आरज़ूएँ ना-रसाई रू-ब-रू मैं और तू
आरज़ूएँ ना-रसाई रू-ब-रू मैं और तू
क्या अजब क़ुर्बत थी वो भी मैं न तू मैं और तू
झुटपुटा ख़ुनी उफ़ुक की वुसअतें ख़ामोशियाँ
फ़ासले दो पेड़ तनहा हू-ब-हू मैं और तू
ख़ुश्क आँखों के जज़ीरों में बगूलों का ग़ुबार
धड़कनों का शोर सुरमा-दर-गुलू मैं और तू
बारिश-ए-संग-ए-मलामत और ख़िल्क़त शहर की
प्यार के मासूम जज़्बों का लहू मैं और तू
अजनबी नज़रों के शोले हर तरफ़ फैले हुए
दुश्मन-ए-जाँ राह ओ मंज़िल काख ओ कू मैं और तू
नफ़रतों की गर्द रस्ता काटती हर मोड़ पर
इश्क़ की ख़ुश-बू में उड़ते कू बा कू मैं और तू
इहतिराम-ए-आदमी एहसास-ए-ग़म मर्ग-ए-अना
आज किस किस जख़्म को करते रफ़ू मैं और तू
फ़रियाद भी है सू-ए-अदम अपने शहर में
फ़रियाद भी है सू-ए-अदम अपने शहर में
हम फिर रहे हैं मोहर-ब-लब अपने शहर में
अब क्या दयार-ए-ग़ैर में ढूँडने हम आश्ना
अपने तो ग़ैर हो गए सब अपने शहर में
अब इम्तियाज़-ए-दुश्मनी-ओ-दोस्ती किसे
हालात हो गए हैं अजब अपने शहर में
जो फूल आया सब्ज़ क़दम हो के रह गया
कब फ़स्ल-ए-गुल है फ़स्ल-ए-तरब अपने शहर में
जो रांदा-ए-ज़माना थे अब शहरयार हैं
किस को ख़याल-ए-नाम-ओ-नसब अपने शहर में
इक आप हैं के सारा ज़माना है आप का
इक हम के अजनबी हुए अब अपने शहर में
‘ख़ातिर’ अब अहल-ए-दिल भी बने हैं ज़माना-साज़
किस से करें वफ़ा की तलब अपने शहर में
गो ज़रा सी बात पर बरसों के याराने गए
गो ज़रा सी बात पर बरसों के याराने गए
लेकिन इतना तो हुआ कुछ लोग पहचाने गए
गर्मी-ए-महफिल फ़क़त इक नारा-ए-मस्ताना है
और वो ख़ुश हैं कि इस महफ़िल से दिवाने गए
मैं इसे शोहरत कहूँ या अपनी रूसवाई कहूँ
मुझ से पहले उस गली में मेरे अफ़साने गए
वहशतें कफछ इस तरह अपना मुक़द्र बन गईं
हम जहाँ पहुँचे हमारे साथ वीराने गए
यूँ तो मेरी रग-ए-जाँ से भी थे नज़दीक-तर
आँसुओं की धुँद में लेकिन न पहचाने गए
अब भी उन यादों की ख़ुश-बू जे़हन में महफ़ूज है
बारहा हम जिन से गुलज़ारों को महकाने गए
क्या क़यामत है के ‘ख़ातिर’ कुश्ता-ए-शब थे भी हम
सुब्ह भी आई तो मुजरिम हम ही गर्दाने गए
इक तजस्सुस दिल में है ये क्या हुआ कैसे हुआ
इक तजस्सुस दिल में है ये क्या हुआ कैसे हुआ
जो कभी अपना न था वो ग़ैर का कैसे हुआ
मैं कि जिस की मैं ने तो देखा न था सोचा न था
सोचता हूँ वो सनम मेरा ख़ुदा कैसे हुआ
है गुमाँ दीवार-ए-जिं़दाँ का फ़सील-ए-शहर पर
वो जो इक शोला था हर दिल में फना कैसे हुआ
रंग-ए-ख़ूँ रोज़-ए-अज़ल से है निशान-ए-इंक़िलाब
ज़ीस्त का उनवाँ मगर रंग-ए-हिना कैसे हुआ
ग़ज़नवी तो बुत-शिकन ठहरा मगर ‘ख़ातिर’ ये क्या
तेरे मसलक में उसे सजदा रवा कैसे हुआ
जफ़ाएँ बख़्श के मुझ को मेरी वफ़ा माँगें
जफ़ाएँ बख़्श के मुझ को मेरी वफ़ा माँगें
वो मेरे क़त्ल का मुझ ही से ख़ूँ-बहा माँगें
ये दिल हमारे लिए जिस ने रत-जगे काटे
अब इस से बढ़ के कोई दोस्त तुझ से क्या माँगें
वही बुझाते हैं फूँकों से चाँद तारों को
के जिन की शब के उजालों की हम दुआ माँगें
फ़ज़ाएँ चुप हैं कुछ ऐसी के दर्द बोलता है
बदन के शोर में किस को पुकारें क्या माँगें
क़नाअतें हमें ले आईं ऐसी मंज़िल पर
के अब सिले की तमन्ना न हम जज़ा माँगें
कैसी चली है अब के हवा तेरे शहर में
कैसी चली है अब के हवा तेरे शहर में
बंदे भी हो गए हैं ख़ुदा तेरे शहर में
