लेकिन कहाँ है जवाब?
बातें बेलाग हैं
सवाल दो-टूक–
-
- कटे हुए जंगल
-
- जलती हुई औरतें
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- ख़ाक छानते बच्चे
-
- लुरियाते जवाँ-मर्द…
रंग हैं पहचाने
रौशनी अधुंधली–
-
- भीनी-भीनी जूठन की पत्तलें
-
- लपकते इंसान
-
- चुंधियाती आँखें
-
- और कुछ प्रवाल-द्वीप…
(और एक ऎसी ही लम्बी फ़ेहरिस्त
छटाएँ गहरी हल्की रंगारंग बदरंग
जटिलतम गुत्थियाँ
सरल-कठिन रेशे)
लेकिन कहाँ है जवाब?
ढाई अक्षर
बोलें तो बिलाएँ हवाओं में
लिखने से होंगे बदरंग
फुदकते आएँ अचानक वे
टंग जाएँ फुनगी पर
चहकें ललमुनियाँ के संग
चटख़ सुआपंखी
लहराएँ लहरों में
आएँ निरक्षर वे
हाँ, इस कठिन बेहूदा तरक़्क़ी के ज़माने में भी!
सत्यं शिवं सुंदरम
सदा महा महा महा सागर में एक
नाव
तीन तिनकों की
जब ये शब्द भी भोथरे हो जाएंगे
चोर को कहा चोर
वह डरा
थोड़े दिन
डरा क्योंकि उस को पहचान लिया गया था
चोर को कहा चोर
वह ख़ुश हुआ
बहुत दिनों तक रहा ख़ुश
क्योंकि उसे पहचान लिया गया था
फिर छा गया डर
क्योंकि चोर आख़िर चोर था
बोलने वालों के हाथ सिर्फ़ हाथ थे
हाथ भी नहीं केवल मुँह थे
मुँह ही नहीं केवल शब्द थे
शब्द भी नहीं
केवल शोर…
चोर! चोर!!
एक कविता
नहीं, यह विज्ञापन नहीं
न निविदा सूचना
न आत्म-विज्ञप्ति
यह महज़ एक कविता है
नाचार
आदमी की ही तरह मांगती
सहारा सपाट चट्टान पर
जहाँ से अतल में गिरने से पहले वह
टिका सके दो अंगुली, पैर का अंगूठा
लमहा भर इसे भी चाहिए विश्राम
अतल में समाने से पहले…
अपने समय में
यह एक दौड़ है अंधी दौड़!
रैफ़री न कोई।
न कोई पाबन्दी न लिहाज़ न मुरव्वत;
हर एक है अपने बूते पर–
कोनो-अतरों में अदृश्य आले हैं
तस्वीरें खिंचती हैं दूर-दूर जाती हैं
दम फूलता है तो होती है गुंजार
कोई लड़खड़ाए तो फूटती है किलकार
यह एक दौड़ है, अंधी दौड़
दौड़ता है कौन-कौन साथ यह पता नहीं
दौड़ना कहाँ तक है यह भी पता नहीं
प्रेमालाप
कदली-वृक्ष तुम्हें फुसलाने के लिए गढ़े गए थे
जांघें दरअसल जांघों की तरह थीं
सोते-जागते देखी अनगिनत जांघों की तरह
मुरली नहीं कोयल नहीं कल-कल भी नहीं
या ये सब भी मगर सुरीले सुर
दूसरी सुराही-सी गर्दन से गले से
निकले सुरों से पहचानता तुम्हारा सुर
नख-सिर नहीं, सिर से नख भी नहीं
कोई क्रम नहीं
सहसा नज़र आया तुम्हारा शरीर
उसी के भीतर से झाँकते
अनगिनत तन
खिंचा चला आया मैं
मेरे सब ’मैं’ ले कर
हिरन नहीं, मानुषी
नयन नयन-कोर पलक
पलकों में उतराती-डूबतीं असंख्य पलक
देखे उक़ाब भी देखे बटमार
होंठों ने होंठों को होंठों से पहचाना
हँसी को हँसियों से
जीभ को जीभों से
गोद को अनदेखी गोदों ने पहचाना
पहली नज़र में जो प्यार हुआ
प्यार था
पहचाना किए हुए अनकिए प्यारों से
लिखो!
