बरसों के रत-जगों की थकन खा गई मुझे
बरसों के रत-जगों की थकन खा गई मुझे
सूरज निकल रहा था के नींद आ गई मुझे
रक्खी न जिंदगी ने मेरी मुफलिसी की शर्म
चादर बना के राह में फैला गई मुझे
मैं बिक गया था बाद में बे-सरफा जान कर
दुनिया मेरी दुकान पे लौटा गई मुझे
दरिया पे एक तंज समझिए के तिश्नगी
साहिल की सर्द रेत में दफना गई मुझे
ऐ ज़िंदगी तमाम लहू राएगाँ हुआ
किस दश्त-ए-बे-सवाद में बरसा गई मुझे
कागज़ का चाँद रख दिया दुनिया ने हाथ में
पहले सफर की रात ही रास आ गई मुझे
क्या चीज़ थी किसी की अदा-ए-सुपुर्दगी
भीगे बदन की आग में नहला गई मुझे
‘कैसर’ कलम की आग का एहसान-मंद हूँ
जब उँगलियाँ जलीं तो गज़ल आ गई मुझे
दश्त-ए-तन्हाई में कल रात हवा कैसी थी
दश्त-ए-तन्हाई में कल रात हवा कैसी थी
देर तक टूटते लम्हों की सदा कैसी थी
ज़िंदगी ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा अब तक
उम्र भर सर से न उतरी ये बला कैसी थी
सुनते रहते थे मोहब्बत के फसाने क्या क्या
बूँद भर दिल पे न बरसी ये घटा कैसी थी
क्या मिला फैसला-ए-तर्क-ए-तअल्लुक कर के
तुम जो बिछड़े थे तो होंटो पे दुआ कैसी थी
टूट कर ख़ुद जो वो बिखरा है तो मालूम हुआ
जिस पे लिपटा था वो दीवार-ए-अना कैसी थी
जिस्म से नोच के फेंकी भी तो खुश-बू न गई
ये रिवायत की बोसीदा कबा कैसी थी
डूबते वक्त भँवर पूछ रहा है ‘कैसर’
जब किनारे से चले थे तो फज़ा कैसी थी
घर बसा कर भी मुसाफिर के मुसाफिर ठहरे
घर बसा कर भी मुसाफिर के मुसाफिर ठहरे
लोग दरवाज़ों से निकले के मुहाजिर ठहरे
दिल के मदफन पे नहीं होई भी रोने वाला
अपनी दरगाह के हम ख़ुद ही मुजाविर ठहरे
इस बयाबाँ की निगाहों में मुरव्वत न रही
कौन जाने के कोई शर्त-ए-सफर फिर ठहरे
पत्तियाँ टूट के पत्थर की तरह लगती हैं
उन दरख़्तों के तले कौन मुसाफिर ठहरे
ख़ुश्क पत्ते की तरह जिस्म उड़ा जाता है
क्या पड़ी है जो ये आँधी मेरी खातिर ठहरे
शाख-ए-गुल छोड़ के दीवार पे आ बैठे हैं
वो परिेंदे जो अँधेरों के मुसाफिर ठहरे
अपनी बर्बादी की तस्वीर उतारूँ कैसे
चंद लम्हों के लिए भी न मनाज़िर ठहरे
तिश्नगी कब के गुनाओं की सज़ा है ‘कैसर’
वो कुआँ सूख गया जिस पे मुसाफिर ठहरे
हवा बहुत है मता-ए-सफर सँभाल के रख
हवा बहुत है मता-ए-सफर सँभाल के रख
दरीदा चादर-ए-जाँ है मगर सँभाल के रख
फिर उस के बाद तो कदरें उन्हें पे उट्ठेंगी
कुछ और रोज़ ये दीवार-ओ-दर सँभाल के रख
अभी उड़ान के सौ इम्तिहान बाकी है
इन आँधियों में ज़रा बाल-ओ-पर सँभाल के रख
ये अहद काँप रहा है ज़मीं के अंदर तक
तू अपना हाथ भी दीवार पर सँभाल के रख
पढ़ेंगे लोग उन्हीं में कहानियाँ तेरी
कुछ ओर रोज़ ये दामान-ए-तर सँभाल के रख
हवा के एक ही झोंके की देर है ‘कैसर’
किसी भी ताक पे शम्मा-ए-सहर सँभाल के रख
सारी दुनिया के तअल्लुक से जो सोचा जाता
सारी दुनिया के तअल्लुक से जो सोचा जाता
आदमी इतने कबीलों में न बाँटा जाता
दिल का अहवाल न पूछो के बहुत रोज़ हुए
