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अखिलेश्वर पांडेय की रचनाएँ

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एक दिन 

मैं तुम्हारे शब्दों की उंगली पकड़ कर
चला जा रहा था बच्चे की तरह
इधर-उधर देखता
हंसता, खिलखिलाता
अचानक एक दिन
पता चला
तुम्हारे शब्द
तुम्हारे थे ही नहीं
अब मेरे लिए निश्चिंत होना असंभव था
और बड़ों की तरह
व्यवहार करना जरूरी

भाषा का नट

अखबारनवीस परेशान है-
अनर्गल के समुद्र में
गिर रही है वितर्क की नदियाँ
तलछट पर इधर-उधर
बिखरे पड़े हैं शब्द
प्रत्यय की टहनी पर बैठा है उल्लू
समास की शाख पर लटका है चमगादड़
कर्म की अवहेलना कर
बैठा है कुक्कुर
क्रिया वहीं खड़ी है चुचपाप
संज्ञा-सर्वनाम नंगे बदन
लेटे हैं रेत पर

हैरान है अखबारनवीस –
यह भाषा का कौन सा देश है
तभी अचानक
लोकप्रियता की रहस्यमयी धुन बजाते
अवतरित होता है
भाषा का नट
डुगडुगी बजाके
शुरू करता है तमाशा
सब दौड़े चले आते हैं
बनाके गोल घेरा
देख रहे अपलक
खेल रहा है भाषा का नट
उछाल रहा अक्षरों को
उपर-नीचे, दायें-बायें
तालियों से गूंज रहा चतुर्दिक
खुश है भाषा का नट

हम किस खबर की प्रतीक्षा में हैं…?

अब कोई भी खबर
रोमाँचित नहीं करती
बड़ी नहीं लगती
उत्तेजना से परे
बर्फ की तरह
ठंडी लगती है
टीवी की स्क्रीन पर अंधेरा है
नेताओं की ग्लैमर की तरह ही
विकास का मुद्दा अब बासी हो चला है
किसानों-मजदूरों का जहर खा लेना
या लगा लेना फांसी भी
विज्ञापन से भरे पेज पर छिप जाता है
चारों तरफ सन्नाटा है
शोर सुनायी नहीं पड़ता
देशभक्ति, राष्ट्रवाद चरम पर है
इंसानियत खामोश है
एकदम तमाशबीन बनकर
कानून के नुमाइंदे ही
कानून तोड़ रहे
सब चुप हैं
राष्ट्रद्रोही कौन कहलाना चाहेगा भला?
किसी से सहमत होना
गिरोहबंदी है
साथ होना लामबंदी
नपूंसकता की परिभाषा
हिजड़े तय कर रहे हैं
सीना का पैमाना 56 इंच हो गया है!
गुंगे फुसफुसा रहे हैं
बहरे सुनने लगे हैं
लंगड़ों की फर्राटा दौड़ हो रही है
हम किस खबर की प्रतीक्षा में हैं…?

कालाधन

रोटी हमारा पोषण करता है
रोटी देने वाले हमारा शोषण
चुल्हे की आग डराती है हर रोज
जंगल तेजी से खत्म हो रहे हैं
जलावन कहां से आयेगा?
‘जनधन’ खाता अब ‘अनबन’ हो गया है
संदेह की बिजली गरज रही
किसी ने बिना कहे-बताए
डाल दिए लाखों रुपये
पुलिस, बैंक, नेता, पड़ोसी
सब पूछ रहे मेरी कैफियत
क्या कहूँ मैं-
घरवाली के इलाज को एक पैसा नहीं
बिटिया के फटे कपड़ों से झांक रही लाचारी
माँ लड़ रही है टीबी से
कालाधन क्या होता है-
मुझे क्या मालूम!