एक ने कहा लिखो भजन सूर-मीरा-से
दूजी ने कहा लिखो प्यानो के लिए गीत– बाब डिलन,
-
-
- प्रेस्ले, बैज जैसे गाते हैं।
-
तीसरी ने कहा लिखो कुछ जो हम समझ सकें।
चौथे ने कहा लिखो घोषणा-पत्र।
पंचम ने कहा लिखो जंग, आग, इंक़लाब।
कहा कवि त्रिलोचन ने लिखो वाक्य पूरा।
ईर्ष्या का रंग गाढ़ा है
परत-दर-परत खरोंचो इसे–
यह मैं कहता हूँ अपने-आप से
और तुम से कहता हूँ–
आज यह हरा है
कल इस से उठेगी हरांध
रीढ़ पर जमेंगे थक्के
तब मुझे तुम्हारा गुलाबीपन
रास नहीं आएगा
अभी कहे देता हूँ
तुम से
और ख़ुद से
खोयापन
आँखों के आगे रखी हुई
वह माचिस
खोजने पर मिलती नहीं
गोया सरे-आम छिपी रहने को व्यग्र
बेरुख़ और गुमसुम…
इस तरह हम जानते हैं कि चीज़ों का खो जाना
और उन का खोयापन
दरअसल दो अलग-अलग चीज़ें हैं
यह न तो सिर्फ़ हमारी नज़रों का धोखा है
न ही हमारे अपने खोए-
खोएपन का नतीजा
सौन्दर्य प्रतियोगिता
एक नंगी औरत नाचती हुई
कहती है देखॊ
बंद करो रोना-और-धोना
मैं अबला नहीं
दीवार पर रंग मैं
मेरे पैर जादुई क़ालीन
घड़ी मैं कलाई पर
अकेली नहीं मैं
मैं ही बाज़ार
छोड़ो यह रोना-और-धोना
खड़ी मैं
उन्मुक्त
स्वयंवरा
मैं निरा अम्बार
नई नई चीज़ों का!
यहाँ, वहाँ और आसपास
जब आप खो चुकते हैं अपनी सारी सरलता
कुछ सरल-हृदय लोगों की तलाश में निकलते हैं
जा कर देखते हैं अपने गाँव में
बिस्तर के पास लटक रही है दुनाली
दोस्त डिज़ल की तलाश में
उसी बंगले पर शहर में डेरा डाले हैं
जहाँ से आप अभी-अभी लौटे हैं
बच्चे टाफ़ी और बिस्कुट के
दोस्त की बीवी प्लास्टिक की मूर्तियों की
शौक़ीन है
ढोलक की थाप पर फ़िल्मी धुन में भजन
आकाशवाणी से गुंजायमान है पंचायत
कहने को आप यहाँ आए हैं
क्या कहने
अभीष्ट
हमारी इच्छाएँ सरल हैं जिन में
जुड़ती चली जाती हैं कुछ और सरल
इच्छाएँ
हमें घर दो घर दो घर दो
हम कहते हैं बार-बार
अनमने मन से
हमें घर दो
सरकार हो या ईश्वर या पड़ोसी
हम सभी से कहते हैं
घर दो
दो हमें दीवारें जिन के दरम्यान
जिलाए जा सकते हैं भ्रूण
खुल खेल सकते हैं पाप जो
चहारदीवारी के बाहर अपराध हैं
यह सिर्फ़ एक मिसाल है हमारी
सरलतम इच्छाओं की
अकारादि क्रम से इनकी सूची बन सकती है
बीच-बीच में आता रहेगा ज्ञान
और अंत में अंतिम इच्छाओं की
एक और सूची…
शब्द / कर्म
वक़्त आया तो हम ने भी किए सीधे सवाल:
किस ने दिया तुम्हें हक़?
