सुखांत
तुम यही करोगे
अंत में मुझे दंड ख़ुद को पुरस्कार दोगे
किंतु तुम्हारा किया यह अंत सिर्फ़ एक विरामचिन्ह है
दिशासूचक केवल
मील का पत्थर
अनाथ !
इसी मार्ग पर दंड वरदान, पुरस्कार शाप हो जाएगा
तुम जानते हो यह
ऐसा होने से पहले ही किस्से को जिबह कर लोगे
एक वार में गिरेगा सिर ज़मीन पर
एक झपट्टे में चूहा फँसेगा बिल्ली के दाँतों में
ख़ून बिखरने लगेगा तुम्हारे सपनों में !
तब जानोगे किस्सा बलि का बकरा नहीं
देवता है स्वयं !
सपनों में फैलता ख़ून
किस्सा
बिल्ली के दाँतों में चूहा
लेखन इसके सिवा और क्या!
(शेक्सपियर इन लव से प्रेरित)
उम्मीद ला-दवा
कवि होने से थक गया हूँ
होने की इस अजब आदत से थक गया हूँ
कवि होने की क़ीमत है हर चीज़ से बड़ी है वो कविता
जिसमें लिखते हैं हम उसे
लिखकर सब कुछ से बिछड़ने से थक गया हूँ
अपना मरना बार-बार लिखकर मरने तक से बिछड़ गया हूँ
हमारे बाद भी रहती है कविता
इस भुतहा उम्मीद से थक गया हूँ ।
जनाब नंदकिशोर आचार्य और जनाब अशोक वाजपेयी की एक-एक कविता के नाम जिनसे अपनी गुस्ताख़ नाइत्तेफ़ाकी और इश्क़ के चलते यह कविता मुमकिन हुई है
क्या-क्या होना बचा रहेगा
आप शायद जानते हों कि मैं आपके सामने वाले घर में रहती हूँ । आपने अक्सर हमें झगड़ते हुए सुना होगा । हमें आपके घर की शांति इतनी जानलेवा लगती है कि हम झगड़ने लगते हैं । सच मानिये हमारे झगडे की और कोई वज़ह नहीं होती । आपके सिवा झगड़ते हुए हम मुस्कुरा रहे होते हैं । हम अटकल करते हैं कि आप लोग हमारे घर से आ रहे शोर को ध्यान से सुनने की कोशिश कर रहे हैं । मैं कहती हूँ तुम बदल गए हो, वह कहता है तुम बदल गई हो । हम एक दूसरे के कुनबे और कबीले और तहज़ीब और मज़हब को भला-बुरा कहते हैं । बिलकुल ख़राब बातें करते हैं एक दूसरे के बारे में । मैं रोने लगती हूँ वो चीज़ें फेंकने लगता है । एक बार तो उसने मोबाइल दीवार से दे मारा और मैं उस पर ज़ोर से चिल्ला पडी । अगले दिन मैंने भी अपना मोबाइल दीवार पे दे मारा । आपके घर की शांति के चक्कर में अपना नुकसान कर बैठे पर आप लोग हैं कि कभी इधर झाँकते भी नहीं । एक बात साफ़-साफ़ सुन लीजिए रहिए मगन अपने में । आप जैसे लोगों के कारण ही ये दुनिया अब बहुत दिन नहीं बचने वाली ।
फ़ैज़ ?
पौधे खरीद रही है । मैं बहुत जले-कटे ढंग से याद दिला रहा हूँ, कैसे उसे उनकी देखभाल करनी नहीं आती, कैसे हर बार पाँच- सात दिन बाद पानी देना भूल जाती हो, कैसे हर बार एक पेड़, एक फूल तुम्हारे हाथों तबाह हो जाता है, कैसे यह तबाही तुम्हें उज़ाड देती है, कैसे यह क़त्ल तुम्हें बहुत दिनों तक गुमसुम रखता है ।
लाहौल विला फिर भी ढेर सारे खरीद ही लेती है कमबख़्त । मैं एक पौधा हाथ में ले कर कहता हूँ चलो प्यारे सू-ए-दार चलें वह कुछ जोर देकर याद करती है– फ़ैज़ ?.