रोया नहीं एक बार भी

ज़िन्दगी का बोझ उठाया न गया तो
लाश ही कंधे पर उठा ली उसने
सब सोच रहे-
कठकरेजी होगा वह

रोया नहीं एक बार भी

बीवी के मरने पर रोना तो चाहिये था
कैसे रोता वह-
बीवी तो बाद में मरी
मर गयी थी इंसानियत पहले ही
उसके लिए

कैसे रोता वह-
बिटिया जो साथ थी उसके
सयानी सी
उम्र और मन दोनों से

कैसे रोता वह-
दिखावा थोड़े न करना था उसे
मुआवजा थोड़ी न माँगनी थी उसे
शिकायत थोड़ी न करनी थी उसे
कैसे रोता वह

क्यों रोता वह-
जब बीवी ही मर गयी
जब खो दिया उसने आधी जिंदगी
जब जीना ही है बिटिया के लिए
दीना माँझी नहीं, इंद्रजीत है वह
सीख लिया है उसने
कैसे लड़ी जाती है अपनी लड़ाई
दुनियावी बेहयाई को नजरअंदाज करके

(दीना माझी वह शख्स है जो ओड़िशा में सरकारी अनदेखी का शिकार बना और एंबुलेंस नहीं मिलने पर अपनी पत्नी का शव कंधे पर लेकर अस्पताल से घर के लिए पैदल ही चल दिया)

मैं कवि हूँ 

मैं कवि हूँ…
इसीलिए जानता हूँ
घाव कितना गहरा होता है

मैं कवि हूँ…
इसीलिए मानता हूँ
मुस्कान भले नकली हो
संवेदनाएं हमेशा असली होती हैं
इसी से सच्ची बात बोलता हूँ
झूठी मुस्कान नहीं बेचता

यह कैसा समय है!

अटालिकाओं की छाया ने
हमें बौना बना दिया है
मल्टीप्लेक्स ने छिन ली हमारी मासूमियत
हैरी पॉटर को उड़ान भरते देख
रोमाँचित होते हैं हम
बच्चों को खेलने से रोकते हैं
मशीनों की शोर में
दब गयी है भाषा
बंजर हो गयी है
हमारी भावभूमि
अब उगते नहीं उसपर
सुविचार

डर पैदा करने की कला 

बड़ी-बड़ी रोबदार मूंछे
बेतरतीब बिखरे उलझे बाल
विचित्र वेशभूषा
भयानक भाव-भंगिमाएं
गजब की हरकतें
डरावनी आवाज
दूसरों को डराने के लिए
कुछ लोग क्या-क्या नहीं करते
इससे परे
कुछ कलाबाज ऐसे हैं-
जिनके ‘भाइयों-बहनों’ कहते ही
डर जाता है पूरा देश!

इतनी सी गुजारिश 

मुझे गालिब न बनाओ
गाली न दो!
मैं बड़ा कद्र करता हूँ उनका
मैं तो उनकी सफेद दाढ़ी का
एक बाल जितना भी नहीं
उर्दू मेरी मौसी (हिन्दी माँ) जरूर है
पर ठीक से जान-पहचान नहीं अभी
शेरो-शायरी भाती है (आती नहीं)
गजल सुनकर
वाह-वाह कह सकता हूँ
सुना नहीं सकता
माफ करो यारों मुझे
मैं गुलजार भी नहीं हूँ
सुना बहुत है उनको
पढ़ा भी है काफी
पर मतला और कैफियत
मेरे समझ से बाहर है
निराला, प्रसाद, बच्चन, त्रिलोचन भी नहीं मैं
सक्सेना, धूमिल जैसी जमीन नहीं मेरी
मैं किसी की छवि बनना भी नहीं चाहता
किसी से प्रतिस्पर्धा नहीं मेरी
प्रेरक हैं सब मेरे
आदरणीय हैं सब
पर उनके दिखाये रास्ते पर चलकर
मैं अपनी मंजिल नहीं पा सकता
मुझे अपनी राह अलग बनानी है
आप मुझे साधारण समझ सकते हैं
पर दूसरों से अलग हूँ मैं
मैं नहीं चाहता किसी से संघर्ष
किसी को भयाक्रांत या
तनावग्रस्त करना
नीचे गिराना या कुचलना
करना जलील या ओछा देखना
मैं तो सबका मित्र बनना चाहता हूँ
मेरे पास जो थोड़ी सी दौलत है
उसे खर्च करना चाहता हूँ
लुटाना चाहता हूँ अपनी शब्द संपदा
इस बाजारी कहकहा में
नीलाम होना फितरत नहीं मेरी
मैं शब्दों का सुगंध फैलाना चाहता हूँ
विचारों को रोपित करना चाहता हूँ
आपके कोमल मन की धरालत पर
मैं अब भी इन बातों पर
विश्वास करता हूँ कि
हवा शुद्ध हो न हो
प्रेम अब भी सबसे शुद्ध है
हम अपनी मूर्खतापूर्ण इच्छाओं से
धोखा भले खा जाएं
खुद पर भरोसा हो तो
प्रेम में धोखा नहीं खा सकते
आप जानकर भले ही चकित न हों
पर सच यही है कि
धरती की शुद्ध हवा
इसलिए कम हो गयी क्योंकि
हमने प्रकृति से प्यार करना कम कर दिया
इसलिए मित्रों!
मैं कहता हूँ-
हवा को हम शुद्ध भले न बना पाएं
प्रेम तो शुद्ध करें
यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिससे
सबकुछ सहज ही शुद्ध हो जाएगा
अगर शुद्ध होगा
हमारा अंतर्मन
हमारा वातावरण
हमारे विचार
हमारे कर्म
हमारे व्यवहार
तो बची कहां रह जायेगी
गंदगी!
मेरा मानना है-
किसी के पीछे दौड़ना छोड़ो
खुद से मुकाबला करो
खुद के ही बनो दुश्मन
और रक्षक भी
रोज मारो खुद को
रोज पैदा हो जाओ खुद ही
अहं का पहाड़ आखिर कब तक
खड़ा रह सकता है
खुद पर काबू पाना सबसे
आसान काम है और सबसे कठिन भी
यह जानते हैं सब
फिर आजमाने में हर्ज क्या है!