किस ने?
किस ने? !!!
हम ने किए सीधे सवाल दर सवाल दर सवाल
…
शब्द थे
हैं
होंगे हमारे सवाल
भरे-पूरे, कटख़ने तीते
तर्क के, रोष के, इंसानी हुमस के
शब्द
लेकिन निरे शब्द
तने कसे रुंधे मुक्त शब्द
शब्दहीन हो कर भी
शब्द
निपट शब्द…
इस्लाह
हमें भी एक दिन
एक दिन हमें भी
देना होगा जवाब
इसलिए
लिखें अगर डायरी
सही-सही लिखें
और अगर याचिका लिखनी है
लिखें समझ-बूझ कर
लेकिन अगर चैन न हो हमारा आराध्य
और हम रह सकें बिना अनुताप के
तब न करें स्याह ये
धौले-उजले पन्ने!
तरतीब
थोड़ा-सा वक़्त और चाहिए
और हालाँकि बन्द कर दिए गए हैं सभी दरवाज़े
झरोखे और सूराख़ लेकिन
यह जो बची-खुची रौशनी है इस कोठरी में
इस में तरतीब लाना कठिन है दरअसल
कठिन है अपने हाथ-पैर हिलाना भी क्योंकि
यह जो ढेर है हड्डियों का और लिसलिसा ख़ून
है मवाद है इसमें
कई फूल हैं ख़ुशबुएँ हैं चुम्बन हैं
रोगाणुओं के बीच भी सेहत और रौनक़
है इंसानी जिस्मों की कई-कई रंगों के केश हैं
लगभग सतरंगी नज़्ज़ारा है गो
बदबू है जहाँ ख़ुशबू है रंग है रौनक़ है
चुप्पी में ज़रा देर
ठहरो
मोहलत दो मुझे और
चाहिए कुछ
और
कुछ और
और वक़्त चाहिए थोड़ा-सा
दिल्लीनामा
देखे चांद-सितारे देखे
तनहा-तनहा सारे देखे
साहिल और सहारे देखे
हसरत के गुब्बारे देखे
बुत मस्जिद गुरुद्वारे देखे
गुरबत के अंगारे देखे
तड़-तड़ टूटे ईमां देखे
रोज़ नए बंटवारे देखे
दौलत की दीवारें देखीं
ताकत के गलियारे देखे
शौक-ओ-अदब के चौबारों पर
रहजन रहबर सारे देखे
चौरासी का मरघट देखा
इकहत्तर सैयारे देखे
साहिब और मुसाहिब देखे
रह देखी रखवारे देखे
उसकी आंखों से जो देखा
राह पडे़ बेचारे देखे
अपनी तरफ़ उठी जो नज़रें
धुआँ-धुआँ नज़्ज़ारे देखे ।
उखड़ी हुई नींद
सच वह कम न था
नींद उखड़ी जिससे
न ही यह कम है –
उखड़ी हुई नींद
जो अब सपना नहीं बुन सकती
अंधेरे में
या रोशनी जलाकर
जो भी अहसास है
सच वह भी कम नहीं है
पर नींद वह क्या नींद
जो बुन न सके सपने !
कैसी वह भाषा
जो कह न सके –
देखो !
