पता नहीं क्या था
मेरा, तुम्हारे पास आना
तीर-बिंधे हंस का
सिद्धार्थ के पास आना था;
तुम्हारा मुझे
देवव्रतों को सौंप देना
पता नहीं क्या था।
बीनती हूँ
बीनती हूँ गेहूँ,
बीनती हूँ चावल,
धनिया, जीरा,
मूंग, मसूर, अरहर_
पर असल में
बीनती हूँ केवल कँकर।
कहने को
अनाज बदला होता है
मेरी थाली मे हर दोपहर।
अधूरा घोंसला
तुमने जब पकड़ा था चिड़िया को
उसकी चोंच में कुछ तिनके थे
और पेड़ पर लटका था
उसका अधूरा घोंसला।
चिड़िया गिनती नहीं जानती
इसलिये बरसों का हिसाब नहीं रखती
पर एक बात वह समझती हैं कि
जब वह नई-नई पिंजरे में बंद हुई थी
आँगन में खूब धूप आती थी
और दूर दिखाई देता था उसका पेड़।
चिड़िया के देखते ही देखते
हर ओर बड़ी-बडी़ इमारतें खडी हो गई
जिनके पीछे उसका सूरज खो गया
और खो गया वह पेड़ जिस पर
चिड़िया एक सपना बुन रही थी
चिड़िया की आँखों मे
रह-रह कर घूमता है
अपना अधूरा घोंसला।
उत्तर्राद्ध
उत्तरार्ध में आकर
सबकी भूमिकाएँ बदल गई हैं,
सारे चेहरे बदल गए हैं
या कौन जाने फिर से
मुखौटे बदल गए हैं।
कल तक जिनके बिना
सारे सुख-दुख अधूरे थे,
कल तक जिनके बिना
कोई व्यंजन स्वादिष्ट नहीं लगते थे,
कल तक जिन्हें लेने-छोड़ने
हम उनके घर तक जाते थे,
अब उनके फ़ोन भी आते हैं तो
’हम घर पर नहीं होत’।
उत्तरार्ध मे आकर
सारे बदल गए समीकरण।
दादा-दादी,नाना-नानी बनते ही
समझदार हो गए माता-पिता,
दूसरी बहू के आते ही नरमा गई सास,
सत्ता में बैठते ही
विपक्ष के ढीले पड़ गए तेवर
और अल्पमत में आते ही
बहुमत के बदल गए भाषण।
मुझे इन दिनों
बहुत याद आती है नानी_
अक्सर कहा करती थी,
“ये ऊँच-नीच, ये लेन-देन,
ये भेद-भाव दुनिया का
तुम बड़ी हो जाओगी तो
अपने आप समझ जाओगी”।
आज अगर होती तो मुझे देखकर
बहुत खुश होती नानी।
जब तक
उस पार
जब तक दशरथ
शब्दभेदी तीर चलाते आएँगे।
इस पार
तब तक श्रवण नदी में
गागर डुबोते घबराएँगे।
यादों को धूप दिखाओ
यादों को धूप दिखाओ कि
सर्द तन्हाई का मौसम है।
धीरे-धीरे
एक-एक याद की पर्त खोलो,
गर्द झाड़ो,
कोई याद बिसर न जाए ध्यान रहे,
कोई याद बिखर न जाए भान रहे,
कोई याद टूट न जाए कहीं,
कोई याद फूट न जाए कहीं,
कोई याद रूठ न जाए कहीं,
कोई याद छूट न जाए कहीं।
हर याद हथेली पर रखो–
वह छोटी हो या बड़ी,
मीठी हो या कड़वी ,
उजली हो या काली_
उसकी वज़ह से
ख़ुशी कि कोई रात मिली हो,
या बिना वज़ह मात मिली हो,
वह कोई भयावह सपना हो
या कि डर अपना हो
जिसकी याद इतनी पुरानी कि
जैसे पिछले जनम से
साथ चली आ रही हो
और अब यह डर कि
मर कर भी साथ रहेगी जैसे।
वे अब जैसी भी हैं सारी यादें
ज़रा सूरज तो दिखाओ उन्हें कि
सर्द तन्हाई का मौसम है।
धनिया
धनिया गए साल भूखा था,
इस साल प्यासा है।
तब गाँव में बाढ़ थी,
इस बार सूखा है।
मैं गाँव का नाम नहीं बताती
वरना महाजन
धनिये का सूद बढ़ा देगा
या गिरवी रखी
उसकी ज़मीन हड़प लेगा।
यूँ भी नाम से क्या फ़र्क पड़ता है?
हम सब ने स्कूल में पढ़ा है
कि ” भारत एक कॄषिप्रधान देश है
और इसकी अस्सी प्रतीशत जनसंख्या
गाँवों में रहती है”।
वह गाँव मेरा हो या तुम्हारा;
इसका हो या उसका;
इनका हो या उनका
हर गाँव में एक धनिया होता है
जिसका परिवार
अपनी क़िस्मत पर रोता है
और
“ग़रीबों को रोटी दे या सिर्फ़ धुआँ”
का मुद्दा
संसद की बहस मे टंगा होता है।
डर
आइने के सामने
आइना रखो तो
बनते हैं अनंत प्रतिबिंब।
हम सब यह अच्छे से जानते हैं
तभी तो कभी ख़ुद को
ख़ुद के सामने नहीं रखते।
देखना! एक दिन
देखना! एक दिन ज़रूर आएगा
जब औरत सिर्फ़ इसलिए
गुनाह के कटघरे में नहीं खड़ी होगी
क्योंकि वह औरत है
और न ही आदमी बैठेगा
इंसाफ़ की कुर्सी पर
सिर्फ़ इसलिए कि वह आदमी है।
देखना! वह दिन ज़रूर आएगा
जब आदमी अपने सच का इस्तेमाल
ढाल की तरह और
औरत के सच का इस्तेमाल
तलवार की तरह नहीं कर पाएगा।
देखना! वह दिन जरूर आएगा।
अगवानी
हमें ही ख़ुद उठकर
करनी होती है
प्रकाश की अगवानी
वह कभी दरवाज़े पर
दस्तक नहीं देता
हवा की तरह
तुम्हारे लिए
मुझे तुम्हारे लिए
लिखनी है, एक कविता
जो बिना पोंछे भी सोख सके
तुम्हारे माथे का पसीना ।
मुझे तुम्हारे लिए
बुनना है एक सपना
तुम्हें अच्छा लगे जो पूरा करना ।
मुझे तुम्हारे लिए
करनी है एक प्रार्थना
जिसे सुनते ही ईश्वर कह उठे
तथास्तु ! तथास्तु !
जो अमूर्त है
जो पदार्थ है
नष्ट नहीं होता कभी
रूप बदलता है केवल
कि जैसे पानी—
उड़ गया तो भाप,
जम गया तो बर्फ़ ।
जो अमूर्त है
वह भी नष्ट नहीं होता कभी
बस, रूप बदलता है केवल ।
तोलना एक-एक शब्द
कि तुम क़ैद रहोगे जीवन-भर
किसी की स्मृतियों में
और हाँ, अपनी भी ।
आप और मैं
चौसर खेलता है राजा
दाँव पर लगती है रानी,
तालियाँ बजाते हैं दरबारी
दीवारें देती हैं गवाही ।
आप और मैं ?
न राजा, न रानी
न दीवारें, न दरबारी
हम तो हैं बस कौड़ियाँ
किसी की मुट्ठी में खनकते हैं
ज़मीन पर गिरते हैं
और थरथराते रहते हैं—
बस यही अपनी आवाज़
बस यही अपना काम ।