पक्षीविदों का कहना है
पक्षीविदों का कहना है यहाँ चौवन तरह के परिंदों ने अपना घर बसा लिया है । सब बड़े मज़े से रहते हैं कबूतरों को घास पर सोते हुए सिर्फ यहीं देखा है मैंने ।
कल सुबह इतनी मधुमक्खियाँ मरी हुई थीं । पाँव बचाकर अंदर पहुँचते हुए लगा संहार के किसी दृश्य में हैं मारे गए लोग पड़े हैं चारों तरफ़
उधर पक्षी सब अपने में मगन थे ।
मतीरे
ऊँट की निगाह में राहगीर रेत का पुतला है । रेगिस्तान के ख़याल में ऊँट पानी का पैकर है –- बस की खिड़की से बाहर देखते हुए अक़्सर ऐसी बातें बुदबुदाने वाली श्रीमती अंजू व्यास जो चार बरस से हर सुबह सात बजे की बस से उतरकर आती थीं स्कूल और साढ़े बारह की बस पकड़कर जाती थीं शहर, अपने घर आज सुबह ऐसे उठीं कि घर को बस समझकर उसी में बैठ गयीं और एक घंटे बाद जब उतरीं स्कूल बंद हो चुका था -– उनकी क्लास के बच्चे वहाँ मतीरे बेच रहे थे मतीरे के मन में बच्चे खेत के बिजूके हैं श्रीमती अंजू व्यास ने सोचा ।
बच्चों से पता चला बाद में, यही वो आख़िरी ख़याल था जो उनके मन में आया । मतीरे तो ख़ैर वो कभी खरीदती ही नहीं थीं ।
घर-गिरस्ती
आइए, आपका सबसे तआरूफ़ करा दूँ । ये हमारी चप्पले हैं । इन्होंने चुपचाप चलते रहने के ज़दीद तौर-तरीकों पर नायाब तज़ुर्बे किए हैं । इनसे आप शायद पहले भी मिले हैं । ये हैं हमारी शर्ट सालों-साल जीने का नुस्ख़ा इनकी जेब में ही पड़ा रहता है, गो दिखातीं किसी को नहीं । ये बैल्ट हैं, हर लम्हा जिसके चमड़े से बनी हैं, उस क़ाफ़िर की आत्मा की शांति के लिये दुआ करती रहती हैं । और ये हमारा चश्मा साफ़ देखने की इनकी इतनी तरक़ीबें नाकाम हो चुकी कि सिवा ग़फ़्लत अब कुछ नज़र ही नहीं आता इन्हें -– यही अपनी घर-गिरस्ती है
इसे देखकर आपको चाहे कोई वीराना याद आए । हमें तो कुछ सहमी कुछ संगीन अपनी ही याद आती है ।
रिल्के पर एक बढ़त
और ठीक इसी छवि में मैंने तुम्हे पाया है सदैव–आईने के भीतर,
बहुत भीतर जहाँ तुम स्वयं को रखती हो–इस संसार से दूर, बहुत दूर
फ़िर क्यूँ आई हो ऐसे अपने आप को मिथ्या करते हुए,
फ़िर क्यूँ मुझे विश्वास दिलाना चाहती हो कि
जो पंख तुमने पहने थे अपनी आत्मछवि में उनमें वो थकान थी
जो नहीं हो सकती अपने आईने के शांत, मंद्र आकाश में ?
फ़िर क्यूं ऐसे खड़ी हो कि अपशकुन मंडराता दिखे मुझे तुम्हारे सिर पे,
फ़िर क्यूं अपनी आत्मा के अक्षरों को ऐसे पढ़ रही हो जैसे कोई पढ़ रहा हो हाथ की रेखाओं को
यूँ कि मैं भी न पढ़ पाऊँ उन्हें तुम्हारी नियति के सिवा किसी और तरह से ?
और इससे भयभीत न रहो कि मैं अब समझता हूँ इसे–तुम्हारी नियति को,
यह मुझमें व्याप रही है; कोशिश कर रहा हूँ इसे जकड़ने की,
मुझे जकड़ना ही होगा इसे चाहे मैं मर जाऊं अपने ही पाश में,
जैसे कोई नेत्रहीन महसूस करता है वस्तुओं को वैसे महसूस करता हूँ तुम्हारी नियति,
भले इसे कोई नाम नहीं दे पा रहा मैं
आओ विलाप करें इसका कि किसी ने खींच लिया है तुम्हे तुम्हारे आईने की गहराइयों से,
बाहर आओ विलाप करें एक साथ ….एक साथ…पर क्या तुम रो सकती हो अब भी?
नहीं मैं देख सकता हूँ–तुम नहीं रो सकती, अब तुमने अपने आँसुओं के सत को बदल लिया है
इस उदास, घूरती , भरी पूरी नज़र में; नहीं, तुम नहीं रो सकती अब
आओ विलाप करें–एक साथ, मिल कर
क्या तुम जानती हो कैसे अनमने ढंग से, अनिच्छा से लौटा तुम्हारा रक्त तुम्हारे भीतर
अपने अतुल प्रवाह से बिछडकर जब तुमने पुकारा उसे लौटने के लिए?
कितना शंकित था वह–तुम्हारा रक्त–फ़िर से संकरे गलियारों में लौटते हुए,
कैसी हैरानी, कैसे अविश्वास से लौटता हुआ भीतर, अपने घर और वहीं पूरा हो गया
पर तुमने धकेला उसे फ़िर से आगे की तरफ़, घसीटा उसे–अपने रक्त को, वेदी की ओर
जैसे घसीटता कोई कातर पशु को बलि के लिए
यही चाहती थी तुम तुम्हे खुशी चाहिए थी–किसी भी तरह, यह सब करके भी
और अंततः तुमने उसे बाध्य कर ही लिया–अपने रक्त को, और वह भी प्रसन्न हो गया,
दौड़ने लगा और समर्पण कर दिया तुम्हारे सम्मुख
मैंने २००५ की गर्मियों में, ‘उन गर्मियों में’ इसे लिखा था। अंशतः यह अनुवाद है, अंशतः प्रेरणा,
अंशतः सह अनुभूति की उस कविता के साथ जिस पर यह आलम्बित है।
टूटी हुई बिखरी हुई पढ़ाते हुए
एक प्रतिनियुक्ति विशेषज्ञ की हैसियत से
(मानो उनके कवियों का कवि जाने को चरितार्थ करते हुए)
लगभग तीस देहाती लड़कियों के सम्मुख
होते ही लगा शमशेर जितना अजनबी कोई और नहीं मेरे लिए
मैंने कहा कि उनकी कविता का देशकाल एक बच्चे का मन है
कि उनके मन का क्षेत्रफल पूरी सृष्टि के क्षेत्रफल जितना है
कि उनकी कविता का खयालखाना है जिसके बाहर खड़े
वे उसे ऐसे देख रहे हैं जैसे यह देखना भी एक खयाल हो
कि वे उम्मीद के अज़ाब को ऐसे लिखते हैं कि अज़ाब खुद उम्मीद हो जाता है
कि उनके यहां पांच वस्तुओं की एक संज्ञा है और पांच संज्ञाएं एक ही वस्तु के लिए हैं
अपने सारे कहे से शर्मिन्दा
इन उक्तियों की गर्द से बने पर्दे के पीछे
कहीं लड़खड़ाकर गायब होते हुए मैंने पूछा
जब आपको कविता समझने में कोई परेशानी तो नहीं ?
