माँ सरस्वती
मां सरस्वती! वरदान दो
कि हम सदा फूलें-फलें
अज्ञान सारा दूर हो
और हम आगे बढ़ें
अंधकार के आकाश को
हम पारकर उपर उठें
अहंकार के इस पाश को
हम काट कर के मुक्त हों
क्रोध की अग्नि हमारी
शेष होकर राख हो
प्रेम की धारा मधुर
फिर से हृदय में बह चले
मां सरस्वती! वरदान दो
कि हम सदा फूलें-फलें!
समुद्र के ऑसू
एक दिन मैंने
पूछा समुद्र से
देखा होगा तूने, बहुत कुछ
आर्य, अरब, अंग्रेजों का
उत्थान-पतन
सिकन्दर की महानता
मौर्यों का शौर्य,रोम का गौरव
गए सब मिट, तू रहा शांत
अब,इस तरह क्यों घबड़ाने लगा है
अमेरिका , रूस के नाम से पसीना
क्यों बार-बार आने लगा है
मुक्ति सुनी होगी तूने, व्यक्ति की
बुद्ध,ईसा,रामकृष्ण
सब हुए मुक्त
देखो तो आदमी पहुंचा कहां
वो ढूंढ चुका है, युक्ति
मानवता की मुक्ति का
अरे, रे तुम तो घबड़ा गए
एक बार, इस धराधाम की भी
मुक्ति देख लो
अच्छा तुम भी मुक्त हो जाओगे
विराट शून्य की सत्ता से
एकाकार हो जाओगे
लो,तुम भी बच्चों सा रोने लगे
मैंने समझा था,केवल आदमी रोता है
तुम भी, अपना आपा इस तरह खोने !
सच-झूठ
जब तुझे लगे
कि दुनिया में सत्य
सर्वत्र हार रहा है
समझो
तेरे भीतर का झूठ
तुझको ही
कहीं मार रहा है।
जिजीविषा
पिंजरे में बराबर
बाघ और बकरी
बेबस फांदते कंदील
करते आज्ञा स्वीकार
जिजीविषा मजबूर करती है
खाने को
उसे
बांधिए डोर
ले चलिए चाहे जिस ओर
अशक्त
तोता राम
भरते हो सदा
मुक्त उड़ान
चिंताओं से कैसे
पा जाते त्राण
कैसा है तेरा देश
क्यों नहीं तुममें लेश राग-द्वेष
हो कितने अशक्त
स्वजनों का भी
नहीं बहा पाते रक्त।
जागो
जागो युवा उठो ऐ दोस्तो
बहुत सोए अब नींद तोड़ दो
जंग लगी है उसे झकझोर दो
बंधनों को ऐ तुम बिखेर दो
समाज में जो लगी आग है
मानवों के मुख पे दाग है
विषधर जो छोड़ते झाग हैं
हंसों के वेष में काग हैं
इन सब की तुम पोल खोल दो
डरो नहीं जेहाद बोल दो।
तत् त्वम् असि
अपने मैं को
मारो नहीं
उसके बढ़ते कदम
तुम उखाड़ो नहीं
उसे
इतना विस्तृत व्यापक
हो जाने दो
कि वो
तुम्हारा तुम हो जाए
उसका मेरापन
शून्य की सर्वव्यापकता में
जाकर गुम हो जाए
पिता
पिता
अपनी छोटी गुदाज हथेली में
पिता की अंगुलियां थामे चल रहा था मैं
दूर सामने बहती नदी तक जाना था मुझे
नन्हें पांव थकने लगे थे रोने लगा था मैं
बिठा लिया था पिता ने तब कंधे पर अपने
बालों से उनके खेलने लगा था मैं निकटाने लगी थी नदी
पर सूरज उपर कसा जा रहा था
रोने लगा था मैं दुबारे
उतार दिया पिता ने तब चिलचिलाती रेत पर
बिल-बिलाकर चिपक गया था मैं बाहों में उनकी
फिर पास आ गयी थी नदी
भीगी रेत पर घरौंदे बनाए थे मैंने
चिल्ला-चिल्लाकर बुलाया था पिता को
आओ देखो यह घल मेला अपना घल
पर पिता से पहले आ गयी थी एक लहर
रूंआसा हो गया था मैं भयभीत भी
कि मेरा घर बहा ले जाने वाली यह लहर
मुझे तो नहीं ले जाएगी बहा कर….
अब कह रहे थे पिता
चलो तैरना सिखला दूं तुम्हें रोने लगा था मैं
पर कितने कठोर थे पिता
दुःसाध्य था कितना
इतिहास की सुरंगों से
वर्तमान के काल-खंडों तक
संचित
ज्ञान उनका
तब
ममत्व की बाहों से उठा
ले आए थे पिता
नदी की धारा में
धीरे से छुलाया था
सतह की नदी से
बोले मारो हाथ-पांव मारो
चीखें मारने लगा था मैं
और टप से छोड दिया था पिता ने
धारा में मुझे
बहता हाथ-पांव चलाता
डूबने लगा था मैं
समाने लगी थी नदी
मेरी आंखों में बाहों में रगों में
थोडा-थोडा होष
खोने लगा था मैं
आंखें खुलीं तो टंगा था मैं बांहों में पिता की
सोचा था कितनी लंबी हैं बाहें पिता की
लहरों से भी लंबी
क्या मैं नहीं हो सकता पिता की तरह
किनारों को छोड धारा में बना नहीं सकता घर
और कूद गया था मैं
बाहों के बल नदी में
आंखें खुली थीं भाग रहा था धारा में मैं
मछलियों के आगे-पीछे
देखता छू-छूकर तल में फैली कौडियां-सीपी-सिवार
बचता मगरों घडियालों के जबडे से
थकने लगता
तो लहरों से भी लंबी पिता की बाहें
थाम लेती थीं मुझे
आज हो चुका हूं कद्दावर पूरा
छूने लगे हैं नदी का तल मेरे पांव
और हाथ सहला रहे हैं चेहरा सूरज का
अब पिता हैं कि मानते नहीं मुझे
कहते हैं वहीं तक जाओ
लौट सको सुरक्षित जहां से मेरी बाहों में
पर तुम्हारा यह पवित्र मोह
हमारे अंतर के भविश्योन्मुख उर्जस्वित आवेग को
बांध सकेगा पिता
खुद बंध सके थे तुम ……..
सबसे छोटा आदमी
जिसे भी
प्यार करता हूं
महसूसता हूं कि मुझसे
बडा हो गया है वह
और पाता हूं कि मैं
दुनिया का
सबसे छोटा आदमी हूं।
स्नेह की एक रेख
मैं
विश्वास का कैलाश उठाए
हिमालय से यहां तक
आ गया हूं मेरे दोस्त
मेरी अजानुभुजाएं सक्षम है इसे
सत्य की धरती पर
प्रतिस्थापित करने में
और इसे मैंने
अपना सर देकर नहीं
श्रम-स्वेद बहा अर्जित किया है
कि इस मरू को सब्ज देख सकूं
विष्णु का छल
अब मेरा बल घटा नहीं सकता
क्योंकि हमें समुद्र नहीं
एक और सुरसरि लानी है
ऐसे में मुझे
तुम्हारी टेक की नहीं
स्नेह की एक रेख की
जरूरत है .
