Skip to content

Gang-Kavita-kosh.jpg

फूट गये हीरा की बिकानी कनी हाट हाट

फूट गये हीरा की बिकानी कनी हाट हाट,
काहू घाट मोल काहू बाढ़ मोल को लयो।
टूट गई लँका फूट मिल्या जो विभीषन है,
रावन समेत बस आसमान को गयो।
कहै कवि गँग दुरजोधन से छत्रधारी,
तनक मे फूँके तें गुमान बाको नै गयो।
फूटे ते नरद उठि जात बाजी चौसर की,
आपुस के फूटे कहु कौन को भलो भयो।

उझकि झरोखे झाँकि परम नरम प्यारी 

उझकि झरोखे झाँकि परम नरम प्यारी ,
नेसुक देखाय मुख दूनो दुख दै गई ।
मुरि मुसकाय अब नेकु ना नजरि जोरै ,
चेटक सो डारि उर औरै बीज बै गई ।
कहै कवि गंग ऎसी देखी अनदेखी भली ,
पेखै न नजरि में बिहाल बाल कै गई ।
गाँसी ऎसी आँखिन सों आँसी आँसी कियो तन ,
फाँसी ऎसी लटनि लपेटि मन लै गई ।

मृगनैनी की पीठ पै बेनी लसै

मृगनैनी की पीठ पै बेनी लसै, सुख साज सनेह समोइ रही।
सुचि चीकनी चारु चुभी चित में, भरि भौन भरी खुसबोई रही॥
कवि ‘गंग’ जू या उपमा जो कियो, लखि सूरति या स्रुति गोइ रही।
मनो कंचन के कदली दल पै, अति साँवरी साँपिन सोइ रही॥

करि कै जु सिंगार अटारी चढी 

करि कै जु सिंगार अटारी चढी, मनि लालन सों हियरा लहक्यो।
सब अंग सुबास सुगंध लगाइ कै, बास चँ दिसि को महक्यो॥
कर तें इक कंकन छूटि परयो, सिढियाँ सिढियाँ सिढियाँ बहक्यो।
कवि ‘गंग भनै इक शब्द भयो, ठननं ठननं ठननं ठहक्यो॥

लहसुन गाँठ कपूर के नीर में 

लहसुन गाँठ कपूर के नीर में, बार पचासक धोइ मँगाई।
केसर के पुट दै दै कै फेरि, सुचंदन बृच्छ की छाँह सुखाई॥
मोगरे माहिं लपेटि धरी ‘गंग बास सुबास न आव न आई।
ऐसेहि नीच को ऊँच की संगति, कोटि करौ पै कुटेव न जाई॥

रती बिन साधु, रती बिन संत

रती बिन साधु, रती बिन संत, रती बिन जोग न होय जती को॥
रती बिन मात, रती बिन तात, रती बिन मानस लागत फीको।
‘गंग कहै सुन साह अकब्बर, एक रती बिन पाव रती को॥
एक को छोड बिजा को भजै, रसना जु कटौ उस लब्बर की।

अब तौ गुनियाँ दुनियाँ को भजै

अब तौ गुनियाँ दुनियाँ को भजै, सिर बाँधत पोट अटब्बर की॥
कवि ‘गंग तो एक गोविंद भजै, कुछ संक न मानत जब्बर की।
जिनको हरि की परतीत नहीं, सो करौ मिल आस अकब्बर की॥

चकित भँवरि रहि गयो

चकित भँवरि रहि गयो, गम नहिं करत कमलवन,
अहि फन मनि नहिं लेत, तेज नहिं बहत पवन वन।
हंस मानसर तज्यो चक्क चक्की न मिलै अति,
बहु सुंदरि पदिमिनी पुरुष न चहै, न करै रति।
खलभलित सेस कवि गंग भन, अमित तेज रविरथ खस्यो,
खानान खान बैरम सुवन जबहिं क्रोध करि तंग कस्यो॥

बैठी थी सखिन संग

बैठी थी सखिन सँग,पिय को गवन सुन्यौ ,
सुख के समूह में बियोग आगि भरकी.
गंग कहै त्रिविध सुगंध कै पवन बह्यो,
लागत ही ताके तन भई बिथा जर की.
प्यारी को परसि पौन गयो मानसर कहूँ ,
लागत ही औरे गति भई मानसर की.
जलचर चरे औ सेवार जरि छार भयो,
तल जरि गयो,पंक सूख्यो भूमि दर की.