ठोसलैंड की सैर
कुछ ठोस मुद्दों पर कुछ ठोस रोशनी गिरी
हवाई सवालों को
हवाई जवाब ले उड़े
काल्पनिक सिर
अब ठोस हाथों में था
कुछ ठोस `निचुड़ा´
ठोस चीज़ों पर ठोस
सोचना था
ग़नीमत थी कि हवा अनहद ठोस नहीं थी
और हम सब जो थे साँस ले सकते थे
आँख को भी थोड़ी राहत थी-
ठोस रही, इधर-उधर घूम सकी।
भूख क़तई ठोस थी
उस पर दिल्लगी बुरी होती
हल्की-फुल्की दिल्लगी खासकर बुरी
वह ठोस खाती रही
मछली की मछली को आदमी की आदमी को
आदमी की भूख मछली और आदमी दोनों को
सिलसिला कुछ इतना ठोस
कि पूरे प्रवास में
कुछ और न हो पाता
मगर ठोस पेट ने ठोस `ना´ कर दी
सैर यह अलहदा थी
फिर भी अवशेष थे
प्रस्ताव – ठोस – आया ।
ठोस किस्म का ठोस प्रस्ताव था
ठोस प्रेम करना था, करना भी ठोस
ठोस वह लड़की, ठोस ही लड़का
प्रिय ठोस पाठक,
आँखों को साँसों को राहत थी
मगर शब्द –
वे इतने ठोस थे
कि ठोस कान के परदे
कुछ ठोस टुकड़ों में बिखर गए।
सनद रहे!
हम नहीं लौटे
लौटना ठोस अगर होगा
तो लौटेंगे।
कायाकल्प
फिर क्या हो जाता है
कि क्लास-रूम बन जाता है काफ़ी-हाउस
घर मछली बाज़ार?
कोई नहीं सुनता किसी की
मगर खुश-खुश
फेंकते रहते हैं मुस्कानें
चुप्पी पर,
या फिर जड़ देते नग़ीने !
करिश्मे अजीबोग़रीब –
और किसी का हाथ नज़र भी नहीं आता –
पहलू बदलते ही
जार्ज पंचम हो जाते हैं जवाहर लाल !
5 सितम्बर 76
इस वर्तमान का कोई नाम नहीं है अभी
मृत्यु को
नाम नहीं दिया गया है अभी
तस्वीर देख कर
उनके फूलों में
हमारे जन्म-दिन छिपे थे
फूल उनके ही हाथों रहे
हमने पढ़े अख़बार
तीन अपाहिज
कुल जमा तीन पात्र
होंठ, कान, आँख
तीनों अपंग
नेपथ्य हाथ भाँजता रह गया
क़ीमत
मानो तो बड़ी
वरना कुछ भी नहीं-
हलक़ में एक पल ख़ुश्की
नज़र में लम्हा भर शर्म
रात के अकेले में
बरबस दबा लेना चीख़ . . .
उनींदे की लोरी (कविता)
साँप सुनें अपनी फुफकार और सो जाएँ
चींटियाँ बसा लें घर-बार और सो जाएँ
गुरखे कर जाएँ ख़बरदार और सो जाएँ
दिवाली का दिन
अब हो कब हो शाम
सूरज डूबे
दिये जलाएँ !
कौन, जो बतलाए सच?
कौन जो बतलाए सच ?
एक मार जो पड़ी उन पर
एक दुलार जो रहा गोपन
इन्हीं के बीच कहीं मेरा उल्लास
और उन का सन्ताप
इन्हीं के बीच वह मरूत-मेघ
इन्द्रधनुष
इन्हीं के बीच कहीं झूमती हैं
हरी-भरी डालें
फूलता मौलिश्री
उड़ते हैं सेमल के फाहे
यह बर्फ़ वह श्रंगार वह रति
वह मेरा सब
इन्हीं के बीच कहीं
दबी-नुची सिसकारी
आह
उड़ान मैं लपकते गिद्धों की
धसान
भेड़ियों के नुकीले दातों की
ठसक
एक नई महाशक्ति के
नए सरताज की
कौन, जो बतलाए सच ?