1990
चार-चर्मकार
जन चार
भार (मृत मवेशी) लिए कंधों पर जा रहे
हिम्मत सबकी
हो रही तार-तार
मृत्यु का बोझ
हो रहा भार है
त्याग दें भार तो
जीना दुश्वार है।
पीपल की होली
यूकलिप्टस के पड़ोसी पीपल ने
अबके होली में वो रंग जमाया
कि उसके सारे साथी दंग रह गए
सहस्त्रबाहु सी भुजाओं से
छिड़क रहा था वह सुग्गापंखी रंग
सुनहली आभा से दिप रहा था अंग-अंग उसका
अतिथि तोता-मैना और काली कोयलिया
सब लूट रहे थे महाभोज का आनंद
परसने का अंदाज भी था नया
हर शाखा पर पुष्ट पकवान थे बफेडिनर की तरह
बस खाने का ढ़ंग था हिन्दुस्तानी प्योर
चोंच के आगे क्या चम्मच का चलता जोर
भोजनोपरांत अतिथियों ने गाया समूहगान
मस्ती में डूब गया सारा जहान
पता ही ना चला कैसे बीता दिन
चांदनी से कब चह-चहा गया आसमान।
मीना कुमारी के लिए
दर्द
तुम्हारी आंखों में नहीं
हमारी रगों में होता है
छू देती हैं निगाहें
उभर आता है दर्द
फफोले-फफोले।
प्रीति
चौथाई दरवाजा खोल
निमिष भर नेह से निहारा क्या
हारा गया मैं
जीतता ही
तो जीतना कहाता
लहर भर पूरा देखा भी न था
और पटल पर पाटल सा चेहरा
उग-उग आता है।
स्नेहमयी आंखों से
हेरा था
स्नेहमयी आंखों से
पछाड़ों को थामती
उर्मित दृष्टिकोरों से
देती रवानी
रक्त-धार को नयी
मुखर मौन से
मम अंतर मथ
रंजना की
सुस्मित मधुपोरों से
रंजक मन मुकुल
मुकुलित कर
अनंत की सीमा में
रेखा से बांध
दिया मुक्ति का वर।
राजनीति
जिन्दा रहना हो
तो अडिग रहो
राजनीति चाहेगी
समझौता स्वतंत्र विचारों की बलि
तुम्हारा झुकाव पुलों की तरह
जनाक्रोश पार जाने को।
बेनजीर
पैराहन-ए -दरीदा में लिपटी
जिगर-फिगार अवाम की
अफ्सुर्दा आहों का मरहम-ए -आजार
संगीनों का सीना चाक करता
तमाम तवारीखों की तःहरीरें करता तार-तार
माह-ए -रवां जो उगा है आज की शब
फैज़ के लैला-ए -वतन के अफलाक पर
दिलकश है बड़ी तस्वीर उसकी
सर -ए -रु पर है जवानी का फरोजां जमाल
रगों में इंसानी मुहब्बत की तासीर है
हाथों मे है हजारों द्रौपदिओं का चीर
पूरब की इस बेटी का नाम है
बे -नजीर बेनजीर ।
१९८९
जीवन चुनौतियों से भरा है
ऑस्ट्रेलियाई ऑलराउंडर साइमन ओ डानेल कहता है
जीवन चुनौतियों से भरा है
यह मोर्चा हर हाल में जीत लेना है
साइमन लड़ाई जीत लेता है
पर मेरे दोस्तो तुम लड़ाई नहीं लड़ सकते साइमन मौत से कैंसर से लड़ा
जीवन के लिए नहीं लड़
सकते तुम
साइमन क्रिकेट के लिए मोहब्बत के लिए लड़ा
रोटी के लिए इज्जत के लिए नहीं लड़ सकते तुम
उठो मेरे दोस्तों
कि साइमन अकेला मौत को जीत लेता है
कि तुम सब मिलकर जिंदगी को जीत लोगे।
कविता की आत्महत्या
कितनी भयानक होती है
कविता की आत्महत्या
मौतें होती हैं
जैसे जलती भट्टी में कुछ कोयले काले पड़ जाएं
पर कविता की मौत
मानो भट्टी ठंडी पड़ गई हो
आग बुझ गई हो
कितना खतरनाक है आग का बुझ जाना
आग जिसे जलाया था
पुरखों ने पत्थर घिस घिसकर
पीढ़ियों ने जिसे जलाए रखा श्रम से जतन से।
गोरख पांडेय के प्रति
सोमालिया
मुट्ठी भर
अन्न के लिए
गोलियाँ
मुट्ठी भर
और सभ्यता के कगार पर
आ पहुँचे हम।
(रचनाकाल : 1994)
चौकियाँ
जब खच्चरों और गदहों पर
अँटी नहीं होगी
खानाबदोश जिन्दगी
थोडा और सभ्य
थोडा और जड होने की
जब जरूरत महसूस हुई होगी
तब मस्तिष्क के तहखानों से
बैलगाडियों के साथ-साथ
निकली होंगी चौकियाँ भी
शायद उस काल भी थे देवता
जो चलते थे पुष्पकों से
या मंत्रों से
जो आज भी जा रहे हैं
चॉंद और मंगल की ओर
तब से चली आ रही हैं बैलगाडियाँ भी
सभ्यता का बोझ ढोतीं
जब बी-29 पर लदे परमाणु अस्त्र
हिरोशिमा पर
सभ्यता का भार हल्का कर रहे थे
एक घुमक्कड खच्चरों पर अपनी सभ्यता लादे
तिब्बत से लद्दाख का रास्ता तलाश रहा था
उसी समय
कलकत्ते में लोग
चौकियों पर चौकियां जमा रहे थे
चॉंद की ओर जाने का
यही ढंग था उनका।
साधु न चले जमात
ऊँटों पर अन्न की बोरियां लादे
जमात में आए हैं साधु
आओ बेटा देखों उूंट साधु देखो
संकटापन्न प्रजाति है यह
बिहू-बिरहोरों सी
चीते और लायगर की तरह
गायब हो जाएंगे ये भी
एअर इंडिया के प्रतीकों में
जैसे शेष हैं महाराजा
रानयिां म्यूजियमों में
यूं ही साधु भी रह जाएंगे स्मृतियों में हमारी
नगर का संकट दूर करने
आये हैं साधु
संकट रह जाएंगे ज्यों के त्यों
और गायब हो जाएंगे साधु
यज्ञ से उठते धुएं की तरह
पहले रक्षा करते थे राम-लक्ष्मण यज्ञों की
आज राम-लक्ष्मण की प्राण-प्रतिष्ठा के लिए
यज्ञ कर रहे साधु
साधु जो पहले रह लेते थे जंगलों में
जहां आज रह रहे हैं उग्रवादी
वहां से बहरा गए हैं साधु
और घूम रहे हैं नगरों में जट्ट के जट्ट।
1966
मुन्नन पढ़ रहा है
सुबह के छह बज रहे हैं और कुहरा नहीं है आज
कांसे की थाली सा मंदप्रभ सूर्य
उूपर आ रहा है
सुषुम ठंड एक ताकत की तरह
मेरे भीतर प्रवेश कर रही है
एक गुलाब है जो पडोस की दीवार के पास
सिर उचकाकर ताक रहा है
एक नन्हीं बालिका झांक रही है जिज्ञासु आंखों से
सामने सीढियों पर बैठा रोटियां तोड रहा है छोटू लाल
और अखबार सादे हैं आज
इतना लिखते-लिखते चमकने लगा है सूर्य
डॉटपेन की छाया उभरने लगी है कॉपी पर
छत से लटकते पंखे पर एक गौरैया आ बैठी है
एक पंडुक आ बैठा है एंटीना पर
पडोस के खाली भूखंड पर दो बिल्लियां
एक अधमरे चूहे के साथ खेल रही हैं
एक चील उडती जा रही है सूरज की ओर
मानो ढंग लेगी उसे
उसके पंजे में कुछ है चूहा-मेढक या और कुछ
उसके पीछे कौवे भी हैं दो-चार
इधर चिंतित हैं कविगण कि चीते की तरह
खत्म तो नहीं हो जाएगी नस्ल आदमी की
उधर मुन्नन पढ रहा है जोर-जोर से
कि उर्जा का विनाश नहीं होता …।
1996
गुड़हल
सांवले हरे पत्तों व सादे लाल फूलों के साथ
घर-घर में विराजमान मैं गुडहुल हूं
फिरंगियों के घर पैदा होता
तो डेफोडिल सा मेरा भी प्यारा नाम होता
जो बचाता बलि से मुझको
पर यहां निर्गंध हूं इसीलिए भक्तों का प्यारा हूं
मेरे पडोसी गेंदा-गुलाब
टुक-टुक मेरा मुंह देखते रहते है
ओर मैं मुट्ठी का मुट्ठी चढा दिया जाता हूं
पाथरों पर
कोई जोडा मुझे बालों मे नहीं सजाता
किसी की मेज की शोभा नहीं बढाता मैं
कॉपी के सफों में सूखकर
स्मृतियों में नहीं बदलतीं मेरी पुखुडियां
हर सुबह
यतीमों के मुख से छीने गये दूध के साथ
मैं भी पत्थरों पर गिरता हूं
और हर शाम
उसी के साथ सडकर
बुहार दिया जाता हूं ।
1996
पहाड़
गुरूत्वाकर्षण तो धरती में है
फिर क्यों खींचते हैं पहाड़
जिसे देखो
उधर ही भागा जा रहा है
बादल
पहाडों को भागते हैं
चाहे
बरस जाना पडे टकराकर
हवा