इस ख़राबे की तरफ मैं नही आता जाता
जिंदगी तिश्ना-दहानी का सफर थी शायद
हम जिधर जाते उसी राह पे सहरा जाता
शाम होते ही कोई शम्मा जला रखनी थी
जब दरीचे से हवा आती तो देखा जाता
रौशनी अपने घरोंदों में छुपी थी वरना
शहर के शहर पे शब-खून न मारा जाता
सारे कागज़ पे बिछी थीं मेरी आँखें ‘कैसर’
इतने आँसू थे के इक हर्फ न लिक्खा जाता
तेरी बे-वफाई के बाद भी मेरे दिल का प्यार नहीं गया
तेरी बे-वफाई के बाद भी मेरे दिल का प्यार नहीं गया
शब-ए-इंतिजार गुज़र गई ग़म-ए-इंतिज़ार नहीं गया
मैं समंदरों का नसीब था मेरा डूबना भी अजीब था
मेरे दिल ने मुझ से बहुत कहा में उतर के पार नहीं गया
तू मेरा शरीक-सफर नहीं मेरे दिल से दूर मगर नहीं
मेरी ममलिकत न रही मगर तेरा इख्तियार नहीं गया
उसे इतना सोचा है रोज़ ओ शब के सवाल-ए-दीद रहा न अब
वो गली भी ज़ेर-ए-तवाफ है जहाँ एक बार नहीं गया
कभी कोई वादा वफा न कर यूँही रोज़ रोज़ बहाना कर
तू फरेब दे के चला गया तेरा ऐतबार नहीं गया
मुझे उस के जर्फ की क्या ख़बर कहीं और जा के हँसे अगर
मेरे हाल-ए-दिल पे तो रोए बिन कोई ग़म-गुसार नहीं गया
उसे क्या खबर के शिकस्तगी है जुनूँ की मंजिल-ए-आगही
जो मता-ए-शीशा-ए-दिल लिए सर-ए-कू-यार नहीं गया
मेरी जिंदगी मेरी शाएरी किसी गम कीे दने है ‘जाफरी’
दिल ओ जान का कर्ज़ चुका दिया मैं गुनाह-गार नही गया
यूँ बड़ी देर से पैमाना लिए बैठा हूँ
यूँ बड़ी देर से पैमाना लिए बैठा हूँ
कोई देखे तो ये समझे के पिए बैठा हूँ
आख़िरी नाव न आई तो कहाँ जाऊँगा
शाम से पार उतरने के लिए बैठा हूँ
मुझ को मालूम है सच ज़हर लगे है सब को
बोल सकता हूँ मगर होंट सिए बैठा हूँ
लोग भी अब मेरे दरवाज़े पे कम आते हैं
मैं भी कुछ सोच के जं़जीर दिए बैठा हूँ
ज़िंदगी भर के लिए रूठ के जाने वाले
मैं अभी तक तेरी तस्वीर लिए बैठा हूँ
कम से कम रेत से आँखें तो बचेंगी ‘कैसर’
मैं हवाओं की तरफ पीठ किये बैठा हूँ
ज़ेहन में कौन से आसेब का दर बाँध लिया
ज़ेहन में कौन से आसेब का दर बाँध लिया
तुम ने पूछा भी नहीं रख़्त-ए-सफर बाँध लिया
बे-मकानी की भी तहज़ीब हुआ करती है
उन परिंदों ने भी एक एक शजर बाँध लिया
रास्ते में कहीं गिर जाए तो मजबूरी है
मैं ने दामान-ए-दरीदा में हुनर बाँध लिया
अपने दामन पे नज़र कर मेरे हाथों पे न जा
मैं ने पथराव किया तू ने समर बाँध लिया
घर खुला छोड़ के चुपके से निकल जाऊँगा
शाम ही से सर-ओ-सामान-ए-सहर बाँध लिया
उम्र भर मैं ने भी साहिल के कसीदे लिक्खे
मेरे बच्चों ने भी इक रेत का घर बाँध लिया
हार बे-दर्द हवाओं से न मानी ‘कैसर’
बाद-बाँ फेंक के कदमों से भंवर बाँध लिया
इतना सन्नाटा है बस्ती में कि डर जाएगा
इतना सन्नाटा है बस्ती में कि डर जाएगा
चाँद निकला भी तो चुप-चाप गुज़र जाएगा
क्या ख़बर थी कि हवा तेज़ चलेगी इतनी
सारा सहरा मिरे चेहरे पे बिखर जाएगा
हम किसी मोड़ पे रुक जायेंगे चलते चलते
रास्ता टूटे हुए पुल पे ठहर जाएगा
बादबानों ने जो एहसान जताया उस पर
