नश्शा-ए-मय के सिवा कितने नशे और भी हैं
नश्शा-ए-मय के सिवा कितने नशे और भी हैं
कुछ बहाने मेरे जीने के लिए और भी हैं
ठंडी-ठंडी सी मगर गम से है भरपूर हवा
कई बादल मेरी आँखों से परे और भी हैं
ज़िंदगी आज तलक जैसे गुज़ारी है न पूछ
ज़िंदगी है तो अभी कितने मजे और भी हैं
हिज्र तो हिज्र था अब देखिए क्या बीतेगी
उसकी कुर्बत में कई दर्द नए और भी हैं
रात तो खैर किसी तरह से कट जाएगी
रात के बाद कई कोस कड़े और भी हैं
वादी-ए-गम में मुझे देर तक आवाज़ न दे
वादी-ए-गम के सिवा मेरे पते और भी हैं
तुझसे बिछड़ के दिल की सदा कू-ब-कू गई
तुझसे बिछड़ के दिल की सदा कू-ब-कू गई
ले आज दर्द-ए-इश्क की भी आबरू गई
वो रतजगे रहे न वो नींदों के काफ़िले
वो शाम-ए-मैकदा वो शब्-ए-मुश्कबू गई
दुनिया अजब जगह है कहीं जी बहल न जाए
तुझसे भी दूर आज तेरी आरज़ू गई
कितनी अजीब शै थी मगर ख्वाहिश-ए-विसाल
जो तेरी हो के भी न तेरे रूबरू गई
रूठी तो खूब रूठी रही हमसे फ़स्ल-ए-गुल
आई तो फिर निचोड़ के दिल का लहू गई
सीना लहुलहान था हर-हर कली का आज
बादे-ए-सबा चमन से बहुत सुर्खरू गई
तेरी सदा का है सदियों से इन्तेज़ार मुझे
तेरी सदा का है सदियों से इंतज़ार मुझे
मेरे लहू के समुन्दर जरा पुकार मुझे
मैं अपने घर को बुलंदी पे चढ़ के क्या देखूं
उरूज-ए-फ़न मेरी दहलीज़ पर उतार मुझे
उबलते देखी है सूरज से मैंने तारीकी
न रास आएगी ये सुब्ह-ए-ज़रनिगार मुझे
कहेगा दिल तो मैं पत्थर के पाँव चूमूंगा
ज़माना लाख करे आ के संगसार मुझे
वो फाकामस्त हूँ जिस राह से गुज़रता हूँ
सलाम करता है आशोब-ए-रोज़गार मुझे
वो रंग-ए-रूख़ वो आतिश-ए-खूँ कौन ले गया
वो रंग-ए-रुख़ वो आतिश-ए-ख़ूँ कौन ले गया
ऐ दिल तिरा वो रक़्स-ए-जुनूँ कौन ले गया
ज़ंजीर आँसुओं की कहाँ टूट कर गिरी
वो इंतिहा-ए-ग़म का सुकूँ कौन ले गया
दर्द-ए-निहाँ के छीन लिए किस ने आईने
नोक-ए-मिज़ा से क़तरा-ए-ख़ूँ कौन ले गया
जो शम्अ इतनी रात जली क्यूँ वो बुझ गई
जो शौक़ हो चला था फ़ुज़ूँ कौन ले गया
किस मोड़ पर बिछड़ गए ख़्वाबों के क़ाफ़िले
वो मंज़िल-ए-तरब का फ़ुसूँ कौन ले गया
जो मुझ से बोलती थीं वो रातें कहाँ गईं
जो जागता था सोज़-ए-दरूँ कौन ले गया
कहूँ ये कैसे के जीने का हौसला देते
कहूँ ये कैसे के जीने का हौसला देते
मगर ये है कि मुझे गम कोई नया देते
शब्-ए-गुज़श्ता बहुत तेज़ चल रही थी हवा
सदा तो दी पे कहाँ तक तुझे सदा देते
कई ज़माने इसी पेच-ओ-ताब में गुज़रे
के आस्मां को तेरे पाँवों पर झुका देते
हुई थी हमसे जो लग्जिश तो थाम लेना था
हमारे हाथ तुम्हें उम्र भर दुआ देते
भला हुआ कि कोई मिल गया तुम सा
वगरना हम भी किसी दिन तुम्हें भुला देते
मिला है जुर्मे वफ़ा पर अज़ाब-ए-मह्ज़ूरी
हम अपने आप को इससे कड़ी सज़ा देते
कोई तुम जैसा था, ऐसा ही कोई चेहरा था
कोई तुम जैसा था, ऐसा ही कोई चेहरा था
याद आता है कि इक ख़्वाब कहीं देखा था ।
रात जब देर तलक चाँद नहीं निकला था
मेरी ही तरह से ये साया मेरा तनहा था ।
जाने क्या सोच के तुमने मेरा दिल फेर दिया
मेरे प्यारे, इसी मिट्टी में मेरा सोना था ।
वो भी कम बख़्त ज़माने की हवा ले के गई
मेरी आँखों में मेरी मय का जो इक क़तरा था ।
तू न जागा, मगर ऐ दिल, तेरे दरवाज़े पर
ऐसा लगता है कोई पिछले पहर आया था ।
तेरी दीवार का साया न खफ़ा हो मुझसे
राह चलते यूँ ही कुछ देर को आ बैठा था ।
