लाठी में गुण बहुत हैं
लाठी में हैं गुण बहुत, सदा रखिये संग।
गहरि नदी, नाली जहाँ, तहाँ बचावै अंग।।
तहाँ बचावै अंग, झपटि कुत्ता कहँ मारे।
दुश्मन दावागीर होय, तिनहूँ को झारै।।
कह गिरिधर कविराय, सुनो हे दूर के बाठी।
सब हथियार छाँडि, हाथ महँ लीजै लाठी।।
जानो नहिं जिस गाँव
जानो नहीं जिस गाँव में, कहा बूझनो नाम ।
तिन सखान की क्या कथा, जिनसो नहिं कुछ काम ॥
जिनसो नहिं कुछ काम, करे जो उनकी चरचा ।
राग द्वेष पुनि क्रोध बोध में तिनका परचा ॥
कह गिरिधर कविराय होइ जिन संग मिलि खानो।
ताकी पूछो जात बरन कुल क्या है जानो ॥
साईं, बैर न कीजिए
साईं, बैर न कीजिए, गुरु, पंडित, कवि, यार ।
बेटा, बनिता, पँवरिया, यज्ञ–करावनहार ॥
यज्ञ–करावनहार, राजमंत्री जो होई ।
विप्र, पड़ोसी, वैद्य, आपकी तपै रसोई ॥
कह गिरिधर कविराय, जुगन ते यह चलि आई,
इअन तेरह सों तरह दिये बनि आवे साईं ॥
न लीजै संग
जाको धन, धरती हरी, ताहि न लीजै संग।
ओ संग राखै ही बनै, तो करि राखु अपंग ॥
तो करि राखु अपंग, भीलि परतीति न कीजै ।
सौ सौगन्दें खाय, चित्त में एक न दीजै ॥
कह गिरिधर कविराय, कबहुँ विश्वास न वाको ।
रिपु समान परिहरिय, हरी धन, धरती जाको ॥
ॠण उधार
झूठा मीठे वचन कहि, ॠण उधार ले जाय ।
लेत परम सुख उपजै, लैके दियो न जाय ॥
लैके दियो न जाय, ऊँच अरु नीच बतावै ।
ॠण उधार की रीति, मांगते मारन धावै ॥
कह गिरिधर कविराय, जानी रह मन में रूठा।
बहुत दिना हो जाय, कहै तेरो कागज झूठा ॥
सोना लादन पिय गए
सोना लादन पिय गए, सूना करि गए देस।
सोना मिले न पिय मिले, रूपा ह्वै गए केस॥
रूपा ह्वै गए केस, रोर रंग रूप गंवावा।
सेजन को बिसराम, पिया बिन कबहुं न पावा॥
कह ‘गिरिधर कविराय लोन बिन सबै अलोना।
बहुरि पिया घर आव, कहा करिहौ लै सोना॥
दौलत पाय न कीजिए
दौलत पाय न कीजिए, सपनेहु अभिमान।
चंचल जल दिन चारिको, ठाउं न रहत निदान॥
ठाउं न रहत निदान, जियत जग में जस लीजै।
मीठे बचन सुनाय, विनय सबही की कीजै॥
कह ‘गिरिधर कविराय अरे यह सब घट तौलत।
पाहुन निसिदिन चारि, रहत सबही के दौलत॥
सांई अवसर के परे
सांई अवसर के परे, को न सहै दु:ख द्वंद।
जाय बिकाने डोम घर, वै राजा हरिचंद॥
वै राजा हरिचंद, करैं मरघट रखवारी।
धरे तपस्वी वेष, फिरै अर्जुन बलधारी॥
कह ‘गिरिधर कविराय, तपै वह भीम रसोई।
को न करै घटि काम, परे अवसर के साई॥
बिना विचारे जो करै
बिना विचारे जो करै, सो पाछे पछिताय।
काम बिगारै आपनो, जग में होत हंसाय॥
जग में होत हंसाय, चित्त चित्त में चैन न पावै।
खान पान सन्मान, राग रंग मनहिं न भावै॥
कह ‘गिरिधर कविराय, दु:ख कछु टरत न टारे।
खटकत है जिय मांहि, कियो जो बिना बिचारे॥
बीती ताहि बिसारि दे
बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेइ।
जो बनि आवै सहज में, ताही में चित देइ॥
ताही में चित देइ, बात जोई बनि आवै।
दुर्जन हंसे न कोइ, चित्त मैं खता न पावै॥
कह ‘गिरिधर कविराय यहै करु मन परतीती।
आगे को सुख समुझि, होइ बीती सो बीती॥
पानी बाढो नाव में
पानी बाढो नाव में, घर में बाढो दाम।
दोनों हाथ उलीचिए, यही सयानो काम॥
यही सयानो काम, राम को सुमिरन कीजै।
परमारथ के काज, सीस आगै धरि दीजै॥
कह ‘गिरिधर कविराय, बडेन की याही बानी।
चलिये चाल सुचाल, राखिये अपनो पानी॥
चिंता ज्वाल सरीर की
चिंता ज्वाल सरीर की, दाह लगे न बुझाय।
प्रकट धुआं नहिं देखिए, उर अंतर धुंधुवाय॥
उर अंतर धुंधुवाय, जरै जस कांच की भट्ठी।
रक्त मांस जरि जाय, रहै पांजरि की ठट्ठी॥
कह ‘गिरिधर कविराय, सुनो रे मेरे मिंता।
ते नर कैसे जियै, जाहि व्यापी है चिंता॥
सांई सब संसार में
सांई सब संसार में, मतलब को व्यवहार।
