पूरे चाँद की रात
आज फिर पूरे चाँद की रात है;
और साथ में बहुत से अनजाने तारे भी है…
और कुछ बैचेन से बादल भी है…
इन्हे देख रहा हूँ और तुम्हे याद करता हूँ..
खुदा जाने;
तुम इस वक्त क्या कर रही होंगी…..
खुदा जाने;
तुम्हे अब मेरा नाम भी याद है या नही..
आज फिर पूरे चाँद की रात है!!!
मोहब्बत
तुम अपने हाथो की मेहँदी में
मेरा नाम लिखती थी और
मैं अपनी नज्मो में तुझे पुकारता था जानां;
लेकिन मोहब्बत की बाते अक्सर किताबी होती है
जिनके अक्षर
वक्त की आग में जल जाते है
किस्मत की दरिया में बह जाते है;
तेरे हाथो की मेंहदी से मेरा नाम मिट गया
लेकिन मुझे तेरी मोहब्बत की कसम,
मैं अपने नज्मो से तुझे जाने न दूंगा…
ये मेरी मोहब्बत है जानां!!
मैं तुमसे प्यार करता हूँ
अक्सर मैं सोचता हूँ कि,
मैं तुम्हारे संग बर्फीली वादियों में खो जाऊँ!
और तुम्हारा हाथ पकड़ कर तुम्हे देखूं…
तुम्हारी मुस्कराहट;
जो मेरे लिए होती है, बहुत सुख देती है मुझे…..
उस मुस्कराहट पर थोडी सी बर्फ लगा दूं .
यूँ ही तुम्हारे संग देवदार के लम्बे और घने सायो में
तुम्हारा हाथ पकड़ कर चलूँ……
और उनके सायो से छन कर आती हुई धूप से
तुम्हारे चेहरे पर आती किरणों को,
अपने चेहरे से रोक लूं…..
यूँ ही किसी चांदनी रात में
समंदर के किनारे बैठ कर
तुम्हे देखते हुए;
आती जाती लहरों से तेरा नाम पूछूँ…
यूँ ही,किसी घने जंगल के रास्तो पर
टेड़े मेडे राहो पर पढ़े सूखे पत्तो पर चलते हुए
तुम्हे प्यार से देखूं…
और; तुम्हारा हाथ पकड़ कर आसमान की ओर देखूं
और उस खुदा का शुक्रिया अदा करूँ
और कहूँ कि
मैं तुमसे प्यार करता हूँ…
रिश्ता
तुझे देखा नही,पर तुझे चाह लिया
तुझे ढूँढानही, पर तुझे पा लिया…
सच!!!
कैसे कैसे जादू होतें है ज़िन्दगी के बाजारों में….
रिश्ता
अभी अभी मिले है,
पर जन्मों की बात लगती है
हमारा रिश्ता
ख्वाबों की बारात लगती है
आओं…एक रिश्ता हम उगा ले;
ज़िन्दगी के बरगदपर,
तुम कुछ लम्हों की रोशनी फैला दो,
मैं कुछ यादो की झालर बिछा दूँ…
कुछ तेरी साँसे, कुछ मेरी साँसे .
इस रिश्ते के नाम उधार दे दे…
आओ, एक खवाब बुन ले इस रिश्ते में
जो इस उम्र को ठहरादे;
एक ऐसे मोड़ पर….
जहाँ मैं तेरी आँखों से आंसू चुरा लूँ
जहाँ मैं तेरी झोली,खुशियों से भर दूँ
जहाँ मैं अपनी हँसी तुझे दे दूँ…
जहाँ मैं अपनी साँसों में तेरी खुशबु भर लूँ
जहाँ मैं अपनी तकदीर में तेरा नाम लिख दूँ
जहाँ मैं तुझ में पनाह पा लूँ…
आओ, एक रिश्ता बनाये
जिसका कोई नाम न हो
जिसमे रूह की बात हो…
और सिर्फ़ तू मेरे साथ हो…
और मोहब्बत के दरवेशकहे
अल्लाह, क्या मोहब्बत है!!!
पनाह
बड़ी देर से भटक रहा था पनाह की खातिर;
कि तुम मिली!सोचता हूँ कि;
तुम्हारी आंखो में अपने आंसू डाल दूं…
तुम्हारी गोद में अपना थका हुआ जिस्म डाल दूं….
तुम्हारी रूह से अपनी रूह मिला दूं….
पहले किसी फ़कीर से जानो तो जरा…
कि,
तुम्हारी किस्मत की धुंध में मेरा साया है कि नही!!!!
कोई कैसे तुम्हे भूल जाए
तुम…
किसी दूसरी ज़िन्दगी का एहसास हो…
कुछ पराये सपनों की खुशबू हो…
कोई पुरानी फरियाद हो…
किस से कहूँ की तुम मेरे हो…
कोई तुम्हे कैसे भूल जाएँ…
तुम…
किसी किताब में रखा कोई सूखा फूल हो
किसी गीत में रुका हुआ कोई अंतरा हो
किसी सड़क पर ठहरा हुआ कोई मोड़ हो
किस से कहूँ की तुम मेरे हो…
कोई तुम्हे कैसे भूल जाएँ…
तुम…
किसी अजनबी रिश्ते की आंच हो
किसी अनजानी धड़कन का नाम हो
किसी नदी में ठहरी हुई धारा हो
किस से कहूँ की तुम मेरे हो…
कोई तुम्हे कैसे भूल जाएँ….
