इब्राहीम दीदा
मुख़ातिब
आसमाँ है या ज़मीं
मालूम कर लेना
कि दोनों के लिए तश्बीब के
मिसरे अलग से हैं
कहीं ऐसा न हो
कि आसमाँ बद-ज़न
ज़मीं नाराज़ हो जाए
क़सीदे में गुरेज़-ए-ना-रवा का
मोड़ आ जाए
तिरे सर पे कोई इल्ज़ाम आएद हो
कि तू भी अंदलीब-ए-गुलशन-ए-ना-आफ्रीदा है
सुख़न-फ़हमी तिरी गुंजलक
बयाँ इबहाम-दीदा है
ये मशविरा इस लिए देता हूँ
जान-ए-मन
कि गर्दिश में घिरा है आसमाँ
बरहम तबक़ सारे
ज़मीं भी अपने महवर से अलग चक्कर लगाती है
क़सीदा सोच के लिखना
कहीं इनआम ओ ख़िलअत की जगह
कासा न भर जाए
मलामत से
ख़जालत से
निदामत से
पस्पाई
पाँच दस का
छोटा कमरा
दो
दरवाज़े
एक में गंदा पर्दा
दूजे में वो भी नहीं
बंद खिड़की
पैवंद-ज़दा मच्छर-दानी
डोलता पलंग
बैठो तो तहतुस-सुरा हिल जाए
एक औरत
आलम-ए-सुपुर्दगी में
पाँच दस के नोट
खूँटी पे टंगा ओवरकोट
लाम से बे-नैल-ओ-मुराम वापस
पस्पाई
मारका-ए-आराई
जंग से हाता-पाई
सोचो तो सिदरत-उल-मुंतहा हिल जाए