आशी के लिए दो कविताएँ 

एक

घर लौटता हूँ तो
उसे देखते ही
मुख पर आ जाती है मुस्कान
वह ममता की नर्च चादर ओढ़े
सो रही होती है
उसकी पलकों की नीरवता मेरी आहट पहचान जाते हैं
उसके होठों पर बिखर आती है मुस्कान

उसके चुंबन से उदित होता है उषाकाल
गो कि दूब पर चमह उठी हो ओस
वह इंद्रधनुष के रंगों से
बादलों पर करती है चित्रकारी
ज्यामितिय रूपाकारों में
नाचते ही रहते हैं उसके नैन
उसके बालों में हाथ डाल
पकड़ लेता हूँ खुद की परछाई को.

दो

कुछ बटनों की टक-टक हुई
स्क्रीन पर उभर आया… आशी
यह असाधारण था
क्योंकि, यह उन ऊंगलियों का कमाल था
जिसका उन्हें इल्म तक नहीं था

कम्प्यूटर उसके लिए नई वस्तु थी
मैं चकित था
मेरे सामने मेरी बेटी
जो अभी सिर्फ तीन साल की है
कम्प्यूटर पर अपना नाम लिख रही है

कभी इस उम्र में मेरी ऊंगलियाँ
सरकंडे से बनी कलम से जूझती थीं
पेंसिलें भी नहीं
स्याही भरे जाने वाले कलम से
दवात, कागज लेकर स्कूल जाना
ऊंगलियों का स्याही से पुत जाना

बगल में खड़े मेरे मित्र अजित ने कहा
भाई साहब, यह न्यू जेनरेशन है
हमारो दिमाग से तेज इनकी उंगलियाँ चलती हैं

कविता 

कविता नहीं बना सकती किसी दलित को ब्राह्णण
कविता नहीं दिला सकती सूखे का मुआवजा
कविता नहीं बढ़ा सकती खेतों का पैदावार
कविता नहीं रोक सकती बढ़ती बेरोजगारी
कविता नहीं करा सकती किसी बेटी का ब्याह
कविता नहीं मिटा सकती अमीरी-गरीबी का भेद

कवियों!
तुम्हारी कविता
मिट्टी का माधो है…
जो सिर्फ दिखता अच्छा है
अंदर से है खोखला..!

कवियों!
तुम्हारी कविता
खोटा सिक्का है…
जो चल नहीं सकता
इस दुनिया के बाजार में..!

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