तुम…
किसी आंसू में रुखी हुई सिसकी हो
किसी खामोशी के जज्बात हो
किसी मोड़ पर छूटा हुआ हाथ हो
किस से कहूँ की तुम मेरे हो…
कोई तुम्हे कैसे भूल जाएँ….
तुम… हां, तुम…
हां, मेरे अपने सपनो में तुम हो
हां, मेरी आखरी फरियाद तुम हो
हां, मेरी अपनी ज़िन्दगी का एहसास हो…
कोई तुम्हे कैसे भूल जाएँ कि तुम मेरे हो…
हां, तुम मेरे हो…
हां, तुम मेरे हो…
हां, तुम मेरे हो…
और फिर तुम्हारी याद
एक छोटा सा धुप का टुकड़ा
अचानक ही फटा हुआ आकाश
बेहिसाब बरसती बारिश की कुछ बूंदे
और तुम्हारे जिस्म की सोंघी सुगंध
…और फिर तुम्हारी याद
उजले चाँद की बैचेनी
अनजान तारो की जगमगाहट
बहती नदी का रुकना
और रुके हुए जीवन का बहना
…और फिर तुम्हारी याद
टूटे हुए खपरैल के घर
राह देखती कच्ची सड़क
टुटा हुआ एक पुराना मंदिर
और रूठा हुआ कोई देवता
…और फिर तुम्हारी याद
आज एक नाम ख़ुदा का
और आज एक नाम तेरा
आज एक नाम मेरा भी
और फिर एक नाम इश्क का
…और फिर तुम्हारी याद
जब तुम मुझसे मिलने आओगी
एक दिन जब तुम;
मुझसे मिलने आओगी प्रिये,
मेरे मन का श्रंगार किये हुये,
तुम मुझसे मिलने आना!!
तब मैं वो सब कुछ तुम्हे अर्पण कर दूँगा…
जो मैंने तुम्हारे लिए बचा कर रखा है…..
कुछ बारिश की बूँदें…
जिसमे हम दोनों ने अक्सर भीगना चाहा था
कुछ ओस की नमी…
जिनके नर्म अहसास हमने
अपने बदन पर ओड़ना चाहा था
और इस सब के साथ रखा है…
कुछ छोटी चिडिया का चहचहाना,
कुछ सांझ की बेला की रौशनी,
कुछ फूलों की मदमाती खुशबु,
कुछ मन्दिर की घंटियों की खनक,
कुछ संगीत की आधी अधूरी धुनें,
कुछ सिसकती हुई सी आवाजे,
कुछ ठहरे हुए से कदम,
कुछ आंसुओं की बूंदे,
कुछ उखड़ी हुई साँसे,
कुछ अधूरे शब्द,
कुछ अहसास,
कुछ खामोशियाँ,
कुछ दर्द!
ये सब कुछ बचाकर रखा है मैंने
सिर्फ़ तुम्हारे लिये प्रिये!
मुझे पता है,
एक दिन तुम मुझसे मिलने आओगी;
लेकिन जब तुम मेरे घर आओगी तो;
एक अजनबी खामोशी के साथ आना,
थोड़ा अपनी जुल्फों को खुला रखना,
अपनी आँखों में थोड़ी नमी रखना,
लेकिन मेरा नाम न लेना!!!
मैं तुम्हे ये सब कुछ दे दूँगा,प्रिये
और तुम्हे भीगी आँखों से विदा कर दूँगा
लेकिन जब तुम मुझे छोड़ कर जाओगी
तो अपनी आत्मा को मेरे पास छोड़ जाना
किसी और जनम के लिये
किसी और प्यार के लिये
हाँ;शायद मेरे लिये
हाँ मेरे लिये!!!
अचानक एक मोड़ पर
अचानक एक मोड़ पर, अगर हम मिले तो,
क्या मैं, तुमसे; तुम्हारा हाल पूछ सकता हूँ;
तुम नाराज़ तो नही होंगी न?
अगर मैं तुम्हारे आँखों के ठहरे हुए पानी से
मेरा नाम पूछूँ; तो तुम नाराज़ तो नही होंगी न?
अगर मैं तुम्हारी बोलती हुई खामोशी से
मेरी दास्ताँ पूछूँ; तो तुम नाराज़ तो नही होंगी न?
अगर मैं तेरा हाथ थाम कर,तेरे लिए;
अपने खुदा से दुआ करूँ; तो तुम नाराज़ तो नही होंगी न?
अगर मैं तुम्हारे कंधो पर सर रखकर,
थोड़े देर रोना चाहूं; तो तुम नाराज़ तो नही होंगी न?
अगर मैं तुम्हे ये कहूँ,की मैं तुम्हे;
कभी भूल न पाया; तो तुम नाराज़ तो नही होंगी न?
अचानक एक मोड़ पर, अगर हम मिले तो,
क्या मैं, तुमसे; तुम्हारा हाल पूछ सकता हूँ;
तुम नाराज़ तो नही होंगी न?
