लगा ज़िबह
इत्मीनान से बकरा

चाकू से छीला गया चाम
काट-काटकर धोए जाने लगे
माँस के लोथड़े
सज गई दौरी
टाँग दिया गया
अधकटी गोड़ी में फँसाकर
चामछुड़ा आधा बकरा

मैं थर्राता हूँ
इस बैशाख की
लपलप दुपहरी में भी
काँपता हूँ

मुझे तेज़ी से
याद आ रहा है गाँव
और बैठता जा रहा है
मेरा कलेजा

पान कचरे
चौड़े होठों, गंदे दाँतों वाले
झकझक सफ़ेद कपड़े पहने
कस्साई या कि कहूँ जल्लाद से
मैं भयभीत हो चला हूँ
इच्छा हो रही है
कि मैं शोर मचा दूँ
और जमा करके भीड़
बचा लूँ
अपने गाँव को

हवा में कीलें-6

रेलवे लाइन है
छर्रियों-गिट्टियों में
डूबी-डूबी पटरियाँ
और पटरियों पर
बैठकर किए हुए गूह

कँटीले पौधे हैं
सूखे-टटाए हुए
सिगनल के तार हैं
घिरनियों के ऊपर से
गुजरे हुए

ओवर-ब्रिज है यह
नीचे से गुज़र रहा हूँ मैं
लोटा लिए बैठी स्त्रियाँ
देखकर मुझे उठ जाती हैं
बढ़ता जा रहा हूँ मैं
बेफ़िक्र-सा
झुटपुटे ख़यालों में डूबा

अचानक देखता हूँ
पिल्ले की लाश
ताज़ा है शव
मुलायम सुनहरे रोएँदार
और मरने के बाद भी अल्हड़
मुस्कुराता-सा दिखता पिल्ला
मुझे छेंकता है प्रश्नवाची मौन से
हाहाकारी तटस्थता से
मैं चकराता हूँ
डगमगाता हूँ
और दहाड़ता हूँ

ट्रेन से नहीं कटा है यह पिल्ला
इसके पेट पर
निशान हैं साफ़-साफ़
पत्थर से थकुचे जाने के

भीतर से
झाँक रहा है लाल माँस
और ख़ून !
किसने की है यह हत्या ?
…और क्यों सुला गया है
यह लाश रेल लाइन पर ?

मैं सिगनल-पोल पर चढ़कर
आगाह करना चाहता हूँ
कि गंभीर है यह मामला
मैं चाहता हूँ गोलबंद करना
लोगों को
राजनीतिक हत्याओं के
इस तपते दौर के खिलाफ़

हवा में कीलें-7 

बहुत उद्विग्न हूँ मैं
लौटकर फ़ैजाबाद से
अलीगढ़ से
हैदराबाद से
भागलपुर और अयोध्या से

बर्फ़ हो रहा है
मेरी रगों में
मेरा ख़ून
तमाम देखी हुई हक़ीक़तें–
–ख़ून सनी माटी
कटे हाथ
छँटे पाँव
पेट में घुसा हुआ खंजर
जले हुए मकान
झुलसकर औंधियाए बच्चे
बहुत बेरहमी से रौंदकर
मौत के घाट उतारी-सुलाई हुई बहनें
–मुझे धिक्कार रही हैं
मुझे ललकार रही हैं
मुझे आगाह कर रही हैं

मैं हतप्रभ हूँ
शर्मिंदा हूँ
मैं क्यों था मरा-मरा
अभी तक
क्यों मैं बुनता रहा
शब्दों की सलाइयों पर
बेवज़ह स्वेटर

मैं लड़ूँगा
अपने चोंख शब्दों को लेकर
अजेय हथियार बनाकर

खोलता हूँ ताले
तहखाने शब्द-भंडारों के
अरे, यह क्या!

कुचले हुए हैं मेरे तमाम शब्द
रग-रग टूटी है
इनकी भी
घायल शब्दों से लिपटकर
बिलख रहा हूँ मैं
मेरी आँखें देख रही हैं
संतप्त शब्दों की आँखों में
टूटना-बिखरना
गर्भ में पल रही
एक समूची लड़ाई का

मुझ पर आपादमस्तक
रेंग रहा है
गदराए खेतों पर
ओले पड़ने का-सा दुःख

हवा में कीलें-8

गाँव मेरा
होता जा रहा है सुनसान
कालीथान का पीपल
हो गया है अकेला
क्यों जमती जा रही है
थाक-थाक भर धूल यहाँ ?

तीरडंडी स्वामी की मठिया पर
नहीं बैठ रही अब
गाँव की कोई संसद
उठती जा रही हैं
गाँव की चौपालें

लोगों ने कम कर दिया है क्यों
-कालीथान पर बैठना
-मठिया पर जमा होना
-देश-दुनिया पर बहस करना
-अपनी भूमिका तय करना !

कुछ सुना आपने ?
मँगवा लिया है मुखिया ने रंगीन टीवी
और अब बनकर हँसमुख
देने लगे हैं पनाह
पूरे गाँव को
बंद दरवाज़े के भीतर
दालान में

तमाम लोग बैठ गए हैं चुप
गोजी रखकर
मुखिया के बंद दालान में
टीवी के सामने

बटेसर काका ने रख दी है
बगल में वह लाठी
जिससे मार गिराया था
क्रूर अंग्रेज कमिश्नर को
और लड़ते रहे थे बीस साल
लगातार

मुस्कान में डूब रहा है
रघुवा भी बैठा
देख-देख रंगीन चित्र
जिसने हिला दिए थे
अंगद-पाँव मुखिया के
पिछले चुनाव में

मुखिया के बंद दालान में
अँकवार भर की एक मशीन बोल रही है
और सुन रहा है
सारा का सारा गाँव
चुपचाप और चकाचौंध
पाँव तुड़ाकर बैठा

कैसे टूटेंगी दालान की
चाक-चौबंद दीवारें ?
कौन खुरचेगा यह चकाचौंध
और नीम मुर्दनी ?
पंचायत के गुंबद को
कौन मुक्त कराएगा सर्पपाश से ?

अब तो उकेरनी ही चाहिए
यह राख
और यह चिंगारी…

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