दाग दुनिया ने दिए जख़्म ज़माने से मिले
दाग दुनिया ने दिए जख़्म ज़माने से मिले
हम को तोहफे ये तुम्हें दोस्त बनाने से मिले
हम तरसते ही तरसते ही तरसते ही रहे
वो फलाने से फलाने से फलाने से मिले
ख़ुद से मिल जाते तो चाहत का भरम रह जाता
क्या मिले आप जो लोगों के मिलाने से मिले
माँ की आगोश में कल मौत की आगोश में आज
हम को दुनिया में ये दो वक्त सुहाने से मिले
कभी लिखवाने गए ख़त कभी पढ़वाने गए
हम हसीनों से इसी हीले बहाने से मिले
इक नया जख़्म मिला एक नई उम्र मिली
जब किसी शहर में कुछ यार पुराने से मिले
एक हम ही नहीं फिरते हैं लिए किस्सा-ए-गम
उन के खामोश लबों पर भी फसाने से मिले
कैसे माने के उन्हें भूल गया तू ऐ ‘कैफ’
उन के खत आज हमें तेरे सिरहाने से मिले
दर ओ दीवार पे शकलें से बनाने आई
दर ओ दीवार पे शकलें से बनाने आई
फिर ये बारिश मेरी तनहाई चुराने आई
ज़िंदगी बाप की मानिंद सजा देती है
रहम-दिल माँ की तरह मौत बचाने आई
आज कल फिर दिल-ए-बर्बाद की बातें है वही
हम तो समझे थे के कुछ अक्ल ठिकाने आई
दिल में आहट सी हुई रूह में दस्तक गूँजी
किस की खुशबू ये मुझे मेरे सिरहाने आई
मैं ने जब पहले-पहल अपना वतन छोड़ा था
दूर तक मुझ को इक आवाज़ बुलाने आई
तेरी मानिंद तेरी याद भी ज़ालिक निकली
जब भी आई है मेरा दिल ही दुखाने आई
गर्दिश-ए-अर्ज-ओ-समावत ने जीने न दिया
गर्दिश-ए-अर्ज-ओ-समावत ने जीने न दिया
कट गया दिन तो हमें रात ने जीने न दिया
कुछ मोहब्बत को न था चैन से रखना मंजूर
और कुछ उन की इनायत ने जीने न दिया
हादसा है के तेरे सर पर इल्ज़ाम आया
वाकया है के तेरी ज़ात ने जीने न दिया
‘कैफ’ के भूलने वाले खबर हो के उसे
सदमा-ए-तर्क-ए-मुलाकात ने जीने न दिया
हाए लोगों की करम-फरमाइयाँ
हाए लोगों की करम-फरमाइयाँ
तोहमतें बदनामियाँ रूसवाइयाँ
ज़िंदगी शायद इसी का नाम है
दूरियाँ मजबूरियाँ तन्हाइयाँ
क्या ज़माने में यूँ ही कटती है रात
करवटें बेताबियाँ अँगड़ाइयाँ
क्या यही होती है शाम-ए-इंतिज़ार
आहटें घबराहटें परछाइयाँ
एक रिंद-ए-मस्त की ठोकर में है
शाहियाँ सुल्तानियाँ दराइयाँ
एक पैकर में सिमट कर रह गई
खूबियाँ जे़बाइयाँ रानाइयाँ
रह गई एक तिफ्ल-ए-मकतब के हुजूर
हिकमतें आगाहियाँ दानाइयाँ
ज़ख्म दिल के फिर हरे करने लगी
बदलियाँ बरखा रूतें पुरवाइयाँ
दीदा ओ दानिस्ता उन के सामने
लग्ज़िशें नाकामियाँ पसपाइयाँ
मेरे दिल की धड़कनों में ढल गई
चूड़ियाँ, मौसीकियाँ, शहनाइयाँ
उनसे मिलकर और भी कुछ बढ़ गई
उलझनें फिक्रें कयास-आराइयाँ
‘कैफ’ पैदा कर समंदर की तरह
वुसअतें खामोशियाँ गहराइयाँ
हम को दीवाना जान के क्या क्या जुल्म न ढाया लोगों ने
हम को दीवाना जान के क्या क्या जुल्म न ढाया लोगों ने
दीन छुड़ाया धर्म छुड़ाया देस छुड़ाया लोगो नें
तेरी गली में आ निकले थे दोश हमारा इतना था
पत्थर मारे तोहमत बाँधी ऐब लगाया लोगों ने