बीच दरिया में वो कश्ती से उतर जाएगा
चलते रहिये कि सफ़-ए-हम-सफ़राँ लम्बी है
जिस को रास्ते में ठहरना है ठहर जाएगा
दर-ओ-दीवार पे सदियों की कोहर छाई है
घर में सूरज भी जो आया तो ठिठर जाएगा
फ़न वो जुगनू है जो उड़ता है हवा में ‘क़ैसर’
बंद कर लोगे जो मुट्ठी में तो मर जाएगा
टूटे हुए ख़्वाबों की चुभन कम नहीं होती
टूटे हुए ख़्वाबों की चुभन कम नहीं होती
अब रो के भी आँखों की जलन कम नहीं होती
कितने भी घनेरे हों तिरी ज़ुल्फ़ के साए
इक रात में सदियों की थकन कम नहीं होती
होटों से पिएँ चाहे निगाहों से चुराएँ
ज़ालिम तिरी खुशबू-ए-बदन कम नहीं होती
मिलना है तो मिल जाओ यहीं हश्र में क्या है
इक उम्र मिरे वादा-शिकन कम नहीं होती
‘क़ैसर’ की ग़ज़ल से भी न टूटी ये रिवायत
इस शहर में ना-क़दरी-ए-फ़न कम नहीं होती
तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे
तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे
मैं एक शाम चुरा लूँ अगागर बुरा न लगे
तुम्हारे बस में अगर हो तो भूल जाओ मुझे
तुम्हें भुलाने में शायद मुझे ज़माना लगे
जो डूबना है तो इतने सुकून से डूबो
के आस पास की लहरों को भी पता न लगे
वो फूल जो मेरे दामन से हो गये मंसूब
ख़ुदा करे उन्हें बाज़ार की हवा न लगे
न जाने क्या है किसी की उदास आँखों में
वो मुँह छुपा के भी जाये तो बेवफ़ा न लगे
तू इस तरह से मिरे साथ बेवफ़ाई कर
कि तेरे बाद मुझे कोई बेवफ़ा न लगे
तुम आँख मूँद के पी जाओ ज़िन्दगी “क़ैसर”
के एक घूँट में शायद ये बदमज़ा न लगे
तिरी गली में तमाशा किए ज़माना हुआ
तिरी गली में तमाशा किए ज़माना हुआ
फिर इसके बाद न आना हुआ न जाना हुआ
कुछ इतना टूट के चाहा था मेरे दिल ने उसे
वो शख्श मेरी मुरव्वत में बेवफ़ा न हुआ
हवा खफा थी मगर इतनी संग-दिल भी न थी
हमीं को शम्अ जलाने का हौसला न हुआ
मिरे ख़ुलूस की सैकल-गरी भी हार गयी
वो जाने कौन सा पत्थर सा आईना हुआ
मैं ज़हर पीता रहा ज़िन्दगी के हाथों से
ये और बात है मेरा बदन हरा न हुआ
शुऊर चाहिए तरतीब-ए-ख़ार-ओ-ख़स के लिए
क़फ़स को तोड़ के रखा तो आशियाना हुआ
हमारे गाँव की मिटटी ही रेत जैसी थी
ये एक रात का सैलाब तो बहाना हुआ
किसी के साथ गयीं दिल की धड़कन ‘क़ैसर’
फिर इस के बाद मोहब्बत का हादसा न हुआ
दर-ओ-दीवार पे हिजरत के निशाँ देख आएँ
दर-ओ-दीवार पे हिजरत के निशाँ देख आएँ
आओ हम अपने बुजुर्गों के मकाँ देख आएँ
आओ भीगी हुई आखों से पढ़ें नौहा-ए-दिल
आओ बिखरे हुए रिश्तों का ज़ियाँ देख आएँ
टूटा टूटा हुआ दिल ले के फिरे गलियों में
कच्ची मिट्टी के खिलौनों की दुकाँ देख आएँ
रौशनी के कहीं आसार तो बाकी होंगे
आओ पिघली हुई शम्ओं का धुआँ देख आएँ
जिन दरख्तों के तले रक्स-ए-सबा होता था
सूखे पत्तों का बरसना भी वहां देख आएँ
अब फ़रिश्तों के सिवा कोई न आता होगा
कौन देता है ख़राबों में अजाँ देख आएँ
मुद्दतों ब’अद मुहाजिर की तरह आये हैं
रूठ जाये न खंडर आओ मियाँ देख आएँ
दिन की बेदर्द थकन चेहरे पे ले कर मत जा