तू और हरीम-ए-नाज़ में पा-बस्ता-ए-हिना
हम फिर रहे हैं आबला-पा तेरे शहर में
क्या जाने क्या हुआ के परेशान हो गई
इक लहज़ा रूक गई थी सबा तेरे शहर में
कुछ दुश्मनी का ढब है न अब दोस्ती का तौर
दोनों का एक रंग हुआ तेरे शहर में
शायद तुझे ख़बर हो के ‘ख़ातिर’ था अजनबी
लोगों ने उस को लूट लिया तेरे शहर में
किस सम्त ले गईं मुझे उसे दिल की धड़कनें
किस सम्त ले गईं मुझे उसे दिल की धड़कनें
पीछे पुकारती रहीं मंज़िल की धड़कनें
गो तेरे इल्तिफ़ात के क़ाबिल नहीं मगर
मिलती हैं तेरे दिल से मेरे दिल की धड़कनें
मख़मूर कर गया मुझे तेरा ख़िराम-ए-नाज़
नग़मे जगा गईं तेरी पायल की धड़कनें
लहरों की धड़कनें भी न उन को जगा सकीं
किस दर्जा बे-नियाज़ हैं साहिल की धड़कनें
वहशत में ढूँढता ही रहा क़ैस उम्र भर
गुम गईं बगूलों में महमिल की धड़कनें
लहरा रहा है तेरी निगाहों में इक पयाम
कुछ कह रही हैं साफ़ तेरे दिल की धड़कनें
ये कौन चुपके चुपके उठा और चल दिया
‘ख़ातिर’ ये किस ने लूट लीं महफ़िल की धड़कनें
पहली मोहब्बतों के ज़माने गुज़र गए
पहली मोहब्बतों के ज़माने गुज़र गए
साहिल पे रेत छोड़ के दरिया उतर गए
तेरी अना नियाज़ की किरनें बुझा गई
जज़्बे जो दिल में उभरे थे शर्मिंदा कर गए
दिल की फ़ज़ाएँ आ के कभी ख़ुद भी देख लो
तुम ने जो दाग़ बख़्शे थे क्या क्या निखर गए
तेरे बदन की लौ में करिश्मा नुमू का था
ग़ुंचे जो तेरी सेज पे जागे सँवर गए
सदियों में चाँद फूल खिले और समर बने
लम्हों में आँधियों के थपेड़ों से मर गए
शब भर बदन मनाते रहे जश्न-ए-माहताब
आई सहर तो जेसे अँधेरों से भर गए
महफ़िल में तेरी आए थे लेकर नज़र की प्यास
महफ़िल से तेरी ले मगर चश्म-ए-तर गए
क़तरे की जुरअतों ने सदफ़ से लिया ख़राज
दरिया समंदरों से मिले और मर गए
तेरी तलब थी तेरे आस्ताँ से लौट आए
तेरी तलब थी तेरे आस्ताँ से लौट आए
ख़िज़ाँ-नसीब रहे गुलसिताँ से लौट आए
ब-सद-यकीं बढ़े हद्द-ए-गुमाँ से लौट आए
दिल ओ नज़र के तक़ाजे़ कहाँ से लौट आए
सर-ए-नियाज़ को पाया न जब तेरे क़ाबिल
ख़राब-ए-इश्क़ तेरे आस्ताँ से लौट आए
क़फ़स के उन्स ने इस दर्जा कर दिया मजबूर
के उस की याद में हम आशियाँ से लौट आए
बुला रही हैं जो तेरी सितारा-बार आँखें
मेरी निगाह न क्यूँ कहकशाँ से लौट आए
न दिल में अब वो ख़लिश है न ज़िंदगी में तड़प
ये कह दो फिर मेरे दर्द-ए-निहाँ लौट आए
गुलों की महफ़िल-ए-रंगीं में ख़ार बन न सके
बहार आई तो हम गुलसिताँ से लौट आए
फ़रेब हम को न क्या क्या इस आरज़ू ने दिए
वही थी मंज़िल-ए-दिल हम जहाँ से लौट आए
वहशतों का कभी शैदाई नहीं था इतना
वहशतों का कभी शैदाई नहीं था इतना
जैसे अब हूँ तेरा सौदाई नहीं था इतना
बारहा दिल ने तेरा कुर्ब भी चाहा था मगर
आज की तरह तमन्नाई नहीं था इतना
इस से पहले भी कई बार मिले थे लेकिन
शौक़ दिलदादा-ए-रूसवाई नहीं था इतना
पास रह कर मुझे यूँ क़ुर्ब का एहसास न था
दूर रह कर ग़म-ए-तनहाई नहीं था इतना
अपने ही सायों में क्यूँ खो गई नज़रें ‘ख़ातिर’
तू कभी अपना तमाशाई नहीं था इतना
जब उस ज़ुल्फ़ की बात चली
जब उस ज़ुल्फ़ की बात चली
ढलते ढलते रात ढली
उन आंखों ने लूट के भी
अपने ऊपर बात न ली
शम्अ का अन्जाम न पूछ
परवानों के साथ जली
अब भी वो दूर रहे
अब के भी बरसात चली
‘ख़ातिर’ ये है बाज़ी-ए-दिल
इसमें जीत से मात भली