उनक जवाब मुझे कहीं बहुत दूर से आता हुआ सुनाई दिया
जब मैं जैसे तैसे कक्षा से बाहर आ चुका था और शमशेर से और दूर हो चुका था।
(प्रथम प्रकाशनः वागर्थ,भारतीय भाषा परिषद,कोलकाता)
यूँ मैंने झूठ कहना शुरू किया
यूँ मैंने झूठ कहना शुरू किया
दिसम्बर की एक सुबह
तुमने कोहरे में आकाश की ओर उछाल भरी
और मेरे सितारे गर्दिश में आने की शुरुआत हुई
उसी दिन बहुत देर तक फायरिंग की आवाज़ की तरह सुनाई दी थी संसार की आवाज़
मैं छत पर ऐसे बैठा था जैसे तहखाने में फँसे-फँसे कई बैठे हों
कोहरे में छलावे-सी उस उछाल में
तुम्हारे हाथ किसी और के हो गए
पांव इतने ऊँचे खो गए कि तीन साल बाद मेरी छाती पर गिरे
चेहरा एक लपट जिसमें उसी के नक्श भस्म हो गए
और शरीर कोई हिरण जिसके पीछे भटकते
मैं कुँए में कूद कर प्यासा मरा
उसी दिन गिनने की कोशिश की थी
एक दिन में कितने विमान गुजरते हैं घर के ऊपर से
तो दिसम्बर की उस सुबह
तुमने कोहरे में ऐसे छलांग भरी मानो
पृथ्वी पर रहते हुए ऊब गई हो
उसी शाम फटा था एक बम जिसके छर्रे अशोक भाई को न लगे होते तो भी वे
फ़ोन पर उतना ही फूट-फूट कर रोए होते उन्हें यकीन था किसी विमान से गिरा
था वो कोई रख कर नहीं गया था उसे
यूँ मैंने झूठ कहना शुरू किया
सुंदर भी वैसे ही नष्ट करता है
शिराओं पे तीखी धार जगाती है ख़ून में उन्माद आँखें मूंदता हूँ
और अब यह मेरे मरने के बाद की पृथ्वी है
उतनी ही सुंदर उतनी ही असुंदर
यह मेरे न रहने के बाद होती हुई बारिश है
उतना ही खिलाती हुई उतना ही ढहाती हुई
यह मेरे न रहने के बाद मरती हुई दुनिया है
उतनी ही सम्मोहक उतनी ही अवसन्न
ख़ून धार से मिलने को ऐसे उद्धत जैसे मैं तुमसे
आँखें खोलता हूँ पर वे नहीं खुलतीं
सुंदर भी वैसे ही नष्ट करता है जैसे कि वह जो नहीं है सुंदर
कोलम्बस
बाबला के लिए
अगर ऐसा हुआ होता कि किसी और के साथ बिताना होता यह जीवन जैसा कि तकरीबन हो ही गया था तो कैसा होता वह जीवन उसकी कल्पना कर पाना अब तुमसे इतना घिरा होकर नामुमकिन सा है हो सकता है तब मैं वह जीवन जीते हुए जो अभी है उसकी कल्पना भी इसी तरह नहीं कर पाती जो है उसे हमेशा जो नहीं है से बदतर या बेहतर समझने की आसान कैफ़ियत के अलावा भी कोई चीज़ है तुम्हारे गुजारिश में फैले हाथों के संदेसे की तरह जिसे कितना साफ़ पढ़ लिया था मैंने उस अनजान उजाड़ पार्क में अगर वैसा ही हुआ होता जीवन जैसा कि तकरीबन हो ही गया था तो यह बच्चा तो किसी को नहीं दिखाई दिया होता जो मैं हूँ मिष्टू तू मेरा कोलम्बस है
सोने से पहले अंधेरे में बातें कर रहे थे हम कुछ चकित कुछ नम मैं सुन रहा था कि जैसे ही उसने कहा कोलम्बस मुझे दिखाई दिया गफ़लत में कुछ और खोज लेने वाले एक जहाज़ी लुटेरे का चेहरा एक काला जहाज़ जैसा कुछ फ़िल्मों में देखा है और लुटेरे के चेहरे पर सख़्त परदेसी बेचैनी
अपनी कल्पना की सिहरन में मैंने अंधेरे में देखा उसका दीदा-ए-तर और मेरे पेट को टटोलता उसका हाथ बचपन से ऐसे ही पेट पकड़ कर सोती आई है वह कोलम्बस वह नहीं था जो मैंने देखा कोलम्बस तो अट्ठाईस बरस की एक लड़की में उस बच्चे को खोज लेने वाला था जो कि वह थी
मुझे अपनी कल्पना का कुछ करना पड़ेगा
लिखने वाले की गलती से
जीवन को जिस कहानी की तरह सुनाया गया है उसमें दुख के दो उभार हैं जो उस कहानी को लिखना शुरू करते ही कहीं और खिसक जाते हैं
जैसे रेतघड़ी में बंद रेत की छोटी-सी ढेरी दूसरे हिस्से को इस तरह भरने लगे कि जो छोटी-सी ढेरी रात थी वही अब सुबह की तरह बिखरी है
और जो कण नींद लेने के समय से गिरती बूंद था वही अब जागने के समय से उलझती वह नदी है जिसके किनारे होना चाहिए था वह घर जो