पहाड़ को जाती है
टकराती है ओर मुड जाती है
सूरज सबसे पहले
पहाड़ छूता है
भेदना चाहता है उसका अंधेरा
चांदनी वहीं विराजती है
पड जाती है धूमिल
पर
पेडों को देखे
कैसे चढे जा रहे
जमे जा रहे
जाकर
चढ तो कोई भी सकता है पहाड
पर टिकता वही है
जिसकी जडें हो गहरी
जो चटटानों का सीना चीर सकें
उन्हें माटी कर सकें
बादलों की तरह
उडकर
जाओगे पहाड तक
तो
नदी की तरह
उतार देंगे पहाड
हाथों में मुटठी भर रेत थमा कर।
चरवाहे
चरवाहे बन सकते हैं शहंशाह
शहंशाह बन नहीं सकता चरवाहा चाहकर भी
तानाशाह बन सकता है वह
भोला-भाला व्यक्ति
बन सकता है पंडित ज्ञानी विराट
ज्ञानी हो नहीं सकता मूर्ख
पागल हो सकता है वह
आकाश छूती ज़मीन को
पाट सकते हो अट्टालिकाओं से
खींच सकते हो
कई-कई और चीन की दीवार
उसे बदल नहीं सकते समतल भूमि में
खंडहर बना सकते हो
वहाँ बोलेंगे उल्लू।
सॉनेट (हर सांझ…)
हर सांझ, तेरे रूख का क्षण भर अवलोकन
क्यों मुझेको प्रतिक्षण उद्वेलित कर जाता है
वह क्या अदृश्य है जो, शून्य में संधि बन
मेरा अंतर तुझसे यूं जोडे रखता है।
क्या मिल जाता है, उस क्षण भर में ही मुझको
एक भाव गूंजता अंतर में, हर क्षण हर पल
पर व्यक्त उसे शब्दों में कैसे कर दूं मैं
हो कैसे अभिव्यक्त, जो है अब तक गोपन।
इन्हीं रहस्यों में उलझाता हुआ मैं खुद
को, कहीं बहुत कुछ सुलझाता जाता हूं।
मेरा जो भी छूट वहां उस क्षण जाता है
उसे बचाना नहीं रहा अब मेरे वश में।
उस खोने में भी, बहुत कुछ पा जाता हूं
पा-पाकर हरदम पाना कुछ रह जाता है।
1988
मिथक प्यार का
बेचैन सी एक लड़की जब झांकती है मेरी आंखों में
वहां पाती है जगत कुएं का
जिसकी तली में होता है जल
जिसमें चक्कर काटत हैं मछलियों रंग-बिरंगी
लड़की के हाथों में टुकड़े होते हैं पत्थर के
पट-पट-पट
उनसे अठगोटिया खेलती है लड़की
कि गिर पड़ता है एक पत्थर जगत से लुडककर पानी में
टप…अच्छी लगती है ध्वनि
टप-टप-टप वह गिराती जाती है पत्थर
उसका हाथ खाली हो जाता है
तो वह देखती है
लाल फ्राक पहने उसका चेहरा
त ल म ला रहा होता है तली में
कि
वह करती है कू…
प्रतिध्वनि लौटती है
कू -कू -कू
लड़की समझती है कि मैंने उसे पुकारा है
और हंस पड़ती है
झर-झर-झर
झर-झर-झर लौटती है प्रतिध्वनि
जैसे बारिश हो रही हो
शर्म से भीगती भाग जाती है लड़की
धम-घम-घम
इसी तरह सुबह होती है शाम होती है
आती है रात
आकाश उतराने लगता है मेरे भीतर
तारे चिन-चिन करते
कि कंपकंपी छूटने लगती है
और तरेगन डोलते रहते हैं सारी रात
सितारे मंढे चंदोवे सा
फिर आती है सुबह
टप-झर-धम-धम-टप-झर-झर-झर
कि जगत पर उतरने लगते हैं
निशान पावों के
इसी तरह बदलती हैं ऋतुएं
आती है बरसात
पानी उपर आ जाता है जगत के पास
थोडा झुककर ही उसे छू लिया करती है लड़की
थरथरा उठता है जल
फिर आता है जाड़ा
प्रतिबंधों की मार से कंपाता
और अंत में गर्मी
कि लड़की आती है जगत पर एक सुबह
तो जल उतर चुका होता है तली में
इस आखिरी बार
उसे छू लेना चाहती है लडकी
कि निचोडती है खुद को
और टपकते हैं आंसू
टप-टप
प्रतिध्वनि लौटती है टप-टप-टप
लड़की को लगता है कि मैं भी रो रहा हूं
और फफक कर भाग उठती है वह
भाग चलता है जल तली से।
प्यार
एक राह
जो देखती
मुड-मुडकर
नजदीकी
एकदम से
पास नहीं आती जो।
1996
पहाड़ : छह कविताएँ
1
जीवन के विस्तारों में
अक्सर याद आते हैं पहाड
कि चाहे वे थकाते बहुत हैं
पर जल्द ही दे देते हैं कोई चोटी
जहां खडे हो
क्षण भर को
तटस्थ हो सकें हम
विस्तारों के चक्रवर्तीत्व से
2
उूदी हवा शरीर से लगती है
तो सिहरते हुए याद आते हैं पहाड
यादों का भी सानी नहीं
छूते ही बरोबर कर देती हैं ये विषमताओं को
अब इसमें क्या तुक कि धुआं छोडती रेल को देख
एक लडकी की याद आती है
यादों में पहाड का वजन
फूल से ज्यादा नहीं होता
ना ही फूलों से कम खूबसूरत लगते हैं पहाड
यादों में संभव होता है
कि हम चूम सकें पहाडों को
जैसे उन्हें चूमता है आकाश
3
नीचे उतर आया हूं पहाडों से
सोचता कि अभी चोटी पर था
चोटी को देखता हूं तो लगता है
कि क्या सचमुच वहां था
उूपर शून्य में कोई कैसे लिखे
कोई नाम
पांव तले की चट्टान भी
नाम स्वीकारेगी क्या
तब तोडता चलूं पत्थर कुछ
टुकडे चमकदार याद में
पर क्या पत्थर पहाड होते हैं
4
मारे खुशी के हांप रहा हूं
चोटी चढी है पहाड की
अब उतरना है नीचे
आश्रय नहीं दे पातीं
तो बनती क्यों हैं चोटियां
वहां बादल है हवा है सूरज है
पर जडें क्यों नहीं हैं
होता है यहीं पत्थर हो जाएं
पर लगेंगे करोड बरस
5
पहाडों क्या तुम्हारे हाथ नहीं होते
इच्छाएं नहीं होतीं चोटी से ढकेलने की
बलाते हो दूर से सिर भी चढाते हो
फिर उतरने क्यों नहीं कहते
पछताते हम ही उतरते हैं
कि उतरे क्यों
उतारे जाने का डर तो नहीं
नहीं ऐसा नहीं करोगे
यही सोचते खुश उदास होते
हम उतर आते हैं पर उतर पाते हैं
6
हो तो पहाड
पर कैसी सफाई से
पैठ जाते हो स्मृतियों में हमारी
और भी गहरी काली हरी चट्टानें बनकर
और सोते गर्म ठंडे जल के
इतने हल्के हो जाते हो
कि लगाते हो दौड
भूल जाते हो
कि धुंध सी ये स्मृतियां हैं हमारी
हवाएं नहीं कि चीरे चले जाओ
खुद छलनी हो जाएंगी ये
पर अगोरेंगी तुम्हें
पर कैसे बेरहम हो
अकेला पाते ही
होने लगते हो सवार छाती पर।
1997
पत्नी
चांदनी की बाबत
उसने कभी विचार ही नहीं किया
जैसे वह जानती नहीं
कि वह भी कोई शै है
उसे तो बस
तेज काटती हवाओं
और अंधडों में
चैन आता है
जो उसके बारहो मास बहते पसीने को
तो सुखाते ही हैं
वर्तमान की नुकीली मार को भी
उडा-उडा देते हैं
अंधडों में ही
एकाग्र हो पाती है वह
और लौट पाती है
स्मृतियों में
अंधड
उखाड देते हैं उसकी चिनगारी को
और धधकती हुई वह
अतीत की
सपाट छायाओं को
छू लेना चाहती है ।
1996
सबसे अच्छे खत
सबसे अच्छे ख़त वो नहीं होते
जिनकी लिखावट सबसे साफ़ होती है
जिनकी भाषा सबसे खफीफ होती है
वो सबसे अच्छे ख़त नहीं होते
जिनकी लिखावट चाहे गडड-मडड होती है
पर जो पढ़ी साफ़-साफ़ जाती है
सबसे अच्छे ख़त वो होते हैं
जिनकी भाषा उबड़-खाबड़ होती है
पर भागते-भागते भी जिसे हम पढ़ लेते हैं
जिसके हर्फ़ चाहे धुंधले हों
पर जिससे एक चेहरा साफ़ झलकता है
जो मिल जाते हैं समय से
और मिलते ही जिन्हे पढ़ लिया जाता है
वो ख़त सबसे अच्छे नहीं होते
सबकी नज़र बचा जिन्हें छुपा देते हैं हम
और भागते फिरते हैं जिसकी ख़ुशी में सारा दिन
शाम लैंप की रोशनी में पढते हैं जिन्हें
वो सबसे अच्छे ख़त होते हैं