भोर
भोर भई मनुज, अब तो तू उठ जा,
रवि ने किया दूर, जग का दुःख भरा अन्धकार;
किरणों ने बिछाया जाल, स्वर्णिम और मधुर
अश्व खींच रहें है रविरथ को अपनी मंज़िल की ओर ;
तू भी हे मानव, जीवन रूपी रथ का सार्थ बन जा!
भोर भई मनुज, अब तो तू उठ जा!!!
सुंदर प्रभात का स्वागत, पक्षिगण ये कर रहे
रही कोयल कूक बागों में, भौंरे ये मस्त तान गुंजा रहे,
स्वर निकले जो पक्षी-कंठ से, मधुर वे मन को हर रहे;
तू भी हे मानव, जीवन रूपी गगन का पक्षी बन जा!
भोर भई मनुज, अब तो तू उठ जा !!!
खिलकर कलियों ने खोले, सुंदर होंठ अपने,
फूलों ने मुस्करा कर सजाये जीवन के नए सपने,
पर्णों पर पड़ी ओस, लगी मोतियों सी चमकने,
तू भी हे मानव, जीवन रूपी मधुबन का माली बन जा!
भोर भई मनुज, अब तो तू उठ जा !!!
प्रभात की ये रुपहली किरणें, प्रभु की अर्चना कर रही
साथ ही इसके घंटियाँ, मंदिरों की एक मधुर धुन दे रही,
मन्त्र और श्लोक प्राचीन, पंडितो की वाणी निखार रहे
तू भी हे मानव, जीवन रूपी देवालय का पुजारी बन जा !
भोर भई मनुज, अब तो तू उठ जा !!!
प्रकृति जीवन की इस नई भोर का स्वागत कर रही
जैसे प्रभु की सारी सृष्टि, इस का अभिनन्दन कर रही!
और वसुंधरा पर, एक नए युग, नए जीवन का आह्वान कर रही,
तू भी हे मानव, इस जीवन रूपी सृष्टि का एक अंग बन जा!
भोर भई मनुज, अब तो तू उठ जा!!!
भोर भई मनुज, अब तो तू उठ जा!!!
झील
आज शाम सोचा;
कि,
तुम्हें एक झील दिखा लाऊं …
पता नहीं तुमने उसे देखा है कि नहीं..
देवताओं ने उसे एक नाम दिया है….
उसे ज़िन्दगी की झील कहते हैं…
बुज़ुर्ग, अक्सर अलाव के पास बैठकर,
सर्द रातों में बतातें है कि,
वह दुनिया कि सबसे गहरी झील है
उसमें जो डूबा,
फिर वह उभर कर नहीं आ पाया।
उसे ज़िन्दगी की झील कहते हैं…
आज शाम,
जब मैं तुम्हें, अपने संग,
उस झील के पास लेकर गया,
तो तुम काँप रही थी,
डर रही थी;
सहम कर सिसक रही थी।
क्योंकि;
तुम्हें डर था; कहीं मैं…
तुम्हें उस झील में डुबो न दूँ।
पर ऐसा नहीं हुआ …
मैंने तुम्हें उस झील में;
चाँद-सितारों को दिखाया;
मोहब्बत करने वालों को दिखाया;
उनकी पाक मोहब्बत को दिखाया;
तुमने बहुत देर तक,
उस झील में,
अपना प्रतिबिम्ब तलाशा।
तुम ढूंढ रही थी..
कि
शायद मैं भी दिखूं..
तुम्हारे संग,
पर
ईश्वर ने मुझे छला…
मैं क्या.. मेरी परछाई भी,
झील में नहीं थी ..तुम्हारे संग !!!
तुम रोने लगी ….
तुम्हारे आंसू, बूँद-बूँद
ख़ून बनकर झील में गिरते गए ..
फिर झील का गन्दा और जहरीला पानी साफ़ होता गया..
क्योंकि अक्सर ज़िन्दगी की झीलें ..
गन्दी और ज़हरीली होती हैं ..
फिर, तुमने
मुझे आँखे भर कर देखा…
मुझे अपनी बांहों में समेटा …
मेरे माथे को चूमा..
और झील में छलांग लगा दी …
तुम उसमें डूबकर मर गयी।
और मैं…
मैं ज़िंदा रह गया,
तुम्हारी यादों के अवशेष लेकर,
तुम्हारे न मिले शव की राख;
अपने मन पर मलकर
मैं ज़िंदा रह गया।
मैं युगों तक जीवित रहूंगा
और तुम्हें आश्चर्य होगा पर,
मैं तुम्हें अब भी
अपनी आत्मा की झील में
सदा देखता रहता हूँ…
और हमेशा देखता रहूंगा..
इस युग से अनंत तक ..
अनंत से आदि तक ..
आदि से अंत तक..
देखता रहूंगा …देखता रहूंगा …देखता रहूंगा …
मैं तुमसे प्यार करता हूँ..
अक्सर मैं सोचता हूँ कि,
मैं तुम्हारे संग बर्फ़ीली वादियों में खो जाऊँ!