अब लिखने वाले की गलती से गंगा किनारे है जहाँ लहरों ने तट पर ला पटका है तुम्हारा शव और तुम्हें यह गवाही देनी है कि तुम अपने शव
को नहीं पहचानते
तैयारी
आसमान ने पूरी कर ली थी
बरसने की तैयारी
धरती ने पूरा खिलने की
देह ने पूरी कर ली थी
तैयारी उड़ने की
आत्मा ने मुक्ति की पूरी
तभी गोली लगी आँख में
जिसमें नहीं थी पूरी
उजड़ने की तैयारी
पैर छूना
हर बात झूठ लग रही थी अपने रेगिस्तानी शहर से डेढ़ दो हजार किलोमीटर सुदूर दक्षिण में उसी शाम उसे देखने एक लड़का एक होटेल में आएगा माँ बाप ने तय किया है फ़ोन पर बात भी कराई गई सब फ़र्जी मेरा दिमाग़ तो एक टूर इंचार्ज अध्यापक की तरह काम कर ही रहा था मेरी क्लास में छह महीने का बहीखाता भी हक में नहीं था उसके कि तभी अचानक एक उपन्यासकार जैसा जोख़िम उठाते हुए कहा जाओ दो घंटे में लौट आना वर्ना अध्यापक ने फ़र्ज़ अदायगी की वह अपने कमरे में गई थैंक्स बोलते हुए मैं उपन्यासकार से झगड़ता हुआ वहीं खड़ा रह गया दसेक मिनट में वह कमरे से निकली तैयार जींस छोटा-सा टॉप अभिसारिका मेरा नायिका भेद बोला बेहद अटपटेपन से उसे देख रहा था कि वह पास आई और सीधे मेरे पैर छू लिये बिना किसी नाटक के फिर से थैंक्स और चली गई
अपने को सबसे बेहतर समझने वाला उसका उद्दंड आत्मविश्वास छह महीने में कई बार टकरा चुका था मुझसे पैर छूना मास्टर के ठीक नहीं था यह तब जितना साफ़ था मेरे लिए आज भी उतना ही साफ है समय से कुछ पहले ही लौट आई मैंने वह कॉलेज छोड़ दिया उसके अगले साल सितम्बर को एक एस०एम०एस० आया आपके फैसले हमेशा याद रहेंगे मुझे
दूसरी बार और भी अजब हुआ दूर की एक हमउम्र रिश्तेदार सिर्फ़ दूसरी बार मिल रहा था जाते-जाते पैर छू लिए कुछ बहुत बड़ा फैसला लेना है मन पक्का कर लिया है आपका आशीर्वाद चाहिए उसके चार दिन बाद उसने भाग कर अपने चचेरे भाई से शादी कर ली
आज तक समझ नहीं पाया दोनों बार ऐसा क्यूँ हुआ क्यूँ इन दो लड़कियों ने छुए मेरे पैर क्यूँ पूरे नहीं हो सकते थे उनके काम मेरे आशीर्वाद के बिना इसका कहीं इस बात से तो कुछ लेना-देना नहीं कि बहुत क़ायदे से न सही पर दोनों को पता था कुछ राइटर वगैरह हूँ
प्रतिनिधि
पेट में उसके आंते सिकुड़ गई हैं
पेट में उसके एक पुरानी गांठ है
गांठ उसके पेट में कुछ उतनी ही जगह घेरती है जितनी में आराम से सकता है एक बच्चा
और बच्चे इतने काल्पनिक हो गए थे हमारे लिए कि वे हमारा नहीं ऊपर वाले का ख्वाब हो गए थे
और संसार की तरह व्याप गए थे हमरो मौजूद होने की हर अदा पर
जैसे खुद संसार के मौजूद होने की हर अदा पर व्याप गई थी
वह गांठ जिसे वह अत्याचार की ऐंठन की अदा कहना चाहती रही होगी
यह गांठ ही मेरी निधि है उसने कहा
मैंने कहा तुम मेरी प्रतिनिधि हो
(प्रथम प्रकाशनः इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी)
लेडी लिन्लिथगो हॉल
उसे देख कर किसी की याद नहीं आती
कि इस तरह उसकी याद आना शुरू होती है
और वह कुछ भी देखकर आ सकती है
जैसे कि नरसंहार के उस पुराने फोटो तक को देखकर
जो बरसों से एक काफपी का पिछला कवर है
नरसंहार का यह फोटो
बहुत ठीक किसी जगह पर
खड़ा हो कर खींचा गया होगा
मारा गया एक भी आदमी इसके फ्रेम से बाहर नहीं
बरसों पता ही नहीं चला यह नर संहार का फोटो है
सिर्फ एक पिछला कवर नहीं
और इस पर लिख दी गई यह मामूली सूचना:
कल शाम सात बजे लेडी लिन्लिथगो हॉल के सामने
अब मानो किसी को याद नहीं कौन थी या कब आई थी
लेडी लिन्लिथगो इस छोटे शहर में
पर उसे तो याद होगा ही?
वह प्रिंस विजयसिंह मेमोरियल अस्पताल के बिल्कुल पिछवाड़े
टी.बी.के मरीजों का वार्ड!
वे मद्धम रोशनियां!
वह उदास कुछ कुछ मनहूस-सा अंधेरा!
हमारे मिलने की वजह!
हम चाय पी रहे हैं, देखो!