जिनके बारे में हम जानते हैं कि वे डाले जा चुके हैं
और जिनका इंतज़ार होता है हमें
और जो खो जाते हैं डाक में
जिन्हें सपनों में ही पढ पाते हैं हम
वे सबसे अच्छे ख़त होते हैं।
महानता की घिसटन
पहले वे स्त्री लिखते हैं
उन्हें लगता है कि
देवी लिखा है उन्होंने
देवी एक महान शब्द
फिर वे स्त्री को
सिरे से पकडकर
घसीटते हैं
कोई आवाज नहीं होती
बस लकीर रह जाती है शेष
कलाकार बताते हैं
कि यह एक कलाकृति है
संगीतकार उसे साधता है
सातवें स्वर की तरह
नास्तिक उसमें ढूंढता है
चीख की कोई लिपि
कवि वहां की रेत में
सुखाता है अपने आंसू
अब कलाकार नास्तिक कवि और संगीतकार
सब महान हो उठते हैं
इस तरह
एक महान शब्द की
घिसटन से
महानता की संस्कृति
जन्म लेती है।
1996
वह मेरी मेरी माँ ही सकती है
तारों की मद्धिम आंच में पका हुआ वह जो चेहरा है
वह मेरी का ही हो सकता है
पता नहीं पहले कौन पैदा हुआ था, वह या मैं
शायद मैं ही गया था अपनी बाहों के बल
उसके वक्षों तक और उसके आंचल में दूध उतर आया था
वह मेरा ही रंग था जिसकी छाया जब पडी थी
उसकी धूपहली आंखों पर
तो उग आयी थी वहां करूणा की छांह
उसकी शोखी उसकी चंचलता के मार तमाम रंग
चुरा लाया था मैं ही
धीरता की स्याह स्लेट पट्टी
बाकी रह गयी थी उसके पास
अपनी उधेडबुनें घिस घिसकर
जिसे मैंने धूसर बना डाला था
धरती की तरह
बां…. यह संबोधन
पहली बार उतरा था मेरी ही आंखों में
उसने सुधारा भर था कर दिया था मां…
सुनहले पाढ की कत्थई साडी में
सूर्य को अर्ध्य देती
वह मेरी मां ही हो सकती है
उसकी आंखों की पवित्रता में
अक्सर डूबने लगता है अग्निवर्ण सूर्य
उसको देख लगता है ईश्वर अभी जिंदा है और
समय के पाखंड से घबराकर
जा छुपा है उसकी आंखों में
वह मेरी मां ही हो सकती है
मेरी कविताओं के तमाम रंगों से ज्यादा
और लकदक रंगों की साडियां हैं उसकी
छुपा लेती हैं जो मुझाके मेरी लज्जा को
मेरे भय को।
1993
खुशी का चेहरा
खुशी को देखा है तुमने क्या् कभी
श्रम की गांठें होती हैं उसके हाथों में
उसके चेहरे पर होता है
तनाव-जनित कसाव
बिवाइयॉं होती हैं खुशी के तलुओं में
शुद्ध मृदाजनित
खुशी की
हथेलियॉं देखी हैं तुमने
पतली कड़ी लोचदार होती हैं वो
जो अपनी गांठें
छुपा लेती हैं अक्स र
अपनी आत्माह में
उस पर चोट करो
देखों कैसे तिलमिलाकर
उभर आती हैं गांठें
चेहरे के तनावजनित कसावों को
छेड़ने से ही
फूटती है हँसी
ध्वतनि की तरह
तलुओं में ना हों तो
खुशी की स्मृ त्तियों में
जरूर होती हैं बिवाइयॉं
वहॉं झांकोगे
तो फँसी मिटटी पाओगे
उसे मत निकालना गर्त्तम से
रक्तम
फूट पड़ेगा उनसे
बड़े गहरे संबंध होते हैं
मिटटी के और रक्तो के
सगोत्रिय हैं दोनों
अपनी आत्माै को
जानते हो तुम
खुशी की आत्माो
खुशी के पैरों में निवास करती है
तब ही तो
इतनी तेज दौड़ती है खुशी
एक चेहरे से
दूसरे तीसरे व तमाम चेहरों पर
कभी खुश हुए हो तुम
श्रम
किया है क्या कभी
दौड़े हो घास पर नंगे पॉंव
या फिर रेत पर
तो तुमने जरूर देखा होगा
कि कैसेट
हमारे पॉंवों में पैसी आत्मार
मिटटी से
चुगती है संवेदना
और कैसी तेजी से
हरी होती हैं
मस्तिष्क की जड़ें
यहॉं से वहॉं उड़ान भरती
कैसी उन्मुनक्तत होती है हँसी
और निर्द्वांद्व कितनी
कि पकड़ में नहीं आती कभी
कैमरे में बंद करो
तो तस्वींरों से फूट पड़ती है
मन में बंद करो
तो आंखों से
क्यां करे वह
कि समय कम है उसके पास
और
असंख्य हैं मनुष्यड
पीड़ा से बिंधे हुए
और सब तक जाना है उसे
खुशी की
ऑंखें होती हैं हिरणी सी
विस्फाहरित तुर्श साफ व सजल
छोटी सी पीड़ा भी
डुला देती है उसे
बह आता है जल
टप-टप-टप
बड़ा गम भी
पचा लेती है खुशी
कभी वही
गॉंठ बन जाती है
कैंसर की
पर श्रम की गॉंठ
जियादा कड़ी होती है
गम की गॉंठ से
उसे गला देती है वह
खुशी जानती है
कि जियादा से जियादा
क्याि कर सकता है गम
उसे माटी कर सकता है
मिटटी की तो
बनी ही होती है खुशी
खिलौनों सी
उसके टूटने पर बच्चेै रोते हैं
कुम्हाूर नहीं रोता
वह जानता है श्रम को
पहचानता है खुशी को
गढ लेगा वह और और नयी
बारह से
पॉंव होते हैं खुशी के
मृगनयनी होती है
पर मृगमरीचिका नहीं देखती खुशी
पहले
कड़कती है बिजली
फिर होता है बज्रप्रहार
गरजता
जैसा आता है दुख
वैसा ही चला जाता है
पर चक्रवातों और
दुख की सूचनाओं की तरह
सन्नाीटे का
व्याामोह नहीं रचती खुशी
आना होता है
तो आ जाती है चुप-चाप
भंग करती सन्नांटा
आती है
तो जाती कहॉं है खुशी
रच-बस जाती है सुगंध सी
खिला देती है
पंखुडि़यों को
फिर बंद कहॉं होती हैं पंखुडि़यॉं
झर जाऍं चाहे
गमों में
सब छोड़ देते हैं दामन
तो बच्चेे
थाम लेते हैं खुशी को
और भरते हैं कुलॉंच
तब बड़े नाराज होते हैं
उन्हें मारते हैं चॉंटे
और खुद रोते हैं
कुत्ते की तरह
हमेशा
हमारे आगे-आगे
भागती है खुशी
बच्चोंह सी आगे आगे
साफ करती चलती है रास्ताआ
वह देखती है पहाड़
और चढ़ जाती है दौड़ कर
वहीं से बुलाती है
नदी को देखते ही
गुम हो जाती है
भँवरों में
जंगल को देखते
समा जाती है दूर तक
फिर कहीं से
करती है
कू-कू-कू
हम भागते हैं उसे पाने को
भागते चले जाते हैं
हॉंपते ढहते ढिलमिलाते
उसी की ओर
जंगल काटते हैं
और बनाते हैं पगडंडियॉं
भँवरों से लड़कर
बनाते हैं पुल
पत्थेरों को छॉंट
चढते हैं पहाड़
शायद इसी तरह बने हैं
तमाम रास्तेह सभ्य ता के
खुशी को ढूंढता
कोलंबस
अमरीका ढूंढ लेता है
एवरेस्टढ तक
हमें खुशी ले जाती है
चॉंद पर
जाती है खुशी
और कहती है
मंगल पर चलो
कभी
पीछे लौटकर नहीं देखती खुशी
स्मृ तिविहीन अतीत का रास्ताह
नहीं होता है उसका
डायनासोर मिलते हैं जहॉं
जो अपना भविष्य
खुद खा जाते हैं।
हम क्या करें
परंपरा की लीद संभाले
जो धंसे जा रहे और खुश हैं वो मूर्ख हैं
यह मूर्खता सहन नहीं कर पा रहे जो
पागल हैं वो
मूर्खें और पागलों से अटा जो परिदृश्य है
वह इतिहास है और बुद्धिमान
मूर्खें और पागलों की टांगों के मध्य से
भाग रहे हैं भविष्य को
हम क्या करें कि पागल प्रिय हैं हमें
और बुद्धिमानों को हम सर नवाते हैं ।
1997
शमशेर
चिकनी धूल भरी बदली ज्यों शुष्क भुर-भुरी
तलुए दो या छायाएं हृदय की
कि दो विमान खो … खो … जाते बदली में
कि ढलान गुरूत्व खिसकाता
घाता धंस आता वक्ष रेतीला
थिरता … आ तटी पर
धाराएं खिसकातीं तली
भीरू मन छूता जल कांपता दो पल
छटपटाती चेतना की जीभ
अतहतह प्राण देते ढकेल धारा मध्य
सौंदर्यकामी आत्मा
देती उलीच
सारा भय निरभय ।
1991
पितरिया लोटा
बैठते ही पानी के लिए
पूछते हैं अरूण कमल