और तुम्हारा हाथ पकड़ कर तुम्हें देखूं …
तुम्हारी मुस्कराहट;
जो मेरे लिए होती है, बहुत सुख देती है मुझे…..
उस मुस्कराहट पर थोड़ी-सी बर्फ़ लगा दूं।
यूँ ही तुम्हारे संग देवदार के लम्बे और घने सायों में
तुम्हारा हाथ पकड़ कर चलूँ……
और उनके सायों से छन कर आती हुई धूप से
तुम्हारे चेहरे पर आती किरणों को,
अपने चेहरे से रोक लूं…..
यूँ ही किसी चांदनी रात में
समंदर के किनारे बैठ कर
तुम्हें देखते हुए;
आती-जाती लहरों से तेरा नाम पूछूँ ..
यूँ ही, किसी घने जंगल के रास्तों पर
टेड़े-मेढ़े राहों पर पड़े सूखे पत्तों पर चलते हुए
तुम्हें प्यार से देखूं ..
और; तुम्हारा हाथ पकड़ कर आसमान की ओर देखूं
और उस ख़ुदा का शुक्रिया अदा करूँ।
और कहूँ कि –
मैं तुमसे प्यार करता हूँ….
परायों के घर
कल रात दिल के दरवाजे पर दस्तक हुई;
सपनो की आंखो से देखा तो,
तुम थी …..!!!
मुझसे मेरी नज्में मांग रही थी,
उन नज्मों को, जिन्हें संभाल रखा था,
मैंने तुम्हारे लिये ;
एक उम्र भर के लिये …!
आज कही खो गई थी,
वक्त के धूल भरे रास्तों में ;
शायद उन्ही रास्तों में ;
जिन पर चल कर तुम यहाँ आई हो …….!!
लेकिन ;
क्या किसी ने तुम्हे बताया नहीं ;
कि,
परायों के घर भीगी आंखों से नहीं जाते……..!!!
जानवर
अक्सर शहर के जंगलों में ;
मुझे जानवर नज़र आतें है !
इंसान की शक्ल में ,
घूमते हुए ;
शिकार को ढूंढते हुए ;
और झपटते हुए..
फिर नोचते हुए..
और खाते हुए !
और फिर
एक और शिकार के तलाश में ,
भटकते हुए..!
और क्या कहूँ ,
जो जंगल के जानवर है ;
वो परेशान है !
हैरान है !!
इंसान की भूख को देखकर !!!
मुझसे कह रहे थे..
तुम इंसानों से तो हम जानवर अच्छे !!!
उन जानवरों के सामने ;
मैं निशब्द था ,
क्योंकि ;
मैं भी एक इंसान था !!!
सलीब
कंधो से अब खून बहना बंद हो गया है …
आँखों से अब सूखे आंसू गिर रहे है..
मुंह से अब आहे – कराहे नही निकलती है..!
बहुत सी सलीबें लटका रखी है मैंने यारों ;
इस दुनिया में जीना आसान नही है ..!!!
हँसता हूँ मैं ,
कि..
ये सारी सलीबें ;
सिर्फ़ सुबह से शाम और
फिर शाम से सुबह तक के
सफर के लिए है …
सुना है , सदियों पहले किसी
देवता ने भी सलीब लटकाया था..
दुनियावालों को उस देवता की सलीब ,
आज भी दिखती है …
मैं देवता तो नही बनना चाहता..,
पर ;
कोई मेरी सलीब भी तो देखे….
कोई मेरी सलीब पर भी तो रोये…..
तू
मेरी दुनिया में जब मैं खामोश रहती हूँ ,
तो ,
मैं अक्सर सोचती हूँ,
कि
खुदा ने मेरे ख्वाबों को छोटा क्यों बनाया ……
एक ख्वाब की करवट बदलती हूँ तो;
तेरी मुस्कारती हुई आँखे नज़र आती है,
तेरी होठों की शरारत याद आती है,
तेरे बाजुओ की पनाह पुकारती है,
तेरी नाख़तम बातों की गूँज सुनाई देती है,
तेरी बेपनाह मोहब्बत याद आती है ………
तेरी क़समें ,तेरे वादें ,तेरे सपने ,तेरी हकीक़त ॥
तेरे जिस्म की खुशबु ,तेरा आना , तेरा जाना ॥
अल्लाह …..कितनी यादें है तेरी……..
दूसरे ख्वाब की करवट बदली तो ,तू यहाँ नही था…..
खुदाया , ये कौन पराया मेरे पास लेटा है .
तू कहाँ चला गया….
प्यार
सुना है कि मुझे कुछ हो गया था…
बहुत दर्द होता था मुझे,
सोचता था, कोई खुदा ;
तुम्हारे नाम का फाहा ही रख दे मेरे दर्द पर…
कोई दवा काम ना देती थी…
कोई दुआ असर न करती थी…
और फिर मैं मर गया ।
जब मेरी कब्र बन रही थी,
तो;
मैंने पूछा कि मुझे हुआ क्या था।
लोगो ने कहा;
” प्यार “
मर्द और औरत
हमने कुछ बनी बनाई रस्मो को निभाया ;
और सोच लिया कि
अब तुम मेरी औरत हो और मैं तुम्हारा मर्द !!