ऐ शबे-ग़म, मुझे ख़्वाबों में सही, दिखला दे
मेरा सूरज तेरी वादी में कहीं डूबा था ।
इक मेरी आँख ही शबनम से सराबोर रही
सुबह को वर्ना हर इक फूल का मुँह सूखा था ।
वो हुस्न जिसको देख के कुछ भी कहा न जाए
वो हुस्न जिसको देख के कुछ भी कहा न जाए
दिल की लगी उसी से कहे बिन रहा न जाए ।
क्या जाने कब से दिल में है अपना बसा हुआ
ऐसा नगर कि जिसमें कोई रास्ता न जाए ।
दामन रफ़ू करो कि बहुत तेज़ है हवा
दिल का चिराग़ फिर कोई आकर बुझा न जाए ।
नाज़ुक बहुत है रिश्त-ए दिल तेज़ मत चलो
देखो तुम्हारे हाथ से यह सिलसिला न जाए ।
इक वो भी हैं कि ग़ैर को बुनते हैं जो कफ़न
इक हम कि अपना चाक गिरेबाँ सिया न जाए ।
दिल की रह जाए न दिल में, ये कहानी कह लो
दिल की रह जाए न दिल में, ये कहानी कह लो
चाहे दो हर्फ़ लिखो, चाहे ज़बानी कह लो ।
मैंने मरने की दुआ माँगी, वो पूरी न हुई
बस, इसी को मेरे मरने की निशानी कह लो ।
तुमसे कहने की न थी बात मगर कह बैठा
बस, इसी को मेरी तबियत की रवानी कह लो ।
यही इक क़िस्सा ज़माने को मेरा याद आया
वही इक बात जिसे आज पुरानी कह लो ।
हम पे जो गुज़री है, बस, उसको रकम करते हैं
आप बीती कहो या मर्सिया ख़्वानी कह लो ।
हर-हर साँस नई ख़ुशबू की इक आहट-सी पाता है
हर-हर साँस नई ख़ुशबू की इक आहट-सी पाता है
इक-इक लम्हा अपने हाथ से जैसे निकला जाता है ।
दिन ढलने पर नस-नस में जब गर्द-सी जमने लगती है
कोई आकर मेरे लहू में फिर मुझको नहलाता है ।
सारी-सारी रात जले है जो अपनी तन्हाई में
उनकी आग में सुबह का सूरज अपना दिया जलाता है ।
मैं तो घर में अपने आप से बातें करने बैठा था
अनदेखा-सा इक चेहरा दीवार पे उभरा आता है ।
कितने सवाल हैं अब भी ऐसे, जिनका कोई जवाब नहीं
पूछनेवाला पूछ के उनको अपना दिल बहलाता है ।
जलता नहीं और जल रहा हूँ
जलता नहीं और जल रहा हूँ
किस आग में मैं पिघल रहा हूँ
मफ़लूज हैं हाथ-पाँव मेरे
फिर ज़हन में क्यूँ चल रहा हूँ
राई का बना के एक पर्वत
अब इस पे ख़ुद ही फिसल रहा हूँ
किस हाथ से हाथ मैं मिलाऊँ
अब अपने ही हाथ मल रहा हूँ
क्यों आईना बार बार देखूँ
मैं आज नहीं जो कल रहा हूँ
अब कौन सा दर रहा है बाक़ी
उस दर से क्यों मैं निकल रहा हूँ
क़दमों के तले तो कुछ नहीं है
किस चीज़ को मैं कुचल रहा हूँ
अब कोई नहीं रहा सहारा
मैं आज से फिर सम्भल रहा हूँ
ये बर्फ़ हटाओ मेरे सर से
मैं आज कुछ और जल रहा हूँ
रुख़ में गर्द-ए-मलाल थी क्या थी
रुख़ में गर्द-ए-मलाल थी क्या थी
हासिल-ए-माह-ओ-साल थी क्या थी
एक सूरत सी याद है अब भी
आप अपनी मिसाल थी क्या थी
मेरे जानिब उठी थी कोई निगाह
एक मुबहम सवाल थी क्या थी
उस को पाकर भी उस को पा न सका
जुस्तजू-ए-जमाल थी क्या थी
दिल में थी पर लबों तक आ न सकी
आरज़ू-ए-विसाल थी क्या थी
उम्र भर में बस एक बार आई
स’अत-ए-लाज़वाल थी क्या थी
तर्ज़ जीने का सिखाती है मुझे
तर्ज़ जीने का सिखाती है मुझे
तश्नगी ज़हर पिलाती है मुझे
रात भर रहती है किस बात की धुन
न जगाती है न सुलाती है मुझे
रूठता हूँ जो कभी दुनिया से
ज़िन्दगी आके मनाती है मुझे
आईना देखूँ तो क्यूँकर देखूँ
याद इक शख़्स की आती है मुझे
बंद करता हूँ जो आँखें क्या क्या
रोशनी सी नज़र आती है मुझे
कोई मिल जाये तो रास्ता कट जाये
अपनी परचाई डराती है मुझे
अब तो ये भूल गया किस की तलब
देस परदेस फिराती है मुझे
कैसे हो ख़त्म कहानी ग़म की
अब तो कुछ नींद सी आती है मुझे