गर्मी के दिनों में
गर्मी के दिनों में
जंगल के बीचों बीच
सुनसान सड़क पर
एक विशाल पेड़ के पास ठहर कर
सुना
ज़ोरों से गूँजते
झीने संगीत को
मैंने मुग्ध भाव से कहा —
पेड़ पर बैठे झींगुरों का कोरस है यह
पत्नी बोली —
हरेक पेड़ की अपनी अलग आवाज़ होती है
चौदह बरस की बेटी ने कहा —
ऐसी कहीं कोई आवाज़ नहीं होती
मैं मुस्कुराया
कि चौदह की उमर में
अभी बेटी के कानों में
अनगिनत दूसरी आवाज़ें
गूँजती हैं
अभी जंगल की आवाज़
सुनने के लिए ज़रूरी
अवकाश नहीं है
उसके भीतर ।
जंगल के पेड़
किसी जंगल के
लगभग सभी बड़े वृक्ष
आकार, प्रकार, वजन, उम्र और अनुभव में
हमारे अग्रज ही ठहरते हैं
हम जब प्रवेश करते हैं जंगल में
बुजुर्गों की तरह देखते रहते हैं
हमें पास आते
और हम भी
गुज़रते हुए जंगल के बीच से
जैसे किसी जादू के ज़ोर से
ख़ामोश हो जाते हैं
इन बुजुर्गों की बात
ध्यान से सुनने के लिए ।
पेड़ आहिस्ता-आहिस्ता करते हैं बातें
सभी पेड़
आहिस्ता आहिस्ता करते हैं बातें
हवा के झोंकों के साथ
पत्तियों की में सर-सर में
बारिश से भीगने पर
फूलों से लदकर
नहीं हो किसी बरस बारिश
लकड़हारे के पास आने पर
छुए कोई पत्तियाँ दुलार से
फलों के बोझ से झुककर
पतझड़ चुरा ले वसन
या बहार पहना दे नए वस्त्र
उनके जीवन की
हरेक खास घटना के बारे में
हमसे अनूठी भाषा में
सम्वाद करते हैं पेड़
झांई
उन दिनों
बर्तनों पर कलई करने वाला आता था
रखे सायकिल के कैरियर पर
हवा फूँकने की हाथ की मशीन
झोले में कुछ कोयला और रसायन
आवाज़ लगाता था -‘कलई वाला’
पुकार ठंडी बयार की तरह
घुसती थी घरों में
पक्षियों की तरह बाहर
निकल आते थे बच्चे
कलई वाले के चारों ओर
मँडराते थे
गृहणियाँ ख़ुश हो जाती थीं
लेकर बदरंग बर्तन
घरों से बाहर निकल आतीं थीं
फिर शुरू होती थी
कलई वाले की कीमियागिरी
पीतल के बदरंग मटमैले बर्तन
रूई घुमाते ही चमचमा जाते थे
बर्तनों की चमक से ज्यादा
चमक जातीं थीं
कलई वाले की आँखें
चमकीले बर्तनों की मालकिनें
ख़ुश होतीं थीं
बदरंग को चमकीला बनाने वाले
आदमी के पास़ होने से
बच्चों के मन भी चमकते थे
इन दिनों
किसी को कलई कराने की
ज़रूरत महसूस नहीं होती
बर्तनों को चमकाने का काम
बंद कर दिया है
बदरंग को चमकाने वाले आदमी को
अब बच्चे नहीं पहचानते
कलई वाले की आँखों में अब
चमक नहीं
बदरंग बर्तनों की
झाँई तैरती है।
सफ़ेद झंडा
वह साधारण-सा
आदमी
सुबह से
सफेद झंडा
उठाए रखता है
सुबह पानी नहीं आता
बिना नहाए चला जाता है ऑफिस
चुपचाप पी जाता है
अफ़सर की डाँट
सिटी बस में कंडक्टर
कहता है- आगे खिसको
चुपचाप खिसक जाता है
पत्नी के ताने
सुनकर करता है
अनसुने
बच्चे जब माँगते हैं
नया खिलौना
नए कपड़े
तो दिला नहीं सकता
इसलिये नहीं दिलाता
पर इस मज़बूरी पर
भावुक नहीं होता
वही साधारण-सा आदमी
जो सुबह से
सफेद झंडा उठा रखता है
वही तो सबसे ज़्यादा
लड़ता है।