दिन की बेदर्द थकन चेहरे पे ले कर मत जा
बाम-ओ-दर जाग रहे होंगे अभी घर मत जा
मेरे पुरखों की विरासत का भरम रहने दे
तू हवेली को खुला देख के अन्दर मत जा
बूँद भर दर्द संभलता नहीं कम-ज़र्फ़ों से
रख के तू अपनी हथेली पे समुंदर मत जा
फूटने दे मिरी पलकों से ज़रा और लहू
ऐ मिरी नींद अभी छोड़ के बिस्तर मत जा
कुछ तो रहने दे अभी तर्क-ए-वफ़ा की ख़ातिर
तुझको जाना है तो जा हाथ झटक कर मत जा
और कुछ देर ये मश्क़-ए-निगह-ए-नाज़ सही
सामने बैठ अभी फेंक के ख़ंजर मत जा
धूप क्या है तुझे अंदाज़ा नहीं है ‘क़ैसर’
आबले पाँव में पड़ जाएँगे बाहर मत जा
दिल की आग कहाँ ले जाते जलती बुझती छोड़ चले
दिल की आग कहाँ ले जाते जलती बुझती छोड़ चले
बंजारों से डरने वालों लो हम अपनी बस्ती छोड़ चले
आगे आगे चीख़ रहा है सहरा का इक ज़र्द सफ़र
दरिया जाने साहिल जाने हम तो कश्ती छोड़ चले
मिट्टी के अम्बार के नीचे डूब गया मुस्तक़बिल भी
दीवारों ने देखा होगा बच्चे तख्ती छोड़ चले
दुनिया रखे चाहे फेंके ये है पड़ी ज़म्बिल-ए-सुख़न
हमने जितनी पूँजी जोड़ी रत्ती रत्ती छोड़ चले
सारी उम्र गँवा दी ‘क़ैसर’दो गज़ मिट्टी हाथ लगी
कितनी महँगी चीज़ थी दुनिया कितनी सस्ती छोड़ चले
दीवारों से मिल कर रोना अच्छा लगता है
दीवारों से मिलकर रोना अच्छा लगता है
हम भी पागल हो जायेंगे ऐसा लगता है
कितने दिनों के प्यासे होंगे यारों सोचो तो
शबनम का क़तरा भी जिन को दरिया लगता है
आँखों को भी ले डूबा ये दिल का पागल-पन
आते जाते जो मिलता है तुम सा लगता है
इस बस्ती में कौन हमारे आंसू पोंछेगा
जो मिलता है उसका दामन भीगा लगता है
दुनिया भर की यादें हम से मिलने आती हैं
शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है
किसको पत्थर मारूँ ‘क़ैसर’ कौन पराया है
शीश-महल में एक एक चेहरा अपना लगता है
फिर मिरे सर पे कड़ी धूप की बौछार गिरी
फिर मिरे सर पे कड़ी धूप की बौछार गिरी
मैं जहाँ जा के छुपा था वहीं दीवार गिरी
लोग क़िस्तों में मुझे क़त्ल करेंगे शायद
सबसे पहले मिरी आवाज़ पे तलवार गिरी
और कुछ देर मिरी आस न टूटी होती
आख़िरी मौज थी जब हाथ से पतवार गिरी
अगले वक्तों में सुनेंगे दर-ओ-दीवार मुझे
मेरी हर चीख़ मेरे अहद के उस पार गिरी
ख़ुद को अब ग़र्द के तूफाँ से बचाओ ‘क़ैसर’
तुम बहुत ख़ुश थे कि हम-साये की दीवार गिरी
बस्ती में है वो सन्नाटा जंगल मात लगे
बस्ती में है वो सन्नाटा जंगल मात लगे
शाम ढले भी घर पहुँचूँ तो आधी रात लगे
मुट्ठी बंद किये बैठा हूँ कोई देख न ले
के चाँद पकड़ने घर से निकला जुगनू हात लगे
तुम से बिछड़े दिल को उजड़े बरसों बीत गए
आँखों का ये हाल है अब तक कल की बात लगे
तुम ने इतने तीर चलाये सब ख़ामोश रहे
हम तड़पे तो दुनिया भर के इल्ज़ामात लगे
खत में दिल की बातें लिखना अच्छी बात नही
घर में इतने लोग हैं जाने किसके हात लगे
सावन एक महीने ‘क़ैसर’ आँसू जीवन भर
इन आँखों के आगे बादल बे-औक़ात लगे
मैं पिछली रात क्या जाने कहाँ था
