सेल्फ़ पोर्ट्रेट
यह जो कटा-फटा-सा
कच्चा-कच्चा और मासूम चेहरा है
उसे ज़माने की भट्ठी ने
ख़ूब-ख़ूब तपाया है
केवल आरामशीन नहीं चली
लेकिन हड्डियों और दिल को
ठंड ने अमरूद की फाँकों-सा चीर दिया है
असमय इस चेहरे से रुलाई फूटती है
दरअसल ट्रेन की खिड़की-सा हो गया है चेहरा
जिसके भीतर से आँखें
दृश्यों को छूते हुए निर्लिप्त गुज़र जाती हैं
बहुत रात तक
चांदनी से बतियाती जुबान
एक झटके से लहूलुहान हो जाती है
जब उसे याद आती है
ध्वस्त खेतों की सिसकती फ़सलें
नारियल और ताड़ के गहरे रंग के छितरे वृक्ष
समुद्र की रेतीली तटों पर सूखी मछलियों के ढेर
नमक की डली इसकी नसों में है
घाटियों के काले पत्थरों से निर्मित हैं इसके होंठ
दुनिया का कोई रंग
इस चित्रा का असल बयान नहीं कर सकता
यदि इसमें भरना ही है कोई रंग
जो दिखाए इसकी सच्चाई
तो गुज़रे ज़माने में ध्वस्त हुई किसी मीनार
या अधबनी किसी इमारत की धूल ले आओ
इन भरी-भरी आँखों में निचोड़ दो असली रक्त
तम्बाखू से काले हुए होंठ और मटमैले दाँतों के लिए
बुलाओ गुम हो चुकी समुद्री मछली को
अंधेरी रातों से
वह आएगी और खिलखिला जाएगा यह चित्र
बिल्कुल असल की तरह
लेकिन मेरे चित्रकार,
फिलहाल इस चेहरे को
मुल्तवी कर दो अगली शताब्दी के लिए!
एक बीती हुई रात को याद करते हुए
रात
तुम लौट गई चुपचाप
मुझे अकेला, निस्संग छोड़ कर
भर कर प्यार की कई-कई स्मृतियाँ
तुममें हिचकोले खाता हुआ
मैंने चूमा पत्नी का माथा
होंठों पर एक भरपूर चुम्बन
अंधेरे में टटोलते हुए किया समूचे शरीर का स्पर्श
रात, जब तुम गहरा रही थी
मैं प्यार की दैहिक-क्रिया में लीन था
असंख्य लहरों पर सवार
किसी दिव्य पुरुष की तरह
पुरुष होना उस रात मुझे
वैसे नहीं लगा जैसे लगता रहा है मनु को
न ही स्त्री किसी सजायाफ़्ता क़ैदी की तरह लगी
रात
तुम्हारे गहराते आँचल की छोर को मुँह में दबाए
मैंने सुनी असंख्य कीटों की ज़िन्दा आवाज़ें
चौराहे पर चाय का टपरा लगाने वाले का स्टोव
नीली लौ के साथ सीने में दहकता रहा
रेल की पटरी पर ट्रेन दौड़ाते ड्राइवरों की उनींदी आँखें
लालटेन की तरह दिपदिपाती रहीं भीतर
मैंने अतीत के गुनाहों और
भविष्य के सम्भावित गुनाहों से
शून्य को ताकते हुए
देर तक जिरह की
और फ़ैसले को अनिर्णीत ही छोड़ कर
उस देश के बारे में ईमानदारी से सोचा
जिसमें रहता हूँ मैं
मुझे याद आए खिले हुए फूलों के कई-कई रंग
अंततः मैंने तय किया
कि सुबह किसी एक अपरिचित फूल के बारे में
पूरी जानकारी लूंगा
रात
जिस वक़्त तुम मुझे
अलविदा कहने को तैयार खड़ी थी
ट्रेन की खिड़की पर बैठे किसी मुसाफ़िर की तरह
मैंने कहा
तुम फिर आओगी, मुझे पता है’
और यह भी कि तुम
अंधेरा नहीं हो केवल’
बहुत उजली हो, धुली-धुली
प्यार की अनंत आवाज़ों से सजी
सपनों की रंगीन दुनिया की धरातल’
और प्रेम में डूबी एक स्त्री की तरह
वर्ष 1972
ज़िन्दगी, तुम्हारी असंख्य उलझी शिराओं में
एक फूल की तरह
डाली पर, मैं, खिला
माली के पसीने की चमक
झलकती ओझल होती हुई मुझमें
इस जन्म के लिए मैंने
पिछली किसी शताब्दी में
प्यार को बीज की तरह बोया था
अनेक गुज़रते अंधड़ों, अटपटे मौसमों
कीटों की ज़बरदस्त फौज
और घोड़ों की नाल से लहूलुहान धरती के नीचे
बड़ा दुर्गम था वह समय
पृथ्वी ने आसमान को सौंप दिया था
तपे लोहे के रंग का सूरज
और बिलख रही थी
उदार दिखते उनींदे तानाशाहों के शयनकक्ष में
लेकिन संगीत की याद में तड़पते किसी नन्हें दिल की तरह
बची रही धरती में साँसें
शताब्दियों बाद
बलखाती पुष्ट नीम की पनियों पर
सोना उड़ेलता सूरज
जब चिड़िया के कोमल पंखों को छुआ
और गिलहरियों ने अपनी पिछली टांगों पर बैठ कर
चूमे तुम्हारे हाथ
तभी डाली पर, मैं, खिला
मैं खिला प्यार को बीज की तरह
सीने में धारण किए हुए
मूल्य खो चुकी सम्पत्ति की तरह सहेज कर उसे
लेकिन समय मेरी आशाओं के विरुद्ध
अब भी था उतना ही भयंकर
बमवर्षक विमानों से
अभी तक उठ रही थी बारूद के धुँए की ताज़ा गंध
सरहदी हत्यारे पुरस्कृत हो रहे थे राजधानी में
युद्ध को राष्ट्रभक्ति का दूसरा नाम
ऐलान कर दिया गया था
मैं जन्मा
और मेरी चौंकती आँखों में
बचे-खुचे लोकतंत्र के ढहने की धूल थी
सपनों से
मरे हुए चूहे की गंध उठती थी
जिसे पार नहीं कर सकी
मेरे मुँह से उठती कच्चे दूध की गंध
बाद में आसमानी सितारे
देर तक अंगार वृष्टि करते रहे
जलती हुई उल्काएँ
विलीन होती रहीं सागरी जल में
धरती की सिसकती पीठ पर
कोड़े फटकारते रहे राजनीतिज्ञ
उन्माद…हाँ उन्माद ही था
बरसता हुआ, टपकता हुआ
समय ने मुस्कुराते हुए करवट बदली
और देश उसकी काँख में बिलबिला गया
और कुछ शातिर लोगों ने
हंसी हँसी में देश की खोपड़ी तोड़ दी
तड़…तड़…तड़…