कचरा बीननेवाला लड़का
कोई ऋतु मौजूद नहीं होती
अपने ख़ालिस रूप में
उस लड़के के पास
जो बीनता है कचरा
अपने छोटे हाथों से
सचमुच कोई ऋतु नहीं
न सुहानी बारिश
न हाड़ कँपाती ठंड
न आग बरसाती लू
बारिश का एक ही मतलब होता है
कीमती कचरे का पानी से
ख़राब हो जाना
गर्मी का भी एक मतलब
बहुत से कचरे का हो जाना
आग के हवाले
सर्दी का मतलब इकट्ठा किए
कचरे को ख़ुद करना
आग के हवाले
उसके सपने में भी कोई
मौसम नहीं आता
बारिश का पानी,
काग़ज़ की कश्ती भी नहीं
रंगीन स्वेटर, गर्म बोर्नविटा नहीं
कोई पहाड़ या झरना नहीं
कार्टून फिल्म या हैरी पॉटर भी नहीं
आता है अक्सर एक कचरे का पहाड़ ही
जिस पर वह
इस तरह ओंधा लेटा रहता है
कि कचरे और लड़के के बीच
फ़र्क़ करना मुश्किल होता है।
नया समाचार
बच्चा नन्हें हाथों से छूता है
सम्भावनाओं को
चारों ओर उम्मीद
फैल जाती है
बच्चा नन्हें होठों से पहली बार
कहता है
एक शब्द ‘माँ’
चारों ओर
माधुर्य बिखर जाता है
बच्चा संकोच से दबे स्वर में
कह देता है
पिता तुम कितने अच्छे हो
पिता को उत्साह छू लेता है
बच्चा अज्ञात और हमारे बीच
बन जाता है एक पुल
हम अमर होने लगते हैं
एक बच्चे के आगमन से अच्छा
कोई नया समाचार
आज तक नहीं सुना गया
इस पृथ्वी पर।
वे पुण्यात्मा
सब ठीक-ठाक चल रहा है
या कहें कि ठीक-ठाक से भी बेहतर
अभी कोई डायबिटीज नहीं है
गठिया से ग्रस्त लोग दयनीय हैं
गर्दन का दर्द भला होता क्या है?
बेटा बेटी स्वस्थ और कमाऊ
पत्नी वजनदार और होशियार
मकान दुकान सब चमकदार
कुल जमा यह कि वे रसूखदार
वैष्णो देवी की यात्रा पर अभी गए थे
अमरनाथ जाने का पक्का इरादा है
सत्यनारायण की कथा कराते ही रहते है
उन्हें पक्का विश्वास है
भगवान उन्हीं के साथ है
कभी कभी लगता है
भगवान उन्ही के लिये बना है
वे कामनाओं की लंबी फेहरिस्त हैं
ईश्वर उनका करामाती जिन्न
किसी से नाराज़ होने पर कहते हैं
“मेरा भगवान सब देखता है”
इसमें अपरोक्ष धमकी है
जैसी पुलिसवाले का रिश्तेदार दुश्मनों को
देता है
किसी की भूख उन्हें द्रवित नहीं करती
सर्दी में किसी को नंगा बदन देख कहते हैं
“बडे़ ही सख़्त जान होते हैं ये लोग”
(रोटी माँगती प्रजा से फ़्रांस की रानी ने कहा था
केक क्यों नहीं खाते ?)
उन्हे लगता है
कोई गरीबी नहीं है सब मक्कारी है
कोई भलाई नहीं है
सब उन्हे लूटने की तरकीबे हैं
रहते हैं वे बड़े भवन में
जिसके एक कोने में भगवान भी रहता है ।
चीज़ें
अपनी दृष्टि से
ख़ुद के घर को देखने के
अपने ख़तरे थे
ख़तरों से नज़र बचा कर
हमने घर को
उनकी दृष्टि से देखा और
घर के हर कोने में एक
ज़रूरत को महसूसा
उनके दृष्टिकोण से
ज़रूरतें संतुष्ट करते-करते
हमने पाया, हम
अकेले और अकेले होते जा रहे हैं
अकेलापन मिटाने के लिये
हमने घर को चीज़ों और चीज़ों से भर लिया
हमारी ज़रूरतें, अकेलेपन और चीजों
के समानुपाती सम्बन्ध से
मजबूर होकर हमने