मैं पिछली रात क्या जाने कहाँ था
दुआओं का भी लहजा बे-जबाँ था
हवा गम-सुम थी सूना आशियाँ था
परिंदा रात भर जाने कहाँ था
हवाओं में उड़ा करते थे हम भी
हमारे सामने भी आसमाँ था
मिरी तक़दीर थी आवारागर्दी
मेरा सारा क़बीला बे-मकाँ था
मजे से सो रही थी सारी बस्ती
जहां मैं था वहीँ धुआँ था
मैं अपनी लाश पर आंसू बहाता
मुझे दुःख था मगर इतना कहाँ था
सफ़र काटा है इतनी मुश्किलों से
वहां साया न था पानी जहाँ था
कहाँ से आ गयी है ख़ुद-नुमाई
वहीँ फेंक आओ आईना जहाँ था
मैं क़त्ल-ए-आम का शाहिद हूँ ‘क़ैसर’
कि बस्ती में मीरा ऊँचा मकाँ था
मुंतशिर ज़ेहन की सोचों को इकट्ठा कर दो
मुंतशिर ज़ेहन की सोचों को इकट्ठा कर दो
तुम जो आ जाओ तो शायद मुझे तनहा कर दो
दर-ओ-दीवार पे पढ़ता रहूँ नौहा कल का
इस उजाले से तो बेहतर है अँधेरा कर दो
ऐ मिरे गम की चटानो कभी मिल कर टूटो
इस क़दर ज़ोर से चीखो मुझे बहरा कर दो
जा रहे हो तो मिरे ख़्वाब भी लेते आओ
दिल उजाड़ा है तो आँखों को भी सहरा कर दो
कुछ नहीं है तो ये पिंदार-ए-जुनूँ है ‘क़ैसर’
तुम को मिल जाए गिरेबाँ तो तमाशा कर दो
वो एक ख़ेमा-ए-शब जिस का नाम दुनिया था
वो एक ख़ेमा-ए-शब जिस का नाम दुनिया था
कभी धुँआ तो कभी चाँदनी सा लगता था
हमारी आग भी तापी हमें बुझा भी दिया
जहां पड़ाव किया था अजीब सहरा था
हवा में मेरी आना भीगती रही वर्ना
मैं आशियाने में बरसात काट सकता था
जो आसमान भी टूटा गिरा मिरी छत पर
मिरे मकाँ से किसी बद दुआ का रिश्ता था
तुम आ गए हो ख़ुदा का सुबूत है ये भी
क़सम ख़ुदा की अभी मैंने तुम को सोचा था
ज़मीं पे टूट के कैसे गिरा गुरूर उस सा
अभी अभी तो उसे आसमाँ पे देखा था
भँवर लपेट के नीचे उतर गया शायद
अभी अभी वो शाम से पहले नदी पे बैठा था
मैं शाख़-ए-ज़र्द के मातम में रह गया ‘क़ैसर’
खिजाँ का ज़हर शजर की जड़ों में फैला था
शहर-ए-ग़ज़ल में धूल उड़ेगी फ़न बंजर हो जाएगा
शहर-ए-ग़ज़ल में धूल उड़ेगी फ़न बंजर हो जाएगा
जिस दिन सूखे दिल के आँसू सब पतझड़ हो जाएगा
टूटेंगी जब नींद से पलकें सो जाउँगा चुपके से
जिस जंगल में रात पड़ेगी मेरा घर हो जाएगा
ख़्वाबों के पंछी कब तक शोर करेंगे पलकों पर
शाम ढलेगी और सन्नाटा शाखों पर हो जाएगा
रात क़लम ले के आएगी इतनी सियाही छिड़केगी
दिन का सारा मंज़र-नामा बे-मंज़र हो जाएगा
दिल की कश्ती एक तरफ है लाखों दुआएँ एक तरफ़
सूखा तो क्या गम का दरिया चुल्लू भर हो जायेगा
‘क़ैसर’ रो लो ग़ज़लें कह लो बाक़ी है कुछ दर्द अभी
अगली रूतों में यूँ लगता है सब पत्थर हो जाएगा
ज़ुल्फ़ घटा बन कर रह जाए आँख कँवल हो जाए
ज़ुल्फ़ घटा बन कर रह जाए आँख कँवल हो जाए
शायद उन को पल भर सोचें और ग़ज़ल हो जाए
जिस दीपक को हाथ लगा दो जलें हज़ारों साल
जिस कुटिया में रात बीता दो ताज-महल हो जाए
कितनी यादें आ जाती है दस्तक दिए बगैर
अब ऐसी भी क्या वीरानी घर जंगल हो जाए
तुम आओ तो पंख लगा कर उड़ जाए ये शाम
मीलों लम्बी रात सिमट कर पल दो पल हो जाए