धूप
घाटियों में रितु सुखाने लगी है
मेघ धोए वस्त्र अनगिन रंग के
आ गए दिन, धूप के सत्संग के
पर्वतों पर छन्द फिर बिखरा दिए हैं
लौटकर जाती घटाओं ने ।
पेड़, फिर पढ़ने लगे हैं, धूप के अख़़बार
फुरसत से दिशाओं में
निकल फूलों के नशीले बार से
लड़खड़ाती है हवा
पाँव दो पड़ते नहीं हैं ढंग से ।
आ गए दिन, धूप के सत्संग के
बँध न पाई निर्झरों की बाँह, उफनाई नदी
तटों से मुँह जोड़ बतियाने लगी है ।
निकल कर जंगल की भुजाओं से, एक आदिम गंध
आँगन की तरफ आने लगी है ।
आँख में आकाश के चुभने लगे हैं
दृश्य शीतल नेह देह प्रसंग के ।
आ गए दिन, धूप के सत्संग के
आओ, घर लौट चलें
और नहीं, भीड़ भरा यह सूनापन
आओ, घर लौट चलें, ओ मन !
आमों में डोलने लगी होगी गँध
अरहर के आस-पास ही होंगे छँद
टेसू के दरवाज़े होगा यौवन !
सरसों के पास ही खड़ी होगी
मेड़ों पर, अलसाती हुई बातचीत
बँसवट में, घूमने लगे होंगे गीत
महुओं ने घेर लिया होगा, आँगन !
खेतों में तैरने लगे होंगे दृश्य
गेहूँ के घर ही होगा अब भविष्य
अँगड़ाता होगा खलिहान में सृजन !
आओ घर लौट चलें, ओ मन !
बँटने लगे धूल के परचे
फिर बज उठे हवा के नूपुर
फूलों के, भौरों के चर्चे
खुले आम, आँगन-गलियारों
बँटने लगे धूल के पर्चे !
जाने क्या, कह दिया दरद ने
रह-रह लगे, बाँस वन बजने
पीले पड़े फ़सल के चेहरे
वृक्ष धरा पर लगे उतरने
पुरवा, लगी तोड़ने तन को
धारहीन पछुआ के बरछे !
बैर भँजाने हमसे, तुमसे
मन हारेगा फिर मौसम से
निपटे नहीं हिसाब पुराने
तन, रस, रूप, अधर, संयम से
फूलों से बच भी जाएँ तो
गँधों के तेवर हैं तिरछे !