घर को अपनी दृष्टि से देखने की
कोशिश की, वहाँ
एक दूसरे की मौजूदगी से तटस्थ
चीज़ें और चीज़ें
मौजूद थीं ।
अक्स
उनकी दृष्टि में हज़ार हज़ार वाट की
रोशनी लगी है
वे देख रहे हैं हमें हजार आँखों से
उनकी सेन्सर तरंगें हमे महसूस रहीं हैं
तब भी जब हमें उनकी उपस्थिति
महसूस नहीं होती
हम अगर टी० वी० के सामने बैठे हैं
वे हमें सीधे देख रहे हैं
नहीं बैठे हैं वे हमें
उनकी योजनाओं में देख रहे हैं
हम अगर कुछ खरीदते हैं, तो वे
सतर्कता से हमें देख रहे हैं
नहीं खरीदते हैं
सम्भावनाएँ देख रहे हैं
उन्हें हमारी ज़रूरतों का भी अंदाज़ा है
वे हममें ज़रूरतमंद देख रहे हैं
उन्हें हमारे सपनों के बारे में मालूम है
वे चाहते हैं हम उनके बताए सपने देखें
हमारे प्रेम पर उनकी नज़र है
वे चाहते हैं, हम उनके तरीके से प्रेम करें
हमारी घृणा भी उनसे छुपी नहीं है
वे चाहते हैं हम युद्ध करें
हमारी देश-भक्ति एक सम्भावना है
वे चाहते हैं हम देश के नाम पर भावुक हों
अपनी सफलताओं के सारे जश्न
उनके बताए अनुसार मनाएँ
असफलताओं के जिम्मेदार हम खुद
हमारे बच्चे हों
उनके पास
उनकी ज़रूरतों का एक आईना है
उस आईने में हमारा अक्स है।
मुख्यधारा का आदमी
लेकर पूजा की थाली हाथ में
और श्रद्धा से लबालब मन
खंडित मूर्तियों के शहर में
भ्रमित फिरता हूँ
आश्चर्य और डर से बुदबुदाता हूँ
किसी को पूजने योग्य नहीं पाता हूँ
तभी कोई जुलूस सा दीखता है
गौर से देखा एक बारात है
जिसमें दूल्हे के ऊपर सवार है घोड़ा
बाराती जय-जयकार करते हैं
नाचते रूक-रूक कर
सारे नगर की रौशनी लाई गई है
इसी बारात में
जो न शामिल हो वह अन्धेरे में रहे
उठाए बोझ अपनी उम्मीदों का ख़ुद ही
सारे शहर के रास्ते रोकता जुलूस यह
बताया किसी ने कि उत्सव है
आम आदमी का
तभी एक अजीब सी शर्त बताई गई
जो नहीं होगा मुख्य-धारा मे़ं
असभ्य कहलायेगा
और उसके ठीक ठाक आदमी
होने पर भी शक़ किया जाएगा
आदमी होने का प्रमाणपत्र बहुत ज़रूरी था
इसलिये हर शर्त मान ली मैंने
मंज़ूर किया दिल की रोशनी को बुझा कर
उनकी रोशनी को सर पर रखना
अब जुलूस में सर पर
रोशनी का हंडा रखे, मैं भी चलता हूँ
करता जाता हूँ उजाला शाह-राहों पर
चलते-चलते यह ख्याल झपकता है
काश इस बोझ को उतार पाता
और जाता वहाँ कि जहाँ
ज़़ुबाँ पर टनों बोझ न हो सुविधाओं का
और दमकते हों
तमाम शब्द सच की रोशनी से
जहाँ काबिज न हों दिलो-दिमाग पर वे
जो आदमी होने का प्रमाण पत्र बाँटते हैं
नाटक को ज़िन्ददगी और
ज़िन्दगी को नाटक बताते हैं,
जबकि मालूम है यह उनको भी ख़ूब
ज़िन्दगी की एक ही चीज से पैमाइश हो
सकती है, सिर्फ ज़िन्दगी से
मैं अब एक घोषित सभ्य आदमी
रखता हूँ ध्यान कोई बागी न हो
खंडित मूर्तियों की पूजा होती रहे
और जो सवार हैं उन्हे तकलीफ़ न पहुँचे ।
रेस्तराँ में लड़की
रेस्तराँ में एक शाम
हम थे और
कोने की सीटों पर जमे वे!