लेकिन बीतते हुए समय ने जिंदगी को ;
सिर्फ टुकड़ा टुकड़ा किया .
तुमने वक्त को ज़िन्दगी के रूप में देखना चाहा
मैंने तेरी उम्र को एक जिंदगी में बसाना चाहा .
कुछ ऐसी ही सदियों से चली आ रही बातो ने ;
हमें एक दुसरे से , और दूर किया ….!!!
प्रेम और अधिपत्य ,
आज्ञा और अहंकार ,
संवाद और तर्क-वितर्क ;
इन सब वजह और बेवजह की बातो में ;
मैं और तुम सिर्फ मर्द और औरत ही बनते गये
इंसान भी न बन सके अंत में …!!!
कुछ इसी तरह से ज़िन्दगी के दिन ,
तन्हाईयो की रातो में ढले ;
और फिर तनहा रात उदास दिन बनकर उगे .
फिर उगते हुए सूरज के साथ ,
चलते हुए चाँद के साथ ,
और टूटते हुए तारों के साथ ;
हमारी चाहते बनी और टूटती गयी
और आज हम अलग हो गये है ..
बड़ी कोशिश की जानां ;
मैंने भी और तुने भी ,
लेकिन ….
न मैं तेरा पूरा मर्द बन सका और न तू मेरी पूरी औरत !!
खुदा भी कभी कभी अजीब से शगल किया करता है ..!!
है न जानां !!
राह
सूरज चढ़ता था और उतरता था….
चाँद चढ़ता था और उतरता था….
जिंदगी कहीं भी रुक नही पा रही थी,
वक्त के निशान पीछे छुठे जा रहे थे ,
लेकिन मैं वहीं खड़ा हूं …
जहाँ तुमने मुझे छोडा था….
बहुत बरस हुए ;
तुझे , मुझे भुलाए हुये !
मेरे घर का कुछ हिस्सा अब ढ़ह गया है !!
मुहल्ले के बच्चे अब जवान हो गए है ,
बरगद का वह पेड़ ,
जिस पर तेरा मेरा नाम लिखा था
शहर वालों ने काट दिया है !!!
जिनके साथ मैं जिया ,वह मर चुके है
मैं भी चंद रोजों में मरने वाला हूं
पर,
मेरे दिल का घोंसला ,
जो तेरे लिए मैंने बनाया था,
अब भी तेरी राह देखता है…..
स्त्री – एक अपरिचिता
मैं हर रात ;
तुम्हारे कमरे में
आने से पहले सिहरती हूँ
कि तुम्हारा वही डरावना प्रश्न ;
मुझे अपनी सम्पूर्ण दुष्टता से निहारेंगा
और पूछेंगा मेरे शरीर से , “ आज नया क्या है ? ”
कई युगों से पुरुष के लिए
स्त्री सिर्फ भोग्या ही रही
मैं जन्मो से ,तुम्हारे लिए सिर्फ शरीर ही बनी रही ..
ताकि , मैं तुम्हारे घर के काम कर सकू ..
ताकि , मैं तुम्हारे बच्चो को जन्म दे सकू ,
ताकि , मैं तुम्हारे लिये तुम्हारे घर को संभाल सकू .
तुम्हारा घर जो कभी मेरा घर न बन सका ,
और तुम्हारा कमरा भी ;
जो सिर्फ तुम्हारे सम्भोग की अनुभूति के लिए रह गया है जिसमे ,
सिर्फ मेरा शरीर ही शामिल होता है ..
मैं नहीं ..क्योंकि ;
सिर्फ तन को ही जाना है तुमने ;
आज तक मेरे मन को नहीं जाना .
एक स्त्री का मन , क्या होता है ,
तुम जान न सके ..शरीर की अनुभूतियो से आगे बढ़ न सके
मन में होती है एक स्त्री..
जो कभी कभी तुम्हारी माँ भी बनती है ,
जब वो तुम्हारी रोगी काया की देखभाल करती है ..
जो कभी कभी तुम्हारी बहन भी बनती है ,
जब वो तुम्हारे कपडे और बर्तन धोती है
जो कभी कभी तुम्हारी बेटी भी बनती है ,
जब वो तुम्हे प्रेम से खाना परोसती है
और तुम्हारी प्रेमिका भी तो बनती है ,
जब तुम्हारे बारे में वो बिना किसी स्वार्थ के सोचती है ..
और वो सबसे प्यारा सा संबन्ध ,
हमारी मित्रता का , वो तो तुम भूल ही गए ..
तुम याद रख सके तो सिर्फ एक पत्नी का रूप
और वो भी सिर्फ शरीर के द्वारा ही …
क्योंकि तुम्हारा सम्भोग तन के आगे
किसी और रूप को जान ही नहीं पाता है ..
और अक्सर न चाहते हुए भी
मैं तुम्हे अपना शरीर एक पत्नी के रूप में समर्पित करती हूँ ..
लेकिन तुम सिर्फ भोगने के सुख को ढूंढते हो ,
और मुझसे एक दासी के रूप में समर्पण चाहते हो ..
और तब ही मेरे शरीर का वो पत्नी रूप भी मर जाता है .
