वह औरत
वह औरत बच्चों के साथ
खेलती रही धूप में
धूप सरकती रही
आंगन से बाहर पेड़ों की चोटियों पर!
फिर क्षितिज पर चमकने वाले
एक गोलाकार संसार में समा गई।
बच्चे आंगन के कोने में
औरत अपने और धुएँ के बीच
शोर करने वाले बरतनों की आवाज़ के आसपास
ठीक वहीं-
जहाँ अंधेरा एक बगलगीर चोर की तरह
आकर बैठ जाया करता था
काम से वापस आया आदमी
खिड़कियों में छिपी रोशनी-सा
धीरे-धीरे उपस्थित होता है
ख़त्म हो जाते खेल के अवशेष
उसकी दृष्टि से टकराते हैं।
उंगलियों को बच्चे
और छाती पर खुला हुआ बटन
भीगी नज़रों को उलझा लेता है
मगर वह चुप है
सिर्फ़ चुप…।
उंगलियाँ खींचती तो हैं
मगर चटखाती नहीं।
धुआँ अंगीठी से बाहर फैलता
भीतर जमी हुई घुटन से मिलकर
तेज़ाब की तरह नसों को काटता हुआ
उसी तरफ़ दौड़ता है
जिस तरफ़ सरकती रही, दिन की धूप।
लेकिन बच्चे खेल नहीं रहे
वे अपनी समझ से
काम से वापस आए पिता की चुप्पी
माँ के गर्म होते चेहरे पर छाई बेबस मुस्कराहट-
चारों तरफ़ फैले धुएँ का
सम्बन्ध जानने को बेचैन हैं।
और पिता
शोर के बावजूद सुनसान होते रास्ते पर
आसमान का दबाव महसूसते अंदर आ जाता है।
सोचता है
कहाँ से लाएगा वह कल
धूप मे खेलते बच्चों की हँसी
कैसे सुनाएगा वह हारती हुई लड़ाई की कहानी?
और क्या कहेगा उस औरत से
जो दिन की धूप में अपनी हथेली
सिर्फ़ इसलिए गरम करती है
कि शाम को अंगीठी का ठंडापन झेल सके।
हँस सके उसके सामने
और कह सके
धुएँ को धूप में बदलना है।
कल फिर बच्चों के साथ खेलना है।