वही, खुशी से दमकते
लड़का और लड़की
लड़की कुछ ज्यादा मुखर
बातों से और आँखों से
जिनसे झर-झर बह रही थी
जीवन की अजस्र सरिता
जिसकी बाढ़ में
आसपास की टेबिलों पर बैठे लोग
डूब उतरा रहे थे
छोड़ कर उन्हें
जो खडे़ थे
समस्याओं की किसी ठोस जमीन पर
कहीं पढ़ी अंग्रेज़ी की कहावत जीवंत थी
‘फीमेल आफ अ स्पसीज इज़ मोर डेडली देन मेल’
वे घिरे थे स्पष्ट-गोचर आभामंडल में
जो शाश्वत लगता था
यह विश्वास करना कठिन कि
कभी यह जोड़ा
दूसरे जोड़ों की तरह
उदासीन बैठ पाएगा
किसी रेस्तराँ में
पूरी शाम वह लड़की
बिखराती रही सपने उस रेस्तराँ में
और दो-एक बादल तो हमने भी
हौले से सहेज लिए
ताकि सनद रहे और
वक़्त ज़रूरत काम आए।
अदालत में औरत
सर्दियों की उदास शाम
काला कोट पहनना ही चाहती है
शाम के रंग में घुली-मिली औरत
सोचती है उसे अब
वापस लौट ही जाना चाहिए
उसके साथ घिसटती
पांच-छः बरस की बच्ची की
खरगोश जैसी आँखों में थिर
उदासी की परछाईयों के बीच
भूख ने डेरा जमा लिया है
वह चकित उस ग्रह को
जानने की कोशिश कर रही है
जहाँ भुगतना है उसे जीवन
औरत आखिरी बार बुदबुदाती है
क्या अब वह जाए ?
गांवनुमा कस्बे के कोर्ट का बाबू
उदासीन आँखों से
औरत को देखकर भी नहीं देखते हुए कहता है
कह तो दिया
जब खबर आएगी बता देंगे
कचहरी के परिसर में लगे
हरसिंगार के पेड़ों की छायाएं
लम्बी हो गयी हैं
इनपर संभलकर पैर रखते हुए
वह एक तरफ को चल देती हैं
कोर्ट के सामने
अब लगभग सुनसान सड़क के दूसरी ओर
झोपड़ीनुमा दुकान पर बैठा चायवाला
दुकान बढ़ने की सोच रहा है
औरत कुछ सोचती-सी वहां पहुंची
चाय लेकर सुड़कने लगी
बच्ची दुकान पर रखे
बिस्किट के लगभग खाली मर्तबानों को
ललचाई नज़रों से देख रही है
चायवाले ने पूछा
कुछ पता लगा ?
औरत ने उदासीन भाव से
नकारात्मक सर हिलाया
चायवाला मुझे शहरी ओर अजनबी
समझकर बताने लगा
इसके आदमी को चोरी के इल्जाम
में पकड़ा था
जमानतदार न होने से
कई महीनों से जेल में बंद है
रोज उसके छूटने की खबर
पूछने आती है
संवाद के दौरान
औरत चुपचाप खड़ी रही
उसने यह भी नहीं देखा
चायवाला किससे कह रहा है
चाय पीकर धोती की कोर से
पैसे निकाल चायवाले को दिए
थके क़दमों से एक ओर चल दी
बच्ची रोटी हुई पीछे भागी
साफ़ था औरत को मुझमें कोई
दिलचस्पी नहीं है
मैं भी अपनी किसी परेशानी के चलते
यहाँ आया हूँ
मुझे भी उसकी परेशानी में नहीं
उसके जवान औरत होने में ही
कुछ दिलचस्पी है
उसके जाने के बाद
उसे ख्यालों से झटकने के लिए
मैंने सर हिलाया
अदालत की पुरानी मोरचा खाई इमारत
अँधेरे की चादर ओढ़कर
लगभग
अदृश्य हो चुकी थी ।
मासूमियत
टेबल के इस पार बैठे पहले आदमी
की आँखों में एक ढीठ शरारत है
आप इसे चालाकी कह सकते हैं
टेबल के उस पार खड़े दूसरे आदमी की
आँखों में चालाक निरीहपन है
आप इसे कांयियापन कह सकते हैं
दूसरे को अपना कोई काम निकलवाना है
जो पहला कहता है नियमानुसार नहीं है
दोनों एक दूसरे को आँखों से तौलते हैं
जैसे डार्विन की सर्वाइकल ऑफ फिटेस्ट
थ्योरी का इम्तिहान हो
दोनों परस्पर आशंकित
हिंसक जानवरों की तरह पैंतरा तोल रहे हैं
तभी एक नौ-दस बरस का बच्चा
चाय लेकर आ गया
अचानक कुकर का प्रेसर रिलीज हो गया
भाप की चेतावनी बंद हो गई
दोनों की आँखों में मासूमियत आ गई
दो समझदार बच्चे बातें करने लगे
रात पाली
हर ओर क्षितिज कि सड़क
गाढ़े कोलतार से ढँक जाती है
चलना दुश्वार हो जाता है
सारे मतभेद अस्तित्व खो देते हैं
दिमाग गहरे नशे में डूब जाते हैं
तब आनेवाली सुबह कि सजावट के लिए
मैं काली रात में घर से निकलता हूँ
इन घंटों में मन में अजीब सा
चैन फैल जाता है
संसार अपनी सीमाएं सिकोड़ लेता है
और जितनी छोटी सीमाएं होती हैं
उतना ही गहरा सुकून
इसलिए काम के अलावा कोई धुन
परेशान नहीं कर पाती
सुबह के तीन और चार के बीच
नींद सहनशक्ति को चुनौती देती है
तब सड़कों का गोरखा चौकीदार भी
हार मान जाता है
लेकिन मैं हार नहीं मानता
खेलता हूँ पूरा दांव
अलसुबह सूरज नई सुबह लिए
घर लौटता है
मैं घर लौटता हूँ
बदन में शाम लिए
मेरी चेतना पर अँधेरा घिर आता है
सूरज कि रोशनी से सराबोर कोलाहल के बीच
जब मैं सो जाता हूँ
अक्सर रात कि सुहानी नींदों का ख्वाब
देखता हूँ।
क्रांतिकारियों से
बंधु, तुम हर समय
आक्रोशित क्यों रहना चाहते हो ?