जीवन की अंतिम गलियों में जब तुम मेरे साथ रहोंगे ,
तब भी मैं अपने भीतर की स्त्री के सारे रूपों को तुम्हे समर्पित करुँगी
तब तुम्हे उन सारे रूपों की ज्यादा जरुरत होंगी ,
क्योंकि तुम मेरे तन को भोगने में असमर्थ होंगे
क्योंकि तुम तब तक मेरे सारे रूपों को
अपनी इच्छाओ की अग्नि में स्वाहा करके
मुझे सिर्फ एक दासी का ही रूप बना चुके होंगे ,
लेकिन तुम तब भी मेरे साथ सम्भोग करोंगे ,
मेरी इच्छाओ के साथ..
मेरी आस्थाओं के साथ..
मेरे सपनो के साथ..
मेरे जीवन की अंतिम साँसों के साथ
मैं एक स्त्री ही बनकर जी सकी
और स्त्री ही बनकर मर जाउंगी
एक स्त्री ….जो तुम्हारे लिए अपरिचित रही
जो तुम्हारे लिए उपेछित रही जो तुम्हारे लिए अबला रही …
पर हाँ , तुम मुझे भले कभी जान न सके
फिर भी ..मैं तुम्हारी ही रही ….
एक स्त्री जो हूँ…..
बर्फ के रिश्ते
अक्सर सोचता हूँ ,
रिश्ते क्यों जम जातें है ;
बर्फ की तरह !!!
एक ऐसी बर्फ ..
जो पिघलने से इनकार कर दे…
एक ऐसी बर्फ ..
जो सोचने पर मजबूर कर दे..
एक ऐसी बर्फ…
जो जीवन को पत्थर बना दे……
इन रिश्तों की उष्णता ,
दर्द की पराकाष्ठा पर पहुँच कर ,
जीवन की आग में जलकर ;
बर्फ बन जाती है ……
और अक्सर हमें शूल की तरह चुभते है
और भीतर ही भीतर जमते जाते है ये रिश्तें..
फिर ; अचानक ही एक दिन ;
हम !
हमारे रिश्तों को देखते है
किसी पाषाण शिला
की तरह बर्फ में जमे हुए……
ये रिश्ते ताकते है ;
हमारी और !
और हमसे पूछते है ,
एक मौन प्रश्न …
ये जनम क्या यूँ ही बीतेंगा !
हमारी जमी हुई उष्णता कब पिगलेंगी !
हम निशब्द होते है
इन रिश्तों के प्रश्नों पर
और अपनी जीवन को जटिलता पर ….
रिश्तों की बर्फ जमी हुई रहती है ..
और यूँ लगता है जैसे एक एक पल ;
एक एक युग की
उदासी और इन्तजार को प्रदर्शित करता है !!
लेकिन ;
इन रिश्तों की
जमी हुई बर्फ में
ये आंसू कैसे तैरते है …….
अलविदा
सोचता हूँ
जिन लम्हों को ;
हमने एक दूसरे के नाम किया है
शायद वही जिंदगी थी !
भले ही वो ख्यालों में हो ,
या फिर अनजान ख्वाबो में ..
या यूँ ही कभी बातें करते हुए ..
या फिर अपने अपने अक्स को ;
एक दूजे में देखते हुए हो ….
पर कुछ पल जो तुने मेरे नाम किये थे…
उनके लिए मैं तेरा शुक्रगुजार हूँ !!
उन्ही लम्हों को ;
मैं अपने वीरान सीने में रख ;
मैं ;
तुझसे ,
अलविदा कहता हूँ ……!!!
अलविदा !!!!!!
देह
देह के परिभाषा
को सोचता हूँ ;
मैं झुठला दूं !
देह की एक गंध ,
मन के ऊपर छायी हुई है !!
मन के ऊपर परत दर परत
जमती जा रही है ;
देह ….
एक देह ,
फिर एक देह ;
और फिर एक और देह !!!
देह की भाषा ने
मन के मौन को कहीं
जीवित ही म्रत्युदंड दे दिया है !
जीवन के इस दौड़ में ;
देह ही अब बचा रहा है
मन कहीं खो सा गया है !
मन की भाषा ;
अब देह की परिभाषा में
अपना परिचय ढूंढ रही है !!
देह की वासना
सर्वोपरि हो चुकी है
और
अपना अधिकार जमा चुकी है
मानव मन पर !!!
देह की अभिलाषा ,
देह की झूठन ,
देह की तड़प ,
देह की उत्तेजना ,
देह की लालसा ,
देह की बातें ,
देह के दिन और देह की ही रातें !
देह अब अभिशप्त हो चुकी है
इस से दुर्गन्ध आ रही है !
ये सिर्फ अब इंसान की देह बनकर रह गयी है :
मेरा परमात्मा , इसे छोड़कर जा चूका है !!
फिर भी घोर आश्चर्य है !!!
मैं जिंदा हूँ !!!
मेरा होना और न होना
उन्मादित एकांत के विराट क्षण ;
जब बिना रुके दस्तक देते है ..
आत्मा के निर्मोही द्वार पर …
तो भीतर बैठा हुआ वह परमपूज्य परमेश्वर अपने खोलता है नेत्र !!!