कि इस तरह जब भी खोलता हूं किताब
और पढ़ता हूं वॉयसराय लिन्लिथगो
तब भी और किसी को नहीं उसी की याद आती है
इस पूरी संरचना से बाहर
हमने उन्हें आकाश में ठीक हमारे सिर पर मंडराते देखा था।
जैसे पृथ्वी पर घूमने वाला नेपाली एक महीने में एक बार दस रुपये लेने आता है वैसे ही
ये आकाशीय चौकीदार भी कभी चौकीदारी लेने आयेंगे ऐसा सोचकर अनजाने ही हम
उनकी राह देखने लगेंगे और उनकी राह देखते हुए उन्हीं पक्षियों के हाथों पकड़ लिए जायेंगे
यह हमें मालूम नही था।
जिन्हें हमने ठीक अपने सिर पर मंडराते देखा था वे कोई पैराशूट खोलकर नीचे गिरते हुए
उन्हीं घोसलों से टकरायेंगे ऐसा सोचकर हम हवा में ताबड़तोड़ हो रही फायरिंग के नीचे से
होकर पृथ्वी पर गिर रहे एक रूपक और पृथ्वी के बीच अपनी हथेली ऐसे रख देंगे जैसे सुबह
और शाम के बीच एक दोपहर यह हमें मालूम नहीं था।
प्रेम खुले में बनाया हुआ घोंसला है
मौसम,आकाशीय चौकीदारों,जानवरों,आत्माओं और उल्काओं की मार झेलने के लिए
खुले में तैनात जब इस घोंसले पर आकाश गिरता है पैराशूट पहने या बिना पहने तो
यह धरती पर बिखर जाता है और इसके तिनकों में उलझकर आया आकाश भी यूं
तिनकों की तरह बिखरेगा,रूपक देखते हुए यह हमें मालूम नहीं था।
अगर कहीं आपको वे दिख जाए तो हमारे सिर पर मंडरते हैं तो अब आपकी जेब में दस रुपये तो होंगे न?
इस पूरी संरचना से
बाहर
यहां कहता हूं
मेरा अन्तिम संस्कार आकाश में करना।
(प्रथम प्रकाशनः बहुवचन,महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय,वर्धा)
सारी दुनिया रंगा
जूते न हुई यात्राओं की कामना में चंचल हो उठते थे
हमने उन पर बरसों से पॉलिश नहीं की थी
धरती न हुई बारिशों की प्रतीक्षा में झुलसती थी
हमने उस पर सदियों से रिहाईश नहीं की थी
आग न बनी रोटियों की भावना में राख नहीं होती थी
हमने उसमें जन्मों से शव नहीं जलाये थे
और यह सब बखान है उस शहर का जिसमें एक गायिका का नाम सारी दुनिया रंगा हो सकता था।
(प्रथम प्रकाशनः इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी )
चार सौ विवाह और दो अन्तिम संस्कार
कैसे देखते होंगे दो शव उन चार सौ विवाह उत्सवों को जिनकी रौनक के बीच से
गुजर कर उन्हें शमशान तक पहुंचाना है। कैसे देखती होंगी पान की दुकानें शवों और
दूल्हों को एक दूसरे के पास से होकर गुजरते हुये।
दोराहों,तिराहों,चौराहों की तरह कुछ ऐसी ही जगहें इस नगर में हैं जिनमें दसों दिशाओं से
आकर खुलता और सिमटता है संसार। उनमें से आठ विवाह और दो से अन्तिम संस्कार की यात्राएं
बीचों बीच बने चबूतरे की ओर बढ़ रही हों तो शव और पान की दुकानें ही कोई भी अचानक
फंस सकता है इस खतरनाक प्रश्न की जकड़ में कि वह किस यात्रा में है।
मातम गुनगुना रहे कवियों के बीच कभी उम्मीद और कभी विलाप की तरह सुनाई देती है तुम्हारी आवाज।
मेज इतनी पुरानी थी
मेज इतनी पुरानी थी कि उसका कोई वर्तमान नहीं था
हमारे बच्चे इतने नये थे कि उनका कोई अतीत नहीं था
बच्चों का अतीत हमारे पाप में छुपा था
मेज का वर्तमान किसमें था?
मेज का चौथा पाया तीन पीढ़ियों से गायब है
इससे तीन कथाएं निकलती हैं –
एक में चौथा पाया चिता की लकड़ी बन जाता है
दूसरी में वो अपने किसी जुड़वां को ढूंढने
एक दिन पूजा के समय घर छोड़ देता है
तीसरी में वो हम सब की सबसे पुरानी
तस्वीर का फ्रेम बन जाता है
चौथी में कथा भी तीन पीढ़ियों से गायब है
हममें से अधिकांश नहीं जानते कि वे चौथी कथा के पात्र हैं
चौथा पाया किसी अदृश्य स्क्रीन पर चौथी कथा रच रहा है
शेष तीनों पाये धीरे-धीरे हिल रहे हैं
(प्रथम प्रकाशनः बहुवचन,महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय,वर्धा/ इस कविता के लिये भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार दिया गया)
कोहरा
यहाँ इतना कुहरा देखकर राहत हुई
आख़िर मुझे आदत कहाँ बहुत-से हरे को धूप में चमकता देखने की
पर ऐसे कुहरे की भी आदत कहाँ !
