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कृष्ण ‘कुमार’ प्रजापति की रचनाएँ

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मुझको अच्छाई की ख़्वाहिश में कहाँ अच्छा मिला

मुझको अच्छाई की ख़्वाहिश में कहाँ अच्छा मिला
ज़िन्दगी की रोशनी में मौत का साया मिला

सबको ये दावा था हम ईमानवाले हैं ,मगर
वक़्त पर ईमान सबका ताक पर रक्खा मिला

जिस्म था मौजूद लेकिन जहनो दिल हाज़िर न थे
आजकल तो भीड़ में हर आदमी तनहा मिला

पाँव में रस्ते बँधे थे आँख सपनो में थी गुम
हाजतों की पीठ पर हरदम लदा बस्ता मिला

कौन ऐसा है कि उसको देखता है बेहिजाब
जिस तरफ़ मेरी नज़र उठ्ठी उधर परदा मिला

आइना किसको दिखाता किस पे करता एतराज़
हर किसी इंसा के चेहरे पर मेरा चेहरा मिला

हर कोई उलझा हुआ है इस खिलौने में “कुमार”
सबके दिल को आस सबकी आँख को सपना मिला

जिंदगानी का नया कोई हवाला चाहिए

जिंदगानी का नया कोई हवाला चाहिए
धुँध बढ़ती जा रही है अब उजाला चाहिए

चाहिए हमको नहीं जो नफ़रतों का दे जुनूँ
जो मुहब्बत को बढ़ाए वो रिसाला चाहिए

शाख़ कविता की रहे इसके लिए तो दोस्तो
अब हमारे दरमियाँ फिर इक निराला चाहिए

हमसे छोटोंको है काफ़ी ताँत का इक ओढ़ना
जो बड़े हैं उनको कश्मीरी दुशाला चाहिए

भूख से जो बिलबिलाते हैं हमारे गाँव में
कब वो माँगे चाँद तारे बस निवाला चाहिए

फ़िक्र मेरी है कहाँ इन चैनलो को आजकल
बस इन्हें तो वक़्त का तड़का मसाला चाहिए

धर्म के बंधन में बंधना है नहीं तुमको “कुमार”
कोई मस्जिद या नहीं कोई शिवाला चाहिए

सबपे मौला मेहरबां हो ऐसा होना चाहिए

सबपे मौला मेहरबां हो ऐसा होना चाहिए
हर किसी का आशियाँ हो ऐसा होना चाहिए

तू शरीके कारवाँ है ये बहुत अच्छा नहीं
तेरे पीछे कारवाँ हो ऐसा होना चाहिए

चाँद सूरज ख़ुद उगाएँ रोशनी के वास्ते
अपनी धरती आसमाँ हो ऐसा होना चाहिए

बेवफ़ाई का रहे काँटों पे ही इल्ज़ाम क्यूँ
बावफ़ा ये बागवाँ हो ऐसा होना चाहिए

सो रहा है चैन से प्रधान लंबी तान के
हर तरफ़ अम्नो अमाँ हो ऐसा होना चाहिए

सबने अपनी ज़िन्दगी मे अपना अफ़साना लिखा
तेरी भी इक दास्ताँ हो ऐसा होना चाहिए

कैसे समझूँ तू मुहब्बत का पुजारी है “कुमार”
तेरे शेरों से अयां हो ऐसा होना चाहिए

वो ख़फ़ा जो हुआ तो ख़फ़ा ही रहा 

वो ख़फ़ा जो हुआ तो ख़फ़ा ही रहा
मैं बहुत देर तक सोचता ही रहा

वो आया चला भी गया रूठकर
मैं बड़ी दूर तक देखता ही रहा

उसने अपने गले से लगाया नहीं
पाँव पर गिर पड़ा तो पड़ा ही रहा

उम्र भर बाल बाँका नहीं कर सका
उम्र भर मेरे पीछे लगा ही रहा

लोग मारे गये घर के घर लुट गये
चैन से घर पे सोया सिपाही रहा

वो न आए सहर हो गई आज भी
दर हमारा खुला का खुला ही रहा

वक़्त बदला तो हर चीज़ बदली “कुमार”
वो न रस्ते रहे वो न राही रहा

बहुत हो चुकी है सियासत की बातें 

बहुत हो चुकी है सियासत की बातें
करो अब हमारी जरूरत की बातें

मुलाक़ात होती तो है दुश्मनों से
वो करते नहीं हैं मुहब्बत की बातें

निपट लो अगर बाज़ुओं में है ताक़त
करो मुझसे मत ये अदालत की बातें

जो तुमने किया है वो सब भूल बैठे
करें क्यूँ किसी से शिकायत की बातें

समाजी मिलाते हैं दिल को दिलों से
सियासी हैं करते अदावत की बातें

नमाज़ी सिखायें चलन भक्तियों का
पुजारी करें जो इबादत की बातें

“कुमार “ उसको मत अक़्लवाला समझिये
जो करता है मिल के हिमाक़त की बातें

क़ातिल था, हर किसी का मसीहा बना रहा 

क़ातिल था, हर किसी का मसीहा बना रहा
जब तक रहा वो शहर में ख़तरा बना रहा

उसकी रगों में ख़ून था , हैवानियत का ख़ून
इंसानियत के हक़ में दरिंदा बना रहा

ख़ुद अपनी प्यास के लिए एक बंद भी नहीं