देखता हूं
बडा-सा
पितरिया लोटा उठाए
चले आ रहे हैं
अरे रे आपके हाथ में यह
लोटा है या पृथ्वी है पूरी
अपनी सुगंध अपनी नदी
अपने तेज के साथ
महानगर की इस कोठली में
सूर्य की तरह उद्भासित होता
यह लोटा
इसका भार उठाए
कैसे लिख लेते हैं आप
ऐसी सुषुम गुनगुनी कविताएं
फिर ग्लास से ढाल पिया जल
तो पितरैला स्वाद उसका
चमकने लगा नसों में मेरी
किताबों से अंटे उस कमरे पर
भारी पड रह था वह लोटा
सो अदबदाकर उलट दिया उसे
अह रह क्या फैल गया कमरे में
सुगट्टू भोरे-भोर
डाल से चुए सेनुरिया आम
हाथ मीजने के लिए
खेतो से ली गयी मिट्टी
और यह जल सोनभद्र का
इसमें दाल
अच्छी पकेगी ।
1991
सॉनेट (भीतर कैसी दो)
भीतर कैसी दो उथल-पुथल है, भावों का
रेला चलता है, बैठा विचार हाथ मलता है
भावों की हत्या मैं कर दूं, पर अभावमय
मेरा जीवन है, जीवन को कुछ लंबा कर दूं।
और, ठौर फिर कहां मिलेगा, अब बची हुई
कितनी आंखें हैं जिनमें जल है बाकी, तल है
सूखा घट-घट का जिसमें अर्थ भरा हे, व्यर्थ
किसे कैसे कर दूं मैं किस – किस अनर्थ को।
बंधन कोई नहीं पर सर पर बोझा है
उसको साधे दौडूं तो खप जाए जीवन।
इसी साधना में, और आराधना बाकी रह जाए
जन – जन की, बोझों में बंधा हुआ जीवन है
पल-पल मरता,जो उचित कहीं मिलता जल,वायु
मिलती तो छोड इसे मैं दौड चला जाता जनपथ पर।
1992, त्रिलोचन के लिए
सॉनेट (इकलौता तारा)
इकलौता तारा जलता पश्चिमी क्षितिज पर
डूब अभी जाएगा क्षण में, मानस पट पर।
उग आएगा तब वह और प्रज्वलित होकर
दिप – दिप करता हुआ जलेगा, इत – उत फिरता
हुआ अंत में वो थिर होगा उर में मेरी
आंखें बन कर । अंतस को मेरे भर देगा
मधुर ज्वाल से और काल से , टक्कर लेगा
डटकर, रह जाएंगी उसकी आंखें फटकर ।
काल ढाल है चुके हुओं का झुके हुओं का
जो जीवन रण छोड चुके मोड चुके हैं मुख
सकाल से । पर जिनकी सुबहें नहीं भरोसे
किसी सूर्य के, कहीं किसी इकतारे की
धुंधली धुन पर, चलते – रहते हल्की सी
भीगी उजास में आस छिपाए विलम-विलम कर।
1999
गीत (इक सितारा)
इक सितारा टिमटिमाता रहा सारी रात
वो सुलाता रहा और जगाता रहा
पहलू में कभी, कभी आसमान पर
वह उनींदे की लोरी सुनाता रहा।
इक …
रूप उसका समझ में क्या आए कभी
रोशनी उसकी पल में आये-जाये कभी
खुशबू उसकी और उसके पैरहन
सपनों से नींद में आता जाता रहा।
इक …
रंग उसका और उसकी आवाज क्या
लाऊं आखर में मैं उसके अंदाज क्या
रू-ब-रू उसके आंख खुलती नहीं
भोर तक उस पे नजरें टिकाता रहा।
इक …
पलकों पे शबनम की बूंदें हैं अब
और रंगत फलक की श्वेताभ है
सूर्य आएगा इनको भी ले जाएगा
मानी क्या मैं रोता या गाता रहा।
इक …
{1998- फैज के लिए }
जैविक ख़तरा
लैंपपोस्ट के ऊपर के अंधकार में
कीटों पर
झपाटे मार रहे हैं चमगादड
और पोल से लगे तार पर बैठा उल्लू
लपकने की तैयारी में है उन्हें
लैंपपोस्ट को छूती रोशनी
जहां छू रही है अंधेरे की चादर
वही एक बिल्ली चिपकी पडी है
पोस्टर सी
ओर गाडियां गुजर रही हैं ऊपर से
शायद अपना ही रास्ता
काट गयी थी बिल्ली
और उसकी हड्डियों का मलबा
समतल हो गया था सडक की खांचों में
रोशनी के साथ
कीडे भी झार रहे हें सडक पर
हरे टिड्डे, झिंगुर और पतंगे
इनमें अाधिकांश का रास्ता
वाहन काट जा रहे हैं
वाहनों की मार से बचता-बचाता
एक अघोरी कुत्ता
छिपकली सा
चट कर जा रहा है यह जैविक कचरा।
1995
चील
गंगा किनारे
पम्प हाउस के डबरों के ऊपर लगी रेलिंग पर
बैठी हैं चीलें
कतार में
उनकी लंबी पूंछ खींचते
कौए
उनसे अपने हिस्से का भोजन मांग रहे हैं
इतनी निकट से पहली बार देखा चीलों को
पहले उनके बाज होने का शक उभरा
फिर उनकी जमात देख चिंतित हुआ
और सोचा अखबारी फोटोग्राफरों के लिए
अच्छा बाजार हैं ये
तभी एक चील उडी
और चली गयी दूर तक
गोता खाते
और वहीं चक्कर खाते थिर होने लगी
तब खुश हुआ
कि ये चीलें ही हैं
और यह विचार स्थिर हुआ कि
चीलों अौर बाजों की प्रजाति एक है
वैसी ही काउंस आंखें
और अकुंशाती चोंच
बस बडा कद ही है इनका
जो इनकी महत्ता घटा रहा है।
1996
महानगर में लड़कियाँ
दो लडकियां रिक्शे पर हैं
सिर पर पोनीटेल में
टंके हैं सफेद फूल
हल्का अंधेरा है और उन्हें निहारने में
बल पड रहा आंखों पर
लडकियों के दिखने का लहजा सुंदर है
पर रिबन के सफेद फूल
ज्यादा खिल रहे हैं
जा चुका है रिक्शा
सिर टंके फूलों की गंध याद कर रहा हूं
याद कर रहा हूं उनका चेहरा
कि महुए की तीखी गंध डुबो लेती है अपने में
महानगर में अब भी तीखा है महुआ
अब भी सुंदर हैं लडकियां यहां ।
1995
पहाड़ सो रहे हैं
संध्या हो चुकी है
चांद से झड रही है धूल … रोशनी की
और पहाड … सो रहे हैं
सो रही है चिडिया रोशनदान में
ऐसे में बस हरसिंगार जाग रहा है
और बिछा रहा है फूल धरती पर
और सपने जग रहे हैं
छोटी लडकी की आंखों में
स्कूल पोशाक में
मार्च कर रही है वह पूरब की ओर
जिधर सो रहे हैं पहाड … अंधियाले के
जहां अब उग रहा है भोर का तारा
जिसके पीछे पीछे
आ रही है सवारी सूर्य की
रश्मियों की रागिनी बजाती हुई ।
1994
पीछ-पीछे चांद
कनारों के रेतीले विस्तार से उभर रही है शाम
और चांद ऊपर है
बहती धारा में परछाई है उसकी उससे भी चमकीली
जिसे बहा नहीं पा रही है धा … र अंधेरा
इतना नहीं है अभी कि चांदनी का आभास
साफ हो
सांझ का धुधलका लौटा दे रहा है
चांदनी को ऊपर
शाम के साथ थिरा रही है हवा
और नदी अपनी सतह के नीचे बहने लगी है
स्टील की थाली सा चांद चिपका है सतह से
फिर गहराता है अंधेरा और चांदनी
उतरने लगती है …
उसके साथ मैं भी उतरता हूं
निर्जनता में नदी की
पहला पांव और छप्प … छप्प
जैसे नदी के वस्त्र खींचे हों मैंने
और गुदगुदाकर हल्के छलकी हो नदी
अपनी सतह के ऊपर
इसी तरह उतरता जाता हूं मैं
कमर कंधे तक गले तक
अपनी निरंतरता में नदी
मुझे नंगा कर रही है पर रोमांच नहीं है
मानो एक अ ह र नि श गोद हो
जरा सा सिर नीचे कर पानी में ठुड्डी को डुबाता
कुल्ला भरता हूं फिर फेंकता हूं स्थिर चांद पर
चूर चूर हो जाता है वह बिखर जाता है
फिर उसकी सारी छवियां एकमएक हो जाती हैं
तब मैं मारता हूं चांटा सतह पर
अब हजार टुकडे हो जाते हैं चोद के
मैं ऐसा करता जाता हूं फिर तैरता हूं आगे
तो पीछे पीछे चांद चलता आता है।
1998
बारिश
पहले बड़ी-बड़ी छितराती बूंदें गिरीं
और सघन होती गयीं
सामने मैदान में चरती गाय ने
एक बार सिर ऊपर उठाया
फिर चरने लगी
और बछड़ा
बूंदों की दिशा में सिर घुमा
ढाही-सा मारने लगा
और हारकर
आख़िर
गाय से सटकर खड़ा हो गया