तेरी लटों में सो लेते थे बे-घर आशिक बे-घर लोग
बूढ़े बरगद आज तुझे भी काट गिराया लोगों ने
नूर-ए-सहर ने निकहत-ए-गुल ने रंग-ए-शफक ने कह दी बात
कितना कितना मेरी ज़बाँ पर कुफ्ल लगाया लोगों ने
‘मीर’ तकी के रंग का गाज़ा रू-ए-ग़जल पर आ न सका
‘कैफ’ हमारे ‘मीर’ तकी का रंग उड़ाया लोगों ने
इस तरह मोहब्बत में दिल पे हुक्मरानी है
इस तरह मोहब्बत में दिल पे हुक्मरानी है
दिन नहीं मेरा गोया उन की राजधानी है
घास के घरौंदे से ज़ोर-आज़माई क्या
आँधियाँ भी पगली है बर्क भी दिवानी है
शायद उन के दामन ने पोंछ दीं मेरी आँखें
आज मेरे अश्कों का रंग ज़ाफरानी है
पूछते हो क्या बाबा क्या हुआ दिल-ए-ज़िदा
वो मेरा दिल-ए-ज़िंदा आज आँजहानी है
‘कैफ’ तुझ को दुनिया ने क्या से क्या बना डाला
यार अब मेरे मुँह पर रंग है न पानी है
कौन आएगा यहाँ कोई न आया होगा
कौन आएगा यहाँ कोई न आया होगा
मेरा दरवाजा हवाओं ने हिलाया होगा
दिल-ए-नादाँ न धड़क ऐ दिल-ए-नादाँ न धड़क
कोई ख़त ले के पड़ौसी के घर आया होगा
इस गुलिस्ताँ की यही रीत है ऐ शाख़-ए-गुल
तू ने जिस फूल को पाला वो पराया होगा
दिल की किस्मत ही में लिक्खा था अँधेरा शायद
वरना मस्जिद का दिया किस ने बुझाया होगा
गुल से लिपटी हुई तितली हो गिरा कर देखो
आँधियों तुम ने दरख़्तों को गिराया होगा
खेलने के लिए बच्चे निकल आए होंगे
चाँद अब उस की गली में उतर आया होगा
‘कैफ’ परदेस में मत याद करो अपना मकाँ
अब के बारिश ने उसे तोड़ गिराया होगा
खानकाह में सूफी मुँह में छुपाए बैठा है
खानकाह में सूफी मुँह में छुपाए बैठा है
गालिबन ज़माने से मात खाए बैठा है
कत्ल तो नहीं बदला कत्ल की अदा बदली
तीर की जगह कातिल साज़ उठाए बैठा है
उन के चाहने वाले धूप धूप फिरते हैं
गैर उन के कूचे में साए साए बैठा है
वाह आशिक-ए-नादाँ काएनात ये तेरी
इक शिकस्ता शीशे को दिल बनाए बैठा है
दूर बारिश ऐ गुल-चीं वा है दीदा-ए-नर्गिस
आज हर गुल-ए-रंगीं खार खाए बैठा है
कुटिया में कौन आएगा इस तीरगी के साथ
कुटिया में कौन आएगा इस तीरगी के साथ
अब ये किवाड़ बंद करो खामुशी के साथ
साया है कम खजूर के ऊँचे दरख़्त का
उम्मीद बाँधिए न बड़े आदमी के साथ
चलते हैं बच के शैख ओ बरहमन के साए से
अपना यही अमल है बुरे आदमी के साथ
शाइस्तगान-ए-शहर मुझे ख़्वाह कुछ कहें
सड़कों का हुस्न है मेरी आवारगी के साथ
शाएर हिकायतें न सुना वस्ल ओ इश्क की
इतना बड़ा मजाक न कर शाएरी के साथ
लिखता है गम की बात मर्सरत के मूड में
मख़्सूस है ये तर्ज़ फकत ‘कैफ’ ही के साथ
न आया मज़ा शब की तनहाईयों में
न आया मज़ा शब की तनहाईयों में
सहर हो गई चंद अँगड़ाइयों में
न रंगीनियों में न रानाइयों में
नज़र घिर गई अपनी पराछाइयों में
मुझे मुस्कुरा मुस्कुरा कर ने देखो
मेरे साथ तुम भी हो रूसवाईयों में
गज़ब हो गया उन की महफिल से आना
घिरा जा रहा हूँ तमाशाइयों में
मोहब्बत है या आज तर्क-ए-मोहब्बत