सारे जहाँ के वास्ते दरिया बना रहा

मजबूरियों के जिस्म पर बन्दर की खाल थी
बच्चों के वास्ते वो तमाशा बना रहा

मेरी मशक्क्तों में कमी कुछ न थी , मगर
घर भर पे बोझ मेरा बुढ़ापा बना रहा

बरबाद हो के रह गया दुनिया में वो ग़रीब
दौलत के हाथ का जो खिलौना बना रहा

क्या हो गया “कुमार” कि नज़रों से गिर गया
कल तक जो शख़्स सबका चहेता बना रहा

जिस पर यक़ीं था उसका रवैया बदल गया

जिस पर यक़ीं था उसका रवैया बदल गया
पीतल में जाने किस तरह सोना बदल गया

अनजान हो गया हूँ मैं अपनी निगाह में
आईना कह रहा है कि चेहरा बदल गया

इस दौर में बदल गयी लोगों की ख़ासियत
पंडित का मौलवी का भी हुलिया बदल गया

आराम के ख़याल से सोए थे एक साथ
आगे बढ़ी जो रात बिछोना बदल गया

मंज़िल की जुस्तज़ू में ग़लत हमसफ़र थे हम
अच्छा हुआ कि दोनो का रस्ता बदल गया

जिस दिन से आ गये हो मेरी ज़िन्दगी में तुम
जीवन गुज़ारने का तरीक़ा बदल गया

दामन शराफ़तों का हैं थामे हुए “कुमार”
हम आज तक वहीं हैं ज़माना बदल गया

खुलके हँसना – मुस्कुराना आ गया

खुलके हँसना-मुस्कुराना आ गया
हमको भी अब ग़म छिपाना आ गया

दोस्त भी दुश्मन नज़र आने लगे
जाने कैसा ये ज़माना आ गया

जब चमन में टूट कर बिजली गिरी
जद में अपना आशियाना आ गया

चोट सह लेने की हिम्मत आ गयी
दर्द में भी गुनगुनाना आ गया

आँधियों से कह दो मैं डरता नहीं
अब मुझे भी घर बनाना आ गया

इक जवानी आप पर क्या आ गयी
हर किसी से दिल लगाना आ गया

ये तो उसकी मेहरबानी है “कुमार”
शेर कहना, गीत गाना आ गया

अपनी अपनी लोग यहाँ फ़रमाने लगते हैं

अपनी अपनी लोग यहाँ फ़रमाने लगते हैं
क्या समझाएँ उनको, वो समझाने लगते हैं

गिर जाने पर हँस पड़ते हैं अपने लोग
आ जाते हैं दौड़ के जो अनजाने लगते हैं

मेरा दिल दीवाना चाहे ख़ुशियों के दो बोल
जब मिलते हैं आप तो रोने गाने लगते हैं

अपनी अपनी धुन में सारे बच्चे हैं मशगूल
अब तो अपने घर में हम बेगाने लगते हैं

सच्चाई ने झूठ का चोला ओढ़ लिया है
क़ौल सियासी लोगों के अफ़साने लगते हैं

मिलना जुलना बरसों तक जब हो जाता है बंद
चेहरों के आईने सब धुँधलाने लगते हैं

पर्वत जैसा सह लेते थे सारे दर्द ‘कुमार’
अब छोटी सी बातों पर घबराने लगते हैं

फ़ासले बढ़ जाएँगे लोगो दिलों के दरमियाँ

फ़ासले बढ़ जाएँगे लोगो दिलों के दरमियाँ
मज़हबी झगड़े न डालो दोस्तों के दरमियाँ

ज़िन्दगी की जंग में होना अगर है कामयाब
बुज़दिली आने न पाए हौसलों के दरमियाँ

आदमी ने आदमीयत छोड़ दी है आजकल
जानवर सहमे हुए हैं जंगलों के दरमियाँ

दोस्ताना राज करने का इरादा है अगर
दोस्ती अपनी बढ़ाओ दुश्मनों के दरमियाँ

रह के लोगों में कोई ख़ामी छुपी रहती नहीं
एब हो जाता है ज़ाहिर आइनों के दरमियाँ

आपकी संजीदगी को क्या हुआ आलमपनाह
आप तो रहने लगे हैं मसखरों के दरमियाँ

गर सितारों से भी आगे तुमको जाना है “कुमार “
रास्ता कोई निकालो मुश्किलों के दरमियाँ

दिल अपना चाह रहा है कि मैं भी प्यार करूँ 

दिल अपना चाह रहा है कि मैं भी प्यार करूँ
ज़माना ठीक नहीं किस पे एतबार करूँ

गँवा दिया जिसे दिल ने अगर वो मिल जाए
लिपट के रोऊँ मैं आँखें अशकबार करूँ

बहुत दिनो से मेरा दिल तलाश करता है
कोई तो ऐसा मिले जिसपे जाँ निसार करूँ

जिन्हें पसीने से सींचा है , खू पिलाया है
मैं ऐसे फूलों का किस तरह कारोबार करूँ

ख़याल रखता है जो मेरी चाहतों का बहुत
बताओ क्यूँ न उसे प्यार बेशुमार करूँ

ग़ुबार दिल में जो ग़म का है, साफ़ हो जाए
जो अश्क़ ठहरे हैं मैं उनको आबशार करूँ

“कुमार” चोट छिपाने की मुझको आदत है
मैं अपने दर्द को किस तरह इशतहार करूँ

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