दुखी रहना तुमने
फैशन कि तरह ओढ़ रखा है
जब तुम आक्रोश कि भाषा में बातें करते हो
तब दिखाई देती हैं बंदूकें
उगी हुई तुम्हारे दिमाग में
सुरंगे भी बिछा रखी हैं तुमने ह्रदय में
पलीतों के इंतज़ार में
तुम्हे खुद के सुखों के प्रति
निकट दृष्टिदोष हो गया है
हवाओं का गाना, फूलों का मुस्कुराना
तितलियों का इठलाना
कैसे गुज़र जाता है
तुम्हारी संवेदनाओं को छुए बग़ैर
बच्चों कि मुस्कराहट
कैसे बची रह जाती है
तुम्हारी दृष्टि में बसे बग़ैर
तुम्हें उनके दुखों के प्रति
दूरदृष्टि दोष हो गया है
उनके भय, उनके आतंक,
उनकी बीमारियाँ
कैसे छुपी रहती हैं
तुम्हारी क्रांति-दृष्टि से
तुम्हारे पास कुछ प्रतीक हैं
विरोध के लिए
लेकिन इन्ही प्रतीकों में
तुम्हारी क़ैद तुम्हें
दिखाई क्यों नहीं देती है ?
और बंधु यह क्रांति उसी आदमी के
रक्त से भीगना क्यों चाहती है
जिसके लिए
तुम उसे करना चाहते हो ?
बड़ी उम्मीद
कितनी हे बातें
जो मेरे नियंत्रण में नहीं हैं
हो जाती हैं नियंत्रित ढंग से
जैसे सूरज बिना आवाज़ अँधेरे को चीर कर
निकल आता है समय पर
तय समय पर बरसती है ओस
नहाकर खाना बनाने की तैयारी करती हैं पत्तियाँ
जाग जाते हैं पक्षी
गिलहरिया काम से लग जाती हैं
चहचहाना और चिंहुकना
सबको बता देता है
दुनिया अभी रहने लायक है
दूध वाला समय पर आ जाता है
चाय मिल जाती है अपने वक़्त
बदस्तूर आ जाता है अख़बार
ट्रेफ़िक और दफ़्तर की मशक्कतों के बीच
कुछ ऐसा हो ही जाता है
नई करवट लेती है उम्मीद
घर वापस लौटना
प्रिय स्त्री के पास
जो मेरा इंतज़ार करती है
हमेशा से बड़ा सुकून है
छलछलाता है बिटिया का संतोष
पडोसी की एक साल की नातिन लगाती है
ता-ता . डा डा की ज़ोर की पुकार
तन्द्रा से जग उठता है घर
अंधेरी घाटी में उतरते वक़्त अकेले
रहता है विश्वास
फिर से सूरज उगेगा
फिर होगा एक खुशनुमा दिन
और वह बड़ी ख़बर-ख़ुशी
लौटेगी बार-बार
छोटी-छोटी बातो में
भेंट
वह सुबह पाँच बजे उठाकर
मार्निंग वाक पर जाती है
मुझे अच्छा लगता है
देर तक सोना
वह अलसुबह
स्कूल चली जाती है पढ़ाने
मेरे आफिस का समय
दस बजे का है
मैं देर से लौटता हूँ घर
उसके सोने का समय हो जाता है
एक दूसरे को पा लेने के भ्रम में
खो गए हैं हम
एक दूसरे के लिए
इसी क्रमाक्रम के बीच अचानक
हाथ पकड़ लेना एक दूसरे का
या अबोध बिटिया की
किसी बात पर
साथ-साथ खिलखिला उठना
बिजली की चमक की तरह होता है
जिसमें, कुछ पल के लिए
एक दूसरे को हम
फिर से दूंढ लेते हैं
गुमनाम लोग
कहेगा कोई घोल दो ज़हर
हवाओं में
उसके आदेश पर
ज़हर घोल दिया जाएगा
कहेगा वही
काट दो सब रास्ते
उसके आदेश पर
रास्ते काट दिए जाएँगे
फिर वह कहेगा
इंकार कर दो
पहचानने से
सारे पहचान-चिन्ह
मिटा दिए जाएँगे
फिर हम आएँगे
गुमनाम पहचान वाले लोग !
