वह छुअन
अनेकों ही छवि-चित्र
लय और गीत,
कथा-कहानी,
समायी हैं चहुँ ओर।
जतन जुटाते हैं लाखों
पकड़ने को
अपनी-अपनी विध से।
पकड़ में तो कुछ भी नहीं आता,
केवल छू भर गुज़र जाता है।
वह छुअन
रंगों में सजती है,
गीत बन बिखरती है,
रूप-कथा रचती है।
सृजन का आलाप
आओ, बैठो,
मिलकर सुनें –
इस गगन झरती नीलिमा का
नील वर्णी राग।
वर्ण-छवि से टूटती
और बिखर अपने में सिमटती
रश्मि की शाश्वत् प्रभाती,
सान्ध्य-वर्णी राग।
पल्लवों का विलग हो
झरना, सहमना;
झरन के समवेत स्वर में
करुण-वैभव राग।
बीज अँकुर का उमगना
गगन लख,
फिर ललित कोमल गात
किसलय का कुतूहल;
कोंपल, किसलय की छवि से
पर्व-फल की परिणति तक
पथ-क्रमण की सतत गति
पद-चाप स्वर
झरता चिरन्तन
सृजन का आलाप
देवघर की दीप-लौ
देवछाया से लहरती,
आरती के थाल की
नैवेद्य चक्रित तान।
प्रयत्न स्पर्श
आसमान फट गया था क्या?
भरा मेघ एक ही पल में,
एक ही जगह, एक ही बार में
बरस कर खाली हो गया था क्या ?
जितनी जल-धार
उतने ही गीत बरस गये,
उतनी ही लय सुन गईं
एक ही बार
सब कुछ एक साथ।
एक पकड़ूँ तो दूसरा छूट गया,
एक सुनूँ, तो दूसरा गुज़र गया।
प्रयत्न स्पर्श
आज भी बसा है अन्तर्मन में।
कानों में पड़ा वह
अशब्द, मधुर स्वर
समाया है
अन्दर के निस्वर स्वर में –
किये है मन-उपवन
मुकुलित।
गीत-गाथा
कवि ने गीत लिखा
फूल पर
ख़ुश हुआ बहुत
आप ही,
अपनी ही कृति पर।
पहुँचा वह गीत सुनाने
बाग़ में फूल को,
बताने उसे,
उसे कितना सुन्दर
बताया है गीत में।
गीत-गाथा में मग्न
घर वापिस आ गया-
और पौधा मुरझा गया।
उसे गीत नहीं सुनना था
वह प्यासा था।
उन्मत्त-बयार
खुसफुस मत कर!
माना, तू मेरी सहेली है।
पर, है तू उन्मत्त,
ओ पागल बयार।
गुदगुदी होती है !
जो कहना है, साफ़ कह।
और, ज़रा धीरे-धीरे,
मेरी बोली में
या, अपनी बोली सिखा।
बैठ, थिर हो
सीख तू श्रम से
बोली ही मेरी !
मुझे मालूम है बहुत सुनाना है तुझे।
सुनने का कुतूहल तो तुझमें है ही नहीं !
मैं सुन ही लूँगी।
तू करती है वैसे बस इधर-उधर की।