दोस्त हो जब दुश्मने-जाँ
दोस्त हो जब दुश्मन-ए-जाँ तो क्या मालूम हो
आदमी को किस तरह अपनी कज़ा मालूम हो
आशिक़ों से पूछिये खूबी लब-ए-जाँबख्श की
जौहरी को क़द्र-ए-लाल-ए-बेबहा मालूम हो
दाम में लाया है “आतिश” सब्जा-ए-ख़त-ए-बुतां
सच है क्या इंसा को किस्मत का लिखा मालूम हो
ये आरज़ू थी तुझे गुल के रूबरू करते
ये आरज़ू थी तुझे गुल के रूबरू करते
हम और बुलबुल-ए-बेताब गुफ़्तगू करते
पयाम बर न मयस्सर हुआ तो ख़ूब हुआ
ज़बान-ए-ग़ैर से क्या शर की आरज़ू करते
मेरी तरह से माह-ओ-महर भी हैं आवारा
किसी हबीब को ये भी हैं जुस्तजू करते
जो देखते तेरी ज़ंजीर-ए-ज़ुल्फ़ का आलम
असीर होने के आज़ाद आरज़ू करते
न पूछ आलम-ए-बरगश्ता तालि-ए-“आतिश”
बरसती आग में जो बाराँ की आरज़ू करते
सुन तो सही जहाँ में है तेरा फ़साना क्या
सुन तो सही जहाँ में है तेरा फ़साना क्या
केहती है तुझको खल्क़-ए-खुदा ग़ाएबाना क्या
ज़ीना सबा का ढूँढती है अपनी मुश्त-ए-ख़ाक
बाम-ए-बलन्द यार का है आस्ताना क्या
ज़ेरे ज़मीं से आता है गुल हर सू ज़र-ए-बकफ़
क़ारूँ ने रास्ते में लुटाया खज़ाना क्या
चारों तरफ़ से सूरत-ए-जानाँ हो जलवागर
दिल साफ़ हो तेरा तो है आईना खाना क्या
तिब्ल-ओ-अलम न पास है अपने न मुल्क-ओ-माल
हम से खिलाफ़ हो के करेगा ज़माना क्या
आती है किस तरह मेरी क़ब्ज़-ए-रूह को
देखूँ तो मौत ढूँढ रही है बहाना क्या
तिरछी निगाह से ताइर-ए-दिल हो चुका शिकार
जब तीर कज पड़ेगा उड़ेगा निशाना क्या?
बेताब है कमाल हमारा दिल-ए-अज़ीम
महमाँ साराय-ए-जिस्म का होगा रवाना क्या
यूँ मुद्दई हसद से न दे दाद तू न दे
आतिश ग़ज़ल ये तूने कही आशिक़ाना क्या?
तड़पते हैं न रोते हैं न हम फ़रियाद करते हैं
तड़पते हैं न रोते हैं न हम फ़रियाद करते हैं
सनम की याद में हर-दम ख़ुदा को याद करते हैं
उन्हीं के इश्क़ में हम नाला-ओ-फ़रियाद करते हैं
इलाही देखिये किस दिन हमें वो याद करते हैं
शब-ए-फ़ुर्क़त में क्या-क्या साँप लहराते हैं सीने पर
तुम्हारी काकुल-ए-पेचाँ को जब हम याद करते हैं
यार को मैं ने मुझे यार ने सोने न दिया
यार को मैं ने मुझे यार ने सोने न दिया
रात भर तालि’-ए-बेदार ने सोने न दिया
एक शब बुलबुल-ए-बेताब के जागे न नसीब
पहलू-ए-गुल में कभी ख़ार ने सोने न दिया
रात भर कीं दिल-ए-बेताब ने बातें मुझ से
मुझ को इस इश्क़ के बीमार ने सोने न दिया