ज़हरीली हवाओं में साँस लेकर
टूटे रास्तों पर चलकर
करेंगे हवाओं को साफ़
जोड़ेंगे रास्तों को
सारे पहचान-चिन्ह
फिर से खड़े करेंगे
खोई पहचान लौटाएँगे
खांसी
अनेच्छिक क्रिया है एक
और दिलाती है याद
हमारा साम्राज्य चाहे जितना बड्ा हो
शरीर उससे बाहर ही है
इसकी अप्रिय कर्कश ध्वनि
प्रियजनों को भी करती है आशंकित
यह घोषणा है
शरीर के हमारे नियंृण से बाहर
अपनी तरह से
परतंृ और स्वतंृ दोनो होने की
खांसी का होना
हमेशा उदास कर देता है
अगर सुन सको तो
यह सबसे बड्ा धार्मिक प्रवचन है ं
आविष्कार
एक छोटी बच्ची को
नहलाकर यूनिफार्म पहनाना
बनाकर विद्यार्थी स्कूल भेजना
आविष्कार है
मेधा के नए पुंज का
किसी शब्द को
अर्थ के नए वस्त्र पहनाना
कविता का रूप देना
आविष्कार है
शब्द के
नए
सामर्थ्य का
जो सब कह रहे हों
क्योंकि कह रहा है
कोई ख़ास एक
से हटकर अलग
वह कहना
जो अंतरात्मा की आवाज़ हो
आविष्कार है
नए सत्य का
इस बात पर
अटूट विश्वास करना
कि सब कुछ कभी ख़त्म नहीं होगा
आविष्कार है
अपने ही नए अस्तित्व का
ये सभी आविष्कार मैं
रोज करना चाहता हूँ
अनायास ही
हम अनचाहा गर्भ नहीं थे
हत्या कर नाली में बहाया नहीं गया
माँ की छाती में हमारा पेट भरने के लिए दूध था
खाली थे उसके हाथ हमें थामने के लिए
वह गाड़ी चूक गयी हमसे
जो मिलती तो पहुचती कभी नहीं
निकली ही थी ट्रेन
स्टेशन पर गोली चली
उस विमान पर नहीं था बम
जिस पर हम सवार हुए
सड़क पर कितनी ही बार
गिन्दगी और मौत के बीच दुआ सलाम हुई
घर में बचे रहे खुद के बिछाए फंदों से
बीमारिया चूकती रही निशाना
आकाश की बिजली घर पर नहीं गिरी
जब सुनामी आई हम मरीना बीच पर नहीं थे
धरती थर्राई नहीं थे हम भुज में
हम स्टेटस में नहीं थे नौ ग्यारह के रोज
श्रीनगर अहमदाबाद में नहीं थे
जब बम फूटा
हम इस बक्त भी वहा कही नहीं है
जीवन हार रहा है जहाँ म्रत्यु से
फिलवक्त इस जगह पर
हम इतने यह और उतने वह
इतना बनाया और इकठ्ठा किया
क्योकि अनायास ही जहाँ मौजूद थे
वह सही वक्त और सही जगह थी
गलत वक्त गलत जगह पर कभी नहीं थे हम
शकीरा का वाका वाका
गुज़रती जा रही हो
भिगोती हुई
पानी की तेज़ लहर
रह-रह कर
लगातार प्रज्ज्वलित होती हुई
एक आग
सीसे को काटती हो
शहद की धार
ऐसी आवाज़
अल्हड किशोरी का
छलकता हो आनंद
ऐसा नृत्य
बारिश का हो इंतज़ार
छमाछम बरसे
अचानक
सौंदर्य की देवी
आ गई हो
मूर्ति से बाहर
ईश्वर को कहा जाता है
पूर्ण एश्वर्य
तब लगा वह अपने स्त्री रूप में
प्रगट हुआ है
जब शकीरा ने
वाका-वाका किया
देखो
दावों को झुठलाते हुए
झलका है वह
अन्जान देश की लड़की
शकीरा में
झरना रंग और सपने
सांझ लाल चुनरिया लहरा रही है
अब वह काली ओढ़नी ओढ़ेगी
सुबह पहन लेगी उजाला