तब धरा के विषाद और वैराग्य से ही जन्मता है समाधि का पतितपावन सूत्र ….!!!
प्रभु का पुण्य आशीर्वाद हो
तब ही स्वंय को ये ज्ञान होता है की
मेरा होना और न होना….
सिर्फ शुन्य की प्रतिध्वनि ही है….!!!
मन-मंथन की दुःख से भरी
हुई व्यथा से जन्मता है हलाहल ही
हमेशा ऐसा तो नहीं है …
प्रभु ,अमृत की भी वर्षा करते है कभी कभी …
तब प्रतीत होता है ये की मेरा न होना ही सत्य है ….!!
अनहद की अजेय गूँज से
ह्रदय होता है जब कम्पित और द्रवित ;
तब ही प्रभु की प्रतिच्छाया मन में उभरती है
और मेरे होने का अनुभव होता है !!!
अंतिम आनंदमयी सत्य तो यही है की ;
मैं ही रथ हूँ ,मैं ही अर्जुन हूँ ,और मैं ही कृष्ण …..!!
जीवन के महासंग्राम में ;
मैं ही अकेला हूँ और मैं ही पूर्ण हूँ
मैं ही कर्म हूँ और मैं ही फल हूँ
मैं ही शरीर और मैं ही आत्मा ..
मैं ही विजय हूँ और मैं ही पराजय ;
मैं ही जीवन हूँ और मैं ही मृत्यु हूँ
प्रभु मेरे ; किंचित अपने ह्रदय से
आशीर्वाद की एक बूँद
मेरे ह्रदय में प्रवेश करा दे !!!
तुम्हारे ही सहारे ही ;
मैं अब ये जीवन का भवसागर पार करूँगा …!!!
प्रभु मेरे , तुम्हारा ही रूप बनू ;
तुम्हारा ही भाव बनू ;
तुम्हारा ही जीवन बनू ;
तुम्हारा ही नाम बनू ;
जीवन के अंतिम क्षणों में तुम ही बन सकू
बस इसी एक आशीर्वाद की परम कामना है ..
तब ही मेरा होना और मेरा न होना सिद्ध होंगा ..
तलाश
कुछ तलाशता हुआ मैं कहाँ आ गया हूँ …..
बहुत कुछ पीछे छूट गया है …..
मेरी बस्ती ये तो नहीं थी …..
मट्टी की वो सोंघी महक …
कोयल के वो मधुर गीत …
वो आम के पेड़ो की ठंडी ठंडी छांव ..
वो मदमाती आम के बौरो की खुशबू …
वो खेतो में बहती सरसराती हवा ….
उन हवा के झोंको से बहलता मन ..
वो गायो के गले बंधी घंटियाँ …
वो मुर्गियों की उठाती हुई आवाजे ….
वो बहुत सारे बच्चो का साथ साथ चिल्लाना ….
वो सुख दुःख में शामिल चौपाल ….
लम्बी लम्बी बैठके ,गप्पो की …
और सांझ को दरवाजे पर टिमटिमाता छोटा सा दिया …..
वो खपरैल की छप्पर से उठता कैसेला धुआ…
वो चूल्हे पर पकती रोटी की खुशबू …
वो आँगन में पोते हुए गोबर की गंध …
वो कुंए पर पानी भरती गोरिया …
वो उन्हें तांक कर देखते हुए छोरे…
वो होली का छेड़ना , दिवाली का मनाना …
वो उसका; चेहरे के पल्लू से झांकती हुई आँखे;
वो खेतो में हाथ छुड़ाकर भागते हुए उसके पैर ;
वो उदास आँखों से मेरे शहर को जाती हुई सड़क को देखना
वो माँ के थके हुए हाथ
मेरे लिए रोटी बनाते हाथ
मुझे रातो को थपकी देकर सुलाते हाथ
मेरे आंसू पोछ्ते हुए हाथ
मेरा सामान बांधते हुए हाथ
मेरी जेब में कुछ रुपये रखते हुए हाथ
मुझे संभालते हुए हाथ
मुझे बस पर चढाते हुए हाथ
मुझे ख़त लिखते हुए हाथ
बुढापे की लाठी को कांपते हुए थामते हुए हाथ
मेरा इन्तजार करते करते सूख चुकी आँखों पर रखे हुए हाथ …
फिर एक दिन हमेशा के हवा में खो जाते हुए हाथ !!!
न जाने ;
मैं किसकी तलाश में शहर आया था ….
तेरा नाम क्या है मेरे प्रेम
अचानक ही ये कैसे अहसास है
कुछ नाम दूं इसे
या फिर ;
अपने मौन के साथ जोड़ दूं इसे
किसी मौसम का नया रंग हो शायद
या फिर हो ज़िन्दगी की अनजानी आहट
एक सुबह हो ,सूरज का नया रूप लिये
पता नहीं …..
मेरी अभिव्यक्ति की ये नयी परिभाषा है
ये कैसे नये अहसास है
मौन के भी शब्द होतें है
क्या तुम उन्हें सुन रही हो …..