ज़रा मिल तो जाएँ वो तनहाइयों में
इधर आओ तुम को नज़र लग न जाए
छुपा लूँ तुम्हें दिल की गहराइयों में
अरे सुनने वालो ये नगमें नहीं है
मेरे दिल की चीखें है शहनाइयों में
वो ऐ ‘कैफ’ जिस दिन से मेरे हुए हैं
तो सारा जमाना है शैदाइयों में
सलाम उस पर अगर ऐसा कोई फनकार हो जाए
सलाम उस पर अगर ऐसा कोई फनकार हो जाए
सियाही ख़ून बन जाए कलम तलवार हो जाए
ज़माने से कहो कुछ साएका-रफ्तार हो जाए
हमारे साथ चलने के लिए तैयार हो जाए
ज़माने को तमन्ना है तेरा दीदार करने की
मुझे ये फ्रिक है मुझ को मेरा दीदार हो जाए
वो जुल्फें साँप हैं बे-शक अगर ज़ंजीर बन जाएँ
मोहब्बत ज़हर है बे-शक अगर आज़ार हो जाए
मोहब्बत से तुम्हें सरकार कहते हैं वगरना हम
निगाहें डाल दें जिस पर वही सरकार हो जाए
तन-ए-तनहा मुकाबिल हो रहा हूँ मैं हजारों से
तन-ए-तनहा मुकाबिल हो रहा हूँ मैं हजारों से
हसीनों से रकीबों से गमों से गम-गुसारों से
उन्हें मैं छीन कर लाया हूँ कितने दावे-दारों से
शफक से चाँदनी रातों से फूलों से सितारों से
सुने कोई तो अब भी रौशनी आवाज़ देती है
पहाड़ों से गुफाओं से बयाबानों से गारों से
हमारे दाग-ए-दिल-जख़्म-ए-जिगर कुछ मिलते-जुलते हैं
गुलों से गुल-रूखों से मह-वशों से मह-परों से
कभी होता नहीं महसूस वो यूँ कत्ल करते है
निगाहों से कनखियों से अदाओं से इशारों से
हमेशा एक प्यासी रूह की आवाज आती है
कुओं से पनघटों से नद्दियों से आबशारों से
न आए पर न आए वो उन्हें क्या क्या खबर भेजी
लिफाफों से ख़तों से दुख भरे पर्चो से तारों से
ज़माने में कभी भी किस्मतें बदला नहीं करती
उम्मीदों से भरोसों से दिलासों से सहारों से
वो दिन भी हाए क्या दिन थे जब अपना भी तअल्लुक था
दशहरे से दीवाली से बंसतों से बहारों से
कभी पत्थर के दिल ऐ ‘कैफ’ पिघले हैं न पिघलेंगे
मुनाजातों से फरियादों से चीखों से पुकारों से
सिर्फ इतने जुर्म पर हँगामा होता जाए है
सिर्फ इतने जुर्म पर हँगामा होता जाए है
तेरा दीवाना तेरी गलियों में देखा जाए है
आप किस किस को भला सूली चढ़ाते जाएँगे
अब तो सारा शहर ही मंसूर बनता जाए है
दिल-बरों के भेस में फिरते हैं चोरो के गरोह
जागते रहियों के इन रातों में लूटा जाए है
तेरा मै-खाना है या ख़ैरात-खाना साकिया
इस तरह मिलता है बादा जैसे बख्शा जाए है
मै-कशो आगे बढ़ो तिश्ना-लबो आगे बढ़ो
अपना हक माँगा नहीं जाता है छीना जाए है
मौत आई और तसव्वुर आप का रूख़सत हुआ
जैसे मंज़िल तक कोई रह-रौ को पहुँचा जाए है
तेरा चेहरा कितना सुहाना लगता है
तेरा चेहरा कितना सुहाना लगता है
तेरे आगे चाँद पुराना लगता है
तिरछे तिरछे तीर नज़र के लगते हैं
सीधा सीधा दिल पे निशाना लगता है
आग का क्या है पल दो पल में लगती है
बुझते बुझते एक ज़माना लगता है
पाँव ना बाँधा पंछी का पर बाँधा
आज का बच्चा कितना सयाना लगता है
सच तो ये है फूल का दिल भी छलनी है