एक कुत्ता
पूँछ थोड़ी सीधी किए
करीब-करीब भागा जा रहा है
जैसे बूंदें
उसका जामा भिगो रही हों
बूंदें गिर रही हैं एक तार
पहले
गाय की पीठ भीगकर
चितकाबर हो जाती है
फिर टघरकर पानी
कई लकीरों में
नीचे चूने लगता है
और नक्शा बनने लगता है कई मुल्कों का
लकीरें बढती जाती हैं
और एकमएक होती जाती हैं
नीचे गाय के पेट की ओर
थोड़ी जगह सूखी है
जैसे बकरे की खाल चिपकी हो
अंत में करीब-करीब वह भी
मिटने लगती है
बूंदें एकतार गिर रही हैं
अब कभी-कभी गाय को
अपनी देह फटकारनी पड़ती है
सिर को झिंझोड़ पानी झाड़ना होता है
पर उसका चब्बर-चब्बर चरना जारी रहता है
बूंदें गिर रही हैं एक तार
दो घरेलू और एक पहाड़ी मैना
पोल से सटे तार पर भीग रही हैं
तार की निचली सतह पर
बूंदें दौड़ लगा रही हैं
एक बूंद बनती है
और ढलान की ओर भागती है
और वह दूसरी बूंद से टकरा जाती है
फिर तीसरी बूंद नीचे आ जाती है
बची बूंद दौड़ती है आगे की ओर
यह चलता रहता है
बूंदें गिर रही हैं एकतार
नगर का नया बसता हिस्सा है यह
भूभाग खाली हैं अधिकतर
एक-आध मकान बन रहे हैं
काफी पानी गिरने पर काम बंद हो जाएगा
इसलिए शुरूआती बारिश में काम तेज़ है
सिरों पर बोरियाँ डाले मज़दूर भाग रहे हैं
छाता लिए ठीकेदार ढलाई ढकवा रहा है
नीचे घास मिट्टी की सड़क पर
मारूति में बैठा मालिक
टुकुर-टुकुर ताक रहा है
कभी शीशा जरा-सा खिसका कर
कुछ चिल्लाता है वह …
तो मज़दूर धड़फड़ाने लगते हैं
पर आख़िरकार बारिश
उसका शीशा बंद करा देती है
और मजूर हथेलियों से
पसीना मिला पानी पोंछते
भागते रहते हैं
बारिश टिक गयी है
सीमेंट बहने लगा है
कम पड़ गया है पालीथीन
ठीकेदार काम रूकवा देता है
मजूर सुस्ताते हुए
आकाश ताकने लगते हैं
डर है कि बारिश
दोपहर बाद का काम
बंद ना करा दे
बूंदें गिरनी जारी हैं
थोड़ी दूर आगे छत पर
अधबने मकान की
बिना चौखट की खिड़की पर
ननद-भौजाई आ बैठी हैं
लगता है खाना बना चुकी हैं वो
और नहाकर ऊपर आई हैं
ननद ने गुलाबी मैक्सी पहन रखी है
और भौजाई भी गुलाबी साड़ी में है
एक-दूसरे पर दोहरी होती
केशों में कंघी कर रही हैं वे
अचानक वे उठकर
सीढियों को भागती हैं
किसी को भूख लग आई होगी
बूंदें गिर रही हैं
जैसे पूरे दृश्य को
किसी ने तीरों से बींध डाला हो
पूरा दृश्य फ्रीज है
बस, चींटियाँ भाग रही हैं
अपना ठिकाना बदल रही हैं वो पंक्ति में
बीच में रानी चीटीं है
पीछे से मोटी-सी
छोटे पंखों वाली कुछ चींटियों ने
अंडे उठा रखे हैं
बीच में कभी कोई कीड़ा आ जाता है
तो पंक्ति टूटती है
और उसे भी साथ लेकर
चल पड़ती हैं वे
फिर
वही पंक्ति
इस कोने से उस कोने
इस जहान से उस जहान।
(रचनाकाल : 1998)
आकाशगंगाओं के पार
अन्तरिक्ष की पतंग
जब डूब रही है पश्चिम में
सैकड़ों पतंगें
उड़ने लगी हैं
पटपड़गंज के आकाश में
बहुमंजिली सोसाइटियों से घिरे
इस निम्न-मध्यवर्गीय इलाके में
जैसे उत्सव है आजकल पतंगों का
इस समय
जब सोसाटियों के बच्चे
जूझ रहे होंगे
टी.वी., कम्प्यूटर से
ये उड़ा रहे हैं पतंगें
ऊँची उड़ रही हैं पतंगें
तमाम सोसाइटियों से ऊँची
मन्दिरों-मस्जिदों-गुरुद्वारों से ऊँची
राधू पैलेस से भी ऊँची
पतंगों की डोर खींचते बच्चे
ख़ुशी और उत्साह से भरे
चीख़ रहे हैं
चिल्ला रहे हैं
अजानों व कीर्तनों स्वरों को मात देते
अपनी-अपनी छतों से
अपने भाई-बन्धुओं-बहनों-प्रेमिकाओं के साथ
कभी-कभी
कोई पतंग कटती है
तो उठता है शोर
तमाम छतों से
और गूँजता खो जाता है कहीं
आकाशगंगाओं के पार
फिर,
अपने नीड़ों की ओर लौटते
तेजी से डैने मारते
पखेरूओं के साथ
उतरने लगती हैं
पतंगें भी
नीचे।
राजनीतिज्ञ
विचलन तो दूर की बात है
डर की एक लौ भी नहीं छूती उन्हें
उन्होंने पढ़ रखी है गीता
वे मार सकते हैं स्वजनों को
वे जानते हैं तुम्हें
कि तुम लाचार हो कितने कि विनम्र हो
जो अक्सर हास्य
रीझे तो व्यंग्य कर सकते हो।
एनकाउंटर
आज फिर दुख की तसवीर देखी मैंने
एक माँ और दो बच्चे थे उसमें
एक बच्चे के हाथ में फोटू थी
एनकाउंटर हुए पिता की
यह तस्वीर स्थानीय पुलिस की बनाई थी
पुलिस तस्वीरें बना रही है
कितना क-ला-त्म-क ख़याल है यह
यूँ…पुलिस को ऐसा बनाया किसने
तस्वीर में माँ की आँखें
तलाश रही हैं आकाश
पर आकाश की तस्वीर
आ नहीं पाई है फ्रे़म में
वह माँ की आँखों में है
इस दुख को
अरेंज किया होगा फ़ोटोग्राफ़र ने
काश… वह अरेंज कर पात
सूना आकाश भी… तो
ज़्यादा कीमत मिलती उसे
तस्वीर के एक बच्चे की आँखें भी
आकाश तलाश रही हैं
पर उसका एंगेल दूसरा है
फोटू संभालते दूसरे बच्चे की आँखें
ऐसी हैं… जैसे वह
कक्षा में खड़ा अपनी स्लेट दिखा रहा हो
उस पर जो लिखा है
उसे कौन पढ़ेगा…
फोटू में पिता की
कॉलेज लाईफ़ की तस्वीर है
जिसमें भौंचक है वह
तस्वीर की स्त्री
चौखट के भीतर की तरफ़
टिककर बैठी है
एक लड़का बाहर सीढ़ियों पर है
दूसरा भीतर माँ के कुछ पीछे
चौखट पर नीचे किया गया पीला पेंट
और उस पर बने लाल फूल
ज़ाहिर कर रहे हैं
कि तस्वीर आन्ध्र प्रदेश की है
स्त्री ने लाल साड़ी लपेट रखी है
मृतक की कमीज़ सफ़ेद है
एनकाउंटर तो नक्सली भी करते हैं
पुलिस वालों का
उनके घरों से भी
ऐसी तस्वीरें निकल जाएंगी
अन्त में ये तस्वीरें ही बचती हैं
बन्दूक की नली से बनाई गई तस्वीरें
ऐसी ही होती हैं
पूरी नहीं बनतीं वें
क्योंकि एक आँख से
बनाई जाती हैं वे
और एक आँख से
पूरा आकाश नहीं दिखता
उससे बस उड़ती चिड़िया दिखती है।
हथियार
पड़ा रहने दो उन्हें
अंधेरे कोनों में
तुम्हारी स्याह होती दुनिया में
जब भी
संशय की कोई आँख उगेगी
हाथों में ढाढ़स की तरह आएगा वह
हाथ में लेते हुए
उसे नहीं
खुद को तोलोगे तुम
जितनी कड़ी होगी
संशय की भाषा
उतनी ही ज़ोर से बोलोगे।
हत्यारा
शहर और कस्बे की
मुठभेड़ कराती
उस सड़क के आस-पास
जिधर
पड़ता था
आम और बेर का जंगल
इलाका था उसका
जिधर
घूमा करता था वह
कमरबन्द में चाकू
और पगड़ी में मुँह छुपाए
जहाँ कभी घूमा करते थे सियार
भुट्टों की खेती के आस-पास
भेड़ों के झुंड में
गड़ेरिए के साथ
उन्हीं की-सी सूरत निकाले
छिपा फिरता था वह
जितना ही गहराता था अंधेरा
उभरता था उसका चेहरा उतना ही
और
भूले-भटके बटोही की
घिग्घी बंध जाती थी
यह सब बीते दिनों की बातें हैं
याद करते हैं लोग
उस वक़्त होते थे हत्यारे
फिर भी लोग साहसी होते थे
अब तो
रिवाज ही बदल गया है
जगह-जगह लगा दी गई हैं आरियाँ
अनवरत चलती रेतियाँ
और लोग
जमात की जमात गरदनें लिए
चले आ रहे हैं
अब हत्यारे
खोते जा रहे हैं अपना चेहरा