पलाश की आग के संग …
गुलमोहर के हो बहुत से रंग
और हो रजनीगंधा की गंध
जो छा रही है मन पर
और तन पर
तेरे नाम के संग …..
तेरा नाम क्या है मेरे प्रेम ?
मृत्यु
ये कैसी अनजानी सी आहट आई है ;
मेरे आसपास …..
ये कौन नितांत अजनबी आया है मेरे द्वारे …
मुझसे मिलने,
मेरे जीवन की , इस सूनी संध्या में ;
ये कौन आया है ….
अरे ..तुम हो मित्र ;
मैं तो तुम्हे भूल ही गया था,
जीवन की आपाधापी में !!!
आओ प्रिय ,
आओ !!!
मेरे ह्रदय के द्वार पधारो,
मेरी मृत्यु…
आओ स्वागत है तुम्हारा !!!
लेकिन ;
मैं तुम्हे बताना चाहूँगा कि,
मैंने कभी प्रतीक्षा नहीं की तुम्हारी ;
न ही कभी तुम्हे देखना चाहा है !
लेकिन सच तो ये है कि ,
तुम्हारे आलिंगन से मधुर कुछ नहीं
तुम्हारे आगोश के जेरे-साया ही ;
ये ज़िन्दगी तमाम होती है …..
मैं तुम्हारा शुक्रगुजार हूँ ,
कि ;
तुम मुझे बंधन मुक्त करने चले आये ;
यहाँ …. कौन अपना ,कौन पराया ,
इन्ही सच्चे-झूठे रिश्तो ,
की भीड़ में,
मैं हमेशा अपनी परछाई खोजता था !
साँसे कब जीवन निभाने में बीत गयी,
पता ही न चला ;
अब तुम सामने हो;
तो लगता है कि,
मैंने तो जीवन को जाना ही नहीं…..
पर हाँ , मैं शायद खुश हूँ ,
कि; मैंने अपने जीवन में सबको स्थान दिया !
सारे नाते ,रिश्ते, दोस्ती, प्रेम….
सब कुछ निभाया मैंने …..
यहाँ तक कि ;
कभी कभी ईश्वर को भी पूजा मैंने ;
पर तुम ही बताओ मित्र ,
क्या उन सबने भी मुझे स्थान दिया है !!!
पर ,
अब सब कुछ भूल जाओ प्रिये,
आओ मुझे गले लगाओ ;
मैं शांत होना चाहता हूँ !
ज़िन्दगी ने थका दिया है मुझे;
तुम्हारी गोद में अंतिम विश्राम तो कर लूं !
तुम तो सब से ही प्रेम करते हो,
मुझसे भी कर लो ;
हाँ……मेरी मृत्यु
मेरा आलिंगन कर लो !!!
बस एक बार तुझसे मिल जाऊं …
फिर मैं भी इतिहास के पन्नो में ;
नाम और तारीख बन जाऊँगा !!
फिर
ज़माना , अक्सर कहा करेंगा कि
वो भला आदमी था ,
पर उसे जीना नहीं आया ….. !!!
कितने ही स्वपन अधूरे से रह गए है ;
कितने ही शब्दों को ,
मैंने कविता का रूप नहीं दिया है ;
कितने ही चित्रों में ,
मैंने रंग भरे ही नहीं ;
कितने ही दृश्य है ,
जिन्हें मैंने देखा ही नहीं ;
सच तो ये है कि ,
अब लग रहा है कि मैंने जीवन जिया ही नहीं
पर स्वप्न कभी भी तो पूरे नहीं हो पाते है
हाँ एक स्वपन ,
जो मैंने ज़िन्दगी भर जिया है ;
इंसानियत का ख्वाब ;
उसे मैं छोडे जा रहा हूँ …
मैं अपना वो स्वप्न इस धरा को देता हूँ……
जोगन
मैं तो तेरी जोगन रे ; हे घनश्याम मेरे !
तेरे बिन कोई नहीं मेरा रे ; हे श्याम मेरे !!
मैं तो तेरी जोगन रे ; हे घनश्याम मेरे !
तेरी बंसुरिया की तान बुलाये मोहे
सब द्वारे छोड़कर चाहूं सिर्फ तोहे
तू ही तो है सब कुछ रे , हे श्याम मेरे !
मैं तो तेरी जोगन रे ; हे घनश्याम मेरे !
मेरे नैनो में बस तेरी ही तो एक मूरत है
सावंरा रंग लिए तेरी ही मोहनी सूरत है
तू ही तो एक युगपुरुष रे ,हे श्याम मेरे !
मैं तो तेरी जोगन रे ; हे घनश्याम मेरे !
बावरी बन फिरू , मैं जग भर रे कृष्णा
गिरधर नागर कहकर पुकारूँ तुझे कृष्णा
कैसा जादू है तुने डाला रे , हे श्याम मेरे !
मैं तो तेरी जोगन रे ;हे घनश्याम मेरे !
प्रेम पथ ,ऐसा कठिन बनाया ; मेरे सजना
पग पग जीवन दुखो से भरा ; मेरे सजना
कैसे मैं तुझसे मिल पाऊं रे , हे श्याम मेरे !
मैं तो तेरी जोगन रे ; हे घनश्याम मेरे !