जब लग पैसा गांठ में, तब लग ताको यार॥
तब लग ताको यार, यार संगही संग डोलैं।
पैसा रहा न पास, यार मुख से नहिं बोलैं॥
कह ‘गिरिधर कविराय जगत यहि लेखा भाई।
करत बेगरजी प्रीति यार बिरला कोई सांई॥
रहिये लटपट काटि दिन
रहिये लटपट काटि दिन, बरु घामें मां सोय।
छांह न वाकी बैठिये, जो तरु पतरो होय॥
जो तरु पतरो होय, एक दिन धोखा दैहै।
जा दिन बहै बयारि, टूटि तब जर से जैहै॥
कह ‘गिरिधर कविराय छांह मोटे की गहिये।
पाता सब झरि जाय तऊ छाया में रहिये॥
कमरी थोरे दाम की
कमरी थोरे दाम की, बहुतै आवै काम।
खासा मलमल वाफ्ता, उनकर राखै मान॥
उनकर राखै मान, बँद जहँ आड़े आवै।
बकुचा बाँधे मोट, राति को झारि बिछावै॥
कह ‘गिरिधर कविराय’, मिलत है थोरे दमरी।
सब दिन राखै साथ, बड़ी मर्यादा कमरी॥
साईं सुआ प्रवीन गति
साईं सुआ प्रवीन गति वाणी वदन विचित्त
रूपवंत गुण आगरो राम नाम सों चित्त
राम नाम सों चित्त और देवन अनुरागयो
जहां जहां तुव गयो तहां तहां नीको लागयो
कह गिरिधर कविराय सुआ चूकयो चतुराई
वृथा कियो विश्वास सेय सेमर को साईं
साईं तहां न जाइये
साईं तहां न जाइये जहां न आपु सुहाय
वर्ण विषै जाने नहीं, गदहा दाखै खाय
गदहा दाखै खाय गऊ पर दृष्टि लगावै
सभा बैठि मुसकयाय यही सब नृप को भावै
कह गिरिधर कविराय सुनो रे मेरे भाई
जहां न करिये बास तुरत उठि अईये साईं
साईं घोड़े आछतहि
साईं घोड़े आछतहि गदहन आयो राज
कौआ लीजै हाथ में दूरि कीजिये बाज
दुरी कीजिये बाज राज पुनि ऐसो आयो
सिंह कीजिये कैद स्यार गजराज चढायो
कह गिरिधर कविराय जहाँ यह बूझि बधाई
तहां न कीजै भोर साँझ उठि चलिए साईं
साईं बेटा बाप के
साईं बेटा बाप के बिगरे भयो अकाज
हरनाकुस अरु कंस को गयो दुहुन को राज
गयो दुहुन को राज बाप बेटा के बिगरे
दुसमन दावागीर भए महिमंडल सिगरे
कह गिरिधर कविराय जुगन याही चलि आई
पिता पुत्र के बैर नफा कहु कौने पाई
साईं यह संसार में
साईं सब संसार में, मतलब को व्यवहार।
जब लग पैसा गांठ में, तब लग ताको यार॥
तब लग ताको यार, यार संगही संग डोलैं।
पैसा रहा न पास, यार मुख से नहिं बोलैं॥
कह ‘गिरिधर कविराय जगत यहि लेखा भाई।
करत बेगरजी प्रीति यार बिरला कोई साईं॥
साईं अवसर के परे
साईं, बैर न कीजिए, गुरु, पंडित, कवि, यार।
बेटा, बनिता, पँवरिया, यज्ञ–करावनहार॥
यज्ञ–करावनहार, राजमंत्री जो होई।
विप्र, पड़ोसी, वैद्य, आपकी तपै रसोई॥
कह गिरिधर कविराय, जुगन ते यह चलि आई।
इअन तेरह सों तरह दिये बनि आवे साईं॥
झूठा मीठे वचन कहि
झूठा मीठे वचन कहि, ॠण उधार ले जाय।
लेत परम सुख उपजै, लैके दियो न जाय॥
लैके दियो न जाय, ऊँच अरु नीच बतावै।
ॠण उधार की रीति, मांगते मारन धावै॥
कह गिरिधर कविराय, जानी रह मन में रूठा।
बहुत दिना हो जाय, कहै तेरो कागज झूठा॥
जाको धन, धरती हरी
जाको धन, धरती हरी, ताहि न लीजै संग।
ओ संग राखै ही बनै, तो करि राखु अपंग॥
तो करि राखु अपंग, भीलि परतीति न कीजै।
सौ सौगन्दें खाय, चित्त में एक न दीजै॥
कह गिरिधर कविराय, कबहुँ विश्वास न वाको।
रिपु समान परिहरिय, हरी धन, धरती जाको॥
जानो नहीं जिस गाँव में
जानो नहीं जिस गाँव में, कहा बूझनो नाम।
तिन सखान की क्या कथा, जिनसो नहिं कुछ काम॥
जिनसो नहिं कुछ काम, करे जो उनकी चरचा।
राग द्वेष पुनि क्रोध बोध में तिनका परचा॥
कह गिरिधर कविराय होइ जिन संग मिलि खानो।
ताकी पूछो जात बरन कुल क्या है जानो॥
साईं अपने चित्त की
साईं अपने चित्त की, भूलि न कहिये कोइ।
तब लगि मन में राखिये, जब लगि कारज होइ॥
जब लगि कारज होइ, भूलि कबं नहिं कहिये।
दुरजन हंसै न कोय, आप सियरे ह्वै रहिये।
कह ‘गिरिधर कविराय बात चतुरन के र्ताईं।
करतूती कहि देत, आप कहिये नहिं साईं॥