अपनी क्रूरता
विज्ञान की चकाचौंध ने
सबसे ज्यादा लूटा है
उनके हिस्से का अन्धकार
आज एक मिटती प्रजाति हैं वे
भयानक पर निरीह
अभयारण्यों में जगह और
इतिहास में शरण
की मांग करते हुए
पूछते हुए कि क्या
उनके इतिहास में ज्यादा ख़ून है
कि हमारे आदिकवि तुम्हारे नहीं
अंगुलिमाल होते हुए भी
हमने पहचाना बुद्ध को
गांधी को पहचान सके तुम
और तो और
लुटेरे गजनी को भी
लूटा था हमने
क्योंकि
हम तो थे ही हत्यारे, लुटेरे, बटमार।
मुझे जीवन ऐसा ही चाहिए था
यह लिखते
कितनी शर्म आएगी
कि मैंने
कष्ट सहे हैं
मुझे जीवन
ऐसा ही चाहिए था
अपने मुताबिक़
अपनी गलतियों से
सज़ा-धजा।
उड़ान हूं मैं
चीजों को सरलीकृत मत करो
अर्थ मत निकालो
हर बात के मानी नहीं होते
चीजें होती हैं
अपनी संपूर्णता में बोलती हुयी
हर बार
उनका कोई अर्थ नहीं होता
अपनी अनंत रश्मि बिंदुओं से बोलती
जैसे होती हैं सुबहें
जैसे फैलती है तुम्हारी निगाह
छोर-अछोर को समेटती हुई
जीवन बढता है हमेशा
तमाम तय अर्थों को व्यर्थ करता हुआ
एक नये आकाश की ओर
हो सके, तो तुम भी उसका हिस्सा बनो
तनो मत बात-बेबात
बल्कि खोलो खुद को
अंधकार के गर्भगृह से
जैसे खुलती हैं सुबहें
एक चुप के साथ
जिसे गुंजान में बदलती
भागती है चिडि़या
अनंत की ओर
और लौटकर टिक जाती है
किसी डाल पर
फिर फिर
उड जाने के लिये
नहीं
तुम्हारी डाल नहीं हूं मैं
उडान हूं मैं
फिर
फिर।
प्यार
प्यार
एक अमृत बूंद
जो समुद्र होना जानती है
और जब
हो जाती है समुद्र
डुबो देती है
सब कुछ।
यूं तो
यूं तो
चाँद है
सितारे हैं
पर
यादों से
सब
हारे हैं ।
तुम्हारी ट्रेन चली जा रही है
देखो ना मित्र
तुम्हारी ट्रेन चली जा रही है
कोइलवर पुल पर
छुक छुक करती
और एक लडका
दूर इधर नदी के पार
हाथ हिला रहा है तुम्हें
दूर से तुम्हें वह लाल झंडे सा दिख रहा होगा
और तुम चिढ रही होगी
कि तुम्हारा यह प्यारा रंग उसने क्यों हथिया लिया है
पर उसने हथियाया नहीं है यह रंग
यही उसका असली रंग है
इस व्यवस्था की शर्म में डूबकर
लाल हुआ हाथ है वह
और इस पूरे शर्मनाक दृश्य को
अपने क्षोभ से भिंगोता हुआ
वह रक्तिम हाथ हिला जा रहा है
इधर तट पर नावें हैं
किनारे से लगी हुयी
इन्हें कहीं जाना भी है पता नहीं
पर तुम्हारी यह ट्रेन
तो चली जा रही है
ये रक्तिम हाथ
उसे रोकने को नहीं उठे हैं
वे बस हिल रहे हैं
इस खुशी में कि
तुमने इन हाथों का दर्द समझा
और शर्म से लाल तो हुयी
फिर फिराक को तो
पढा ही है तुमने
‘हुआ है कौन किसी का उम्र भर फिर भी…’।
अपने कवि होने की बुनियाद
चुप किया जाना
एक सजा है तुम्हारी खातिर
जबान और हाथों को जब
रोक दिया जाता है
शालीन अश्लीलता से
तो असंतोष की किरणें
फूटने लगती हैं
तुम्हारी निगाहों से
और कई बार
उसकी मार तुम
अपने भीतर मोड देती हो
तब
तुम्हारे मुकाबिल होना
एक सजा हो जाता है
मेरे लिये
एक सजा
जिसे पाना
अपनी खुशकिस्मती समझता हूं मैं
मेरी कुटुबुटु
कि हमारा रिश्ता ही दर्द का है
जिसकी टीस को
जब संभाल लेती है मेरी कविता
तब कविता का महान व्योपार
कर पाती है वह
तब देख पाता हूं
जान पाता हूं मैं
अपने कवि होने की बुनियाद।
उदासी के साथ अकेले
अकेले
उदासी के साथ रहना
एक तरह की आश्वस्ति देता है
कि इस अकेलेपन को
हम खत्म कर सकते हैं
कभी भी
उस डर के मुकाबिल
कि
किसी के साथ रहकर भी
जो
अकेले रह गए
तो।
उदासी
ठिठोली करती
स्मृतियों के मध्य
कहॉं रखूं
तुम्हारी उदासी का
यह धारदार हीरा।
1997
ज़िन्दगी का तर्जुमा
कभी-कभार होता है
कि ज़िंदगी का तर्जुमा
उदासी में कर दूं
उदासी
जो मेरे लिए
खुशी के बेशुमार
थकते घोड़ों की टापों से
उड़ती हुई धूल है
गोधूलि में उतरती हुई जो
बैठती जाती है
जिसकी रौ में
दिशाएं डूबने लगती हैं
और सांझ का निकलता पहला तारा
जलना छोड़ टिमटिमाने लगता है
और चांद का कतरा
जिसे थोड़ी सफेदी लिए होना चाहिए
थोड़ा धूमैला होता जाता है
हां, जिंदगी
तुम्हारी ही बाबत सोच रहा हूं मैं
तुम जो चारों सिम्त फैली हुई हो
तुम
जिसके लिए
कोई दरो-दीवार नहीं है
तुम
मेरे इस छोटे से कमरे में भी
वैसी ही गतिशील हो
जैसे बाहर अंतरिक्ष में
ज़िंदगी
तुम्हारे इस कमरे में ही
किस तरहा पिन्हा हैं
तुम्हारी छोटी-छोटी जिदें
वहां
सबसे ऊपर उस कोने में
किस तरह धूल व मकिड़यों के बीच
टिके हुए हैं विवेकानंद
उनके हाथ सामने बंधे हैं
पर उनकी आंखें कैसी अभयदान देती-सी
चमक रही हैं
रात्री का चौथा पहर है
और कटे तरबूज सा चांद अभी
सुबह के तारे के पास
पहुंचने की जिद में
रंगहीन-निस्तेज हो रहा होगा
उस कमरे में दीवान, पर मेरी बीवी
दो बेटों के साथ सो रही है
और सामने दीवार पर
एक जोड़ी आंखें
लगातार मुस्करा रही हैं
और मुझे लगता है
कि इन दो टिमटिमाती आंखों की रोशनी में
तीनों जने
चैन की नींद सो रहे हैं
संभव है
पूरे दिन
मेरी बीवी
उस चेहरे और उसकी
आंखों की चमक से
लड़ती हो
और शाम थककर सोती हो
तो गहरी आती हो नींद
आखिर यह नींद ही तो उसे एक दिन
उस कमरे से मुक्त कराएगी
मेरे लिए तो
वो चेहरा मेरा ही चेहरा है
उसकी आंखें मेरी ही आंखें हैं
जिनका सो रहे मेरे बच्चों के लिए
कोई मानी नहीं
क्योंकि उनकी खुद की एक-एक जोड़ी
चमकती आंखें हैं
क्या ज़िंदगी
एक ब्लैक स्पेश है
जिसमें अंधेरे का क्लोरोफिल
कांपता रहता है
जहां सभी ग्रह-उपग्रह तारे
टिमटिमाते रहते हैं
अपनी लगातार छीजती रौशनी के साथ
जिसे सोखता अंधेरा
पुष्ट होता रहता है
और एक दिन फूटता है
नई-नई ज्वालामुखियों ग्रहों-उपग्रहों
तारों के साथ
गर पांवों से पूछूं मैं
तो बताए वह
कि ज़िंदगी उसके नीचे की जमीन है
जिसे वे कुरेदते रहना चाहते हैं
और फिर
उड़ा देना चाहते हैं ठोकरों में
सामने फैले परिदृश्य पर
और सर तो बस
झुकते चले जाना चाहेंगे
बेइंतहा मुहब्बत में
ज़िंदगी
तुम्हारी धूप
इतनी तंज क्यों हो जाती है कभी-कभी
और तुम्हारे ये चांद-तारे भी
इतने उदास हो जाते हैं
तब मुझे नहीं सूझता कुछ
तो चला जाता हूं नींद की आगोश में
ओह
नींद
थक कर
गुड़-मुड़ा कर सो जाना
एक किनारे कोने में
फिर सपनों में देखना
धूप को चांदनी में
और चांदनी को
पहाड़ में बदलते
मुफलिसी के इन दिनों में
जबकि मेरे पैरहन
पैबन्दों के मुहताज हो रहे हैं
ज़िंदगी
तुम उतनी ही प्यारी हो
जितनी कभी भी थी मेरे लिए
नहीं, कोई सवाल नहीं है ज़िंदगी
किसी को जवाब देना भी नहीं है
एक दौर है लंबा
और मुझे चले चलना है
और तू तो बस होगी ही साथ
उधर देखो ज़िंदगी
कोई तुमसे ऐसे बेजार क्यों है ?