झुकत कृपान मयदान ज्यों 

झुकत कृपान मयदान ज्यों उदोत भान,
एकन ते एक मान सुषमा जरद की.
कहै कवि गंग तेरे बल को बयारि लगे,
फूटी गजघटा घनघटा ज्यों सरद की.
एन मान सोनित की नदियाँ उमड़ चलीं,
रही न निसानी कहूँ महि में गरद की.
गौरी गह्यो गिरिपति, गनपति गह्यो गौरी,
गौरीपति गही पूँछ लपकि बरद की.

देखत कै वृच्छन में 

देखत कै वृच्छन में दीरघ सुभायमान,
कीर चल्यो चाखिबे को प्रेम जिय जग्यो है.
लाल फल देखि कै जटान मँड़रान लागे,
देखत बटोही बहुतेरे डगमग्यो है.
गंग कवि फल फूटे भुआ उधिराने लखि,
सबही निरास ह्वै कै निज गृह भग्यो है.
ऐसो फलहीन वृच्छ बसुधा में भयो, यारो,
सेंमर बिसासी बहुतेरन को ठग्यो है.

तारों के तेज में चन्द्र छिपे नहीं 

तारों के तेज में चन्द्र छिपे नहीं
सूरज छिपे नहीं बादल छायो
चंचल नार के नैन छिपे नहीं
प्रीत छिपे नहीं पीठ दिखायो
रण पड़े राजपूत छिपे नहीं
दाता छिपे नहीं मंगन आयो
कवि गंग कहे सुनो शाह अकबर
कर्म छिपे नहीं भभूत लगायो।

माता कहे मेरो पूत सपूत

माता कहे मेरो पूत सपूत
बहिन कहे मेरो सुन्दर भैया
बाप कहे मेरे कुल को है दीपक
लोक लाज मेरी के है रखैया
नारि कहे मेरे प्रानपती हैं
जाकी मैं लेऊँ दिनरात बलैया
कवि गंग कहे सुन शाह अकबर
गाँठ में जिनकी है ढेरों रुपैया

एक बुरो प्रेम को पंथ

एक बुरो प्रेम को पंथ, बुरो जंगल में बासो
बुरो नारी से नेह बुरो, बुरो मूरख में हँसो
बुरो सूम की सेव, बुरो भगिनी घर भाई
बुरी नारी कुलक्ष, सास घर बुरो जमाई
बुरो ठनठन पाल है बुरो सुरन में हँसनों
कवि गंग कहे सुन शाह अकबर सबते बुरो माँगनो

नवल नवाब खानख़ाना जू तिहारी त्रास

नवल नवाब खानख़ाना जू तिहारी त्रास,
भागे देश पति धुनि सुनत निसान की।
गंग कहै तिनहूं की रानी रजधानी छाँड़ि,
फिरै बिललानी सुधि भूली खान-पान की।
तेऊ मिली करिन हरिन मृग बानरानी,
तिनहूं की भली भई रच्छा तहाँ प्रान की।
सची जानी करिन, भवानी जानी केहरनि,
मृगन कलानिधि, कपिन जानी जानकी॥

हहर हवेली सुनि सटक समरकंदी 

हहर हवेली सुनि सटक समरकंदी,
धीर न धरत धुनि सुनत निसाना की।
मछम को ठाठ ठठ्यो प्रलय सों पटलबौ ‘गंग’,
खुरासान अस्पहान लगे एक आना की।
जीवन उबीठे बीठे मीठे-मीठे महबूबा,
हिए भर न हेरियत अबट बहाना की।
तोसखाने, फीलखाने, खजाने, हुरमखाने,
खाने खाने खबर नवाब ख़ानखाना की।

Leave a Reply

Your email address will not be published.