सर्द, सघन
रहस्य नहीं, दर्द जैसा
और सिहरन एक हरियल सीलन के नींद में बैठने की कल्पना से
तीन मिनट का काम पे जाने का समय सात -आठ मिनट का हो गया है
बीस हाथ की दूरी पर कमज़ोर बत्तियां
दो छोटी गाडियाँ हैं कि बस
या तुम्हारी आंखें
ऐसे नशे में भूलती हुई
जो कभी ठीक से हुआ नहीं, पता नहीं
दरख्त मटमैले हो ऐसे हिलते हैं
जैसे पृथ्वी पे नहीं, ख़याल में खड़े हों
इमारतें रास्ते पगडन्डियाँ समूचा नक्शा गायब
कुहरे में चलते हुए बहुत प्राचीन हो जाता है
(प्रथम प्रकाशनः वागर्थ,भारतीय भाषा परिषद,कोलकाता)
मनदीप कौर-1
सामने हवा होती है
और दूर तक फैली पृथ्वी
अपने को पूरा झोंककर मैं दौड़ती हूँ
हवा के ख़िलाफ़
और किसी प्रेत निश्चय से लगाती हूँ छलांग, उसी हवा में
मानो उड़कर इतनी दूर चली जाऊँगी
कि ख़ुद को नज़र नहीं आऊँगी
पर आ गिरती हूँ इसी पृथ्वी पर
इतनी पास मानो यहीं थी हमेशा –
ऎसी ख़फ़गी होती है
अपने आप से
और इस मिट्टी से !
अब तक इतना ही पता चला हैअपने से खफा हुए बिना नहीं हूँ मैं
मुझे नहीं पता ठीक से
पर अपने से दोस्ती करने के लिए
तो नहीं ही लिखती हूँ मैं।
कविता भी एक असफल छलांग है
और मैं खफा हूँ इससे भी
मनदीप कौर-2
इसमे कोई रहस्य नहीं की
इसी रास्ते पर
तुम्हें पुरस्कार मुझे दंड मिल जाएगा
किंतु सावधान!
इसी रास्ते पर
पुरस्कार श्राप दंड वरदान हो जाएगा
यूं कोई संशय नहीं
ऐसा होने से पहले ही
तुम जिबह कर लोगे किस्से को
किंतु फ़िर सावधान!
किस्सा बलि का बकरा नहीं
देवता है स्वयं
और इस त्रासदी में हमारी भूमिका
मसखरों की है
और इसमे कहाँ कोई रहस्य
बिना मसखरों के
अब भी नहीं होती
कोई त्रासदी
मनदीप कौर-3
अपने कवि होने से थक गया हूँ
होने की इस अज़ब आदत से थक गया हूँ
कवि होने की कीमत है
हर चीज़ से बड़ी है वो कविता
जिसमे लिखते है हम उसे
लिख कर सब कुछ से बिछड़ने से डर गया हूँ
अपना मरना बार-बार लिख कर मरने तक से बिछड़ गया हूँ
हमारे बाद भी रहती है कविता
इस भूतहा उम्मीद से थक गया हूँ
बोल लेने के बाद
बोल लेने के बाद
दम साधे इन्तज़ार कर रहा था
कि जिन शब्दों से बनी थी यह आवाज़
जब गिरेंगे वे शब्द पृथ्वी पर
तो कुछ तो आवाज़ होगी
मैं दम साधे ही खड़ा रहा
कोई आवाज़ न हुई
वहम हुआ कुछ देर के लिए हवा में ठहर गए हैं वे
या उन्हीं ने मिलकर बना ली है ख़ामोशी
या साइलेन्सर लगे रिवाल्वर से किसी ने शूट कर दिया है उन्हें
आप ख़ुशकिस्मत हैं
आप ख़ुशकिस्मत हैं कि चीख़ सकेंगे
जब पूरा संसार किसी उलझे हुए उड़नखटोले से लटक कर
किसी और आकाशगंगा में बसने के लिए
फ़रार होने की कोशिश कर रहा होगा
आप वापिस इसी आकाशगंगा की ओर कूदेंगे,
कूदते हुए आपके पास कोई पेराशूट न होगा
पर आपको यह याद होगा कि आप सीधे शून्य में भी गिर सकते हैं
आप दूसरों को देखेंगे और शायद मुस्कुराने की कोशिश भी करेंगे
और हाँ
आपके चेहरे पर होगी सन्तुष्टि कि और कुछ न सही साहस तो है आपके पास
उधर हम मेंसे अधिकांश यूँ बेफ़िक्र होंगे
मानो ये किसी हो चुकी दुर्घटना का दृश्य है
अपना भविष्यफल हमने इतना देख लिया था
कि हमारे पास भविष्य की भी एक स्मृति थी
संगतराश
शायद एक वही सब कुछ पहले से जानता था सब कुछ पहले से तराश रखा था उसने
वह हमेशा वीराने में रहता था और एक दिन अचानक उसके वीराने में जो बहार चली आएगी
उसकी आँखें ग़ज़ब की होंगी जब दूसरे ख़्वाब देख रहे होंगे वह बस अपनी आँखें देखेगी
वो हकीकत ही क्या जिसे मुजुस्तमा न बनाया जा सके वह बहार से कहेगा और बेतहाशा हँसने लगेगा
अभिव्यक्त
नीम का अर्थ पीपल था पीपल का बरगद बरगद का तुलसी इसी तरह कमल का गुलाब गुलाब का बेला
बेला का बोगेनवीलिया पर शुक्र है पेड़ का अर्थ कोई पेड़ फूल का कोई फूल ही था इतना रहता था मैं मनुष्यों
के बीच फिर भी कबीर का अर्थ घनानंद मीरां का अर्थ महादेवी नहीं था मेरी सारी गफ़लत उन के बारे में थी
जो मनुष्य नहीं थे मैं उन दिनों की बात कर रहा हूँ जब मेरा अर्थ तुम हो जातीं अगर मैं अपना अर्थ रह गया
होता मैं उन दिनों की बात कर रहा हूँ जब पेड़ों से झूल रही थीं लाशें हर तरफ और कई दिनों से विनोद कुमार शुक्ल
की कोई कविता नहीं थी जीवन में
बादशाह मैकबैथ
(कवि अरूण कमल के लिये)
क्या हुआ बैंको के बेटे का शेक्सपीयर हमें नहीं बताता – कुछ समझे बादशाह?