सजना चाहती है वह चटक रंगों से
पृथ्वी सद्य-प्रसूता है
उसका ह्रदय द्रवित है संतान के लिए
संतान कि भूख उससे देखी नहीं जाती
सदा रहना चाहती है वह वत्सला
बहने कि आकांक्षा ही नदी है
नदी के पास सिर्फ़ मीठा पानी है
उसे पसंद नहीं सूखी धरती
वह भरना चाहती है गन्ने, गेहूँ की बाली
और मकई के दाने में मिठास
स्त्री की आँख के भीतर झरना है
यह संसार सूखने से बचा हुआ है
स्त्री का ह्रदय रंगों से भरा है
दुनिया में चटक रंग बिखरे हैं
जीवन एक उत्सव है क्योंकि
माँ प्रेयसी और बेटी के रूप में
स्त्री है इस पृथ्वी पर
रचना बड़ी कविता
बड़ी कविता रचने के लिये
बड़ा कवि एकत्र करता है
शिल्प, बिम्ब और अलंकार
शब्दों का ऐसा चमत्कार
कितना ही सुलझाओ
पहेली का हल नहीं मिलता
असाधारण समझा नही जा सकता बंधु
बडी घटनायें अपनी स्थूलता से
बडे़ कवि की संवेदना को चोट पहुँचाती हैं
वह गौर से देखता है
बेहद छोटी चीजों को
पूरी गहराई से सोचता है उन पर
कमाल यह कि कभी-कभी वे कोई मुद्दा नहीं होतीं
अमूर्त को भाँपने में हर दिमाग
भोथरा सिद्ध होता है
बडे़ कवि की नजर एक साथ
बड़बड़ाहट, प्रेमालाप, निकर, बेतार के तार
प्यार की प्रबल सम्भावना, बैसाखी और
दीवार पर पेशाब करते आदमी पर पड़ जाती है
हालाँकि इनका आपस में कोई संबंध नहीं
वह इन्हें एक ही कविता में जोड़ के
अपनी जोड-तोड़ क्षमता का देता है प्रमाण
तमाम रंगों, गंधों संवेदनाओं, संभावनाओं यानी की
बीजों और फूलों को
जानबूझकर छोड़़ देता है बड़ा कवि
ये आदिम प्रतीक वर्जित हैं
अभिजात्य कविता में
वह गढ़ता है नये नारे
रचता है जटिलता का नया शास्त्र
ताकि उसके आधुनिकता बोध पर
शक की कोई छाया न गिरे
जिन्दा कविता अपनी लिजलिजी गरमाहट से
बडे़ कवि की नाजुक चेतना को चोट पहुँचाती है
इसलिये जानबूझ कर भूल जाता है वह
कविता में दर्द डालना ,प्रेम डालना और सम्मोहन डालना
थोडे़ में कहें तो हृदय डालना
इसलिये उसकी कविता का दिल नहीं धड़कता
अपने ही रचे बिम्ब की ऊँचाई पर बैठा बड़ा कवि
देखता है अपने आसपास की दुनिया
जैसे कोई चक्रवर्ती सम्राट अपने राज्य को
लिखता है कविता इस अंदाज में
जैसे सम्राट अपनी प्रजा पर हुकुम जारी करता है ।
रहो सावधान
वेश एक-सा
वस्त्र समान
बोली एक-सी
रहना एक साथ
पहला प्रकाश
दूसरा निविड़ अंधकार
सूझती नहीं जिसमें
मनुष्य को मनुष्य की जात
पहला दिशाबोधक संकेत
दूसरा सर्वग्रासी दलदल
जिसमें धँस जाता है
कर्ण का भी रथ
मृत्यु ही मुक्त कर पाती है तब
पहला अन्न ब्रह्म
दूसरा सारे खेत को
चौपट करता हुआ विषैला बीज
पहला झुकता है
दूसरा झुकाता है
पहला स्वीकारता है
दूसरा शिकायत करता है
आत्मसम्मान
स्वयं की निजता का संरक्षक
अहंकार दूसरे की निजता का
अतिक्रमण
सावधान मनु !