तुम्हारी चांदनी इतनी चित्तचोर क्यों है ?
क्यों तम्हारी रातों में कुत्ते भूंकते हैं इतने
ज़िंदगी
तुम्हारी एक सिम्त
खाली क्यों है ?
या
वह
किसी के होने से खाली है
कि ख्याली है
कभी तो लगता है
कि हर एक सै
कहीं से टूटकर ही अस्तित्व में आती है
जैसे-सूर्य से पृथ्वी और उससे चांद
अपने काल का
अतिक्रमण किए बगैर
हम हो ही कैसे सकते हैं ज़िंदगी
सब
जैसे एक चुप्पी से निकलते हैं बाहर
अपना-अपना राग लिए हुए
सारे छन्द
बहराते हैं किसी सन्नाटे से
और ज़िंदगी राम तो
राग तो
हमारे ही संचित स्पंदनों का
मधुकोष है जैसे
जिन्हें हम अपने
सुन्दर-उदास दिनों में
चाटते हैं
बजाते हैं।
दिल्ली में सुबह
सीढि़यों से
गलियों में
उतरा ही था
कि हवा ने गलबहियाँ देते
कहा – इधर नहीं उधर
फिर कई मोड़ मुड़ता सड़क पर आया
तो बाएँ बाजू ख्ड़ी प्रागैतिहासिक इमारत ने
अपना बड़ा सा मुँह खोल कहा– हलो
मैंने भी हाथ हिलाया और आगे बढ़ गया फुटपाथ पर-
दाएँ सड़क पर गाडि़याँ थीं इक्का-दुक्का
सुबह की सैर में शामिल सर्र- सर्र गुज़रतीं
फ्लाईओवर के पास पहुँचा तो दिखा सूरज
लाल तलमलाता सा पुल चढ़ता
मैंने उससे पहले ही कह दिया– हलो…
आगे पुल के नीचे के सबसे हवादार इलाके में
सो रहे थे मजूर अपने कुनबे के साथ
उनके साथ थे कुत्ते
सिग्नलों के हिसाब से
दौड़-दौड़ सड़कें पार करते
वे भूँक रहे थे– आ ज़ा दी
ट्रैफिक पार कर फुटपाथ पर पहुँचा
तो मिले एक वृद्ध
डंडे के सहारे निकले सैर पर
मैंने कहा– हलो , उन्होंने जोड़ा
हाँ-हाँ चलो
हवाएँ तो संग हैं ही … अभी आता हूँ
तभी दो कुत्ते दिखे … पट्टेदार … सैर पर निकले
उन्हें देखते ही आगे-आगे भागती हवा
दुबक गई मेरे पीछे
खैर कुत्तों ने सूंघ-सांघ कर छोड़ा हवा को
अब मैं भी लपका
लो आ गया पार्क
और जिम – खट खट खटाक
लौहदंड – डंबल भाँजते युवक
ओह-कितनी भीड़ है इधर
हवाओं ने इशारा किया- चलो उधर
उस कोने वाली बेंच पर
उधर मैं भी भाग सकूंगी बे लगाम
मैंने कहा – अच्छा …
अब लोग थे ढेरों आते-जाते
कामचोरी की चरबियाँ काटते
आपनी-अपनी तोंदों के
इनकिलाब से परेशान
आफ़िस जाकर आठ घंटे
ठस्स कुर्सियों में धँसे रहने की
क्षमता जुटाते
और किशोरियां थीं
अपने नवोदित वक्षों के कंपनों को
उत्सुक निगाहों से चुरातीं-टहलतीं
और बच्चे ढलान पर फिसलते बार-बार
और पाँत में चादर पर विराजमान
स्त्री-पुरूष
योगा-श्वास प्रश्वास और वृथा हँसी का उद्योग करते
इस आमद-रफ़्त से
सूरज थोड़ा परेशान हुआ
हवा कुछ गर्मायी और हाँफने लगी
सबसे पहले महिलाएँ गईं बेडौल
फिर बूढ़े, फिर किशोरियाँ के पीछे
कुत्ता चराते लड़के गए
अब उठी वह युवती
पर उससे पहले उसके वक्ष उठे
और उनकी अग्रगामिता से परेशान
अपनी बाँहों को आकाश में तान
उसने एक झटका दिया उन्हें
फिर चल निकली
उससे दूरी बनाता उठा युवक भी
हौले-हौले
सबसे अंत में खेलते बच्चे चले
और हवा हो गए
अब उतर आईं गिलहरियाँ
अशोक वृक्ष से नीचे
मैंनाएँ भी उतरीं इधर-उधर से
पाइप से बहते पानी से ढीली हुई मिट्टी को
खोद-खोद
निकालने लगे काग-कौए
कीड़ों और चेरों को
अब चलने का वक़्त हो चुका है
सोचा मैंने और उठा – सड़क पर भागा
वहाँ हरसिंगार और अमलतास की
ताज़ी कलियाँ बिखरी थीं
जिन्हें बुहारने को तत्पर सफ़ाई कर्मी
अपने झाड़ओं को तौलता
अपनी कमर ऐंठ रहा था
इधर नीम पर बन आये थे
सफ़ेद बेल-बूटे
और टिकोड़े आम के बेशुमार
फिर पीपल ने अपने हरेपन से
कचकचाकर हल्का शोर-सा किया
हवा के साथ मिल कर
तभी
मोबाइल बजा-
किसी की सुबह हुई थी कहीं …
हलो … हाँ … हाँ … हाँ
आप तैयार हों
मैं पहुँच रहा हूँ …।
हमें उस पर विश्वास है
जैसे सूरज मिलता है
अपनी किरणों के द्वारा
अंधकार में डूबी धरती से
उसके कण-कण को आलोकित करता
मिलते हैं हम भी
अपनी उजास से सींचते
एक-दूजे का वजूद
संध्याकाल
हवा की शांत स्निग्धता में डूबी
जैसे बहती है नदी
अपने ही भीतर
बहते हैं हम
एक-दूसरे के भीतर
बीच में स्फुट से उठते हैं शब्द
बुलबुलों से
पर नि:शब्दता
ज्यादा बजती है
शिराओं में हमारी
बातों के वहां
कोई खास मानी नहीं होते
वे बस खुशी की लहरों को
सहारा देने के लिए
एक माध्यम बनाते हैं
नहीं
कहीं कोई रोमांच नहीं होता
स्निग्धता की एक लहर में उतराते
उससे बहराना नहीं चाहते हम
फिर समय आता है हमारे मध्य
अपनी तेज घंटियां बजाता
जिसे अनसुना करते
सुनते हैं हम
और रफ्ता-रफ्ता
छूटते जाते हैं
आपने आप से ही
हम क्या चाहते हैं
हमें पता नहीं होता
हमारी हथेलियां उलझती हैं
सुलझती हैं
और एक झटके से भागते हैं हम
विपरीत दिशा में
एक-दूसरे के पास आते हुए
जाते हुए
यहां ना दूरी है ना मजबूरी है
जैसे धरती आकाश हैं
दूर हैं कि पास हैं
कि यह जो सहजता है , सरलता है
स्निग्धता है उजास है
सतरंगी रसाभास है
हमें उस पर विश्वास है …