ठहराव
बार-बार देखने लगता था पीछे
उधर उस छोर पर घिसटता आता था सच
इस के और उस के बीच समूचा ब्रह्माण्ड था–
नक्षत्र ग्रह धूमकेतु
आदमी के बनाए उपग्रह
प्रक्षेपास्त्र अणु बम
बू कैंसर टूटी हुई हड्डियाँ
प्रियजन परजन
पीब के पहाड़ नदी ख़ून की
गिरजे स्वर्ण्कलश मंदिर अज़ानें
संतई कमीनगी
पर उस आख़िरी सच की प्रतीक्षा में
ठहरा था
बाल होने लगे थे सफ़ेद कमर टेढ़ी
आँखें नीम-नूर
कंठ तक प्रतीक्षा से भरा हुआ लबालब
’चाहे तो पल भर में कौंध कर आ सकता है’
सुनी इस ने कोई आवाज़
बढ़ो तुम बढ़ते चलो इसी काफ़िले के साथ
मिलेंगे कुछ झूठ कुछ सच बीच-बीच में
गर्चे न होंगे मुकम्मिल
लेकिन तुम्हें छूट यह रहेगी
कि थाम लो किसी को और
किसी को दुत्कार दो
बढ़ो आगे बढ़ो कहा किसी ने
हटोगे तभी होगी जगह इस सराय में
आएंगे और भी बौड़म तुम्हारी तरह
करेंगे प्रतीक्षा जो
आख़िरी इलहाम की
हो कर वयोवृद्ध या शायद अकाल-कवल
वे भी चले जाएंगे
चार शामें
एक दफ़ा हम चार लोग एक कमरे में जमा थे
सूरज ढल रहा था और हम चारों के पास
बहुत कुछ था आपस में सुनाने को
तभी शाम मेरे क़रीब आ बैठी
मेरी शाम तरो-ताज़ा थी मुझ से
चिपट कर बैठी हुई
और चूँकि वह बिल्कुल तरो-ताज़ा थी
बार-बार मुझ को भटकाए देती थी
कभी कहती देखो खिड़की के बाहर
जहाँ अंधेरा अभी पर्दा डालने वाला है
कभी दिखाने लगती अलबम
जिस में सँजों कर रखी थी उसने तस्वीरें
एक उस की जिसे मैं लगभग भूल ही चुका था
और उसकी भी जिसे मैं भुला देना चाहता था
कभी-कभी हमारी बातचीत में से
कोई एक शब्द वह लोक लेती
और कभी मेरी खाल उधेड़ने-सी लगती
इसी में मेरा गिलास गिरते-गिरते बचा
फिर थोड़ी देर में
उछल-सा पड़ा मैं अपनी कुर्सी पर
यह नहीं कि शेष तीनों ने मुझे देखा न हो
या कि अपने इस विचित्र व्यवहार पर
तीन जोड़ा निगाहों की हैरत न देखी हो मैं ने
और क्षमा-सी न मांगी हो उन से
मगर उन्हें कैसे बताता
कि अकेले वे तीन ही नहीं थे मेरे पास
कोई और भी था चिपटा हुआ मुझ से…
कुछ कहते-कहते मैं कुछ और ही कह गया
और फिर मैं हँसा
जबकि दरअसल रोना आ रहा था मुझे
और मेरी शाम मुझ से चिपटी बैठी थी
दूसरे दिन मैं ने धीरज बंधाया अपने आप को
जब नशा और साथ दोनों ही नहीं थे
कि शायद वे तीन भी अकेले न रहे हों
कि मेरी शाम की चुहल शायद मुझ से नहीं
उन दूसरी शामों से रही हो
जो शायद उसी तरह सटी हुई बैठी थीं
उन तीनों के साथ
और शायद उन तीनों का ध्यान भी
उसी तरह उचट-उचट जाता रहा हो…
दूर
दूर है दर्शन
संवाद दूर-भाष
ख़त मेरा दूर-लेख
दूर है जो भी है
मेरे नज़दीक
उस
हमारे उस सुदूर भविष्य में
स्थापित हुआ सुदूर अतीत
उस विवृत्त में हम ने की
अपनी आवृत्ति
उस आचार में पाया हम ने
अपना विचार
उस कदर्थ को बनाया
अपना प्रयोजन
उस हेतु हम हुए
उस आशय से
वह विस्तार
यह निस्तार