परखो ध्यान से
ठिठको वहाँ
जहाँ ख़त्म हो सीमा
आत्म-सम्मान की
आरम्भ होती हो जहाँ
भूमि अहंकार की
यही कसौटी है
मनुष्यता या पशुता की ओर
यात्रा की
बेवकूफी के शगल
रसिक हैं वे
याद हैं
मोहम्मद रफ़ी के गाने
गुनगुनाते गाहे-बगाहे
स्त्री स्टेनो में उनकी रुचि
चर्चा का विषय
नृत्य से प्रेम उन्हें
देखते फ़िल्मों में
संगीत उनकी दीवानगी
सुनते कार में ऍफ़० ऍम०
शास्त्रीय टूँ-टा से परहेज
बतातें
उनका शगल
जिनके टाइम की नही क़ीमत
अच्छा तो आप कवि हैं
कहना
मुस्कराना व्यंग्य से
उनकी अदा
कवि गर जूनियर नौकरी में
कविराज की वक्रोक्ति
कविता की किताब से बचते
जैसे अश्लील किताब
उसे अकेले में पढ़ भी लें
कविता कभी नहीं
पार्टियों के लिए करते खर्च
फ़िल्मों के लिए भी
शराब पीते उम्दा
हर शौक लाजबाब
साहित्य नहीं खरीदते
हिन्दी नाटक नही देखते
कला-प्रदर्शनी नही
जाते नहीं भारत-भवन
पूछा उनसे
बोले
अक्ल गई नहीं
अभी घास चरने
कि बेवकूफी के शगल
करने लगें
मेरा अख़बार
उगते सूरज के गुलाबी प्रकाश में नहाया
स्याह अक्षरों से भरा अख़बार
गिरता है घर के दरवाज़े पर
पहला पेज खोलते ही
परोसने लगता है डरावनी ख़बरें
करता है
क्रांति का आह्वान
बाज़ार और कामुकता
के पक्ष में
पन्ना पलटते ही
पूँजी का चाटुकार
कोई उपभोक्ता वस्तु
खरीदने को कहता है
हिंदी का मेरा अख़बार
पिछड़ा बता हिंदी को
हिंगलिश सीखने की करता वकालत
बन जाता है
वास्तु-शास्त्र, ज्योतिष
लाल किताब का आचार्य
कामोत्तेजक दवाईओं का धनवंतरी
अपराध की दुनिया का शेरलैक होल्म्स
हॉलीवुड बॉलीवुड हीरोइनों के
प्रेम, अभिसार और गर्भधारण का वात्स्यायन
जब मेरी किशोर बेटी इसे पढ़ने बैठती है
मैं सहम कर दूर हट जाता हूँ
वह किसी अश्लील विज्ञापन का निहितार्थ
भोलेपन से पूछ न ले
दम तोडती सभ्यता का लेखा-जोखा होगा
सुदूर भविष्य में किसी दिन
तब तुम्हारी भी जवाबदेही तय होगी मेरे अख़बार में
एक बुलबुला
झील कि सतह पर उपजा और फूला
उसने देखा पानी कि विशाल चादर को
खुले नीले आसमान को
आसमान में उड़ते पक्षियों को
और सोचा
अहा! मैं इन सब से अलग हूँ !
मैं ज्यादा गोल-गोल और सुन्दर
ज़्यादा ताज़ा ज़्यादा युवा हूँ
पानी कि चादर अधिक ठंडी है
आकाश ज़्यादा ही ऊपर है
और मछलियाँ सब बुद्धू हैं
दूसरे बुलबुलों को देखकर बोला
ये सब अजीब हैं.
सूरज कि गर्मी जब तेज़ हुई
बुलबुला सिकुड़ने लगा
सूरज से सिकुड़ने से बचाने कि प्रार्थना करने लगा
सूरज ख़ामोश रहा और तपता रहा
बुलबुला यह सोचते हुए फूटा
कि उसके जैसा बुलबुला
कोई हुआ न होगा
इतनी देर में झील पर हज़ारों नए ताज़े बुलबुले
बन चुके थे
अनुबध
मालिक के साथ
गुलाम की तरह
आती है स्त्रिया
उस कार्यक्रम मे
जहा आये हो स्त्री के
कार्यालयीन साथी भी
ज्यादा बाते नही करती उन पुरुशो से
जिनके साथ आफ़िस मे
हसती बोलती रह्ती है
इस तरह अपने शन्कालु पति को
दिलाती है बिश्वास
मे पूरी तुम्हारी हू
प्रागेतहासिक सती स्त्रिओ जैसी
पति भी जब जाता है
पत्नी के साथ उस जगह
जहा उसकी परचित स्त्रियाँ हो
चोर नजरों से अनदेखा करता है उन्हें
पत्नी को दिलाता है बिश्वास
तेरे अलावा में किसी पर फिदा नहीं
जंजीरों से बंधे गुलाम
कहते जातें है
सात जनम यही जंजीरे चाहिए
लगता है प्रेम नहीं
कोई अनुबंध
निभाया जा रहा है