हँसता चेहरा एक बहाना लगता है
सुनने वाले घंटों सुनते रहते हैं
मेरा फसाना सब का फसाना लगता है
‘कैफ’ बता क्या तेरी गज़ल में जादू है
बच्चा बच्चा तेरा दिवाना लगता है
तेरा चेहरा सुब्ह का तारा लगता है
तेरा चेहरा सुब्ह का तारा लगता है
सुब्ह का तारा कितना प्यारा लगता है
तुम से मिल कर इमली मीठी लगती है
तुम से बिछड़ कर शहद भी खारा लगता है
रात हमारे साथ तू जागा करता है
चाँद बता तू कौन हमारा लगता है
किस को खबर ये कितनी कयामत ढाता है
ये लड़का जो इतना बेचारा लगता है
तितली चमन में फूल से लिपटी रहती है
फिर भी चमन में फूल कँवारा लगता है
‘कैफ’ वो कल का ‘कैफ’ कहाँ है आज मियाँ
ये तो कोई वक्त का मारा लगता है
तुम से न मिल के खुश हैं वो दावा किधर गया
तुम से न मिल के खुश हैं वो दावा किधर गया
दो रोज़ में गुलाब सा चेहरा उतर गया
जान-ए-बहार तुम ने वो काँटे चुभोए हैं
मैं हर गुल-ए-शगुफ्ता को छूने से डर गया
इस दिल के टूटने का मुझे कोई गम नहीं
अच्छा हुआ के पाप कटा दर्द-ए-सर गया
मैं भी समझ रहा हूँ के तुम तुम नहीं रहे
तुम भी ये सोच लो के मेरा ‘कैफ’ मर गया
ये दाढ़ियाँ ये तिलक धारियाँ नहीं चलती
ये दाढ़ियाँ ये तिलक धारियाँ नहीं चलती
हमारे अहद में मक्कारियाँ नहीं चलती
कबीले वालों के दिल जोड़िए मेरे सरदार
सरों को काट के सरदारियाँ नहीं चलतीं
बुरा न मान अगर यार कुछ बुरा कह दे
दिलों के खेल में खुद्दारियाँ नहीं चलती
छलक छलक पड़ी आँखों की गागरें अक्सर
सँभल सँभल के ये पनहारियाँ नहीं चलती
जनाब-ए-‘कैफ’ ये दिल्ली है ‘मीर’ ओ ‘गालिब’ की
यहाँ किसी की तरफ-दारियाँ नहीं चलती
क्यों फिर रहे हो कैफ़ ये ख़तरे का घर लिए
क्यों फिर रहे हो कैफ़ ये ख़तरे का घर लिए
ये कांच का शरीर ये काग़ज़ का सर लिए
शोले निकल रहे हैं गुलाबों के जिस्म से
तितली न जा क़रीब ये रेशम के पर लिए
जाने बहार नाम है लेकिन ये काम है
कलियां तराश लीं तो कभी गुल क़तर लिए
रांझा बने हैं, कैस बने, कोहकन बने
हमने किसी के वास्ते सब रूप धर लिए
ना मेहरबाने शहर ने ठुकरा दिया मुझे
मैं फिर रहा हूं अपना मकां दर-ब-दर लिए
आज हम अपनी दुआओं का असर देखेंगे
आज हम अपनी दुआओं का असर देखेंगे
तीर-ए-नज़र देखेंगे, ज़ख़्म-ए-जिगर देखेंगे
आप तो आँख मिलाते हुए शरमाते हैं,
आप तो दिल के धड़कने से भी डर जाते हैं
फिर भी ये जिद है के हम ज़ख़्म-ए-जिगर देखेंगे,
तीर-ए-नज़र देखेंगे, ज़ख़्म-ए-जिगर देखेंगे
प्यार करना दिल-ए-बेताब बुरा होता है
सुनते आए हैं के ये ख्वाब बुरा होता है
आज इस ख्वाब की ताबीर मगर देखेंगे
तीर-ए-नज़र देखेंगे, ज़ख़्म-ए-जिगर देखेंगे
जानलेवा है मुहब्बत का समा आज की रात
शम्मा हो जाएगी जल जल के धुआँ आज की रात
आज की रात बचेंगे तो सहर देखेंगे
तीर-ए-नज़र देखेंगे, ज़ख़्म-ए-जिगर देखेंगे
जिस्म पर बाक़ी ये सर है क्या करूँ
जिस्म पर बाक़ी ये सर है क्या करूँ