उसकी कोई दिलचस्पी नहीं चुड़ैलों के बताये भविष्य में,
तुम्हें कुछ ख़बर भी है कौन बनेगा बादशाह तुम्हारे बाद?
जिस खंज़र ने डरा दिया था तुम्हें उसकी मूठ बर्नम की लकड़ी से तो नहीं बनी थी?
गौर से देखा था तुमने जब हवा में लहरा रहा था वह?
देखो, बादशाह देखो, तुम्हारी त्रासदी मृतक लिख रहे हैं
हिरण चुराने वाला शेक्सपीयर तो उनका लिपिक भर है
दो अर्थ का भय
अपमान बेहद था होने का रक्त के दरिया में दौड़ते घुड़सवार थे किसी और से नहीं
अपने आप से थी शर्मिंदगी हर साँस में हर शब्द का एक अर्थ दुख दूसरा मज़ाक था – जीवन में
कल्पना में पर नहीं था इनमें से कुछ भी
यही मेरा गुनाह कल्पना में सुखी था मैं
मादाम बोवारी से क्षमा
वह मादाम बोवारी का अभिनय कर रही है
बिल्कुल अंतिम दृश्य है विष उसके शरीर में फैल रहा है वह क्षमा मांगती है
यह देखते हुए मैं उसके पति की भूमिका में हूँ
मैं भी उससे क्षमा मांगता हूँ –
क्षमा करो प्रिये, मैं इस कथा से अभी विदा नहीं ले सकता
तुम्हारा अंतिम संस्कार मेरा अंतिम संस्कार नहीं है
मैं तुम्हारा समाधिलेख नहीं हूँ
मैं जीवन का आज्ञाकारी पालतू हूँ
मुझे तुम्हारी याद की ही नहीं कब्र की भी देखभाल करनी है
क्षमा करो, प्रिये, क्षमा
कहानी के फेर में
हिरामन तीन कसमें खाता है
फिर किसी कहानी का सुपात्र नहीं बनूंगा
फिर किसी कहानीकार को अपने बारे में नहीं लिखने दूंगा
फिर किसी कहानी में अपना ही पार्ट नहीं करुंगा –
रेणु थोड़ा उदास हो कर उसे देखते हैं फिर तनिक हँसकर कहते हैं
जा रे ज़माना, तू भी आ गया मेरी कहानी के फेर में!
एकान्त
चाचा ने जब गोदो किया
दुखी रहे थे बहुत दिनों तक कोर्ट मार्शल करते हुए
बहुत उद्विग्न जब किया एवम् इन्द्रजित
तो अपना नाम इन्द्रजित मोहन रख लिया और शायद तीन एकांत करते हुए ही
उन्हें अपना तखल्लुस एकांत मिला था मदन मोहन किराड़ू की जगह
इस तरह वे इन्द्रजित मोहन “एकांत” हो गए थे–
जब उन्होंने छोड़ा
थियेटर बोले जब तक यह समाज तखल्लुसों की मज़ाक उड़ाना नहीं छोड़ेगा
इसे थियेटर क्या कोई भी बदल नहीं पायेगा
आह संगीत
बहुत धीमे से और सबको साफ़ नज़र आ रही घबराहट
के साथ उसने पढ़ना शुरू किया एक ट्रेन के
गुज़रने के बारे में खिड़की के सामने से एक लड़की के
देखने के बारे में उस खिड़की से एक ग्रे टी शर्ट के
उस लड़की को पहन लेने के बारे में एक पुरुष के
उस ग्रे टी शर्ट को एक दूसरे शहर में खरीदने के बारे में उस पुरुष के
हाथों से हुए चाकू के एक वार के बारे में उस चाकू के
एक तीसरे शहर में कई बार चलने के बारे में उस तीसरे शहर में
अपने होने के बारे में उस अपने होने की
निशानदेही के तौर पर हमारे होने के बारे में
हमारी तरफ और बढ़ी हुई घबराहट से देखते
हुए उसने पानी पिया और फिर से पढ़ना शुरू किया मैं तुम्हें
प्रेम कर सकता यदि मैं कोई और होता मुझे बहुत सारे
फेरबदल तब करने होते ट्रेन गुज़रने की बात गलत थी खिड़की में
तुम्हारे खड़े होने की बात की तरह चाकू
दूसरे तीसरे नहीं इसी शहर में चला था
मेरे हाथों से उस पूरे नज़ारे को बहुत धीमे से होता हुआ
देखा था मैंने तेज संगीत की तरह काटता हुआ
चाकू आह संगीत हरकहीं हरवक्त बजता हुआ बेमतलब उसे बयान
में होना होता बहुत सारे फेरबदल तब होने होते
तुम्हारे लिए कोई टी शर्ट खुद ही खरीदना होती तब शायद ग्रे ही….