दस्त-ए-क़ातिल बे-हुनर है क्या करूँ
चाहता हूँ फूँक दूँ इस शहर को
शहर में इन का भी घर है क्या करूँ
वो तो सौ सौ मर्तबा चाहें मुझे
मेरी चाहत में कसर है क्या करूँ
पाँव में ज़ंजीर काँटे आबले
और फिर हुक्म-ए-सफ़र है क्या करूँ
‘कैफ़’ का दिल ‘कैफ़’ का दिल है मगर
वो नज़र फिर वो नज़र है क्या करूँ
‘कैफ़’ में हूँ एक नूरानी किताब
पढ़ने वाला कम-नज़र है क्या करूँ
तुझे कौन जानता था मेरी दोस्ती से पहले
तुझे कौन जानता था मेरी दोस्ती से पहले
तेरा हुस्न कुछ नहीं था मेरी शाएरी से पहले
इधर आ रक़ीब मेरे मैं तुझे गले लगा लूँ
मेरा इश्क़ बे-मज़ा था तेरी दुश्मनी से पहले
कई इंक़िलाब आए कई ख़ुश-ख़िराब गुज़रे
न उठी मगर क़यामत तेरी कम-सिनी से पहले
मेरी सुब्ह के सितारे तुझे ढूँढती हैं आँखें
कहीं रात डस न जाए तेरी रौशनी से पहले
बीमार-ए-मोहब्बत की दवा है की नहीं है
बीमार-ए-मोहब्बत की दवा है की नहीं है
मेरे किसी पहलू में क़ज़ा है की नहीं है
सुनता हूँ इक आहट सी बराबर शब-ए-वादा
जाने तेरे क़दमों की सदा है की नहीं है
सच है मोहब्बत में हमें मौत ने मारा
कुछ इस में तुम्हारी भी ख़ता है कि नहीं है
मत देख की फिरता हूँ तेरे हिज्र में ज़िंदा
ये पूछ की जीने में मज़ा है कि नहीं है
यूँ ढूँडते फिरते हैं मेरे बाद मुझे वो
वो ‘कैफ़’ कहीं तेरा पता है कि नहीं है
दोस्तों अब तुम न देखोग ये दिन
दोस्तों अब तुम न देखोग ये दिन
ख़त्म हैं हम पर सितम-आराइयाँ
चुन लिया एक एक काँटा राह का
है मुबारक ये बरहना पाइयाँ
कू-ब-कू मेरे जुनूँ की अज़्मतें
उस की महफ़िल में मेरी रूस्वाइयाँ
अज़्मत-ए-सुक़रात-ओ-ईसा की क़सम
दार के साए में हैं दाराइयाँ
चारा-गर मरहम भरेगा तू कहाँ
रूह तक हैं ज़ख़्म की गहराइयाँ
‘कैफ़’ को दाग़-ए-ज़िगर बख़्शे गए
अल्लाह अल्लाह ये करम फ़रमाईयां
झूम के जब रिंदों ने पिला दी
झूम के जब रिंदों ने पिला दी
शैख़ ने चुपके चुपके दुआ दी
एक कमी थी ताज महल में
मैं ने तेरी तस्वीर लगा दी
आप ने झूठा वादा कर के
आज हमारी उम्र बढ़ा दी
हाए ये उन का तर्ज-ए-मोहब्बत
आँख से बस इक बूँद गिरा दी
काम यही है शाम सवेरे
काम यही है शाम सवेरे
तेरी गली के सौ सौ फेरे
सामने वो हैं जुल्फ बिखेरे
कितने हसीं है आज अँधेरे
हम तो हैं तेरे पूजने वाले
पाँव न पड़वा तेरे मेरे
दिल को चुराया ख़ैर चुराया
आँख चुरा कर जा न लुटेरे
जिस पे तेरी शमशीर नहीं है
जिस पे तेरी शमशीर नहीं है
उस की कोई तौक़ीर नहीं है
उस ने ये कह कर फेर दिया ख़त
ख़ून से क्यूँ तहरीर नहीं है
ज़ख्म-ए-ज़िगर में झाँक के देखो
क्या ये तुम्हारा तीर नहीं है
ज़ख़्म लगे हैं खुलने गुल-चीं
ये तो तेरी जागीर नहीं है
शहर में यौम-ए-अमन है वाइज़
आज तेरी तक़रीर नहीं है
ऊदी घटा तो वापस हो जा
आज कोई तदबीर नहीं है
शहर-ए-मोहब्बत का यूँ उजड़ा
दूर तलक तामीर नहीं है
इतनी हया क्यूँ आईने से
ये तो मेरी तस्वीर नहीं है