इसी तरह होगा
इसी तरह होगा से शुरू या खत्म होने वाले
दस वाक्य हम इतने हुनर से लिख सकते थे कि हमने तय पाया
हमारे साथ कुछ नहीं या सब कुछ इसी तरह होगा
हमने अक्सर एक दूसरे पर हर शै पत्थर की तरह
फेंकी थी और ऊपर आकाश में जो कोई बैठे रहते थे
उनको हवा में लटका देख कर हम हर शै फूल की तरह
उनकी तस्वीर के चौखटे के कदमों में रख देते थे
मृतकों का ऐसा आदर हमारे खून में था
इसी तरह होगा से शुरू या खत्म होने वाले हमार वाक्य
हमें इतने मन से याद थे कि उन्हें भविष्यदृष्टाओं की तरह
दोहरा कर खुद पर खूब प्रसन्न होते रहेत थे
एक दूसरे के पैरों की आदत करवाने के लिए हम एक दूसरे को जूते चुराने देते थे
और यह देखकर हमारे जूते हमें ऐसे देखते थे मानो पूछ रहे हों
आखिर कब तक होता रहेगा यही सब
जूतों का ऐसा निरादर हमारे खून में था
मातृभाषा-मृतभाषा
राजस्थानी कवि और मित्र नीरज दइया के लिए
वह कुछ इतने सरल मन से, लेकिन थोड़ा शर्मसार खुद पर हंसते हुए यह बात
बोल गया कि यकीन नहीं हुआ यह सचमुच प्रेम में होने वाली भूल जैसी कोई बात है
उसे कविता उसके जीसा सौंप गये थे या शायद कविता को उसे जीसा जिन्होंने
कभी कोटगेट पर कोई कविता नहीं लिखी पर आपनी एक कविता में जीसा का
श्राद्ध करते हुए उसने एक पत्तल कोटगेट के लिए भी निकाली थी और मुझे तो
उसे देखते ही उसके उन्हीं जीसा की भावना होती थी कभी देखा नहीं जिन्हें मैंने
हाँ सिर्फ प्रेम में ही ऐसा हो सकता है मैंने देखा मेरे सामने चार भाषाओं के नाम
लिखे हैं और उनमें एक मेरी भाषा भी है हाँ यह प्रेम ही था मृत को मातृ पढ़ा मैंने
और चाहे कोई गवाह नहीं था किसी ने नहीं देखा पर अपनी भाषा को मृत कहा
मैंने यकीन मानो यह सिर्फ़ प्रेम के कारण हुआ वह भाषा जो जीसा सौंप गये थे मुझे
उसे मृत लिखा मैंने
यह उसके कहे हुए का अनुवाद है
मैं कविता ‘उसकी’ मातृभाषा में नहीं लिखता
यह जानता है वो
अनुवाद में जीसा को जीसा ही लिखना कहा उसने
पर्यटन
(अल्लाह जिलाई बाई के नाम, माफ़ी के साथ)
अब यह स्वांग ही करना होगा, अच्छे मेज़बान होने का
– अलंकारों के मारे और क्या कर पायेंगे –
तुम्हारे जीवन में एक वाक्य ढूँढ रहे हैं दीवाने
उद्धरण के लिए हत्या भी कर सकते हैं, इन्हें मीठी छाछ पिलाओ
बिस्तरा लगाओ
कोई धुन बजाओ
राम राम करके सुबह लाओ
ठीक से उठना सुबह खाट से
घर तक आ गई है खेत की बरबादी
ऊपर के कमरे में चल रहा
सतरह लड़कों दो लड़कियों का फोकटिया इस्कूल
अऊत मास्टर के अऊत चेले
अऊत क्लास में हर स्लेट पे
” पधारो म्हारे देस ”
एक मशहूर किताब की पच्चीसवीं सालगिरह पर
अरसा हुआ कोई किताब पढ़े
अरसा हुआ कुछ लिखे
अब समझ आया है
पूरे चालीस बरस लिखने के बाद
हर चीज़ को लिखे की नज़र से देखता रहा
हर लिखे के पीछे कई किताबें हैं जो दूसरों ने लिखी
अपनी आँख न होने का पता नहीं चला उम्र भर
खुशफ़हमी की इंतिहा एक यह भी
नहीं मालूम जो मशहूर किस्सा लिखा अन्याय का सचमुच कहीं हुआ था
उसके जैसे बहुत हुए साबित कर सकता हूँ
लेकिन ठीक वही हुआ था –
याद तक में साफ़ नहीं
हुआ तो सिर्फ लेखन हुआ मृतक बोलते रहे मेरी आवाज़ में
अब यकीन मुश्किल है अपने आवेग अपनी कामना से ही छूता था तुम्हें उन्नीसवीं शताब्दी के किसी उपन्यास के एक बेहया दिलफेंक की तरह नहीं
मरने को अपना मरना होने देने के लिए लिखना है
एक बार अपनी किताब में अपनी विधि मर सका तो फ़र्क़ नहीं पड़ेगा आप
कैसे मारेंगे उपेक्षा से गोली से या अपमान से
रमईयावस्तावईया
कहाँ रहते हो भाई कभी हमारी ख़बर भी ले लिया करो अब तुमसे कोई शिकायत नहीं रही
हमें आरी से चीर देने वाले दुख में महज एक उजली सूक्ति एक गूढ़-मूढ़ सत्य देखने की और उसे हमारे दुख के नहीं अपनी गूढ़-मूढ़ नज़र के सदके करने की तुम्हारी उस बेरहम अदा को भी अपनी याद में निर्मल कर लिया है
जितने की तुम किताबें खरीदते हो उतने का अन्न मयस्सर नहीं
क्या खा के लड़ेंगे तुमसे हम
आईने के अजायबघर में रहते रहते
जब सब गूढ़-मूढ़ छू मंतर हो जाये
अपनी याद आरी बन जाये
सीधे इस गली चले आना भाई
यहाँ बच्चों के शव एक नक्शा खींचते है
दिल के चारों ओर
वतन का
लगातार ख़ाक गिरती है बदन पर
हमारी कब्रें और रूहें तक महफ़ूज नहीं
आईनादारी का एक तमाशा इधर भी है
नींद का एक टुकड़ा इधर भी है
एक मुट्ठी सही अन्न इधर भी है
चुल्लू भर सही पानी इधर भी है
अपनी याद जब आरी बन जाये
सीधे इस गली चले आना भाई
खुशहाली का मैला सही
सपना इधर भी है